Hindi

आधुनिक काल के साहित्य का उद्भव एवं विकास | आधुनिक काल का नामकरण एवं काल विभाजन

आधुनिक काल का काल विभाजन हिंदी साहित्य के काल विभाजन के तालिका में आदिकाल, भक्तिकाल, रीतिकाल के बाद के काल का वर्गीकरण के रूप में हुआ है एवं इन तीनों कालों (आदिकाल, भक्तिकाल एवं रीतिकाल) से सबसे अधिक भिन्नता आधुनिक काल में देखने को मिलती है। जैसे- आदिकाल में डिंगल भाषा का प्रयोग, भक्तिकाल में अवधी भाषा तथा रीतिकाल में ब्रजभाषा की वर्चस्व रही। लेकिन आधुनिक काल तक आते-आते खड़ी बोली की प्रधानता हमें देखने को मिलती है।

Table of Contents

आधुनिक काल का नामकरण

पूर्व के तीनों कालों में जहां पद्य साहित्य का विकास देखने को मिलता है वहीं आधुनिक काल में गद्य और पद्य का समान रूप से विकास हमें देखने को मिलता है। इस काल में हिंदी साहित्य का चहुँमुखी विकास हमें देखने को मिलता है। इस काल में धर्म, दर्शन, कला एवं साहित्य के प्रति नए दृष्टिकोण का अविर्भाव हुआ।

पूर्व में कवियों का दृष्टिकोण एक सीमित क्षेत्र तक सीमित था वहीं आधुनिक काल में कवियों ने समाज के व्यावहारिक पक्ष के हर एक पहलुओं का व्यापक चित्रण किया। इस समय के काव्य की प्रवृत्तियां राजनीतिक चेतना एवं सामाजिक सुधारवाद की भावना सेओत-प्रोत थी।

आधुनिक काल का आरंभ

आधुनिक काल के आरंभ के सीमा निर्धारण में विद्वानों में काफी मतभेद देखने को मिलता है कि किस तिथि से आधुनिक काल का प्रारंभ माना जाए। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु हरिश्चंद्र(1850 से 1885) के रचनाकार को ध्यान में रखकर विक्रमी संवत 1925 से 1950 तक के अवधि को नई धारा अथवा प्रथम उत्थान की संज्ञा दी है। साथ ही भारतेंदु तथा इस युग के लेखकों के रचना से इस युग को समृद्ध भी बताया है। आधुनिक काल के आरंभ की सीमा निर्धारण के बारे में विद्वानों में काफी मतभेद है, लेकिन यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि भारतेंदु द्वारा संपादित मासिक पत्रिका ‘कविवचनसुधा’ का प्रकाशन 1868 ईस्वी में शुरू हुआ इसलिए भारतेंदु युग का शुरुआत इसी से माना जाता है तथा ‘सरस्वती’ के प्रकाशन वर्ष 1920 को भारतेंदु युग का समाप्ति माना जाता है।

आधुनिक काल का प्रारंभ कई विद्वानों ने अलग-अलग माना है:-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल – विक्रम 1900 से

मिश्र बंधु – 1890 से

डॉ कृष्ण लाल – 1837 से

डॉ बच्चन सिंह – 1857 से।

आधुनिक काल का नामकरण एवं काल विभाजन

विभिन्न विद्वानों ने आधुनिक काल का विभाजन एवं नामकरण इस प्रकार से किया है:-

विद्वान

नामकरण

काल

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

गद्य काल

1900 से अब तक

मिश्र बंधु

  1. परिवर्तन काल –
  2.  वर्तमान काल –

1890 से 1925 तक

1925 से अब तक

डॉ रामकुमार वर्मा, डॉ नागेंद्र, डॉ गणपति चंद्रगुप्त

आधुनिक काल

 

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र

प्रेम काल

 

डॉ कृष्ण लाल

 

1837 से अब तक

डॉ बच्चन सिंह

 

1857 से अब तक

आधुनिक काल का विभाजन

आधुनिक काल को इसकी साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर छः प्रमुख भागों में बांटा जाता है:-

आधुनिक काल के कवि एवं उनकी रचनाएं

यद्यपि आधुनिक काल का प्रारंभ विक्रम संवत 1900 (1843 ई⋅) से माना जाता है। लेकिन शुरू के 25 वर्ष की कविता को संक्रांति युग की कविता कहा जा सकता है क्योंकि इस काल में रीति युगीन शृंगारिक तथा भारतेंदु युगीन प्रवृत्तियों का समन्वय देखने को मिलता है।

आधुनिक काल के उदय की परिस्थितियां

रामचंद्र शुक्ल ने विक्रम संवत 1900 (1843 ई⋅) से आधुनिक काल का शुरुआत मानते हैं। इस समय चूँकि यूरोपीय (अंग्रेज) भारत में के लिए आए। उनके यहां आने से भारत में पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव पड़ा। अंग्रेजों ने फूट डालो और राज्य करो की नीति अपना कर यहां अपना पैर जमाने में सफलता प्राप्त कर ली। जिसके कारण यहां पर ब्रिटिश हुकूमत की स्थापना हो गई। इन्होंने अपने कार्य को संचालन करने एवं धर्म के प्रचार प्रसार के लिए जनमानस की भाषा को अपनाया तथा इस कार्य के लिए गद्य को अपनाया क्योंकि गद्य अधिक कारगर होती थी।

साथ ही इस समय मुद्रण कला के अविष्कार ने भाषा विकास को और अधिक गति प्रदान किया। आर्य समाज के ग्रंथों की रचना स्वामी दयानंद जी ने राष्ट्रभाषा हिंदी में की एवं अंग्रेज मिशनरियों ने भी अपनी धर्म के प्रचार के लिए हिंदी गद्य में ही पुस्तकें छपवाई। अतः इनका भी हिंदी गद्य के विकास में योगदान रहा।

