History

गुलाम वंश (slave dynasty) का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक कौन था? | kutubuddin aibak in hindi

दिल्ली में 1206 से 1290 ईस्वी के मध्य में तुर्कों ने एक गुलाम वंश (slave dynasty) की नींव डाली जिसके संस्थापक थेकुतुबुद्दीन ऐबक। चूँकि इस समय (1206-1290 ईस्वी) में 3 महान शासक हुए एवं तीनों ने अलग-अलग वंश की नींव डाली क्योंकि ये (कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश एवं बलबन) तीनों अलग-अलग वंश के थे।

दिल्ली का पहला तुर्क शासक कुतुबुद्दीन ऐबक था इसे ही भारत में तुर्की साम्राज्य का संस्थापक भी माना जाता है। चूँकि कुतुबुद्दीन ऐबक मोहम्मद गौरी का दास (गुलाम) था अतः मोहम्मद गौरी ने भारतीय प्रदेशों के विजित प्रदेशों पर कुतुबुद्दीन ऐबक को सूबेदार नियुक्त कर दिया। अर्थात मोहम्मद गौरी गौर का सुल्तान था न कि दिल्ली का।

अंततः कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का गुलाम होते हुए दिल्ली का शासक बनाया गया। इसलिए ऐबक द्वारा स्थापित वंश को गुलाम वंश के नाम से जाना जाता है।  कुतुबुद्दीन ऐबक “कुतबी वंश” के थे।

अतः इस समय (1206-1290 ईस्वी) में तीन वंश ने शासन किया- कुतुबुद्दीन ऐबक ने “कुतबी वंश”, इल्तुतमिश ने “शम्सी वंश” और बलबन ने पर “बलबनी राजवंश” की स्थापना की। चूँकि तुर्क सुल्तान इन सुल्तानों को तीनों स्वतंत्र परिवार से उत्पन्न होने के कारण “गुलाम वंश के सुल्तान” कहने से अधिक उचित “ममलूक सुल्तान” मानते थे।

इसे गुलाम वंश न कहे जाने का एक और भी तर्क है। कुतुबुद्दीन ही ऐसा सुल्तान था जिसने गुलाम रहते गद्दी पर बैठा था। इल्तुतमिश और बलबन गद्दी में बैठने से पूर्व ही दासता मुक्त हो चुके थे।

अतः इन तीनों के वंश भी अलग थे इसलिए हम कह सकते हैं कि1206-1290 ईस्वी के बीच तीन अलग-अलग राजवंशों ने शासन किया।

आइए अब हम सबसे पहले कुतुबुद्दीन ऐबक के बारे में देखते हैं:-

कुतुबुद्दीन ऐबक

कुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210 ईस्वी) कौन था?

कुतुबुद्दीन ऐबक का जन्म 1150 ईस्वी में तुर्किस्तान में हुआ था यह एक मोहम्मद गौरी का गुलाम था। कुतुबुद्दीन ऐबक तुर्क था और इनका परिवार तुर्किस्तान का निवासी था बचपन में कुतुबुद्दीन ऐबक को एक काजी जिनका नाम था फखरुदीन अब्दुल अजीज कूफी ने दास के रूप में खरीदा था। यह निशापुर का रहने वाला था।

नोट:- ध्यान रहे उस समय तुर्क में लोग दासों का व्यापार व्यवसाय करते थे। साथ ही साथ दासों से उच्च रकम पाने के लिए दासों को खूब योग्य बनाया जाता था और मानो यह प्रथा परंपरा के रूप में चली आ रही थी।इसी क्रम में लोग अपने दासों को कला, साहित्य और सैन्य शिक्षण भी प्रदान करते थे। और अपने-अपने दासों को इतना योग्य बना देते थे कि सुल्तानों की उत्तम सेवा कर सके। और इसके बदले उन्हें मोटी रकम भी मिल जाया करती थी। इसी कारण उस समय के तुर्क सुल्तानों के कई गुलाम बहुत योग्य होते थे और वे राज्य सेवा में महत्वपूर्ण पद को प्राप्त कर लेते थे।

कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद के शासक भी गुलाम थे जैसे:- इल्तुतमिश और बल़बन। इल्तुतमिश को कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1197 के अहिन्लवाड़ युद्ध के बाद खरीदा था। बाद में कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपनी बेटी का ब्याह इल्तुतमिश से कराया और वह दिल्ली का सुल्तान बना। बाद में हमें यह भी देखने को मिलता है कि बलबन को भी इल्तुतमिश ने 1232 ईस्वी में गुलाम के रूप में ही खरीदा था।

मोहम्मद गौरी के योग्यतम सूबेदार कुतुबुद्दीन ऐबक, ताजुद्दीन यल्दौज, और नसीरुद्दीन कुबाचा गुलाम थे। कुतुबुद्दीन ऐबक को खरीदने वाले काजी फखरुद्दीन ने ऐबक को सभी प्रकार की शिक्षा दी एवं उसे योग्य बनाया काजी के मृत्यु उपरांत उसके पुत्रों ने उसे मोहम्मद गौरी के हाथों बेच दिया। अपनी योग्यता से मोहम्मद गौरी के प्रिय हो गया एवं उसने अमीर-ए-खूर (अश्वशाला का अध्यक्ष) का सम्मानित पद प्राप्त कर लिया।

मोहम्मद गौरी ने तराइन के द्वितीय युद्ध के बाद 1192 ईस्वी में अपने भारतीय विजित प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त कर दिया। गौरी के मृत्यु के बाद कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली, लाहौर और उसके अधीन भारतीय प्रदेशों का सूबेदार था।

कुतुबुद्दीन ऐबक के सुल्तान बनने से पूर्व वह मोहम्मद गौरी के सहायक के रूप में मुख्य भूमिका पर था।

अतः हमें यहां पर उसे भी देखना होगा:-

कुतुबुद्दीन ऐबक की  मोहम्मद गौरी के सहायक के रूप में उनकी भूमिका

मोहम्मद गौरी जब भारत में आक्रमण (तराइन का द्वितीय युद्ध 1192 ईस्वी) कर रहा था तब कुतुबुद्दीन ऐबक भी उसके साथ था। इस युद्ध के बाद कई विजित प्रदेशों का सूबेदार नियुक्त कर गौरी वापस चला गया। गौरी के अनुपस्थिति में अजमेर, मेरठ आदि जगहों पर हुए विद्रोह को दबा दिया और दिल्ली को अपने अधिकार में किया।

1199 ईस्वी में चंदावर के युद्ध में कन्नौज के शासक जयचंद को गौरी ने हराया। इस युद्ध में ऐबक का महत्वपूर्ण हाथ था। 1195 ईस्वी में उन्होंने अलीगढ़ पर अधिकार किया एवं चौहानों के तीसरे विद्रोह का दमन अजमेर में किया। अजमेर के तीसरे विद्रोह के दौरान ही उसने रणथंभौर के किले को भी जीत लिया। 1196 ईस्वी में मेदों को भी हराया। इसके बाद अहिन्लवाड़ को लूटा तथा नष्ट किया।

1197-98 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बदायूं, चंदावार और कन्नौज पर अधिकार कर लिया इसके बाद उसने राजपूताना में सैनिक कार्रवाईयाँ शुरू की। जिसके तहत उसने सिरोही राज्य तथा मालवा के कुछ भागों को विजय किया या विजय अस्थाई थी। 1202-03 ईस्वी में उसने बुंदेलखंड पर आक्रमण किया और चंदेल राजा परमर्दी देव को हराकर कलिंजर, महोबा और खजुराहो पर अधिकार कर लिया। कुतुबुद्दीन ऐबक के सहायक सेनापति बख्तियार खिलजी बिहार तथा बंगाल के कुछ भाग को जीत लिया।

इस प्रकार कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने स्वामी मोहम्मद गौरी को न केवल भारत के विभिन्न प्रदेशों को जीतने में सहायता की बल्कि हम देखते हैं कि समय-समय पर उसकी अनुपस्थिति में भी विजित प्रदेशों को तुर्कों के अधिपत्य में रखकर रखा और राज्य का विस्तार भी किया। इस प्रकार ऐबक अपने स्वामी के मृत्यु के पूर्व और सिहासन पर बैठने से पूर्व ही लगभग समस्त उतरी भारत का स्वामी था और अपने स्वामी के सहायक सेनापति और प्रतिनिधि के रूप में कार्य संभाले हुए था।

कुतुबुद्दीन ऐबक और गुलाम वंश को अच्छी तरह समझने के लिए “मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण” ये लेख जरूर पढ़ें।

