इल्तुतमिश कौन था? (1211-36 ईस्वी) | iltutmish in hindi
कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु के बाद उसके समर्थकों में अशांति फैल गई क्योंकि कुतुबुद्दीन की मृत्यु अचानक चौगान खेलते वक्त घोड़े से गिरने के कारण हो गई थी लाहौर में भी ऐबक के चाहने वाले पदाधिकारियों (कुतुबी सरदारों) ने उसके बेटे आराम शाह को गद्दी पर बैठा दिया लेकिन दिल्ली के अधिकारी और नागरिकों ने उसे सुल्तान मानने से इनकार कर दिया क्योंकि वह अयोग्य एवं दुर्बल था इनका मानना था कि सत्ता का बागडोर एक योग्य व्यक्ति के हाथ में हो इसलिए जो प्रमुख काजी थे उन्होंने कुतुबुद्दीन के दामाद इल्तुतमिश जो इस समय बदायूं में शासक था उसे बुलाकर सत्ता में बैठने के लिए आमंत्रित किया लेकिन आराम शाह इसे मानने के लिए तैयार न था वह किसी भी हालत में गद्दी छोड़ना नहीं चाहता था गद्दी के लिए युद्ध करने के लिए भी तैयार था दूसरी ओर नसीरुद्दीन कुबाचा जो ऐबक के समय उच्च का शासक था इल्तुतमिश और कुबाचा के आपसी झगड़े का लाभ उठाना चाहता था वह मुल्तान पर अधिकार कर लिया एवं बंगाल के शासक अलीमर्दान जो स्वतंत्र शासक बन बैठा था वह भी दिल्ली के प्रभुत्व को मानने से इनकार कर दिया।
इस समय दिल्ली में स्थित नवस्थापित तुर्की साम्राज्य चार स्वतंत्र राज्यों में बँट गया :-
- लाहौर में आरामशाह
- दिल्ली में इल्तुतमिश
- बदायूं में कुबाचा
- बंगाल (लखनौती) में अलीमर्दान खाँ
लाहौर के लोगों ने आराम शाह का समर्थन किया। इनकी सहायता से आराम शाह ने इल्तुतमिश के विरुद्ध युद्ध के लिए चल पड़ा। युद्ध में आराम शाह की हार हो गई अंततः उसने 8 महीने ही शासन कर सका।
अब हम इल्तुतमिश के प्रारंभिक जीवन के बारे में देखेंगे:-
इल्तुतमिश का प्रारंभिक जीवन
इल्तुतमिश का पूरा नाम शम्मसुद्दीन इल्तुतमिश था और इनके पिता का नाम इलाम खाँ था। ये इल्बारी कबीले से आते थे। इनका जो वंश था वह शम्सी वंश (इल्बारी तुर्क) कहलाता था। इल्तुतमिश के पिता इलाम खाँ इल्बारी कबीले के प्रधान थे। इनका जन्म एक तुर्क माता-पिता से हुआ था। इनके भाइयों ने इसे दास बनाकर जमालुदीन नामक एक व्यापारी के हाथ बेच दिया था। इन्होंने ही कुतुबुद्दीन के हाथों दुबारा बेच दिया। इल्तुतमिश सुंदर और बुद्धिमान था। इल्तुतमिश से प्रसन्न होकर मोहम्मद गौरी ने कुतुबुद्दीन को लिखा था:- “इल्तुतमिश से अच्छा व्यवहार करना किसी दिन वह ख्याति प्राप्त करेगा।” कुतुबुद्दीन ऐबक ने इल्तुतमिश को खरीदते ही “सर-ए-जाँदार” (अंगरक्षकों का प्रधान) का महत्वपूर्ण पद दे दिया। इसके बाद वह एक के बाद एक उच्च पद प्राप्त करता गया और उसे “अमीरे-शिकार” का पद भी मिल गया।
कुतुबुद्दीन ऐबक ने इल्तुतमिश को प्रारंभ में छोटे-छोटे प्रांतों का शासक नियुक्त किया। जैसे- ग्वालियर जीतने के बाद ग्वालियर का किला इल्तुतमिश को सौंपा। इसके बाद बुलंदशहर का शासक नियुक्त हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी पुत्री का विवाह भी इल्तुतमिश से कर दिया। इसके बाद बदायूं का सूबेदार नियुक्त हुआ फिर 1211 ईस्वी में वह सुल्तान के पद पर पहुंच गया।