1857 ईस्वी की एक ऐसी घटना जो पहले स्वतंत्रता संग्राम भी कहलाता है, घटना के बाद भारत में राष्ट्रवाद की भावना की एक लहर सी चली। अब पूर्व कल के रीतिकालीन ग्रंथों के विलासिता एवं कामवासना मनोवृतियों से मुक्त होकर नए युग की शुरुआत हुई। यहीं से आधुनिक काल का जन्म हुआ।

भारतेंदु हरिश्चंद्र को आधुनिक गद्य के प्रवर्तक माना गया। आधुनिक काल विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों के संपर्क एवं समन्वय का परिणाम है। अतः यहां हम आधुनिक काल के उदय की परिस्थितियों को देखेंगे:-

राजनीतिक परिस्थिति

आधुनिक काल के इतिहास में प्लासी का युद्ध (1757 ई⋅) एक मील का पत्थर साबित हुआ। अंग्रेजों की नींव प्लासी युद्ध के बाद भारत में दृढ़ हो गई एवं ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन पूरे भारत में फैल गया। अंग्रेज अधिकारियों के अत्याचार बढ़ाने पर भारतीय जनता में असंतोष फैलने लगा। अंग्रेजों द्वारा चर्बी वाले कारतूसों के प्रयोग से भारतीय सैनिकों के मन में ठेस लगी।

इसी कारण से 1857 ई⋅ में भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम शुरू हो गया। इस विद्रोह को दबाने के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन खत्म कर सीधा ब्रिटिश सरकार का भारत पर शासन शुरू हो गया। इसके बाद भी अंग्रेजों का अत्याचार भारतीयों पर काम नहीं हुआ। डलहौजी की अन्याय पूर्ण नीति का जब महारानी विक्टोरिया ने विरोध किया तो भारतीयों के लिए एक नए युग का शुरुआत हुआ।

19वीं शदी के अंतिम दशक तक भारतीयों के मन में अंग्रेजों के लिए समर्पण का भाव था। परंतु फिर से उनकी नीति से शोषण के कारण भारतीयों में विरोध बढ़ता गया। 1885 ईस्वी में कांग्रेस की स्थापना होने पर स्वाधीनता आंदोलन के लिए एक मंच मिल गया। लोकमान्य तिलक के आविर्भाव से जनता में स्वाधीनता को लेकर उत्साह बढ़ा।

इस समय कुछ ऐसी घटनाएं घटी (जैसे- इटली के स्वतंत्रता के लिए युद्ध, आयरलैंड में होमरूल आंदोलन तथा फ्रांस की क्रांति) जिससे भारतीयों में स्वाधीनता की भावना द्वीप होने लगी। इस समय के घटनाओं का प्रभाव भारतेंदु के साहित्य में भी देखने को मिलता है। इस समय के कवियों ने शोषित जनता में स्वतंत्रता का भाव स्थापित करने के लिए प्रेरित किया। जिससे लोगों में राष्ट्रीयता एवं मानवता की भावना जागृत हुई। समय-समय पर अंग्रेजों को सुधार कानून लाने पड़े।

भारतीयों ने 1914 ईस्वी में प्रथम विश्वयुद्ध में पूरी प्रतिबद्धता के साथ अंग्रेजों का साथ दिया लेकिन 1916 की रॉलेक्ट एक्ट से भारतीय जनता का अधिकार छीन लिया गया। इसी काल को आधुनिक काल का द्विवेदी युग कहा जाता है। रॉलेक्ट एक्ट का विरोध भारतीय जनता द्वारा किया गया।

अब इस समय 1920 ईस्वी में तिलक का युग खत्म होकर गांधी युग की शुरुआत हुई। गांधी जी ने ग्राम उद्धार कार्यक्रम से देश भर के आंदोलन में जनता को सहयोगी बनाने में सफल रहे। इन्होंने असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, अहिंसा आंदोलन कर देश के आजादी का लक्ष्य निर्धारित किया अंत में सफल भी हुए।

इसी युग में बंगाल के कवि रवींद्रनाथ ठाकुर ने साहित्य के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया। इन्होंने भारतीय संस्कृति एवं आध्यात्मिकता का प्रचार प्रसार किया।

द्वितीय विश्व युद्ध (1939 – 1942 ईस्वी) के समाप्ति के बाद स्वाधीनता का नारा तेजी से गूंज पड़ा इसी का परिणाम था 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन ‘करो या मरो’ के नारे से महात्मा गांधी जी ने लोगों में प्रेरणा का संचार किया। ब्रिटेन में उदारवादी दल की सरकार ने भारत की स्वतंत्रता आंदोलन के प्रति उदार रुख अपनाया। इस समय समाजवादी विचारधारा का विकास देखने को मिलता है। पूंजीवाद के उत्तरोत्तर वृद्धि से भी समाज के वर्गों में संघर्ष बढ़ा।

इस समय अंग्रेजों द्वारा आंदोलनकारियों को जेल में भरे जाने लगा लेकिन आंदोलनकारीयों के हिम्मत न हारने के कारण आखिरकार 15 अगस्त 1947 को देश को आजादी मिली। आजादी के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू की पंचशील सिद्धांत ने देश को एक नई ऊंचाई दी। भारत किसी भी पक्ष में न रहकर गुटनिरपेक्ष की नीति अपनाई। जिससे वर्तमान में विश्व, भारत की ओर एक जवाबदेही राष्ट्र मानकर देखता है।

