गुलाम वंश के सुल्तानों की शासन व्यवस्था | gulaam vansh kee shaasan vyavastha
भारत में गुलाम वंश का शासन काल 1206 ईस्वी से 1290 ईस्वी तक माना जाता है। गुलाम वंश के शासकों ने अपने साम्राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए अपने प्रशासन तंत्र को सेना के अंतर्गत रखा था। भारत में मोहम्मद गौरी ने जो विजित प्रदेश का कार्यभार कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंपकर गजनी वापस चला गया था, ऐबक एवं बाद के उत्तराधिकारी के शासनकाल में इस विजित प्रदेश में कोई भी नए प्रदेश सम्मिलित नहीं कर पाए।
अतः हम कह सकते हैं कि मोहम्मद गौरी तथा सुल्तान बनने से पूर्व कुतुबुद्दीन ऐबक ने जितनी भूमि जीती थी उसमें बाद के गुलाम सुल्तानों ने कोई भी वृद्धि नहीं कर पाए। गुलाम सुल्तानों के अंतर्गत रहने वाले हिंदू शासकों ने लगातार तुर्की प्रभुत्व से मुक्ति पाने की कोशिश करते रहे।
मिनहाजुद्दीन सिराज भी अपनी पुस्तक “तबकात-ए-नासिरी” में इसकी चर्चा की हैं। इससे पता चलता है कि सुल्तानों को प्रति वर्ष विद्रोही हिंदू तथा विरोधी किसानों का दमन करने के लिए सैनिक यात्राएं करनी पड़ती थी। कई बार तो एक ही प्रदेश को अनेक बार जीतना पड़ता था। गुलाम सुल्तान इसी में व्यस्त रहते थे नए प्रदेश जीतने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। इनकी साम्राज्य (गुलाम वंश) हमेशा घटती बढ़ती रहती थी।
उत्तर में हिमालय की तरफ से दक्षिण में आड़ी-तिरछी रेखा बंगाल से सिंधु तक थी। जिसके अंदर बंगाल, उत्तरी बिहार, बुंदेलखंड का कुछ भाग, ग्वालियर, रणथंभौर, अजमेर, तथा नागपुर आते थे। पूर्व में ढाका के पश्चिम का आधा बंगाल, दिल्ली सल्तनत का अंग था। उत्तर-पश्चिम सीमा, झेलम तक एवं कभी-कभी छोटी होकर व्यास तक आ जाती थी। लाहौर, सिन्ध तथा मुल्तान गुलाम वंश के अंदर था। इनकी सीमाओं के भीतर अनेक स्वतंत्र हिंदू सामंत शासन करते थे जैसे:- हिमालय की तराई, दोआब के ऊपरी भाग, राजस्थान तथा बुंदेलखंड। इन्हें गुलाम वंश के सुल्तान कभी जीत नहीं पाए।
गुलाम वंश के साम्राज्य का शासन प्रबंध को जानने के लिए हमें सबसे पहले उनके साम्राज्य के स्वरूप को जानना होगा:-
गुलाम वंश के राज्य का स्वरूप
भारत में स्थापित तुर्की साम्राज्य का आधार कुरान था एवं यह मुस्लिम कानून के स्रोत थे। कुरान के नियम शरा कहलाते थे। इस्लाम को राजधर्म बनाया गया एवं इस्लाम के प्रचार-प्रसार के लिए राज्यों के पास सभी साधन उपलब्ध थे लेकिन व्यवहारिक में कुछ अलग था। क्योंकि भारत की अधिकांश जनता गैर-इस्लाम को मानने वाले थे।
गुलाम वंश के सुल्तान शुद्ध इस्लामी सिद्धांत का पालन करते थे। उनके अनुसार मुस्लिम राज्य का वास्तविक राजा ईश्वर है एवं राजा तो उसका प्रतिनिधि मात्र है। राज्य की प्रमुख शक्ति जनता, मुस्लिम जनता द्वारा निर्वाचित व्यक्ति के हाथ में होती है। किंतु इस सिद्धांत को कार्यान्वित नहीं कर पाया गया।
गुलाम वंश के शासन काल में उत्तराधिकारी का कोई नियम नहीं होने के कारण सुल्तान चुनने में तलवार की नोक का इस्तेमाल किया जाता था। अर्थात जो अधिक शक्तिशाली उसी की सत्ता होती थी लेकिन तेरहवीं शताब्दी में सत्ता अब वंशानुगत होने लगी। गुलाम वंश में वंश, योग्यता, पूर्व सुल्तान की इच्छा तथा अमीरों का समर्थन आवश्यक हो गया। लेकिन वास्तविक शक्ति तो अमीरों के हाथ पर ही थी।