कुतुबुद्दीन ऐबक का सत्तारोहण

मोहम्मद गौरी के मृत्यु 1206 ईस्वी में हो जाने के बाद (इसके पूर्व के लेख मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण में गौरी की मृत्यु कैसे हुआ? का जिक्र किया गया है।) क्योंकि गौरी के कोई पुत्र नहीं थे। अतः अपने साम्राज्य की एकता को बनाए रखने के लिए कोई उत्तराधिकारी नहीं बना सका था जबकि उसकी (गौरी की) इच्छा थी कि भारत में उसका उत्तराधिकारी कुतुबुद्दीन ऐबक बने क्योंकि 1206 ईस्वी में उसने उसे अपना नियमित प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त कर “मलिक” की उपाधि से विभूषित किया था।

मोहम्मद गौरी की मृत्यु की खबर पाकर लाहौर के लोगों ने ऐबक को लाहौर आकर सत्ता संभालने के लिए आमंत्रित किया अतः ऐबक ने ऐसा ही किया। तीन माह बाद 1206 ईस्वी में राज्याभिषेक कराया। उन्होंने सत्तारूढ़ होने के बाद भी सुल्तान की उपाधि धारण नहीं कि केवल “मलिक” और “सिपहसलार” पदवी से ही संतुष्ट रहा। जो कि उसने मोहम्मद गौरी से प्राप्त किया था। उन्होंने अपने नाम का खुतबा भी नहीं पढ़वाया न ही अपने नाम के सिक्के चलवाए। बाद में गोर में गौरी के उत्तराधिकारी गयासुद्दीन ने कुतुबुद्दीन ऐबक को सुल्तान स्वीकार किया एवं दासता से मुक्ति भी उसे 1208 ईस्वी में प्राप्त हुई। क्योंकि गौरी ने अपनी मृत्यु तक किसी दास को दासता मुक्त नहीं किया था।

कुतुबुद्दीन ऐबक के सामने कठिनाइयां

 कुतुबुद्दीन के सिंहासनारुढ़ होते ही उनके सामने कई कठिनाइयां थी जैसे:-

  •  स्वयं के सरदार का वफादार न होना
  •  ताजुद्दीन यिल्दौज
  •  नसीरुद्दीन कुबाचा
  •  गजनी में ख्वारिज्म शाह

कुतुबुद्दीन ऐबक के सरदारों का वफादार न होना एवं राजपूतों द्वारा विद्रोह करना

कुतुबुद्दीन ऐबक के सत्तारूढ़ होने के बाद उनके जितने भी सरदार थे ये काफी महत्वाकांक्षी थे। उनकी यह महत्वाकांक्षा कुतुबुद्दीन ऐबक के नवस्थापित राज्य के लिए घातक सिद्ध हो सकती थी। तुर्कों ने राजपूतों की शक्ति को दुर्बल कर दिया था लेकिन उनकी ताकत पूरी तरह से अभी समाप्त नहीं हुई थी।

राजपूतों द्वारा जगह-जगह पर विद्रोह किया जा रहा था। कई जगहों से तुर्की सरदारों को खदेड़ा जा रहा था। बंगाल में भी खिलजी सरदारों ने कुतुबुद्दीन ऐबक के अधिपत्य को स्वीकार करने से मना कर दिया। कुतुबुद्दीन ऐबक के साम्राज्य में सिंध, पंजाब, दिल्ली और दोआब तक सीमित था और यहां भी राजपूत ऐबक का विरोध कर रहे थे

अतः ऐबक के सामने ये परिस्थितियां सामने थी उसे इस पर नियंत्रण करना, यह उसकी पहली कठिनाई थी।

ताजुद्दीन यिल्दौज और नसीरुद्दीन कुबाचा

उपरोक्त वर्णित समस्या से बड़ी समस्या हमें ऐबक के सामने देखने को मिलती है कि ऐबक को अपने संबंधियों तथा गौरी के दासों जैसे:- ताजुद्दीन यिल्दौज और नसीरुद्दीन कुबाचा की तरफ से चुनौती मिल रही थी। क्योंकि ताजुद्दीन यिल्दौज गजनी में स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी एवं वह कुतुबुद्दीन ऐबक को अपना अधीनस्थ तथा गौरी के द्वारा भारत में स्थापित साम्राज्य पर अपना अधिकार मानता था।