सामाजिक परिस्थिति

अंग्रेजों के भारत आने के बाद भारत में शिक्षा, यातायात आदि का उपयोग कर आधुनिक भारत की संकल्पना की। भारतीय विद्वानों ने भी अंग्रेजों के प्रभाव में आकर शिक्षा ग्रहण किया तथा समाज के रूढ़िवादी विचारधारा को खत्म करने का प्रयास किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिंदू धर्म की जितनी भी कुरीतियां थी उन्हें दूर करने के लिए आर्य समाज का गठन किया एवं पूरे देश में जागृति पैदा की।

इस संबंध में जयकिशन खंडेलवाल का कथन स्मरणीय है:- “सचमुच यदि आर्य समाज के द्वारा क्रांति शुरू न की गई होती तो हिंदू समाज बहुत पिछड़ जाता और निश्चय दुर्बल हो जाता।” स्वामी दयानंद ने समाज के रूढ़ियों का विरोध, कर्मकांडों से मुक्ति, अंग्रेजी शिक्षा का उपयोग आदि की प्रेरणा भारतीयों को दी। भारतेंदु के युग में इसी कारण से रूढ़ियों के प्रति द्वंद्व भाव पैदा हो गया था जिसे हम प्रगतिवाद तक देख सकते हैं। कालांतर में ‘अज्ञेय’ ने समाज के यथार्थवाद पर कार्य किया।

इस समय ब्राह्म समाज, रामकृष्ण मिशन, प्रार्थना समाज, थियोसोफिकल सोसायटी ने भी समाज में विद्यमान कुरीतियों पर प्रहार किया। जैसे- बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा विवाह प्रचलन, पुनर्विवाह को मान्यता, जाति भेद, अंधविश्वास, स्त्री शिक्षा का समर्थन आदि। इस समय दो बुद्धिजीवी वर्ग थे एक जो इसके समर्थन में थे। दूसरे इसके समर्थन में नहीं थे।

इसी कारण इस समय के साहित्यिक प्रवृत्तियों में वाद-विवाद दिखाई देता है। पूंजीवाद का विरोध एवं मार्क्सवादी विचारधारा का विकास इसी समय हुआ जिससे जमींदारी प्रथा को दूर करने का संघर्ष शुरू हुआ। इसी कारण इस समय के लेखक और सुधारक अपनी साहित्य में नारी के प्रति अपनी संवेदना, निर्धन एवं शोषित समाज के विकास में सहायता की।

गांधी जी ने भी कई योजनाओं को लाकर देश की समस्याओं को दूर करने का उपाय किया। जिससे लोगों में स्वदेशी भावना का विकास हुआ। पश्चिमी सभ्यता का विरोध एवं देसी संस्कृति के रूप में खादी का समर्थन कर भारतीय जनमानस में देश की संस्कृति को जगह दिलाई।

आर्य समाज, ब्रह्म समाज आदि ने समाज के रूढ़िवाद को खत्म करने का प्रयास किया। रविंद्र नाथ टैगोर की विश्व मानवतावादी सोच ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय संस्कृति को उच्च स्थान पर स्थापित कर दिया। विवेकानंद ने रामकृष्ण के विचारों तथा हिंदू धर्म को शिकागो विश्व धर्म सम्मेलन द्वारा पूरे देश में पहुंचा। ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले जैसे कई लोगों ने शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कार्य किया।

अतः भारतेंदु युग के कवियों के साहित्य में नवयुग की चेतना का विकास हुआ। वहीं द्विवेदी युग में सामाजिक अशांति के कारण समाज सुधारकों ने सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़िवादिता को खत्म करने का कार्य किया।

धार्मिक परिस्थिति

अंग्रेजों के भारत आने के बाद भारत में धार्मिक एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में बदलाव हमें देखने को मिलते हैं। हिंदू धर्म में वर्णाश्रम व्यवस्था के कारण पिछड़ी जातियों को शोषित किया जा रहा था। ब्राह्मणों का वर्चस्व व्यवस्था ने गरीब और निचली जातियों को कर्मकांडों में फंसा कर रखा। यही कारण था कि ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी ने पूरे हिंदू धर्म को नया रूप देने के लिए कड़ी मेहनत किया।

आर्थिक परिस्थितियां

अंग्रेजों के भारत में साम्राज्यवादी शासन ने औद्योगिक विकास तो किया लेकिन पूंजीवादी व्यवस्था को भी मजबूती प्रदान किया। इनके उद्योगों ने भारतीय उद्योगों को नष्ट कर दिया। किसानों पर अतिरिक्त कर का बोझ डाल दिया गया। इसी कारण वर्ग संघर्ष शुरू हो गया। भारतेंदु जैसे साहित्यकारों ने अंग्रेजों द्वारा धन विदेश ले जाने के विरोध में जनता में राष्ट्र के लिए स्वतंत्रता संघर्ष के लिए राष्ट्रवादी सोच पैदा की।

1857 ईस्वी के प्रथम स्वतंत्रता युद्ध के बाद सत्ता का हस्तांतरण (अर्थात ईस्ट इंडिया कंपनी से सीधे ब्रिटिश सरकार द्वारा शासन) से लोगों में ऐसी आशा जगी कि अब आर्थिक स्थिति में सुधार होगा। लेकिन अभी संघर्ष बाकी थी। कालांतर में आदयपद भारत में स्थिति सुधरी। अब पहले जैसी स्थिति नहीं रही। धीरे-धीरे देश में प्रगति होना शुरू हो गया।

साहित्यिक परिस्थिति

आधुनिक काल से पूर्व रीतिकाल में हमें श्रृंगारिकता पूर्ण रचनाओं देखने को मिलती है। इस समय जहां अलंकार, नारी का रूप, प्रकृति को स्थान, वीर रस, श्रृंगार रस, भक्ति रस, नीति काव्य को स्थान मिला। वहीं आधुनिक काल में पद्य के साथ-साथ गद्य, समालोचना, कहानी, नाटक व पत्रकारिता का विकास हुआ। इस काल में खड़ी बोली को प्रधानता दी गया दी गई। भारतेंदु तथा बाबू अयोध्या प्रसाद खत्री ने खड़ी बोली के दोनों रूपों (1) मेरठ की खड़ी बोली (2) बांगरू और हरियाणवी, को सुधारने का प्रयास किया।

