हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण
आदिकाल की परिभाषा, आदिकाल किसे कहते हैं?
हिंदी साहित्य के प्रारंभिक अवस्था को आदिकाल नाम आचार्य हजारी प्रसाद द्वारा दिया गया है। यह नाम इसमें सर्वाधिक उचित है क्योंकि इस नाम से हिंदी साहित्य की जो परंपरा पूर्व से चली आ रही थी वह बाधित न होकर निर्बाध रूप से चली आ रही है। इस काल में हिंदी शैशवस्था में थी लेकिन इससे पूर्व संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, अवहट्ट तथा पुरानी हिंदी के साहित्यिक रूप में हिंदी साहित्य की परंपरा चली आ रही थी। कालांतर में हिंदी साहित्य के प्रवृत्तियों एवं शैलियों के जितने भी विकसित रूप हमें देखने को मिलते हैं सबके बीज आदिकाल में ही रख दिए गए थे। और हिंदी साहित्य के इस काल को 8वीं शताब्दी से 14वीं शताब्दी के मध्य तक ‘आदिकाल’ कहा गया है।
हिंदी साहित्य में आदिकाल के नामकरण को लेकर विद्वानों में काफी मतभिन्नता देखने को मिलता है। हिंदी साहित्य के प्रारंभिक अवस्था को लेकर अनेक समस्याएं सामने आई। जैसे- हिंदी साहित्य का प्रारंभ कब से माना जाए। हिंदी साहित्य की रचना की भाषा किसे मानी जाए क्योंकि हिंदी साहित्य से पूर्व अपभ्रंश भाषा में साहित्य की रचना हो रही थी। इस समय हिंदी अपने शैशवकाल में थी। हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल में किस भाषा को शुरुआती भाषा मानी जाए इसकी भी समस्या थी कि उस भाषा को अपभ्रंश, अवहट्ट या पुरानी हिंदी मानी जाए।
काल निर्धारण के विषय पर भी अनेक समस्याएं सामने आती है कि किस तिथि को हिंदी साहित्य का शुरुआत मानी जाए? इसके साथ-साथ यह भी प्रश्न सामने आता है कि हिंदी साहित्य की प्रथम रचना कौन है? एवं पहले कवि कौन हैं? अगर हिंदी साहित्य का प्रारंभ 8वीं सदी से की जाए तो कई विद्वान स्वयंभू को प्रथम कवि मानते हैं और यदि 10वीं सदी को प्रारंभ माना जाए तो सिद्ध कवि सरहपा को प्रथम कवि मानते हैं।
इस तरह से हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल हो या भाषा हो या पहली रचना हो या पहले कवि हो, हर एक विषय पर काफी जटिल समस्या देखने को मिलती है। साथ ही साथ इससे भी बड़ी समस्या जब हम हिंदी साहित्य के प्रारंभिक अवस्था के नामकरण की बात करते हैं तो विद्वानों में सबसे अधिक मत भिन्नता देखने को मिलती है।
इस विषय को लेकर विद्वानों, शोधकर्ताओं एवं आलोचकों में काफी मतभेद रहा है। सभी अपने अपने तर्क देकर अपने पक्ष को मजबूत करने की भरपूर कोशिश की है। तो हम हिंदी साहित्य के प्रारंभिक अवस्था के नामकरण के बारे में विस्तार से जानेंगे-
आदिकाल का काल विभाजन और नामकरण
हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रारंभिक काल का नामकरण विद्वानों ने इस तरह से दिया है:-
- डॉ अब्राहम ग्रियर्सन – चारण काल (700 – 1300ईस्वी)
- मिश्रबंधु – आरंभिक काल
- पूर्वारंभिक काल (700 वि सं – 1300 वि सं)
- उत्तरांभिक काल (13 वि सं – 1444 वि सं)
- आचार्य रामचंद्र शुक्ल – वीरगाथा काल (1050 वि सं – 1375 वि सं)
- महावीर प्रसाद द्विवेदी – बीजवपन काल
- पंडित राहुल सांकृत्यायन – सिद्ध सामंत युग
