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एडीएम जबलपुर केस | आपातकाल | ADM Jabalpur Case in Hindi

भूमिका

एडीएम जबलपुर केस आपातकाल के दौरान मौलिक अधिकारों के हनन के खिलाफ दायर याचिका से संबंधित है। एडीएम जबलपुर केस जिसे बंदी प्रत्यक्षीकरण केस  (Habeas Corpus Case) के नाम से भी जाना जाता है। इस केस में इंदिरा गांधी सरकार के द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान सरकार के द्वारा लोगों के मौलिक अधिकारों को छीन लिया गया था। उसी मौलिक अधिकार को बचाए रखने के लिए लड़ा जाने वाला एक ऐतिहासिक केस है और इस केस में सुनाए जाने वाले फैसला भी ऐतिहासिक रहा।

एडीएम जबलपुर केस उन केसों में से एक रहा है जिन केसों के कारण भारतीय न्यायिक प्रणाली में जनहित याचिका की आवश्यकता महसूस होने लगी और हमारे भारत देश में जनहित याचिका  (Public Interest Litigation) की शुरुआत इसी के बाद हुई।

एडीएम जबलपुर केस

आपातकाल एवं एडीएम जबलपुर केस की शुरुआत

यह मामला उस समय का है जब 25 जून 1975 को इंदिरा गांधी सरकार के द्वारा अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल घोषित कर दिया गया था। और यह आपातकाल 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक 21 महीनों तक लागु रहा।

इस आपातकाल के बारे में यह समझते हैं कि क्यों आपातकाल लगाया गया था। 1971 की चुनाव में इंदिरा गांधी के जीतने पर विपक्षी नेता मिश्र राज नारायण हारने के बाद इलाहाबाद कोर्ट में चुनौती देते हैं और उन्होंने इंदिरा गांधी के खिलाफ यह कहकर याचिका लगाते हैं कि इंदिरा गांधी जी ने सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग कर चुनाव में जीत हासिल की है।

अतः मिश्र राज नारायण ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951(Representation of the People Act 1951) के तहत कोर्ट में चुनौती देते हैं। यह मामला 4 साल चलने के बाद 2 जून 1975 के दिन इसका फैसला आता है और इसमें श्रीमती इंदिरा गांधी को दोषी पाया जाता है और उनके जीते हुए चुनाव को अमान्य घोषित कर दिया जाता है। साथ में यह भी कहा गया कि इंदिरा गांधी अगले 6 साल तक कोई भी चुनाव नहीं लड़ सकती है।

ऐसे में इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया वहां से अस्थाई राहत मिली परंतु इस समय पूरे भारत में इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन भी शुरू हो चुका था।

25 जून 1975 के दिन दिल्ली में एक बहुत बड़ी रैली का आयोजन जे पी नारायण के द्वारा की जाती है। एवं जे पी नारायण ने जनता से कहा था कि जिस प्रकार महात्मा गांधी ने अहिंसा को अपनाया उसी तरह से आपलोग भी विरोध प्रदर्शन अहिंसात्मक तरीके से करेंगे।और अगर सरकार अनैतिक तरीके से कोई भी आदेश दे तो उसे मानने से इंकार कर दिया जाए।अतः यह बहुत बड़ा मामला था।

यहां पर इंदिरा गांधी ने इस पूरे मामले को आंतरिक अशांति बताते हुए धारा 352(1) के तहत पूरे भारत में आपातकाल लागू करने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से कहा।

जैसे ही आपातकाल लागू होती है वैसे ही हमारी सिविल लिबर्टी खत्म हो जाती है, जो प्रेस थी उन्हें इलेक्ट्रिक सप्लाई बंद कर दी गई। MISA (Maintenance of Internal Security Act)  के तहत जो कि 1971 में लाया गया था। विपक्ष के बड़े नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।

संविधान के द्वारा मौलिक अधिकारों का प्रावधान नागरिकों के लिए है। जैसे कि अनुच्छेद 14, 19, 21 और 22 या फिर कोई और। मौलिक अधिकार का हनन होने पर या तो हम अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट के पास जा सकते हैं या फिर अनुच्छेद 226 के तहत हाई कोर्ट जा सकते हैं। अनुच्छेद 226 अपने मौलिक अधिकार जो कि हनन हुआ है उसे वापस से बहाल करने के लिए बताया गया है।