इल्तुतमिश गुलाम वंश का पहला शासक था जो सत्ता में बैठने से पूर्व ही अपनी दासता से मुक्त हुआ एवं 1229 ईस्वी में खलीफा से सुल्तान का पद हासिल किया था। इसलिए इल्तुतमिश को गुलाम वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है।
इल्तुतमिश का सिंहासनारोहण
इल्तुतमिश कुतुबुद्दीन का दामाद था। वह ऐबक का वंशज नहीं था साथ ही शम्सी वंश के होने के कारण दिल्ली की सिहासन में एक नए राजवंश का स्थापना हो गया। इल्तुतमिश को दिल्ली की गद्दी को पाने का अधिकार नहीं था क्योंकि वह कुतुबुद्दीन ऐबक का उत्तराधिकारी (वंशज) नहीं था। इस बात की कई इतिहासकारों ने समर्थन भी किया है जैसे:-
- डॉ अर्नोल्ड का कहना है कि इल्तुतमिश दिल्ली के सिंहासन को हड़प लिया था क्योंकि उस सिंहासन पर उसका न्यायोचित अधिकार नहीं था।
कई अन्य इतिहासकारों ने भी इसका समर्थन किया है उन्होंने कहा- कि आराम शाह कुतुबुद्दीन ऐबक का पुत्र था। इसलिए उसे लाहौर के तुर्की सरदारों ने उसे सुल्तान चुना था। जबकि इल्तुतमिश ऐबक का दामाद केवल था।
- कई इतिहासकार उपरोक्त कथन का खंडन करते हैं जैसे:- मिन्हाज का कहना था- कि कुतुबुद्दीन ऐबक के कोई भी पुत्र नहीं थी उसके केवल 3 बेटियां थी।
अब्दुल्ला बस्साफ ने भी इसका समर्थन किया है अतः वह (आराम शाह) पैतृक आधार पर ऐबक का उत्तराधिकारी नहीं बन सकता था।
- आधुनिक इतिहासकारों का मानना है कि उस समय सिहासन प्राप्त करना एक वंशानुगत अधिकार की परंपरा नहीं थी और तलवार की शक्ति ही शासकों का निर्णय करती थी। अतः इल्तुतमिश का सत्ता हथियाना कोई अवैध तरीका नहीं था। आराम शाह को लाहौर के सरदारों का समर्थन था और इल्तुतमिश को दिल्ली के सरदारों का। इल्तुतमिश अधिक योग्य और शक्तिशाली होने के कारण युद्ध में आराम शाह को हराकर दिल्ली की गद्दी प्राप्त कर ली।
- डॉ आर पी त्रिपाठी के अनुसार इल्तुतमिश का दिल्ली के सिहासन पर न्यायोचित अधिकार था क्योंकि उसे दिल्ली के सरदारों ने चुना था। तथा उसने बगदाद के खलीफा से भी अपने लिए सुल्तान पद प्राप्त कर ली थी। इस प्रकार व कानूनी तरीके से दिल्ली का प्रथम स्वतंत्र सुल्तान हुआ।
गुलाम वंश का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक कौन था? विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।
इल्तुतमिश की कठिनाइयाँ एवं सैनिक कार्यवाही
सिंहासनारुढ़ होते ही इल्तुतमिश के सामने कई कठिनाइयां आई। इल्तुतमिश के अधिकार में सिर्फ दिल्ली, बदायूं तथा बनारस से लेकर शिवालिक पहाड़ी तक का प्रदेश था। कुबाचा मुल्तान का स्वामी था एवं उसने अपने साम्राज्य में भटिंडा, कुहराम और सरसुती तक को मिला लिया था एवं आराम शाह और इल्तुतमिश के आपसी झगड़े का लाभ उठाकर लाहौर पर भी अधिकार कर लिया।
बंगाल, बिहार भी दिल्ली से अलग हो गए एवं अलीमर्दान जो लखनौती में था खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। राजपूतों ने भी वार्षिक कर देना बंद कर दिया था एवं स्वतंत्र बन बैठे थे। प्रतिहार शासक भी ग्वालियर, अजमेर एवं दोआब पर स्वतंत्र हो गए थे। एल्दौज भी पूरे हिंदुस्तान में अपना दावा पेश कर रहा था।