गुलाम वंश के शासन का दूसरा मुख्य आधार था सेना। एक तरह से यह सैन्य राज्य ही था। सुरक्षा हेतु सैनिक छावनीयाँ बनाई गई थी। सीमा सुरक्षा हेतु किलों का निर्माण कर तुर्की सैनिकों की नियुक्ति की जाती थी। सैनिकों के दो मुख्य कार्य थे:- पहला लगान वसूल करना एवं सुरक्षा का व्यवस्था करना।
गुलाम कालीन जनता जो गैर-मुसलमान थे उन्हें जिम्मी कहा गया एवं इनसे कर वसूला जाता था जिसे जजिया कहते थे। वास्तव में गैर-मुस्लिम लोगों के समक्ष चुनाव यह था कि वे या तो इस्लाम स्वीकार कर लें या मृत्यु अथवा जजिया देकर दलित प्रजा की तरह जीवन बिताएं।
अतः गैर-मुसलमानों से एक समान व्यवहार गुलाम वंश के शासक नहीं किए। नौकरियां, न्याय एवं अधिकारों के बात पर भी मुसलमानों के समान व्यवहार नहीं किया गया। मंदिर एवं मूर्तियों का नाश करना, एक तरह से धार्मिक मतभेद हमें देखने को मिलता है।
नवस्थापित तुर्की साम्राज्य में सुल्तान, खलीफा को अपना धार्मिक तथा राजनीतिक नेता स्वीकार करते थे तथा अपने सिक्कों में खलीफा का नाम उत्कीर्ण करवाते थे तथा खुतबों में भी खलीफा का नाम जोड़ा जाता था। इल्तुतमिश गुलाम वंश का पहला शासक था जिसने 1229 ईस्वी में खलीफा से स्वीकृति प्राप्त की थी एवं अपने सिक्के पर उसका नाम लिखवाया था।
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शासन व्यवस्था
गुलाम वंश के सुल्तानों ने अपने साम्राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए शासन व्यवस्था लागू किये थे जिसे हम दो भागों में बांटेंगे।:- (1) केंद्रीय प्रशासन (2) प्रांतीय प्रशासन
केंद्रीय प्रशासन
- प्रशासन का प्रमुख सुल्तान होता था। वह पूर्ण रुप से निरंकुश होता था।
- खुतबा पढ़ना तथा सिक्के जारी करना सुल्तान का विशेषाधिकार था खुतबा एक तरह का औपचारिक धर्मादेश था जो शुक्रवार के दिन ही पढ़ा जा सकता था।
- सुल्तान कार्यपालिका और न्यायपालिका का सर्वोच्च होता था एवं न्याय का स्रोत भी वही था।
- सुल्तान धार्मिक प्रमुख भी होता था लेकिन कभी-कभी उलेमा की सलाह मानना पड़ता था।
- सुल्तान की शक्ति सैन्य बल पर निर्भर थी। जैसे:- गयासुद्दीन बलबन ने सैन्या शक्ति के दम पर शासन किया। लेकिन अधिकांश सुल्तानों ने अमीरों की सहायता से शासन किया।
मंत्रिमंडल / मंत्री
गुलाम वंश के शासकों ने शासन व्यवस्था को योजनाबद्ध तरीके से लागू नहीं कर पाए फिर भी कुछ व्यवस्था थी जैसे:- एक मंत्री परिषद थी जो सुल्तान की सहायता करती थी। साथ ही एक चार सदस्य छोटी परिषद थी। जैसे:-
- दीवान-ए-वजारत/ विजारत
- आरिज-ए-मुमालिक (सेना विभाग)
- दीवान-ए-इंशा (पत्राचार विभाग)
- दीवान-ए-रसालत (विदेश विभाग)
इस परिषद को “मजलिस-ए-खलवत” और इसके सदस्यों को “रायजान-ए-दरगाह” कहते थे।
दीवान-ए-वजारत/ विजारत
यह एक वित्त विभाग होता था इसका प्रमुख वजीर कहलाता था। नायब या वकील इसके समकक्ष होते थे। बहराम शाह के समय नायब और नासिरुद्दीन मोहम्मद के समय वकील पद का गठन हुआ। वजीर को कभी-कभी सैन्य संचालन भी करना पड़ता था तथा सैनिकों के वेतन संबंधी कार्य भी वह देखता था। जिसकी सहायता के लिए नायब होता था एवं इसके अधीन सचिव एवं क्लर्क तथा लेखाकार कार्य करते थे। इस विभाग के अधीन कुछ छोटे विभाग भी होते थे:-