- विश्वनाथ प्रसाद मिश्र – वीर काल
- हजारी प्रसाद द्विवेदी – आदिकाल (1000 ईस्वी – 1400 ईस्वी)
- रामकुमार वर्मा – चारण काल
- संधिकाल (सवंत् 700 – 1000 विक्रमी तक)
- चारणकाल (सवंत् 1000 – 1375 विक्रमी तक)
- गणपति चंद्रगुप्त – प्रारंभिक काल / शून्यकाल
- डॉ धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंश काल
- पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल
- रामखिलावन पांडे – संक्रमण काल
- डॉ हरीश चंद्र वर्मा – संकमण काल
- मोहन अवस्थी सुमनराजे – आधार काल
- वासुदेव सिंह – उद्भव काल
- शैलेश जैदी – आविर्भाव काल
- बच्चन सिंह – अपभ्रंश काल
डॉ अब्राहम ग्रियर्सन
सर्वप्रथम फ्रेंच लेखक गार्सा द तासी ने हिंदी साहित्य इतिहास लेखन की परंपरा में पहला प्रयास किया। इन्होंने अपनी रचना- “इस्त्वार द ला लितरेत्युर ऐनदुई ऐन्दुस्तानी” (फ्रेंच भाषा में) लिखा। इसे हिंदी साहित्य परंपरा का प्रथम इतिहास ग्रंथ माना जाता है। लेकिन इनके हिंदी साहित्य में काल विभाजन और नामकरण का कोई जिक्र नहीं मिलता है।
इसके बाद दूसरा प्रयास शिव सिंह सिंगर का है इन्होंने अपनी रचना “शिवसिंह सरोज” में 1000 कवियों का जीवन चरित एवं उनके कविता के उदाहरण दियाहै लेकिन इसमें भी हिंदी साहित्य के काल विभाजन और नामकरण का कोई जिक्र नहीं किया गया है।
इसके बाद तीसरा नाम हिंदी साहित्य इतिहास लेखन में जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन का आता है। इन्होंने ही सर्वप्रथम हिंदी साहित्य इतिहास लेखन में हिंदी को एक क्रमबद्धता या व्यवस्थित रूप देने का प्रयास किया। इनकी रचना का नाम है- “द मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान”। इसमें इन्होंने कवियों एवं लेखकों का काल क्रमानुसार विवरण किया है। इन्होंने अपनी इस रचना में हिंदी साहित्य के इतिहास के प्रथम काल को ‘चारण काल’ नाम दिया है। इन्होंने चारण काल को 700 ईस्वी से 1300 ईस्वी तक माना है। लेकिन इस नाम के पक्ष में वे कोई ठोस तर्क नहीं दे पाए हैं।
ग्रियर्सन ने हिंदी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ 700 से मानी है,किंतु उस समय की किसी चारण रचना या प्रवृत्ति का उल्लेख नहीं किया है। क्योंकि इस समय के उपलब्ध हिंदी साहित्य में हमें कहीं भी चारणों द्वारा रचित साहित्य नहीं मिलते हैं। साथ में ही हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल को 700 ईस्वी तक ले जाना भी विवादास्पद है क्योंकि यह समय अपभ्रंश का काल था।
अतः 700 ईस्वी को हिंदी साहित्य का आरंभ मानना सही नहीं है। लेकिन इनका कार्य हिंदी साहित्य इतिहास लेखन में अवश्य सराहनीय कार्य है। लेकिन परवर्ती इतिहासकारों ने इसे अस्वीकार कर दिया।
पढ़ें:- भाषा परिवार और उसका वर्गीकरण
मिश्र बंधुओं का मत
जॉर्ज ग्रियर्सन के बाद दूसरा महत्वपूर्ण प्रयास मिश्र बंधुओं ने किया था। इन्होंने हिंदी साहित्य के शुरुआती काल को प्रारंभिक काल (700 वि सं – 1444 वि सं) कहा। इसे भी इन्होंने दो भागों में बांटा:-
- पूर्वारंभिक काल (700 वि सं – 1300 वि सं)
- उत्तरांभिक काल (1300 वि सं – 1444 वि सं)