आराम शाह भी दिल्ली के कुछ शाही रक्षकों से मिलकर विद्रोह करना चाहते थे साथ ही साथ इस समय मंगोल आक्रमण का भय बना हुआ था।अतः हम यहां पर इल्तुतमिश के समक्ष आए हुए कठिनाइयों एवं उनके दमन को सिलसिलेवार तरीके से देखेंगे।
एल्दौज से संघर्ष
इल्तुतमिश ने अपने सामने आए कठिनाइयों को हल करने के लिए कूटनीति से काम लिया। इल्तुतमिश जानता था कि एल्दौज पूरे हिंदुस्तान पर अपना अधिकार जताना चाहता है और दिल्ली में बैठे सुल्तान को भी अपने अधीन समझता है।
अतः उसने समझौता कर एक बहाना बनाया कि वह एल्दौज का अधीनता स्वीकार करता है और उसके द्वारा भेजे गए राजदण्ड, छत्र, चिन्ह स्वीकार कर लिया। उधर आराम शाह के भी दिल्ली भेजे दल का दमन चतुराई से किया। इल्तुतमिश ने ख्वारिज्म शाह जो गजनी का अधीनस्थ राज्य पूरे हिंदुस्तान को मानता था अपना प्रभुत्व न स्थापित कर ले 1215 ईस्वी में ख्वारिज्म शाह द्वारा पराजित होकर लाहौर में शरण लिए हुए एल्दौज को तराइन में पराजित कर बंदी बनाकर बदायूं भेज दिया। जहां एल्दौज की मृत्यु हो गई।
एल्दौज की मृत्यु होने से इल्तुतमिश को दो लाभ हुए- पहला उसका मुख्य शत्रु का खात्मा और दूसरा दिल्ली का गजनी से संबंध विच्छेद हो गया।
चंगेज खाँ का आक्रमण / मंगोल आक्रमण का भय
इस समय इल्तुतमिश के सामने एक और भय मंडरा रहा था। क्योंकि इस समय चंगेज खां के नेतृत्व में मंगोल अपने साम्राज्य का विस्तार कर रहे थे और ख्वारिज्म शाह के साम्राज्य को खत्म कर अधिकार में ले लिए। ख्वारिज्म शाह कैस्पियन के किनारे भाग गया साथ ही उनका बेटा जलालुद्दीन मांगबर्नी भाग कर पंजाब आया। कहा जाता है कि मंगोल बौद्ध धर्म के अनुयाई थे इसके बावजूद बहुत खुखार थे। वह (चंगेज खां) मांगबर्नी का पीछा किया।
कुछ दिनों बाद मांगबर्नी ने सिंधु सागर के दोआब पर अधिकार कर एक छोटा राज्य की स्थापना की एवं उसने अपने बेटी का ब्याह एक खोक्खर सामंत से कर दिया। ये खोक्खर सिंध के सामंत थे जो बहुत शक्तिशाली थे। खोक्खरों के ही सहायता से मांगबर्नी ने उत्तर-पश्चिम पंजाब और मुल्तान में विजय हासिल की और कुबाचा को भी भगाकर सिंधु सागर दोआब पर अधिकार किया। उन्होंने आसपास के प्रदेश को भी जीत लिया (जिसमें सियालकोट के पस्तुर, रावी एवं चिनाब के प्रदेश) इसके बाद उसने लाहौर की ओर बढ़ा और इल्तुतमिश से शरण मांगी। इस समय इल्तुतमिश के साम्राज्य में लाहौर भी था।
इल्तुतमिश ने बुद्धिमत्ता से काम लिया उसने मांगबर्नी को शरण देने से इनकार कर दिया क्योंकि इल्तुतमिश को पता था कि मांगबर्नी का पीछा करते हुए चंगेज खां 1220 ईस्वी में सिन्ध तक पहुंच तो गए थे ऐसे में मांगबर्नी को शरण देकर उन्हें आक्रमण करने के लिए आमंत्रित करने जैसा था।