आधुनिक काल के प्रारंभ में राजा लक्ष्मण सिंह, भारतेंदु हरिश्चंद्र, जगन्नाथ दास, श्रीधर पाठक एवं रामचंद्र शुक्ल ने ब्रजभाषा में काव्य रचना की। इसके बाद भारतेंदु जी ने गद्य का समुचित विकास किया। एवं आधुनिक काल के इस नवीन युगीन समय में कई विद्वानों का जन्म हुआ।

पढ़ें :- रीतिकाल की संपूर्ण जानकारी

आधुनिक काल में हिंदी साहित्य का विकास

चूँकि आधुनिक काल को उसके प्रवृत्तियों या विशेषताओं के आधार पर कई काल खंडों में बांटा जा सकता है। यहां हम आधुनिक काल के हिंदी साहित्य के विकास को कालखंड या युगों के आधार पर बाँटकर देखेंगे। आधुनिक काल को हम इस इस प्रकार से बांट सकते हैं:-

  • पूर्वोत्तर भारतेंदु युगीन गद्य साहित्य (1800 ईस्वी से 1850 ईस्वी)
  • भारतेंदु युगीन हिंदी गद्य साहित्य (1850 ईस्वी से 1900 ईस्वी)
  • द्विवेदी युगीन हिंदी गद्य साहित्य (1900 ईस्वी से 1920 ईस्वी)
  • गांधी युगीन हिंदी गद्य साहित्य (1920 ईस्वी से 1947 ईस्वी)
  • स्वातंत्र्योत्तर हिंदी गद्य साहित्य (1947 ईस्वी से अब तक)

पूर्वोत्तर भारतेंदु युगीन गद्य साहित्य का विकास

इस समय में हिंदी में गद्य लेखन का शुरुआत हुआ। गद्य का अर्थ है- मनुष्य की सहज एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति का रूप गद्य है। इसमें अलंकार, वर्णों की संख्या, मात्रा, क्रम, लय आदि का विचार नहीं होता है। लेखन में इस समय की साहित्य की भाषा ब्रजभाषा ही रही। क्योंकि रीतिकाल में ब्रजभाषा की प्रधानता थी। ब्रजभाषा में गद्य का सबसे पुराना रूप विट्ठलनाथ का मान सकते हैं। लेकिन इससे भी प्राचीनतम प्रमाण 1407 ईस्वी के आसपास का है।

विट्ठलनाथ ने ‘श्रृंगाररस मंडन’ नामक ग्रंथ ब्रजभाषा में लिखा है। यह कवि भक्तिकाल (कृष्णभक्ति शाखा) का है। हिंदी गद्य के प्रारंभ के संबंध में विद्वानों में मतभेद है कुछ 10वीं शदी, तो कुछ 11वीं शदी, तो कुछ 13वीं शदी कहते है।

पूर्वोत्तर भारतेंदु युग में हिंदी में गद्य का विकास में कोलकाता के फोर्ट विलियम कॉलेज की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस समय विभिन्न धर्मो के पुस्तकों के लेखन के माध्यम से खड़ी बोली के गद्य का विकास हुआ। यहां ध्यान देने वाली बात यह है की खड़ी बोली ही हिंदी भाषा की प्रारंभिक रूप थी। साथ ही इस समय संस्कृत के महत्वपूर्ण ग्रंथों का भी हिंदी में अनुवाद शुरू हुआ। एवं इस समय पत्रकारिता जगत में भी हिंदी में पत्र का प्रकाशन शुरू हुआ।

भारतेंदु युगीन हिंदी गद्य साहित्य का विकास

हिंदी गद्य साहित्य का वास्तविक आरंभ भारतेंदु युग को ही माना जाता है। इस समय हिंदी गद्य की विभिन्न विधाओं में लेखन कार्य शुरू हुआ। एवं हिंदी गद्य में पर्याप्त विकास हुई। इस समय की प्रमुख साहित्यिक प्रवृत्ति राष्ट्रीयता थी। इस समय के कवियों ने देशवासियों में उत्साह भरने का काम किया क्योंकि इस समय समाज में फैले कुरीतियों से जनता परेशान थी। जैसे- बाल विवाह, सती प्रथा, आदि का विरोध कर स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने का काम किया गया

इस समय की भाषा बहुत ही व्यवस्थित थी। इस समय के लेखन शैली में हास्य तथा व्यंग्य की झलक भी हमें दिखाई देती है। मुहावरों, लोकोक्तियां और कहावतों का प्रयोग कर तत्कालीन स्थिति का बड़ा ही सजीवता से चित्रण किया है। इस समय के साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं के द्वारा भी हिंदी गद्य का पर्याप्त विकास हमें देखने को मिलती है।

द्विवेदी युगीन हिंदी गद्य साहित्य का विकास

यह काल हिंदी गद्य साहित्य के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण कालखंड था। इस समय हमें हिंदी भाषा में शुद्धता, परिमार्जन एवं व्याकरणिक दृष्टिकोण से व्यवस्थित होता हुआ दिखाई देता है। इस कार्य में सबसे अधिक योगदान तत्कालीन लेखक जो इस काल का प्रतिनिधित्व भी करते हैं महावीर प्रसाद द्विवेदी का माना जाता है।

इस समय की पत्रिका ‘सरस्वती’ का विशेष योगदान भी था। इस समय विषयगत विविधता भी देखने को मिलती है। तथा नवीन एवं मौलिक विषयों पर भी अब लेखन की शुरुआत होने लगी थी। इसी युग में नागरी प्रचारिणी सभा तथा कई हिंदी प्रचारक संस्थाओं का स्थापना भी हुआ। जिससे हिंदी गद्य साहित्य के विकास में सुदृढ़ता आयी।