मिश्र बंधुओं ने पूर्वारंभिक काल को अपभ्रंश से जोड़ा है तथा उत्तरांभिक काल को 1444 वि सं तक ले जाना ठीक नहीं क्योंकि आदिकाल की रचनाएं इस समय तक नहीं दिखाई देती है। इस समय तक मध्यकाल की भक्ति कालीन रचनाएं शुरू हो जाती है।
इस तरह से इन्होंने प्रारंभिक काल को एक लंबे समय सीमा में बांध दिया। साथ ही इस समय का नाम प्रारंभिक काल कहना एक सामान्य नाम है एवं इसमें किसी प्रवृत्ति को भी आधार नहीं बनाया गया। इन्होंने आरंभिक काल को भाषा के आधार पर 4 अध्ययों में बांटा है:-
- पूर्व प्रारंभिक हिंदी
- चंद पूर्व की हिंदी
- रासो कालीन हिंदी
- उत्तर आरंभिक हिंदी
उपरोक्त में से कोई भी नाम इस पूरे कालखंड का प्रतिनिधित्व नहीं करता है एवं साहित्यिक नामकरण के लिए भाषा को आधार मानना भी तर्कसंगत नहीं लगता है। इन्होंने नामकरण का कोई ठोस तथा प्रामाणिक आधार नहीं बताया है। ‘प्रारंभिक काल’ नाम से ऐसा लगता है जैसे- हिंदी साहित्य का प्रारंभ। लेकिन हिंदी साहित्य की परंपरा तो इससे भी कई सौ वर्षों से चली आ रही थी। इस समय (700-1444) में अचानक से शुरुआत नहीं हुई थी।
अतः यह नाम भी विद्वानों द्वारा अस्वीकार कर दिया गया। फिर भी इतिहास लेखन की दृष्टिकोण से इनका कार्य भी सराहनीय था। क्योंकि इससे परवर्ती इतिहासकारों का ध्यान काल निर्धारण एवं नामकरण की विशेषताओं की ओर गया।
⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की रचना “हिंदी साहित्य का इतिहास” बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है यह पुस्तक हिंदी साहित्य के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल का नाम वीरगाथा काल (1050 वि सं – 1375 वि सं) रखा है इन्होंने नामकरण का आधार स्पष्ट करते हुए लिखते हैं:- “आदिकाल की इस दीर्घ परंपरा के बीच प्रथम डेढ़ सौ वर्ष के भीतर तो रचना की किसी विशेष प्रवृत्ति का निश्चय नहीं होता है- धर्म, नीति, श्रृंगार, वीर सब प्रकार की रचनाएं दोहों में मिलती है। इस अनिर्दिष्ट लोक प्रवृत्ति के उपरांत जब से मुसलमानों की चढ़ाईयों का आरंभ होता है तब से हम हिंदी साहित्य की प्रवृत्ति एक विशेष रूप में बंधती हुई पाते हैं। राजाश्रित कवि अपने आश्रय दाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथाओं का वर्णन करते थे। यही प्रबंध परंपरा रासों के नाम से पाई जाती है जिसे लक्ष्य करके इस काल को हमने वीरगाथा काल कहा है।”
अर्थात हिंदी साहित्य के इतिहास के परंपरा में शुरुआती डेढ़ सौ वर्षों तक कोई भी रचना की प्रवृत्ति देखने को नहीं मिलती। बाद के रचनाएं राजाश्रित कवि द्वारा अपने आश्रय दाता राजाओं के पराक्रम पूर्ण चरितों या गाथा या वीरगाथाओं का वर्णन मिलता है। इसे ही आधार मानकर रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को ‘वीरगाथा काल’ माना है।
रामचंद्र शुक्ल ने अपने पक्ष को मजबूत करने के लिए तीन कारण बताते हैं:-
- इस काल की प्रधान प्रवृत्ति वीरता की थी अर्थात इस काल में वीरगाथात्मक ग्रंथों की प्रधानता रही।
- अन्य उपलब्ध ग्रंथ जैन-धर्म से संबंधित है इसलिए यह नाम मात्र है।