दूसरी ओर नसीरुद्दीन कुबाचा जो उच्छ का सूबेदार था वह भी दिल्ली के राज्य पर अपना अधिकार मानता था। वास्तव में इन परिस्थितियों को देखा जाए तो यिल्दौज और कुबाचा ऐबक के प्रतिद्वंदी थे।

इस विषय पर कई इतिहासकारों का अलग-अलग राय है:-

  • प्रो ए बी एम हबीबुल्ला और डॉ ए एल श्रीवास्तव का कहना है कि- मोहम्मद गौरी ने कुतुबुद्दीन ऐबक को अपने भारतीय राज्य का संरक्षक नियुक्त किया था एवं उसे “मलिक” की उपाधि दी थी और उसकी इच्छा थी कि ऐबक भारत में उत्तराधिकारी बने।
  • परंतु प्रोफ़ेसर निजामी का कहना है कि मोहम्मद गौरी अपनी मृत्यु तक अपने गुलाम सरदारों के अधिकारों और उत्तराधिकारों के विषय पर कोई निर्णय नहीं लिया था। इसी कारण  यिल्दौज और कुबाचा गौरी के राज्य पर दावा कर रहे थे। इन दोनों की स्थिति समान थी और ये अपनी-अपनी ताकत के अनुसार अपने अधिकारों का दावा करने के लिए स्वतंत्र थे।
  • प्रोफ़ेसर निजामी तो यह भी मानते हैं कि यदि बहाउद्दीन तुगरिल खाँ तथा मोहम्मद बख्तियार खिलजी की मौत न हुई होती तो वह भी कुतुबुद्दीन ऐबक के प्रतिद्वंदी होते।

अतः इन परिस्थितियों को देखकर ऐसा लगता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक को स्वतः ही भारत का तुर्की राज्य मिल नहीं गया था परंतु इसके लिए उसे कूटनीतिक चाल चलनी पड़ी थी।

  •  उधर गजनी पर ख्वारिज्म शाह की नजर थी। यिल्दौज उससे मुकाबला नहीं कर सकता था ऐसे में ख्वारिज्म शाह गजनी पर अधिकार कर लेता तो दिल्ली पर भी अपना दावा कर सकता था।

अतः कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत के राज्य को मध्य एशिया की राजनीति से पृथक कर गजनी शासकों के अधिकार से मुक्त करना था तथा एक पृथक स्वतंत्र राज्य की स्थापना करना था।

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कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा कठिनाइयों का समाधान

कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने साम्राज्य के अस्तित्व को पृथक और स्वतंत्र राज्य बनाने के लिए बहुत ही कूटनीति का सहारा लिया।

  • उन्होंने तुर्की सरदारों को अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया।
  • वैवाहिक संबंध भी उसकी कूटनीतिक चाल थी उन्होंने ताजुद्दीन यिल्दौज की पुत्री से स्वयं विवाह किया। नसीरुद्दीन कुबाचा से अपनी बहन की शादी की। और इल्तुतमिश से अपनी बेटी का ब्याह कराया।
  • नसीरुद्दीन कुबाचा ने दिल्ली का सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक को मान लिया परंतु यिल्दौज अभी भी मांगने से इंकार कर रहा था अतः यिल्दौज की ओर से खतरा होने के कारण वह लाहौर को दूसरा राजधानी बनाकर सर्वदा वहीं रहा। कुतुबुद्दीन ऐबक की पहली राजधानी दिल्ली थी।
  • मध्य एशिया में गियासुद्दीन जो तत्कालीन सुल्तान था यिल्दौज को दासता से मुक्त कर गजनी का शासक मान लिया। ख्वारिज्म शाह ने यिल्दौज को गजनी से खदेड़ कर बाहर निकाल दिया तथा ख्वारिज्म शाह ने पंजाब पर आक्रमण किया एवं गजनी का शासक होने के नाते वह तुर्की भारतीय राज्य को भी अपना समझता था। कुतुबुद्दीन ऐबक ने उसे हराकर पंजाब से खदेड़ दिया साथ ही ऐबक के लिए खतरा तब तक बना रहा जब तक ख्वारिज्म शाह गजनी का शासक बना रहा। अंततः गजनी के नागरिकों की सहायता से ऐबक ने गजनी पर आक्रमण कर ख्वारिज्म शाह को हरा दिया और गजनी पर भी अधिकार कर लिया। पुनः गजनी के नागरिक ऐबक से असंतुष्टि की बात करयिल्दौज को आमंत्रित किया। यिल्दौज ने ऐबक को गजनी छोड़ने के लिए बाध्य किया।