गांधी युगीन हिंदी गद्य साहित्य का विकास

हिंदी साहित्य के इस कालखंड (1920 ईस्वी से 1947 ईस्वी) को हिंदी के आलोचक विद्वान विश्वनाथ त्रिपाठी ने ‘गांधी युग’ का नाम दिया। उन्होंने अपने पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का सरल इतिहास’ में लिखा है- “इस युग में स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व जिन नेताओं ने किया उनमें गांधी अग्रणीय एवं सर्वाधिक मान्य हैं 1918 से 1947 तक का समय राजनीतिक संघर्ष के अभूतपूर्व रूप में तीव्र होने का समय है। इसका प्रभाव हमारे साहित्य पर पडना स्वाभाविक था।”

इस समय हिंदी गद्य लेखन में सूक्ष्मता और मौलिकता का प्रवेश हुआ। इसी काल में प्रेमचंद का आविर्भाव हमें देखने को मिलता है इन्होंने कथा साहित्य पर महत्वपूर्ण योगदान दिया।

प्रेमचंद के आरंभिक कथा साहित्य में आदर्श जीवन के मूल्यों को दर्शाया गया है परंतु परवर्ती काल के रचनाओं में जीवन और समाज के यथार्थ स्थितियों को दर्शाया है। इस समय जयशंकर प्रसाद जी के भी अनेक रचनाएं ऐतिहासिक आधार पर देखने को मिलती है। जैसे- कहानी, नाटक और उपन्यास आदि। इन्होंने भी राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन को नयी शिखर तक पहुंचाने का काम अपने साहित्य के माध्यम से किया।

इस काल में साहित्यक आलोचना द्वारा साहित्यिक सिद्धांतों का विश्लेषण किया जाने लगा। इस क्षेत्र में सबसे पहले आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी का नाम आता है। इन्होंने हिंदी को चिंतन और मनन की भाषा के रूप में नहीं पहचान दिलाई है।

स्वातंत्र्योत्तर हिंदी गद्य साहित्य का विकास

इस समय हिंदी गद्य का विकसित रूप उभर कर सामने आया क्योंकि इस काल के प्रगतिवादी लेखकों ने लेखन के नए-नए विधानों का प्रयोग किया। इस समय के कवियों के नई कहानी, नई कविता, नई नाटक, नया उपन्यास तथा नई आलोचना को हिंदी साहित्य में स्थान मिला।

इस समय फणीश्वर नाथ, रेणु प्रेमचंद आदि के उपन्यास लेखन आगे बढ़कर काफी दूर निकलता चला गया। इस समय अज्ञेय के अविर्भाव से गद्य के साथ-साथ पद्य में भी एक अभूतपूर्व परिवर्तन आया। अज्ञेय ने अपने लेखन में नए मूल्यों एवं यथार्थवादी प्रवृत्तियों का चित्रण किया और 1943 ईस्वी में ‘तार सप्तक’ का संपादन कर इस प्रवृत्ति को तीव्रता देने का कार्य किया।

इन्होंने अपने कहानी तथा उपन्यासों में व्यक्ति और समाज का संघर्ष, अकेलेपन की त्रासदी से कई यथार्थ प्रश्नों को उठाए। मुक्तिबोध ने अपने लेखन के माध्यम से हिंदी आलोचना के क्षेत्र में काफी विस्तार किया।

भक्तिकाल की संपूर्ण जानकारी के लिए यहां क्लिक करें।

आधुनिक काल के कवि एवं उनकी रचनाएं

भारतेंदु युग (1850 -1900 ईस्वी)

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के वर्गीकरण में प्रथम कालखंड को ‘भारतेंदु युग’ कहा गया है। अर्थात हिंदी साहित्य का आधुनिक काल के प्रथम चरण को ‘भारतेंदु युग’ की संज्ञा दी गई है और भारतेंदु हरिश्चंद्र ही इस काल के प्रतिनिधि कवि थे।

यहां हम इस युग के रचना और उनके रचनाकार के बारे में जानेंगे:-

रचनाकार / कवि

रचनाएं

भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850 – 1885 ईस्वी)

प्रेम मालिक, प्रेम सरोवर, गीत गोविंदनंद, वर्षा विनोद, विनय, प्रेम पचासा, प्रेम फूलवारी, वेणु गीति, दशरथ विलाप, फूलों का गुच्छा (भाषा-खड़ी बोली)।

बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ (1855 – 1923 ईस्वी)

जीर्ण जनपद, आनंद मयंक महिमा, आनंद अरुणोदय, हार्दिक हर्षादर्श।

प्रताप नारायण मिश्र (1856 – 1894 ईस्वी)

प्रेम पुष्पावली, मन की लहर, लोकोक्ति शतक, श्रृंगार विलास, दंगल खंड, तृप्यंतम, ब्रेडला स्वागत।

जगमोहन सिंह (1857 – 1899 ईस्वी)

श्यामलता, प्रेम सम्पत्ति लता, श्यामा सरोजिनी, देवयानी, ॠतुसंहार, मेघदूत।

अम्बिका दत्त व्यास (1858 – 1900 ईस्वी)

पावस पचासा, सुकवि सतसई, बिहारी विहार, हो-हो-होरी।

राधाकृष्ण दास

नवभक्त माल, कंस वध (अपूर्व), भारत बारहमासा, देश दशा।

भारतेंदु मंडल:- भारतेंदु ने अपने प्रतिभा से अनेक साहित्यकारों को प्रभावित एवं प्रेरित किया। इन्होंने भारतेंदु से प्रेरणा लेकर हिंदी साहित्य की समृद्धि की। भारतेंदु मंडल के प्रमुख रचनाकार- बालकृष्ण भट्ट, प्रताप नारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी (प्रेमधन), राधा चरण गोस्वामी, राधाकृष्ण दास, लाला श्रीनिवास दास, सुधाकर द्विवेदी एवं अंबिका दत्त व्यास।