- इस काल में फुटकल दोहे प्राप्त होते हैं वह साहित्यिक है तथा विभिन्न विषयों से संबंधित है किंतु उसके आधार पर भी इस काल की कोई विशेष प्रवृत्ति निर्धारित नहीं होती है।
इन्होंने अपभ्रंश के काल को इस काल से अलग कर दिया है और उसे धार्मिक साहित्य मानकर साहित्य के वर्ग से बाहर कर दिया है। वीरगाथा काल का समय 1050 वि सं – 1375 वि सं मानते हैं।
आचार्य शुक्ल जी ने इस काल के 12 रचनाओं का उल्लेख करते हैं जिसके आधार पर इस काल का नाम वीरगाथा काल कहते हैं:-
- विजयपाल रासो – नल्लसिंह
- हम्मीर रासो – शारंगधर
- कीर्तिलता – विद्यापति
- कीर्ति पताका – विद्यापति
- खुमान रासो – दलपति विजय
- बीसलदेव रासो – नरपति नाल्ह
- पृथ्वीराज रासो – चंद्रबरदाई
- जय चंद्र प्रकाश – भट्ट केदार
- जयमयंक जसचंद्रिका – मधुकर कवि
- परमाल रासो – जगनिक कवि
- खुसरो पहेलियां – अमीर खुसरो
- विद्यापति की पदावली – विद्यापति
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने मत के पक्ष में इन रचनाओं के नाम पर ‘वीरगाथा’ नाम तो दे दिए लेकिन कई विद्वानों ने इस बात का खंडन किया है। इनमें से श्री मोतीलाल मेनारिया, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी आदि प्रमुख हैं। द्विवेदी जी का पहला तर्क है कि वीरगाथा काल की महत्वपूर्ण रचना पृथ्वीराज रासो की रचना उस काल में नहीं हुई थी यह एक अर्ध प्रमाणिक रचना है। साथ ही साथ आचार्य जी ने जिन ग्रंथों के आधार पर इस काल का नामकरण किया है उनमें से कई रचनाओं का वीरता से कोई संबंध नहीं है जैसे:- जयचंद्र प्रकाश और जयमयंक जस चंद्रिका इन दोनों का वीरता से कोई संबंध नहीं है।
बीसलदेव रासो एवं विजयपाल रासो का भी वीरता से कोई संबंध नहीं है। कीर्तिलता और कीर्तिपताका इन दोनों ग्रंथों की रचना विद्यापति ने अपने आश्रयदाता कीर्ति सिंह की कीर्ति के गुणगान में लिखे थे। इनका वीर रस से कोई संबंध नहीं है।
नए शोध से पता चलता है कि बीसलदेव रासो और खुमान रासो 16वीं शताब्दी की रचना है। अतः जब आधार ग्रंथ किए प्रामाणिकता पर भी प्रश्नचिन्ह उठे तो उनका नाम दिया जाना ही व्यर्थ है। परमाल रासो एक अनुपलब्ध रचना है।
हजारी प्रसाद जी ने दूसरा तर्क यह दिया कि इस समय केवल वीरगाथात्मक रचनाएं नहीं हुई थी। इस समय श्रृंगार रस की रचना बहुत अधिक मात्रा में हुई थी जैसे- विद्यापति की पदावली, खुसरो की पहेलियां मनोरंजनात्मक है। तथा बीसलदेव रासो पूरा का पूरा शृंगारिक रचना है।
अतः इस आधार पर वीरगाथा काल कहना उचित नहीं है इसके साथ ही इस समय के धार्मिक ग्रंथ जैन साहित्य, नाथ साहित्य, सिद्ध साहित्य को महत्व बिल्कुल भी नहीं देते हैं जबकि उस समय के धार्मिक पक्ष को महत्व जरूर देना चाहिए था।
इन धार्मिक साहित्य को इन्होंने कहीं भी स्थान नहीं दिया। जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इन धार्मिक ग्रंथों को इस काल की प्रमुख रचना मानते हुए आदि काल में शामिल किया है। इस संबंध में उनका कहना था कि यदि धार्मिक साहित्य को इस काम से हटा दें तो हमारा भक्ति काल का आधार क्या रहेगा? जिससे भारतीय हिंदी साहित्य का ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है।