इल्तुतमिश द्वारा शरण न देने पर ख्वारिज्म के राजकुमार मांगबर्नी ने अपना अपमान समझा और बदले की भावना से इल्तुतमिश के राज्य पर आक्रमण की योजना बनाई इल्तुतमिश भी पीछे न हटा लेकिन मांगबर्नी ने इल्तुतमिश से टक्कर लेना उचित न समझा और वह पीछे हट गया। अतः इल्तुतमिश की एक बड़ी समस्या जो इस वक्त इल्तुतमिश को परेशान कर रहा था उससे उसे छुटकारा मिल गया। चंगेज खान भी इल्तुतमिश के साम्राज्य के किनारे से ही वापस अफगानिस्तान को चला गया। इससे चंगेज खाँ के आक्रमण से भी दिल्ली सुरक्षित हो गया।
नासिरुद्दीन कुबाचा से संघर्ष
मंगोलों के वापस चले जाने के बाद मांगबर्नी भी 3 वर्ष भारत में रहकर वापस चला गया। 3 वर्ष तक उसे पंजाब में रहने से यह हुआ कि कुबाचा को बिल्कुल ही शक्ति विहीन कर दिया। मांगबर्नी के वापस जाते ही कुबाचा के राज्य को इल्तुतमिश अपने अधिकार में ले लिया। मांगबर्नी के जाने के बाद सिंध और मुल्तान ही केवल कुबाचा के हाथ में रह गए थे। इस समय कुबाचा भी शक्ति हीन हो चुका था इसका लाभ उठाकर इल्तुतमिश ने उसके राज्य पर दो ओर से आक्रमण की योजना बनायी।
1228 ईस्वी में उसने दो सेनाएं भेजी एक लाहौर से मुल्तान के लिए और दूसरी दिल्ली से उच्च पर आक्रमण के लिए। 3 महीने तक घेराबंदी के बाद कुबाचा निचले सिंध में स्थित भक्कर के किले पर शरण ली और उसने संधि समझौता करना चाहा। लेकिन इल्तुतमिश ने बिना संधि शर्त के आत्मसमर्पण के लिए कहा लेकिन कुबाचा इसके लिए तैयार नहीं हुआ। ऐसी स्थिति में इल्तुतमिश की दिल्ली की सेनाओं ने 1228 ईस्वी में भक्कर में भयंकर प्रहार किया जिससे डरकर कुबाचा ने सिंधु नदी पर कूदकर जान दे दिया।
इल्तुतमिश ने उच्च और मुल्तान को जीतकर दिल्ली राज्य में मिला लिया और इसे तीन सूबों में व्यवस्थित कर (लाहौर, मुल्तान और सिन्ध) दिया।
इस समय इल्तुतमिश के लाहौर के सूबे में संपूर्ण पंजाब नहीं था। उत्तर में सियालकोट इसके राज्य की सीमा थी एवं सिंध सागर दोआब अब खोक्खर जाति के अधिकार में था। पश्चिम में स्थित बनियान प्रदेश मांगबर्नी के सहायक कार्लगू (सैफुद्दीन मर्लगू) के हाथ में था। इल्तुतमिश ने अपने तीनों सूबों (लाहौर, मुल्तान और सिन्ध) के सूबेदारों को समस्त पंजाब को जीतकर दिल्ली में मिलाने की आज्ञा दी। इल्तुतमिश के सूबेदार भी अनेक आक्रमण किए और पंजाब के कुछ हिस्सों को जीतने में सफल हुए।
उत्तर भारत के इन्हीं सभी सैनिक कार्यवाहीयों में व्यस्त रहने के कारण इल्तुतमिश ने बंगाल की ओर ध्यान न दे सका और हमें यह देखने को मिलता है कि इस समय तक आते-आते बंगाल में खलजी शासक अलीमर्दान ने अपनी पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कर दी। अतः अब इल्तुतमिश के सामने एक और बड़ी चुनौती सामने आई और वह थी कि बंगाल की पुनर्विजय।
बंगाल की पुनर्विजय
अब इल्तुतमिश के सामने बंगाल का पुनर्विजय करने का समय आ चुका था क्योंकि इस समय तक आते-आते अलीमर्दान खाँ (खलजी शासक) ने अपने को स्वतंत्र शासक के रूप में स्थापित कर दिया था वह था भी दुष्ट एवं दुराचारी। अतः खलजियों ने भी उनका विरोध करना शुरू कर दिया अंततः उन्होंने उसका वध ही कर डाला और बंगाल पर हुसामुद्दीन ऐवाज का अधिकार हो गया जिन्होंने सुल्तान गियासुद्दीन की उपाधि धारण कर आसपास के (बिहार) प्रदेशों को अपने राज्य में मिला लिया। एवं कई पड़ोसी प्रदेशों से कर वसूल करना शुरू कर दिया। इल्तुतमिश ऐसा करने नहीं देना चाहता था क्योंकि बंगाल कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से ही दिल्ली की अधीनता स्वीकार करता आया था