अवश्य पढ़ें:- हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण

द्विवेदी युग / जागरण सुधारकाल (1903 – 1916 ईस्वी)

यह भारतेंदु युग के बाद का काल है। ‘द्विवेदी युग’ का नाम इस समय के विचारक और साहित्य के प्रणेता आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के नाम पर पड़ा। इस काल को हिंदी साहित्य के इतिहास में ‘जागरण सुधार काल’ भी कहा जाता है।

इस समय ब्रिटिश हुकूमत की दमनकारी नीति से जनता परेशान थी। देश के स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं द्वारा स्वराज की मांग को की जा रही थी। कई नेता जैसे- तिलक, गोपालकृष्ण गोखले आदि देश के स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे।

अतः इस काल में साहित्यकारों ने देश की दुर्दशा का चित्रण के साथ-साथ आजादी के लड़ाई के लिए भी प्रेरणा देने एवं राजनीतिक जागृति लाने का काम किया।

द्विवेदी युग के रचना एवं उनके रचनाकार:-

रचनाकार

रचनाएं

मैथिली शरण गुप्त(प्रवर्तक) (1886 – 1964)

जयद्रथ वध, भारत-भारती, पंचवटी, साकेत, यशोधरा, द्वापर, रंग में भंग, जय भारत, गुरुकुल, शकंतला, चंद्रहास, विष्णु प्रिया।

अयोध्या सिंह उपाध्याय (हरिऔध) (1865 – 1941)

प्रिय प्रवास, चौखे-चौपदे, वैदेही, चुभते चौपदे, वनवास, पारिजात, कव्यो पवन, प्रेम प्रपंच, पद्य प्रसून।

श्रीधर पाठक (1859 – 1928)

कश्मीर सुषमा, देहरादून, एकांतवासी योगी, श्रांत पथिक, उजड़ा ग्राम।

रायदेवी प्रसाद पूर्ण (1868 – 1915)

स्वदेशी कुंडल, मृत्युंजय, राम रावण विरोध, वसंत वियोग।

रामचरित उपाध्याय (1872 – 1938)

राष्ट्रभारती, देवदूत, मेघदूत, भारत भक्ति, रामचरित चिंतामणि, देव सभा, सत्य हरिश्चंद्र।

गया प्रसाद शुक्ल (1883 – 1972)

कृषक क्रंदन, प्रेम पचीसी, त्रिशूल तरंग, करुणा, कदम्बिनी।

रामनरेश त्रिपाठी  (1989 – 1962)

मिलन, पथिक, मानसी, स्वप्नमयी।

माखनलाल चतुर्वेदी (1889 – 1968)

हिमकिरीटनी, हिमतरंगिणी, समर्पण युग चारण।

बालकृष्ण शर्मा नवीन (1897 – 1960)

कुमकुम, उर्मिला, रश्मि रेखा, क्वासी हम विषपायी जनम के।

सुभद्रा कुमारी चौहान (1905 – 1948)

त्रिधारा, मुकुल।

श्याम नारायण पांडे

हल्दीघाटी, जौहार।

सोहनलाल द्विवेदी (1889 – 1928)

भैरवी, वासवदाता, कुणाल प्रभाती, पूजा गीत।

जगन्नाथ दास रत्नाक (1866 – 1932)

उध्दव शतक, गंगावतरण, श्रृंगार लहरी, हिंडोला।

पढ़ें:- भाषा परिवार और उसका वर्गीकरण

छायावाद (1918 – 1938 ईस्वी)

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में ‘द्विवेदी युग’ के बाद जो हिंदी काव्य धारा चली उस काल को ‘छायावाद’ कहा गया। द्विवेदी युग की कविता नीरस उपदेशात्मक और इतिवृत्तात्मक थी इसी के विरोध में छायावाद का जन्म हुआ। डॉ नागेंद्र का कहना है कि- “स्थूल के प्रति सूक्ष्म के विद्रोह ‘छायावाद’ है।”

इस काल में काव्य की विषय वस्तु स्वच्छंद प्रेम भावना, प्रकृति पूजा ,कला की दृष्टि से लाक्षणिकता प्रधान नवीन अभिव्यंजना पद्धति देखने को मिलती है।

छायावादी युग के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं:-

रचनाकार

रचनाएं

जयशंकर प्रसाद (छायावाद के प्रवर्तक) (1890 – 1937)

कानन-कुसुम, चित्राहार , महाराणा का महत्व, करुणालय, झरना, आंसू, लहर, कामायनी।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला (1897 – 1961)

अनामिका, परिमल, गीतिका, तुलसीदास, कुकुरमुत्ता, सरोज स्मृति, गीत गूंज, आराधना, बेला, नए पत्ते, अर्चना अणिमा।

सुमित्रानंदन पंत (1900 – 1977)

ग्रंथि, वीणा, पल्लव, गुंजन, युगांतर, युगवाणी, ग्राम्या, स्वर्ण किरण, स्वर्ण धली, उत्तरा, लोकायतन, चितंबर, सौवर्ण, अभिषेकित, रश्मि बंध, कला और बूढ़ा चांद, रजत शिखर।

महादेवी वर्मा (1907 – 1987)

नीहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यागीत, दीपशिखा, यामा।

डॉ रामकुमार वर्मा (1905 –        )

अंजलि, चंद्रकिरण, चित्ररेखा, रूपराशि, अभिशाप, वीर हमीर, चित्तौड़ की चिता, निशीथ, एकलव्य।