अतः हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल के आधारों का खंडन किया है। लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रयास सराहनीय थे क्योंकि इन्होंने नामकरण के लिए साहित्यक प्रवृत्तियों को आधार माना था। इससे हमें साहित्यिक प्रवृत्तियों का आधार की परंपरा देखने को मिलती है।
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पंडित राहुल सांकृत्यायन
इन्होंने इस काल का नाम ‘सिद्ध सामंत काल’ रखा है। एवं समय सीमा 8वीं से 13वीं शताब्दी तक माना है। इन्होंने अपने तर्क को स्थायित्व प्रदान करने के लिए मान्यता देते हुए कहते हैं- “इस कालखंड का जीवन समाज पर सिद्धों का और राजनीति पर सामंतों का एकाधिकार था। युगीन कवियों ने अपनी रचनाओं में सामंतों का यशोगान ही प्रमुख रूप से किया है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इस कालखंड की अंत एवं बाह्य परिस्थितियों का अध्ययन करने पर भी उपर्युक्त दोनों वर्गों का दबदबा ही प्रमुख रूप से पाते हैं। काव्यों में भी प्रमुखतः सामंती वातावरण को ही रूपाकार दिया गया है। श्रृंगार आदि की प्रवृत्तियों का संबंध उन्हीं से है।”
अतः उनके मतानुसार उस समय के काव्य में दो प्रवृत्तियों की प्रमुखता मिलती है:-
सिद्धों की वाणी:- इसके अंतर्गत बौद्ध तथा नाथ सिद्धों की तथा जैन मुनियों की उपदेश मुलक तथा हठयोग की क्रिया का विस्तार से प्रचार करने वाली रहस्य मूलक रचनाएं आती है।
सामंतों की स्तुति:- इसके अंतर्गत चारण कवियों के चरित्र काव्य अर्थात रासो साहित्य आते हैं जिसमें कवियों ने अपने आश्रय दाता राजा एवं सामंतों की स्तुति के लिए, युद्ध एवं विवाह आदि प्रसंगों का बढ़ा चढ़ाकर वर्णन किया है। इन ग्रंथों में वीरत्व का नई ध्वनि मुखरित हुआ है।
परंतु राहुल जी की मान्यता को विद्वानों ने मान्यता प्रदान नहीं किया क्योंकि इस नामकरण से लौकिक रस का उल्लेख करने वाली किसी विशेष रचना का प्रमाण नहीं मिलता। साथ ही तत्कालीन संदर्भ में यह नाम तो अनुकूल लगता है लेकिन क्योंकि साहित्यिक काल का निर्धारण में साहित्यिक प्रवृत्ति अथवा अभिरुचि का भी अभाव देखने को मिलता है। इसलिए विद्वानों द्वारा राहुल सांकृत्यायन के मत का खंडन किया गया।
वीर रस के साहित्य का समावेश भी देखने को नहीं मिलता है एवं भाषा शास्त्रीय दृष्टि से भी यह नाम असंगत लगता है। क्योंकि सिद्ध एवं नाथ साहित्य तो अपभ्रंश काल का है। इसे सिद्ध साहित्य काल कहने से पूरा नाथ साहित्य, लौकिक साहित्य, अब्दुल रहमान की संदेश रासक, परमाल रासो या बिसलदेव रासो साहित्य की अवहेलना हो जाती है।
अतः इस काल को ‘सिद्ध सामंत युग’ का नाम देना उचित नहीं लगता है और विद्वानों ने भी इस नाम को अस्वीकार कर दिया है।
पुरानी हिंदी किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
डॉ रामकुमार वर्मा
डॉ रामकुमार वर्मा की रचना “हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास” में इस पूरे कालखंड को दो कालों में विभक्त किया:-
- संधिकाल (सवंत् 700 – 1000 विक्रमी तक)
- चारणकाल (सवंत् 1000 – 1375 विक्रमी तक)