अतः हम कर सकते हैं कि ऐबक का गजनी पर सफलता ज्यादा दिन तक नहीं रहा और इससे उसे कोई लाभ भी नहीं हुआ। यिल्दौज कभी भी ऐबक के साम्राज्य पर सफलता नहीं हासिल कर सका जिसके कारण ऐबक अपने राज्य को स्वतंत्र अस्तित्व देने में सफल रहा।

  •  इख्तियारुद्दीन बख्तियार खिलजी जो कि बिहार और बंगाल के कुछ भाग को अपने सैन्य अभियान द्वारा जीत लिया था। ( इसकी अध्ययन हम पहले भी कर चुके हैं) उसकी मृत्यु के बाद बिहार और बंगाल का दिल्ली से संबंध टूटने का भय था क्योंकि आलमर्दान खाँ लखनौती में स्वतंत्र शासक बन बैठा था अतः स्थानीय खिलजी सरदार उसे कैद कर कारागार में डाल दिए और उसके जगह पर मोहम्मद शेरा को गद्दी पर बैठाया। लेकिन कारागार से भागकर आलमर्दान खाँ कुतुबुद्दीन ऐबक के पास पहुंचा और उसको वार्षिक कर देने का वायदा कर बंगाल में हस्तक्षेप करने के लिए राजी किया। कुतुबुद्दीन के प्रतिनिधियों के प्रयास से खिलजीयों ने ऐबक का आधिपत्य स्वीकार कर लिया। अब आलमर्दान खाँ बंगाल का सूबेदार बन गया और बदले में वार्षिक कर देने का वचन दिया।
  • कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजपूतों की ओर ध्यान न दे सका क्योंकि बंगाल तथा उत्तर-पश्चिम प्रदेशों में उलझे रहने के कारण उसे समय ही नहीं मिला कि वह राजपूतों की ओर ध्यान दें। अतः राजपूतों के साम्राज्य में कभी भी सेंध नहीं लगा सका। इसके उलट हमें यह देखने को मिलता है कि राजपूतों ने कुछ-कुछ इलाके उससे छीन लिये जिसको कभी भी ऐबक हासिल करने का प्रयत्न नहीं किया।

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कुतुबुद्दीन ऐबक की प्रशासनिक व्यवस्था

लगभग कुतुबुद्दीन ऐबक ने चार वर्ष शासन किया। इस समय उसने किसी भी प्रदेश को अपने साम्राज्य में नहीं मिला पाया। साथ ही साथ उसे इतना अवसर न मिला कि वह एक सुदृढ़ शासन व्यवस्था की स्थापना कर सके क्योंकि उसका अधिकांश समय विद्रोह को दबाने और सरदारों को मनाने आदि में चला गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक का शासन व्यवस्था पूर्णतया सैनिक था और सैन्य सहायता पर ही निर्भर था। खुद की एक शक्तिशाली सैन्य व्यवस्था के साथ-साथ उन्होंने विजित प्रदेशों के सभी भागों एवं बड़े नगरों में रक्षा सेनाएँ तैनात की थी।

राजधानी एवं नगर प्रशासन को संभालने के लिए मुसलमान पदाधिकारी नियुक्त किए गए थे। न्याय व्यवस्था के बारे में कहा जाता है कि अच्छी नहीं थी। लेकिन यह कहना तर्कसंगत नहीं लगता है क्योंकि हसन निजामी ने लिखा है- “कुतुबुद्दीन ऐबक अपनी प्रजा को समान रूप से न्याय प्रदान करता था और अपनी राज्य की शांति एवं समृद्धि के लिए प्रयत्नशील था।”

कुल मिलाकर हमें सुदृढ़ शासन व्यवस्था नहीं देखने को मिलती है।

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कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्यु कैसे हुई?