सरकार के पास यह अधिकार नहीं है कि वह हमारे मौलिक अधिकार का हनन करे। लेकिन एक अनुच्छेद और भी है जो कि अनुच्छेद 359(1)अनुच्छेद 359(1) कहता है कि अगर पूरे देश में आपातकाल लगाई गई है तो राष्ट्रपति के पास यह पावर है कि वह एक और कानून बनाकर हमारे मौलिक अधिकार को खत्म कर सकता है अर्थात नागरिक अपने मौलिक अधिकार के हनन की अवस्था में अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट या अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट जाने के अधिकार को राष्ट्रपति आपातकाल के दौरान कानून बनाकर समाप्त कर सकता है।और हुआ भी ऐसा ही।  तत्कालीन राष्ट्रपति ने 27 जून को एक कानून पास करके चाहे वह MISA के तहत की गिरफ्तारी हो या किसी और एक्ट के तहत हो, आपातकाल में की गई गिरफ्तारी पर कोई भी व्यक्ति अपने मौलिक अधिकार को पाने के लिए सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटा सकता।

अतः जितनों ने गिरफ्तारी दी थी उन्होंने अनुच्छेद 226 के तहत हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया। उनका कहना था कि जो हमारा मौलिक अधिकार छीना गया है उसे वापस दिए जाएं।

अंततः 9 हाई कोर्ट ऐसे थे जिन्होंने पीड़ित लोगों के पक्ष में फैसला सुनाया और कहा चाहे आपातकाल क्यों ना लगी हो इन लोगों का मौलिक अधिकार है उसे अनुच्छेद 32 एवं अनुच्छेद 226 के तहत छीना नहीं जा सकता।

कोर्ट का यह भी कहना था कि चाहे आपातकाल ही क्यों ना लगी हो लोग अनुच्छेद 32 एवं 226 के तहत सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट जा सकते हैं।

ऐसे में इंदिरा गांधी सरकार हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाती है। यहीं पर यह मामला सामने निकल कर आता है और जिसे कहा जाता है “ADM जबलपुर बनाम शिवकांत शुक्ला केस”

जनहित याचिका क्या है? अधिक जानकारी के लिए पढ़ें

केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामला (1973) विस्तार पूर्वक जानने के लिए क्लिक करें

एडीएम जबलपुर केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला था वह हाईकोर्ट के फैसले को पलट देता है। सुप्रीम कोर्ट के 5 जजों वाली बेंच (जस्टिस ए एन राय, जस्टिस एच आर खन्ना, एम एच बेग, वाई वी चंद्रचूड़ और पी एन भगवती) ने 4:1 के बहुमत से फैसला सुनाते हुए यह कहा कि “संविधान द्वारा मिले हुए मौलिक अधिकार हमें शांति के समय मिले हुए हैं और अधिकारों को छोड़ना पड़ सकता है जब सरकार खतरे में हो। हमारे मौलिक अधिकार नीचे हैं उससे ऊपर हमारा सार्वजनिक सुरक्षा की बात है। और हमारी स्वतंत्रता का अधिकार तो संविधान के द्वारा मिला हुआ उपहार है।”

इस बेंच ने यह भी कहा कि “संविधान अगर स्वतंत्रता दे सकता है तो वापस ले भी सकता है”। यह फैसला 4 जजों ने सुनाया लेकिन एच आर खन्ना जो इस फैसले से सहमत नहीं थे उनका मानना था कि यह अधिकार हमें संविधान ने नहीं, यह तो (संविधान के बनने से पहले) उससे भी पहले मिला हुआ था इन्होंने यह भी कहा कि किसी की मौलिक अधिकार को छीनना बिना कानूनी प्रक्रिया के सही नहीं है। संविधान बनने के पहले भी यह सही नहीं था और बाद में भी।

बाद में 2017 में एक और फैसला से एच आर खन्ना के मत को बढ़ावा मिलता है। यह केस था के एस पुट्टास्वामी बनाम भारतीय संघ मामला जिसे प्राइवेसी जजमेंट मामला भी कहा जाता है। इस केस ने ADM जबलपुर मामला के फैसले को पलट दिया और एच आर खन्ना की जजमेंट को बढ़ावा देते हुए कहा गया कि बिना किसी कानूनी प्रक्रिया के किसी के भी मौलिक अधिकार को छीना या कम नहीं किया जा सकता है। क्योंकि यह अधिकार हमें संविधान के बनने से पूर्व से ही हमें मिला है।

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