इन्होंने संधिकाल का नाम भाषा के आधार पर दिया क्योंकि इस समय अपभ्रंश भाषा अपनी अंतिम सीमा पर थी और हिंदी अपने शैशवकाल में था तो इस समय अपभ्रंश का और पुरानी हिंदी का संधि काल था अतः भाषा को ध्यान में रखते हुए इस काल को डॉ रामकुमार वर्मा ने ‘संधिकाल’ का नाम दिया।
चारण काल के नामकरण के बारे में डॉ रामकुमार का कहना है कि इस काल के सभी कवि चारण थे इस तथ्य से इनकार नहीं किया जा सकता क्योंकि सभी कवि राजाओं के दरबार में आश्रय पाते थे एवं उनके यशोगान करते थे। उनके द्वारा रचा गया साहित्य चारिणी कहलाता है। अतः इस समय को चारण काल कहा जाना चाहिए।
लेकिन विद्वानों का मानना है कि जिन रचनाओं का उल्लेख वर्मा जी ने किया है उनमें अनेक रचनाएं संदिग्ध है। इन्होंने रासो साहित्य को चारणों द्वारा लिखित बताकर इस पूरे काल को चारण काल का नाम देते हैं। काल के निर्धारण में भी वर्मा जी ने भाषा को आधार माना न कि किसी साहित्यक प्रवृत्ति को आधार बनाया।
अतः इनका नामकरण का आधार साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं है जो कि इनके नामकरण का प्रमुख दोष है और दूसरा प्रमुख दोष जातिगत आधार पर नामकरण करना कि चारण कवि द्वारा ही साहित्य लिखा गया था लेकिन वर्मा जी ने एक भी चारणी साहित्य का नाम नहीं दे पाए। जिससे यह स्पष्ट हो जाए कि इस काल का नाम चारण काल होना चाहिए।
अतः परवर्ती इतिहासकारों द्वारा वर्मा जी के संधि काल और चारण काल का नामकरण को स्वीकार नहीं किया गया। साथ ही इनका काल निर्धारण 700 से 1375 विक्रम संवत् को भी स्वीकार नहीं किया गया।
हिंदी भाषा का उद्भव और विकास विस्तार पूर्वक जानें।
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल को ‘बीज वपन’ काल कहा। एक प्रकार से यह नाम सार्थक भी लगता है कि इस समय हिंदी भाषा का अंकुरन हो रहा था इसलिए इस काल को ‘बीज वपन’ काल का नाम दिया गया। लेकिन यह नाम भी अपने आप में विवादास्पद है क्योंकि हिंदी साहित्य की परंपरा तो बड़े पैमाने पर पूर्व से चली आ रही थी।
इस समय साहित्य का महत्व बहुत अधिक एवं प्रौढ़ परिनिष्ठित साहित्य था। साहित्यिक दृष्टि से, विषय की दृष्टि से, भाषा की दृष्टि से देखा जाए तो यह साहित्य अपने आप में महत्वपूर्ण साहित्य थी। ऐसे में बीच के एक काल को ‘बीज वपन’ कह देना जबकि इस समय साहित्य शैशवावस्था में थी यह तर्कसंगत नहीं लगता है।
अतः यह नाम भी विद्वानों द्वारा स्वीकार्य नहीं रहा।
चंद्रधर शर्मा गुलेरी और धीरेंद्र वर्मा
इन्होंने इस काल को अपभ्रंश का नाम दिया। अपभ्रंश काल भी भाषा के आधार पर रखा गया है न कि कोई साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर। अपभ्रंश काल कहने से हिंदी की साहित्य इसमें समाविष्ट नहीं हो पाती है। सातवीं और आठवीं शताब्दी में अपभ्रंश का काल था 12वीं से 13वीं शताब्दी तक तो अपभ्रंश लुप्त प्राय स्थिति में आ चुकी थी।
इस समय की भाषा तो परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ट या पुरानी हिंदी के रूप में जाना जा रहा था तो इस समय की रचनाओं (विद्यापति की पदावली या पृथ्वीराज रासो या बिसलदेव रासो) को अपभ्रंश में शामिल नहीं कर सकते हैं। इसलिए इस काल को अपभ्रंश का नाम देना भी तर्कसंगत नहीं लगता है।