मुशरिफ-ए-मामलिक – महालेखाकार
मुस्तौफी-ए-मामलिक – महालेखा परीक्षक
खाजिन-ए-मामलिक – नगद रुपया रखने वाला
आरिज-ए-मुमालिक / दीवान-ए-अर्ज
यह सेना विभाग होता था। इस विभाग को गयासुद्दीन बलबन ने स्थापित किया था। सेना का वेतन, निरीक्षण, दाग, हुलिया इत्यादि देखने का कार्य करता था। यह पूरे साम्राज्य की सेना का प्रभारी होता था। सैनिकों तथा उसके हथियारों का निरीक्षण करना एवं सेना के योग्यता तथा कर्तव्यों का निरीक्षण करना, इसका काम था।
दीवान-ए-इंशा
इसका प्रमुख दबीर-ए-मामलिक कहलाता था। सुल्तान और प्रांतीय शासकों के बीच पत्राचार तथा शाही फरमान से संबंधित विभाग था यह एक राज्य पत्र विभाग था। इसका काम शाही घोषणाओं और पत्रों के प्रारूप (मसविदे) तैयार करना था। इसके अधीन भी अनेक सचिव तथा क्लर्क कार्य करते थे। इसे सुल्तान के साथ-साथ जाना होता था एवं उसके हरेक कार्यों का अभिलेख बनाना होता था।
दीवान-ए-रसालत
यह विदेशी विभाग था। यह विदेशी तथा कूटनीतिक पत्र व्यवहार का कार्य करता था।
इसके अलावा कई अन्य छोटे विभाग थे जैसे:-
बरीद-ए-मामलिक
यह गुप्तचर विभाग था। एवं बरीद सामाचार वाहक होते थे। बलबन ने इसकी स्थापना की थी। एवं छोटे कर्मचारी मुन्ही या मुन्हीयान कहलाते थे।
मुहतसिव
नागरिक चरित्र नियंत्रक तथा इस्लामी कानूनों की देखभाल करने वाला होता था।
वकील-ए-दर
महल तथा राजपरिवार की आवश्यकताओं को देखने वाला जिसे वकील-ए-दर कहा जाता था।
अमीर-ए-हाजिब
हाजिब को इजीब या बकबक भी कहा जाता था। जिसका काम दरबार के समारोह तथा शिष्टाचार को देखना तथा आवेदन प्राप्त करने वाला था।
नायब-ए-मुमालिकात
कुछ सुल्तान नायब-ए-मुमालिकात का नया पद बनाए थे जो वजीर से भी अधिक शक्तिशाली होता था। बलबन ने इसकी शक्ति में कटौती कर दी थी।
कारखाना
राज परिवार और शाही प्रतिष्ठान की जरूरतों की पूर्ति कारखाना द्वारा होती थी।
काजी मुमालिक
यह राज्य का मुख्य न्यायधीश होता था तथा धर्म का विभाग भी इसी के अधीन था। इसे सदे॒-जहाँ या सद॒-उस-सुदुर भी कहा जाता था।
उपरोक्त पदों के अलावा और भी पद होते थे जो अपने आप में काफी महत्वपूर्ण पद होते थे जैसे:- अमीर-ए-खुर – घोड़ों का अध्यक्ष, शाइन-ए-पीलाँ – हाथियों का अध्यक्ष।
इन मंत्रियों की नियुक्ति स्वयं सुल्तान करता था। ये मंत्री सुल्तान के प्रति वफादार होते थे लेकिन इल्तुतमिश के बाद हमें इनके मनमानी रवैया का पता चलता है। बलबन के शासनकाल में ये सुल्तान को प्रभावित नहीं कर सके। हाँ बलबन के अयोग्य उत्तराधिकारीयों के समय ये सुल्तान को कठपुतली जरूर बनाए एवं सुल्तान की अल्प वयस्क होने की स्थिति में भी सुल्तान इनके हाथों की कठपुतली बना रहा।
रजिया सुल्तान कौन थी? (1236-1240 ईस्वी) इस लेख को विस्तार पूर्वक जानने के लिए अवश्य पढ़ें।
प्रांतीय प्रशासन
इक्ता व्यवस्था