अतः बिहार को जीतने के लिए इल्तुतमिश ने सेना भेजी और 1225 ईस्वी में एवाज ने बिना लड़े इल्तुतमिश का प्रभुत्व स्वीकार करने के लिए मान गया और वार्षिक कर के साथ-साथ युद्ध हर्जाना भी भरने का वचन दिया। इल्तुतमिश ने बिहार में अपना सूबेदार नियुक्त कर वापस दिल्ली मुड़ा। यह देखकर एवाज ने अपने को फिर से स्वतंत्र कर लिया।
अब इल्तुतमिश ने अपने बेटे नासीरुद्दीन (जो इस समय अवध का शासक था) को 1226 ईस्वी में भेजा ताकि उसे (एवाज) जाकर दंड दे। नसीरुद्दीन ने एवाज को हरा कर मार डाला एवं लखनौती को जीतकर पुनः बंगाल को दिल्ली का प्रांत घोषित कर दिया। नसीरुद्दीन के मृत्यु के बाद लखनौती में पुनः हमें विद्रोह देखने को मिलता है और बल्का खलजी ने गद्दी हथिया ली। अतः इल्तुतमिश 1230 ईस्वी में दूसरी बार लखनौती अपनी सेना भेजी। युद्ध में बल्का खलजी मारा गया और बंगाल पुनः दिल्ली के अधीन प्रांत बन गया बिहार और बंगाल को इल्तुतमिश ने दो अलग-अलग प्रांत बना कर दो अलग-अलग सूबेदारों को नियुक्त किया।
राजस्थान में विद्रोह
राजस्थान वाले इलाके में राजपूतों ने तुर्की सूबेदारों के खिलाफ बार-बार विद्रोह कर रहे थे और इल्तुतमिश के व्यस्त होने का फायदा उठाकर अपने को स्वतंत्र कर लिए। चंदेल शासक कालिंजर और अजय गढ़ को जीत लिए। प्रतिहारों ने भी ग्वालियर से मुस्लिम सूबेदार को भगाकर किले पर अधिकार कर लिए साथ ही झांसी को भी जीत कर अपने राज्य में मिला लिए। चौहान शासक रणथंभौर में भी तुर्की सेनापतियों को भगाकर जोधपुर तथा आसपास के प्रदेश को अपने राज्य में मिला लिया। जालौर के चौहानों ने भी कई प्रदेशों जैसे:- मंदौर, रायसीन, रतनपुर, भीनमाल आदि जीतकर तुर्कों को वहां से निकाल दिया। उतरी अलवर वाले इलाके में भी राजपूतों ने अजमेर, बयाना, थंगीर आदि को अपने राज्य में मिला कर खुद को स्वतंत्र घोषित कर लिया।
अतः 1226 ईस्वी में इल्तुतमिश ने सैनिक कार्यवाही के लिए राजस्थान की ओर कूच किया। उसने सीधा राजस्थान के मध्य से ही आक्रमण शुरू किया और रणथंभौर को घेरकर अधिकार कर सैनिक नियुक्त कर आगे बढ़ा। परमारों की राजधानी मंदौर पर आक्रमण कर विजित होकर वहां भी सैनिक नियुक्त कर दिया। 1228-29 ईस्वी में जालौर को घेर डाला जहां चौहान राजा उदय सिंह ने कड़ा मुकाबला किया। अंततः उसे हार का मुंह देखना पड़ा उसने सुल्तान को वार्षिक कर देना स्वीकार किया और इल्तुतमिश ने जालौर को वापस लौटा दिया। बयाना, थंगीर एवं अजमेर को भी जीत कर अपने अधिकार में लिया और यहां भी सैनिक नियुक्त किया। और भी राजपूताना के कई इलाके थे जिसे इल्तुतमिश ने जीतकर अपने अधिकार में मिला लिया। जैसे अजमेर, सांभर, नागौर (जोधपुर) में इत्यादि।