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विश्वनाथ प्रसाद शर्मा
इन्होंने आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ही तरह इस काल का नाम ‘वीर काल’ रखा। लेकिन यह भी तर्कसंगत नहीं लगता।
अन्य इतिहासकारों ने भी हिंदी साहित्य के प्रारंभिक अवस्था का नामकरण किया है-
रामकुमार वर्मा – चारण काल
गणपति चंद्रगुप्त – प्रारंभिक काल / शून्यकाल
डॉ धीरेंद्र वर्मा – अपभ्रंश काल
पृथ्वीनाथ कमल ‘कुलश्रेष्ठ’ – अंधकार काल
रामखिलावन पांडे – संक्रमण काल
डॉ हरीश चंद्र वर्मा – संकमण काल
मोहन अवस्थी सुमनराजे – आधार काल
वासुदेव सिंह – उद्भव काल
शैलेश जैदी – आविर्भाव काल
बच्चन सिंह – अपभ्रंश काल
उपरोक्त इतिहासकारों द्वारा किया गया नामकरण को भी परवर्ती इतिहासकारों द्वारा अस्वीकार किया गया।
अवहट्ट किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इस काल का नाम ‘आदिकाल’ रखा। द्विवेदी जी यह नाम रखते हुए भी संकोच कर रहे हैं और कहते हैं कि- “वस्तुतः हिंदी का आदि काल शब्द एक प्रकार की भ्रामक धारणा की सृष्टि करता है और श्रोता के चित्त में यह भाव पैदा करता है कि यह काल कोई आदि, मनोभावापन्न, परंपरा-विनिर्मुक्त, काव्या रुढ़ियों से अछूते साहित्य का काल है। यह ठीक वही है। यह काल बहुत अधिक परंपरा-प्रेमी, रूढ़ि ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। आदि काल नाम ही अधिक योग्य है क्योंकि साहित्य की दृष्टि से यह काल अपभ्रंश काल का विकास ही है पर भाषा की दृष्टि से या परिनिष्ठित अपभ्रंश से आगे बढ़ी हुई भाषा की सूचना देता है।”
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के आदिकाल के लक्षण निरूपण के लिए निम्नलिखित रचनाओं को आधार बनाया है:-
- पृथ्वीराज रासो
- परमाल रासो
- विद्यापति की पदावली
- कीर्तिलता
- कीर्तिपताका
- संदेशरासक (अब्दुर रहमान)
- पउमचरिउ (स्वयंभू कृत रामायण)
- भविष्यतकहा (धनपाल)
- परमात्म प्रकाश (जोइन्दु)
- बौद्ध गान और दोहा
- स्वयंभू छंद
- प्राकृत पैंगलम्
अतः इस समय के साहित्यक विशेषताओं को उन्होंने बताते हुए कहा कि- यहा काल बहुत अधिक परंपरा-प्रेमी, रुढ़ि-ग्रस्त, सजग और सचेत कवियों का काल है। अर्थात हिंदी साहित्य इतिहास परंपरा प्रेमी रही है अर्थात परंपरा को बढ़ाने वाली रही है एवं सजग और सचेत कवि जैसे- चंदवरदाई, परमालरासो, बिसलदेव रासो, विद्यापति ये सभी दलपति विजय बहुत ही सजग और सचेत कवियों में से थे।
अब्दुर रहमान का संदेशरासक जो लौकिक शृंगार रस का अति उत्कृष्ट काव्य है और यदि पाठक इन सभी साहित्यिक प्रवृत्तियों को ध्यान में रखें तो आदिकाल नाम बुरा नहीं है। इस तरह से हजारी प्रसाद द्विवेदी जी इस कालखंड का नाम “आदिकाल” रखते हैं। यह नाम परवर्ती इतिहासकारों द्वारा भी स्वीकार किया गया।
अपभ्रंश भाषा किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।
आदिकाल नाम का मूल्यांकन
आदिकाल नाम से प्रारंभ का बोध न होकर हिंदी साहित्य इतिहास का परंपरा के विकास का बोध होता है। इस नाम के अंतर्गत 7वी – 8वीं शताब्दी के बौद्ध, सिद्ध, नाथयोगीयों के साथ वीरगाथा काव्यों और अब्दुर रहमान, विद्यापति तथा खुसरो आदि को भी रखा जा सकता है।