प्रगतिवाद (1936 – 1943 ईस्वी)

छायावाद की सूक्ष्मता, कल्पनात्मकता, व्यक्तिवादिता और समाज-विमुखता की विरोध स्वरूप एक नई साहित्यिक काव्य धारा का जन्म हुआ जिसे ‘प्रगतिवाद’ कहा गया। इस धारा में कल्पनात्मकता से हटकर यथार्थता पर ध्यान दिया गया। अतः जीवन का यथार्थ और वास्तु वादी दृष्टिकोण इस समय के कविता का आधार बना।

प्रगतिवाद युग के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं:-

प्रगतिवादी कवियों को तीन भागों में बांटा जा सकता है-

  1. छायावाद से संबंधित कवि
  2. प्रगतिवादी कवि (मूल रूप से)
  3. प्रगतिवादी में शुरुआत एवं नई कविता (प्रयोगवादी) में लेखन कार्य जारी रखने वाले।
  • छायावाद से संबंधित कवि:- सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, नरेंद्र शर्मा, भगवती चरण शर्मा, रामेश्वर शुक्ल ‘अंचल’, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, माखनलाल चतुर्वेदी, रामधारी सिंह दिनकर, उदय शंकर भट्ट, उपेंद्रनाथ ‘अश्क’, जगन्नाथ प्रसाद ‘मिलिंद’, आदि। इन्होंने प्रगतिवादी साहित्य में विशेष योगदान दिया।
  • प्रगतिवादी कवि:- इन्हें मूल रूप से प्रगतिवादी कवि माना जाता है:-

रचनाकार

रचनाएं

नागार्जुन (1911 – 1998)

युग धारा, सतरंग पंखों वाली प्यासी पथराई आंखें, भस्मांकुर तुमने कहा था।

केदारनाथ अग्रवाल (1911 -1995)

युग की गंगा, नींद के बादल, फूल नहीं रंग बोलते हैं, आग का आईना, समय-समय पर।

त्रिलोचन शास्त्री (1917 – 2008)

धरती, मिट्टी की बारात, मैं उसे जनपद का कवि हूं।

रांगेय राघव (1923 – 1962)

अज्ञेय खंडहर, मेधावी, पंचाली।

  • प्रगतिवादी में शुरुआत एवं नई कविता (प्रयोगवादी) में लेखन कार्य जारी:- इस वर्ग में गजनन, मुक्तिबोध, अज्ञेय, भारत भूषण अग्रवाल, भवानी प्रसाद मिश्र, नरेश मेहता, शमशेर बहादुर सिंह, धर्मवीर भारती। इनके लेखन में प्रगतिवाद की विशेषता दिखाई पड़ती है लेकिन इन्हें प्रयोगवादी कवि ही माना जाता है।

⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।

प्रयोगवाद (1944 – 1955 ईस्वी)

नई दिशा में अन्वेषण का प्रयास ही ‘प्रयोगवाद’ शब्द का अर्थ है। पूर्ववर्ती काव्य के प्रतिक्रिया स्वरूप इस युग का उदय हुआ। इस काव्य धारा के प्रेरक तत्व थे- स्वच्छंदवादी विचारधारा तथा साम्यवाद का विरोध करने वाली राजनीतिक बंधनो को तोड़कर नवीन प्रयोग करने की प्रवृत्ति।

प्रगतिवाद का क्षेत्र संकुचित था वहीं ध्येय बहुत व्यापक था। जबकि प्रयोगवाद में क्षेत्र और ध्येय दोनों ही व्यापक थे। प्रयोगवाद के कवियों में सर्वप्रथम तारसप्तक के कवि आते हैं। इसके प्रवर्तक कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ हैं। कुल चार तारसप्तक प्रकाशित हुए जिनके संपादक स्वयं अज्ञेय ही थे।

इस काल के तारसप्तक कवि :-

  • प्रथम तारसप्तक कवि- अज्ञेय, भारत भूषण अग्रवाल, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, गिरिज्ञा कुमार माथुर, नेमीचंद जैन, रामविलास शर्मा।
  • दूसरे तारसप्तक कवि- भवानी प्रसाद मिश्र, शमशेर बहादुर सिंह, हरि नारायण व्यास, शंकुल माथुर, नरेश मेहता, धर्मवीर भारती।
  • तीसरे तारसप्तक कवि- प्रयाग नारायण त्रिपाठी, मदनवत्यायन, केदारनाथ सिंह, कीर्ति चौधरी, कुवंर नारायण, जय देवनारायण साही, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना।
  • चौथे तारसप्तक कवि- राजेंद्र किशोर, श्री राम शर्मा, अवधेश कुमार, राजकुमार कुंभज, स्वदेश भारती, नंदकिशोर आचार्य, सुमन राजे।

अब हम इस कल के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं देखेंगे:-

कवि

रचनाएं

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय (1911 – 1987)

भग्नदूत, चिन्ता, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, अरी ओ करुणा प्रभामय, आंगन के पार द्वार, पहले सन्नाटा बुनता हूं, नदी की बांक पर छाया, इत्यलम, इंद्रधनुष रौंदे हुए थे, सुनहले शैवाल, कितनी नावों में कितनी बार, सागर-मुद्रा, क्योंकि मैं उसे जानता हूं, महावृक्ष के नीचे।

भारत भूषण अग्रवाल (1919 – 1975)

छवि के बंधन, जागते रहो, मुक्ति मार्ग, एक उठा हुआ हाथ, ओ अप्रस्तुत मन, कागज के फूल, अनुपस्थित लोग, उतना वह सूरज है।

गजानन माधव मुक्तिबोध (1917 – 1964)

चांद का मुंह टेढ़ा है, भूरी-भूरी खाक धूल।

प्रभाकर माचवे (1917 –     )