चूँकि हमें पता है कि गुलाम वंश के सुल्तानों का शासन व्यवस्था बहुत अच्छी नहीं रही थी। इनकी शासन सुसंगठित नहीं थी यह विकेंद्रीकृत थी। अर्थात राज्य की संरचना अत्यंत असंगठित थी और अनेक सैनिक क्षेत्र में बँटा हुआ था। इन क्षेत्रों के आकार, जनसंख्या एवं आय की दृष्टि से अलग-अलग थे। प्रत्येक क्षेत्र को “इक्ता” कहते थे। इक्ता पद्धति सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने लागू किया था। इक्ता का अर्थ होता है सैनिक जागीर। लेकिन इल्तुतमिश ने प्रांत/सूबा को इक्ता का नाम दिया था। (एवं इनके इक्तेदारों द्वारा कर एकत्रित किया जाता था।) इक्तों के मालिकों को मुक्ती या इक्तेदार कहते थे एवं ये कर एकत्र किया करते थे। इन्हें अपने क्षेत्र में शासक के रूप में काफी अधिकार मिले हुए थे। इनके शासन व्यवस्था के अलग-अलग सिद्धांत थे। एवं ये स्वतंत्र रूप से शासन करते थे।इनके कई विशेषाधिकार थे:-
- पदाधिकारियों की नियुक्ति करना।
- राजस्व वसूल करना।
- शासन चलाना।
- अधिशेष को केंद्र भेजना।
- अपने क्षेत्र में शांति व्यवस्था लागू करता था एवं सुल्तान के आज्ञाओं को लागू करता था।
- सुल्तान को आवश्यकता पड़ने पर सैन्य सेवा प्रदान करना।
- मुक्ती को बड़ी रकम वेतन के रूप में मिलती थी। उसके पास सेना तथा पदाधिकारियों का दफ्तर होता था।
गुलाम वंश के शासन काल में कई इक्ता थे। जैसे:- मंदावर, अमरोहा, संभल, अवध, कड़ा, बदायूं, बरन, कोइल, ग्वालियर, हासी, नागौर, मुल्तान, उच्च, लाहौर, कुहराम, साहिन्द, सुनम एवं भटिंडा मुख्य इक्ता थे। गुलाम वंश के शासकों के अधीन जो भी राजाएँ होते थे एवं इनकी राज्य जिन मुक्ति के सीमाओं के भीतर होते थे उनसे ये मुक्ति कर वसूल करते थे। ये राज्य सुल्तान का प्रभुत्व स्वीकार करते थे एवं अपने राज्य के अंदर की व्यवस्था के लिए स्वतंत्र होते थे।
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खालसा भूमि
खालसा भूमि अनेक जिलों से मिलकर बनते थे। इसकी शासन प्रबंध केंद्र सरकार द्वारा की जाती थी। इस क्षेत्र से होने वाले आय पर सुल्तान का सीधा अधिकार होता था। इस पर केंद्र का सीधा नियंत्रण होता था। इस भूमि से केंद्र का राजस्व विभाग सीधा राजस्व वसूल करता था एवं इस भूमि क्षेत्र के किसान अपने गांव के मुखिया द्वारा सीधे सरकार को लगान देते थे। इस भूमि से होने वाली आय से सुल्तान अपने आय की बढ़ोतरी करने एवं अच्छी फसल तथा अन्य वस्तुओं को अपने लिए संरक्षित कर लेता था ताकि सुल्तान को कोई कमी न हो सके।
नोट:- ध्यान रहे गुलाम वंश के शासनकाल में खालसा भूमि से लगान सीधा केंद्र की राजस्व विभाग द्वारा वसूला जाता था। जबकि मुगल काल तक आते-आते लगान की व्यवस्था खत्म कर दी गई और इस भूमि पर बादशाह का पूरा-पूरा हक होता था। तथा इस भूमि के आय से वह अपने खजाने में वृद्धि करने एवं निजी खर्चे में इस्तेमाल करता था। बादशाह अकबर ने इस भूमि में बढ़ोतरी की थी जबकि उसके पुत्र जहांगीर ने कमी की थी तथा जहांगीर के पुत्र शाहजहां ने फिर से बढ़ोतरी कर दी थी ताकि राज्य के आय बढ़ाई जा सके एवं औरंगजेब ने खालसा भूमि को जागीर में परिवर्तित कर खालसा भूमि की व्यवस्था को ही समाप्त कर डाला था।
सेना
गुलाम वंश के शासन काल में सैन्य विभाग का प्रशासन में बहुत बड़ी भूमिका थी क्योंकि सुल्तान की शक्ति सेना के सुदृढ़ होने एवं योग्य होने पर ही निर्भर करती थी। सुल्तान के पास राजधानी में कोई स्थाई सेना नहीं होती थी किंतु युद्ध में सेना की आवश्यकता पड़ने पर प्रांतीय इक्तेदार, मुक्तियों द्वारा भेजी गई सेना पर ही निर्भर रहना पड़ता था। सुल्तान अपने लिए अंगरक्षक रखते थे लेकिन गुलाम वंश के समय धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती चली गई और एक विशाल सेना टुकड़ी बन गई। सैन्य का प्रमुख आरिज-ए-मुमालिक होता था। एवं इसका कार्य सेना की भर्ती करना, वेतन एवं योग्यता सुनिश्चित करना होता था।