आदिकाल नाम में हिंदी के काव्य रूपों एवं भाषा के अंकुरित होने का भाव भी निहित है। हिंदी की अनेक बोलियों का साहित्य में प्रवेश हो रहा था। अतः इन बोलियों को अस्तित्व में आने का एक अवसर मिल रहा था और धीरे-धीरे यही बोलियां विकसित होकर भाषा बन जाती है और 13वीं से 19वीं शताब्दी तक हमें ब्रज भाषा में साहित्य देखने को मिलती है। जबकि ये ब्रजभाषा केवल साहित्यिक रूप में देखने को मिलती है।
ब्रजभाषा का शासन और राजनीति में कभी भी इस्तेमाल नहीं हुई क्योंकि इस समय मुसलमान (मुगलों) शासक शासन कर रहे थे। लेकिन साहित्य में ब्रजभाषा का एक छात्र कब्जा था जिसका प्रारंभिक बीज आदिकाल में ही डाली गई थी। अतः आदिकाल नाम बहुत ही उपयुक्त नाम है। जिससे हिंदी साहित्य के इतिहास की भाषा, भाव, विचारना, शिल्प भेद आदि से संबंधित सभी समस्याओं का हल हो जाता है।
आदिकाल नाम से उस व्यापक पृष्ठभूमि का बोध होता है जिस पर आगे का साहित्य खड़ा हुआ है। भाषा की दृष्टि से भी हिंदी साहित्य के आदि रूप का बोध को भी प्राप्त कर सकते हैं। भाव की दृष्टि से इसमें भक्तिकाल से लेकर आधुनिक काल तक के सभी प्रमुख प्रवृतियों के आदिम बीज प्राप्त कर सकते हैं।
13वीं से 17वीं शताब्दी के बीच में जो साहित्य रचा गया उसके बीज सिद्ध, नाथ, जैन साहित्य के बीज भी आदिकाल में ही दिखाई देते हैं।
आदिकाल में जो भी चरित काव्य रचे गए वो रूप दोहा, चौपाई-शैली हमें सूफी काव्य में दिखाई देती है अर्थात जिसके भी बीज आदिकाल में दिखाई देते हैं। आदिकाल में जितने भी आध्यात्मिक तथा वीरता की प्रवृतियों की बीज पाई जाती है इसी प्रवृत्ति को बाद के काल में और अधिक विकसित रूप हमें देखने को मिलती है इसी कारण इस काल को ‘आदिकाल’ कहना सर्वाधिक योग्य लगता है।
नागेंद्र ने भी अपने पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” में ‘आदिकाल’ नाम को ही स्वीकार किया है। गणपति चंद्र गुप्त द्वारा रचित “हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास” में भी इन्होंने ‘आदिकाल’ का नाम को ही स्वीकार किया है। अतः परवर्ती इतिहासकारों, आलोचकों एवं शोधकर्ताओं द्वारा इसी नाम को मान्यता दिया गया और यह नाम उचित भी प्रतीत होता है।
निष्कर्ष
आज के लेख में हमने देखा कि आदिकाल का नामकरण के लिए विद्वानों एवं इतिहासकारों द्वारा भिन्न-भिन्न नामकरण किए गए तथा उस के पक्ष में भी अनेक तर्क दिए गए लेकिन सर्वाधिक योग्य नामकरण आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी द्वारा दिया गया ‘आदिकाल’ नाम सर्वाधिक उचित है जबकि स्वयं भी इस नाम को रखते हुए संकोच करते हैं लेकिन हमने देखा कि इस काल को आदिकाल कहने से हमारी वर्षों से चली आ रही हिंदी साहित्य की परंपरा में कोई रुकावट या बाधा नहीं होती लेकिन अबाध रूप से परंपरा चली आ रही क्योंकि आदिकाल नाम में हिंदी साहित्य के प्रारंभिक काल से जुड़ी सारी चीजें समाहित हो जाती है जो कि दूसरे नामों से नहीं हो पाती है। अतः ‘आदिकाल’ नाम ही सर्वाधिक योग्य है।