1231 ईस्वी में ग्वालियर के किले पर घेरा डाला और वहां के प्रतिहार शासक मलवर्मन देव के साथ एक साल संघर्ष कर प्रतिहार शासक की हार हो गई। चंदेल शासक त्रिलोक वर्मन को भी हराने के लिए इल्तुतमिश ने बयाना और ग्वालियर के सूबेदार को भेजा। त्रिलोक वर्मन ने कालिंजर छोड़कर भाग गया लेकिन पड़ोस के चंदेलों ने तुर्की सूबेदार को भी परेशान किया जिससे तुर्की सूबेदार को भी भागना पड़ा।
इल्तुतमिश का पराजय
इसके बाद इल्तुतमिश ने गुहिलौतों की राजधानी नागदा पर आक्रमण किया वहां के शासक ने इल्तुतमिश को ही पराजित कर वहां से मार भगाया। सुल्तान ने गुजरात के चालुक्यों पर भी आक्रमण किया वहां भी हार का सामना करना पड़ा।
1234-35 ईस्वी में मालवा, मिलसा और उज्जैन को लूटा एवं प्राचीन मंदिरों को भी ध्वस्त किया। अतः उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि इल्तुतमिश काफी निडर शासक था दो बार पराजय का सामना करना पड़ा लेकिन बाकी के प्रदेशों को उन्होंने कुशलतापूर्वक जीतकर अपने साम्राज्य में मिला लिया।
दोआब के क्षेत्र की पुनर्विजय
इस समय तक क्योंकि इल्तुतमिश की दो बार हार से दोआब में विद्रोह हो उठे। क्योंकि अब तुर्कों की कमजोरी का पता लोगों तक पहुंचने लगा। साथ ही इल्तुतमिश तुर्की के विद्रोह (एल्दौज और कुबाचा) के विद्रोह का दमन कर रहा था। उस समय वर्तमान के उत्तर प्रदेश वाले अनेक प्रदेशों के शासकों ने खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया था। बदायूं, कन्नौज तथा बनारस के कुछ प्रदेश खुद को स्वतंत्र कर लिए। रूहेलखंड का प्रांत भी दिल्ली की अधीनता से खुद को बाहर कर लिया।
अतः अपने सत्ता को सुदृढ़ करते ही इल्तुतमिश ने दोआब के हिंदुओं के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही शुरू किया एवं बदायूं, कन्नौज एवं बनारस को जीत लिया। बहराइच पर भी सेना भेजकर जीत हासिल कर लिया। अवध में भी स्वतंत्र शासक पर आक्रमण कर दिल्ली की सत्ता स्थापित कर अपने पुत्र नसीरुद्दीन महमूद को सूबेदार नियुक्त किया। लेकिन नसीरुद्दीन को निरंतर ही स्थानीय लोगों से युद्ध करना पड़ा।
इनके शासक पिर्थु जो कि अत्यंत वीर था इसके मृत्यु के बाद ही अंतिम रूप से दिल्ली का आधिपत्य स्थापित हुआ। चंदावर तथा तिरहुत पर इल्तुतमिश का आक्रमण असफल रहा।
गुप्त साम्राज्य (Gupta Empire) के पतन के बाद भारत की स्थिति के बारे में जानने के लिए क्लिक करें।
इल्तुतमिश की मृत्यु
इल्तुतमिश की मृत्यु उसकी बीमारी के कारण हुई थी कहा जाता है कि बनियान आक्रमण के लिए जाते वक्त रास्ते में बीमार पड़ गया। उसे अपना आक्रमण की योजना स्थगित कर वापस लौटना पड़ा और फिर दिल्ली में ही अप्रैल 1236 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गई।
इल्तुतमिश के कार्य / इल्तुतमिश की उपलब्धियाँ
- इल्तुतमिश ने सबसे पहले शुद्ध अरबी सिक्के जारी किए।
- उसने चांदी का टंका तथा तांबे का जीतल चलाया। चांदी के टंका का वजन 175 ग्रेन का था एवं उस पर अरबी भाषा में लेख उत्तीर्ण था। 1 टंका 64 जीतल के बराबर होता था।