सेना के दो प्रमुख अंग थे:- अश्वरोही एवं पदाति सेना (पैदल सेना)
इन सैनिक पदाधिकारी एवं सिपाही अधिकांशत गुलाम होते थे और ये बहुत ही योग्य होते थे गुलाम सैनिक कुछ गौरी के गुलाम थे, तो कुछ ऐबक के, तो कुछ इल्तुतमिश के।
इसके अलावा प्रांतीय इक्तेदार भी अपनी सेनाएं रखते थे एवं ये इनके व्यक्तिगत सेना होती थी। सुल्तान की सेवा के लिए अलग एवं निश्चित संख्या में सेनाएं रखते थे। इस पर आरिज-ए-मुमालिक का थोड़ा बहुत नियंत्रण होता था। इक्तेदार के जो व्यक्तिगत सेना होती थी उसकी भर्ती एवं योग्यता परीक्षण करने के लिए वह स्वतंत्र होता था।
इसके साथ-साथ दो प्रकार के और सैनिक होते थे:- जिहादी सेना और स्वयंसेवक सेना।
जिहादी सेना हिंदू राजाओं के विरुद्ध भर्ती किए जाते थे ये हिंदू शासकों से धन लूटने का काम करते थे एवं इन्हें लूट का 4/5 भाग मिलता था एवं 1/5 भाग सुल्तान को मिलता था।
स्वयंसेवक सेना का अर्थ है खुद से सेना में चले जाना एवं ये अपना घोड़ा और हथियार स्वयं लाते थे।
उपरोक्त बातों के बावजूद गुलाम वंश के शासन काल में सैन्य व्यवस्था मजबूत नहीं थी। बात सिर्फ यह थी कि स्थानीय हिंदू शासकों की सेना से इनकी सेना मजबूत थी जिसके कारण हिंदू शासकों को हार का सामना करना पड़ता था।
गुलाम वंश का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक कौन था? विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।
वित्त व्यवस्था
गुलाम वंश के शासकों के अपने साम्राज्य को चलाने के लिए शरियत के कानून के अनुसार आय के पांच मुख्य साधन थे:-
- खराज
- उश्र
- खम्स
- जकात
- जजिया
खराज
यह एक प्रकार का भूमि कर था। जिसे हिंदू सामंतों तथा किसानों से वसूला जाता था। अलग-अलग सुल्तानों ने अलग-अलग खेती के भाग का हिस्सा कर के रूप में लिए गए।
उश्र
यह भी भूमि कर ही था परंतु यह मुसलमानों के अधिकार में जो भूमि होती थी उससे ली जाती थी यह उपज का 1/10 भाग होता था।
खम्स
युद्ध में लुटे हुए धन का 1/5 भाग राजकोष में जमा होता था एवं उसे खम्स कहते थे
जकात
मुसलमानों से लिया जाने वाला कर 1/40 भाग होता था। इसका इस्तेमाल मस्जिदों के निर्माण, मरम्मत, उलेमा/काजी की पेंशन एवं धार्मिक संस्थानों के संचालन में किया जाता था।
जजिया
गैर-मुसलमानों अथवा जिम्मियों से वसूला जाने वाला कर जजिया कहलाता था। पूरे हिंदू जनता को 3 वर्गों में उनकी आर्थिक स्थिति के अनुसार पर बांटा जाता था। पहले वर्ग से 48 दिरहम, दूसरे से 24 एवं तीसरे से 12 दिरहम जजिया कर वसूला जाता था। स्त्रियाँ, बच्चे एवं साधु/ भिखारी इस कर से मुक्त होते थे।
इसके अलावा शरीयत के अनुसार पृथ्वी पर के धन तथा खानों में सुल्तान का अधिकार होता था। इसलिए सुल्तान का खान, पृथ्वी में गड़े खजाने, आयात इत्यादि भी आय के मुख्य साधन थे।
अतः उपरोक्त कर से सुल्तान को भारी मात्रा में आय होती थी जिससे वह संपूर्ण प्रजा की रक्षा, साम्राज्य में शांति एवं शासन प्रबंध कर सकता था।