कुतुबुद्दीन ऐबक की चौगान (वर्तमान पोलो की भांति का एक खेल) खेलते समय घोड़े से गिरने के कारण 1210 ईस्वी में मृत्यु हो गई। उसे लाहौर ले जाकर दफनाया गया और वहां उसकी याद में स्मारक बनाया गया।

कुतुबुद्दीन ऐबक का मूल्यांकन

कुतुबुद्दीन ऐबक एक साहसी सेना नायक होने के कारण ही भारत में गौरी द्वारा विजित प्रदेशों को एकजुट रखने में सफल रहा। वह मोहम्मद गौरी का गुलाम था एवं उसके भारत विजय अभियान में भी उसका बड़ा सहयोग था साथ ही गौरी के अनुपस्थिति में विजित प्रदेशों को संभालना बहुत ही वीरता का कार्य था जिसे उसने बखूबी निभाया। कई प्रदेशों को तो गौरी के अनुपस्थिति में विजय कर गौरी के साम्राज्य का विस्तार भी किया।

कुतुबुद्दीन ऐबक एक अच्छा सेनानायक के साथ-साथ साहित्य प्रेमी भी था। इस के दरबार में हसन निजामी तथा फख्रेमुदीर जैसे विद्वान आश्रय पाते थे। स्थापत्य कला में भी उन्हें विशेष रूचि थी उसने मंदिरों को तोड़कर दो मस्जिदें बनवाई थी- कुवत उल इस्लाम (दिल्ली में) तथा ढाई दिन का झोपड़ा (अजमेर में)।

दिल्ली में स्थित कुतुबमीनार के नींव “ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी” के नाम से उसने ही रखी जिसे बाद में इल्तुतमिश ने पूरा किया था।

कुतुबुद्दीन ऐबक की सबसे बड़ी सफलता तो यह थी कि गजनी से पृथक कर भारतीय तुर्की राज्य को स्वतंत्र अस्तित्व प्रदान करना।

कुतुबुद्दीन ऐबक गुलाम होते हुए भी अपनी योग्यता के आधार पर धीरे-धीरे सुल्तान के पद तक पहुंचा था और एक साम्राज्य का नींव रखा। जो भारत में स्थाई रहा।

कुतुबुद्दीन ऐबक एक महान कूटनीतिज्ञ भी था। उसने अपने साम्राज्य को मजबूती प्रदान करने के लिए सरदारों को मनाया। वैवाहिक संबंध स्थापित किए। हम यह भी देखते हैं कि उसने साम्राज्य के सीमाओं के अंदर किसी प्रकार का तुर्की सरदारों ने उसका विरोध नहीं किया और बंगाल भी उसकी अधीनता स्वीकार कर लिया।

अतः हम कह सकते हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक का व्यवहार अपने तुर्की सरदारों एवं भारत के अन्य सरदारों के साथ अच्छा था। जिसके कारण उसके साम्राज्य के अंदर कोई भी विद्रोह देखने को नहीं मिलती है।

कुतुबुद्दीन ऐबक में कई कमियां भी देखने को मिलती है जैसे- उसमें धार्मिक सहिष्णुता की कमी थी भले ही वह “लाखबख्श” (लाखों देने वाला) के नाम से प्रसिद्ध था लेकिन वह लाखों व्यक्तियों का वध भी करवाया था। डॉ ईश्वरी लाल, हसन निजामी, प्रो हबीबुल्ला इसकी समर्थन करते हैं।

कई इतिहासकार जैसे- डॉ ए एल श्रीवास्तव के अनुसार उसने अपने राज्य को व्यवस्थित और संगठित करने की योग्यता का परिचय नहीं दिया। निसंदेह उसके पास समय का अभाव तो था पर शासन व्यवस्था के लिए किसी भी नियम का पालन नहीं किया। राजधानी में एक शक्तिशाली सेना रखने के अलावा उसने सभी महानगरों में रक्षा सैनिक तैनात किया। उसने अर्थव्यवस्था पर कोई बदलाव नहीं किया और शक्ति के आधार पर लगान एवं कर वसूला।

इस प्रकार यह एक फौजी जागीर की तरह रहा जिसमें स्थायित्व के गुणों का समावेश नहीं था। हिंदू मंदिरों के अवशेषों से मस्जिदों का निर्माण भी उपयुक्त ना था। वह अपने जीवन में दिल्ली सल्तनत को पूरी तरह स्थाई नहीं बना सका जिस कारण इल्तुतमिश को यह काम करना पड़ा।


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