- उन्होंने 40 गुलाम सरदारों के दल अर्थात “तुर्कान-ए-चहलगानी” का गठन किया। इल्तुतमिश के सत्ता में बैठते ही कुछ “कुतुबी” (कुतुबुद्दीन के समय के सरदार) “मुइज्जी” (मोहम्मद गौरी के समय के सरदार) सरदारों ने विरोध किया। इसलिए इल्तुतमिश ने उनके विद्रोह को खत्म कर दिया एवं अपने गुलाम सरदारों का एक गुट बनाया जो “तुर्कान-ए-चहलगानी” के नाम से विख्यात हुआ। ये गुलाम सरदारों को इल्तुतमिश ने ही खरीदा था। इल्तुतमिश ने इन्हें अच्छे एवं प्रतिष्ठित पदों पर नियुक्त किया एवं ये उसके प्रशासन में काफी सहयोग करते थे। ये हमेशा इल्तुतमिश के प्रति वफादार थे।
- इल्तुतमिश को कला, स्थापत्य से लगाव था। उसने दिल्ली में कुतुबमीनार का निर्माण कराया था। इसकी नींव कुतुबुद्दीन ऐबक ने रखी थी।
- हमें धार्मिक असहिष्णुता भी दिखाई देती है क्योंकि मुस्लिम धर्म को संरक्षण देना और हिंदुओं के प्रति धार्मिक अत्याचार की नीति से ऐसा लगता है।
- इल्तुतमिश ने अपने नव स्थापित तुर्की राज्य को नष्ट होने से बचाया एवं वैधानिक स्थिति प्रदान किया। पहली बार उसने दिल्ली के गद्दी पर पुत्रों का उत्तराधिकार निश्चित कर अपने वंश की स्थाई नींव डाली। इससे पहले हमें वंशानुगत उत्तराधिकारी देखने को नहीं मिलता है।
उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि इल्तुतमिश ने काफी मेहनत कर कुतुबुद्दीन ऐबक के साम्राज्य को मजबूती प्रदान की एवं ज्यादा कुछ परिवर्तन किए बिना कुतुबुद्दीन ऐबक के परिपाटी को वैसे ही चलने दिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक और गुलाम वंश को अच्छी तरह समझने के लिए “मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण” ये लेख जरूर पढ़ें।
मूल्यांकन
उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि इल्तुतमिश एक निडर, साहसी, दूरदर्शी एवं महत्वाकांक्षी शासक था। अपनी गुलामी से चलकर अपने लिए एक स्वतंत्र सत्ता का मार्ग प्रशस्त कर पाना बहुत ही कठिन था। काफी कठिनाइयों उसके सामने थी एवं इन कठिनाइयों का समाधान कर अपने साम्राज्य को एक स्वतंत्र साम्राज्य के रूप में स्थापना करना उसका स्वयं की सफलता को ही दर्शाता है।
उन्होंने कुतुबुद्दीन ऐबक के कई अधूरे काम को पूरा किया एवं एक शक्तिशाली तुर्की साम्राज्य की स्थापना की। उसने कई प्रदेशों को जिसे गौरी ने जीता था स्वतंत्र हो जाने के कारण पुनः उसे जीतना पड़ा।
मंगोलों के आक्रमण से भी खुद के साम्राज्य को बचा पाया तो सिर्फ और सिर्फ अपनी बुद्धिमत्ता से। बंगाल की सैनिक कार्यवाही भी एक योजनाबद्ध तरीके से किया जिसके कारण वह सफलता पाई। एल्दौज एवं कुबाचा के साथ हुए संघर्ष भी महत्वपूर्ण थे क्योंकि उसके सामने ये दो बड़ी चुनौती थी जिसमें उसे सफलता मिली।
इन सभी बातों से इल्तुतमिश एक वीर एवं साहसी योद्धा था। 1-2 पराजय के बाद उसे हमेशा सफलता ही मिली एवं एक सशक्त तुर्की साम्राज्य की स्थापना करने में सफल रहा।
- हमारे देश के संविधान निर्माण में भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) का महत्वपूर्ण योगदान है। विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।
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