इल्तुतमिश कौन था ? (1211-1236 ईस्वी) विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें।
न्याय व्यवस्था
गुलाम वंश के शासन काल में न्यायपालिका का प्रमुख सुल्तान ही होता था। उसके बाद मुख्य काजी होता था।
सुल्तान स्वयं ही मुकदमों को सुनकर फैसला सुनाता था और कभी-कभी धार्मिक मुद्दों पर सद॒ तथा मुक्ती की सहायता लेता तथा बाकी के मुकदमों पर काजी की सहायता से फैसला लेता था।
सुल्तान के बाद मुख्य काजी जो उच्चतम न्यायाधिकारी होता था जिसकी नियुक्ति सुल्तान ही करता था। मुख्य काजी को “काजी-उल-उजात” भी कहा जाता था। मुख्य काजी धर्म, आचरण से संबंधित विभाग का भी प्रमुख होता था। इसलिए उसे “स॒द-उस-सुदुर” भी कहा जाता था। मुख्य काजी का काम छोटे न्यायालयों का निरीक्षण करना तथा उनकी अपीलें सुनना था।
प्रांतों में भी काजी होते थे एवं दाद-ए-बक तथा अमीर-ए-दाद नामक अन्य न्यायिक पदाधिकारी भी होते थे। जिनका संबंध केवल हिंदुओं से जुड़े मुकदमों से होता था। जिसका फैसला पंचायत करती थी लेकिन हिंदू और मुस्लिम से जुड़े फैसले का निर्णय काजी करते थे। कोतवाल पुलिस विभाग का अध्यक्ष होता था एवं मुकदमे की जांच कर प्रतिवेदन काजी को सौंपता था।
कुतुबुद्दीन ऐबक और गुलाम वंश को अच्छी तरह समझने के लिए “मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण” ये लेख जरूर पढ़ें।
दंड विधान
गुलाम वंश के शासकों ने अपने साम्राज्य को सुरक्षित रखने एवं आंतरिक विद्रोह को शांत करने के लिए एवं लोगों में डर कायम करने के लिए कठोर दंड विधान बनाए हुए थे। विधि शास्त्र और मुस्लिम कानून की व्याख्या करने के लिए “मुतजहिद” नामक व्यक्ति होता था। उलेमा इस्लामी कानून का संरक्षक होता था एवं काजी न्यायधीश होता था।
गुलाम वंश के शासकों का दंड विधान बहुत ही कठोर था। मुस्लिम कानून का मुख्य स्रोत कुरान था। कुरान के नियम शरा कहलाते थे। “इज्मा” कानून का अन्य स्रोत था।
दंड के प्रकार- चार प्रकार के होते थे।
हद्द- दंड का निर्णय कुरान और हदीस के आधार पर था।
किसास- बदला लेना अर्थात आंख के बदले आंख, और जान के बदले जान। इस कानून के तहत इस तरह के सजा सुनाए जाते थे।
ताजिर- दंड न्यायधीश की इच्छा और विवेक पर निर्भर करता था।
तसहीर- सार्वजनिक निंदा द्वारा दंड देना।
बलबन ने खुद को निरंकुश और जनता में भय कायम करने के लिए लौह और रक्त की नीति अपनाई थी।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि गुलाम वंश के शासकों ने अपने साम्राज्य को सुचारू रूप से चलाने के लिए ज्यादा प्रयोजन नहीं किए बल्कि प्रशासन को सेना के अंतर्गत छोड़ दिया था। सेना को काफी मजबूत बनाकर एवं पूरे साम्राज्य में सैनिकों की तैनाती कर दी गई थी। इन्हीं के द्वारा साम्राज्य में शांति कायम किया जाता था। साथ ही साथ गुलाम वंश को इस्लाम द्वारा भारत में पहली बार साम्राज्य स्थापित करने के कारण उन्हें काफी आंतरिक एवं बाह्य विद्रोह का सामना भी करना पड़ा। इस कारण प्रशासन के प्रबंधन में विशेष ध्यान न दे सके।
- हमारे देश के संविधान निर्माण में भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) का महत्वपूर्ण योगदान है। विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।
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