स्वप्न भंग, तेल की पकौड़ियां, अनुक्षण, मेपल।

गिरिजा कुमार माथुर (1919 – 1994)

नाश और निर्माण, धूप के धान, शीला पंख चमकीले, पंजीर, भीतरी नदी की यात्रा, जो बंध नहीं सका, छाया मत छूना मन, साक्षी रहे वर्तमान, कल्पांतर।

नेमीचंद जैन (1918 –    )

विभिन्न पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

रामविलास शर्मा

रूप तरंग।

भवानी प्रसाद मिश्र (1914 – 1985)

गीत फरोश, अंधेरी कविताएं, चकित है दुख, त्रिकाल संध्या, बुनी हुई रस्सी, गांधी पंचशती, खुशबू के शिलालेख, अनाम तुम आते हो, परिवर्तन कीजिए, मानसरोवर दिन।

शकुंत माथुर (1922 –     )

चांदनी चूनर, सुहाग बेला, कूड़े से भरी गाड़ी।

नरेश मेहता (1927 –    )

बोलने दो चीड़ को, वनपारवी सुनो, उत्सव, मेरा समर्पित एकांत, संशय की एक रात।

रघुवीर सहाय (1929)

सीढ़ीयों पर धूप में, हंसो जल्दी-जल्दी हंसो, आत्महत्या के विरुद्ध, लोग भूल गए हैं।

शमशेर बहादुर सिंह (1911 – 1993)

चुका भी नहीं हूं मैं, ददिता, बात बोलेगी हम नहीं, कुछ कविताएं, कुछ और कविताएं, इतने पास अपने।

हरिनारायण व्यास

मृग और तृष्णा, त्रिकोण पर सूर्योदय।

धर्मवीर भारती (1926 – 1997)

कनुप्रिया, ठंडा लोहा, सात गीत वर्ष, अंधा युग।

प्रयाग नारायण त्रिपाठी

विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

कीर्ति चौधरी (1935)

खुले हुए आसमान के नीचे, कविताएं।

मदन वात्स्यायन

अपथगा, शुक्र तारा।

केदारनाथ सिंह (1936)

अभी बिल्कुल अभी, जमीन पक रही है, यहां से देखो।

कुंवर नारायण (1927)

चक्रव्यूह, आत्मजयी, परिवेश, हम-तुम, आमने-सामने।

विजय देवनारायण साही (1924)

मछली घर, साखी।

सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (1927 – 1984)

काठ की घंटियां, एक सूनी नाव, गर्म हवाएं, बांध का पुल, जंगल का दर्द, कुआनो नदी, बांस के पुल, कविताएं -1, कविताएं -2, खुंटियों पर टंगे लोग।

नलिन विलोचन शर्मा

नकेन प्रपद्य।

केसरी कुमार

नकेन प्रपद्य।

नरेश

नकेन प्रपद्य।

नई कविता (1951 – अब तक)

प्रयोगवादी के आगे कविता का जो दौर आया ‘नई कविता’ कहलाया। इस यग के कविता में नए मूल्यों और नए शिल्प विधानों के साथ-साथ नए भावबोधों की अभिव्यक्ति हमें देखने को मिलती है। हमने तारसप्तक के चार प्रशासन के बारे में पूर्व में देखा। दूसरे तारसप्तक के प्रकाशन वर्ष 1951 ईस्वी से नई कविता का प्रारंभ माना जाता है। दूसरे तारसप्तक के कवियों ने अपनी कविता को नई कविता की संज्ञा दी है। 1953 ईस्वी में ‘नये पत्ते’ नाम से और 1954 ईस्वी में ‘नई कविता’ नाम से जो पत्रिकाएं प्रकाशित हुई उनमें इसी प्रकार की कविताएं हैं।

नई कविता युग के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं:-

कवि

रचनाएं

वीरेंद्र कुमार जैन

शून्य पुरुष और वस्तुएं।

विजय देवनारायण साही

मछली घर।

शमशेर बहादुर सिंह

कुछ कविताएं, कुछ और कविताएं, प्रमुख कविता संग्रह।

श्रीकांत वर्मा

दिनारम्भ, भटका मेघ, माया दर्पण, जल सागर।

धूमिल

संसद से सड़क तक, कल सुनना मुझे, सुदामा पांडे का प्रजातंत्र।

लीलाधर जूगाड़ी

रात अब भी मौजूद है, बची हुई पृथ्वी।

कुमार विमल

एक छोटी सी लड़ाई।

श्याम विमल

इतना जो मिला।

केदारनाथ सिंह

यहां से देखो, उत्तर कबीर, आकाल में सारस।

पढ़ें:- देवनागरी लिपि किसे कहते हैं? देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई?

निष्कर्ष

उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि हिंदी साहित्य का आधुनिक काल बहुत विस्तृत एवं व्यापक है। साथ ही हिंदी साहित्य की जो प्राचीन से चली आ रही परंपरा आधुनिक काल में आकर और अधिक व्यापक हो गई है। एवं समय के साथ इसकी प्रवृत्तियों में भी बदलाव देखने को मिलता है।

हिंदी साहित्य के विकास में योगदान देने वाले कवियों ने अपना सर्वस्व डालकर हिंदी साहित्य के विकास में योगदान दिया। इस समय गद्यात्मक और पद्यात्मक दोनों रूप से हिंदी साहित्य का विकास हमें देखने को मिलता है। गद्य में विभिन्न विधाओं से नाटक, निबंध, कहानी, उपन्यास, जीवनी, आत्मकथा आदि की रचना हुई। पूर्ववर्ती कालों में जहां भक्ति और श्रृंगार रस की नियंत्रित सीमा रेखा थी वहीं आधुनिक काल में आकर जनजीवन में घुल-मिल गया।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button