History

गुलाम वंश (slave dynasty) के पतन का कारण | gulam vansh ke patan ka karan

मोहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण कर भारत के उत्तर-पश्चिम में जो भी विजित प्रदेश थे उसका शासन भार अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंप कर वापस चला गया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने ही अपने बल पर कई विद्रोहों का दमन कर दिल्ली पर अधिकार कर उसे अपनी राजधानी बनाई एवं दिल्ली से ही अपने साम्राज्य का संचालन किया और अपने साम्राज्य को शक्तिशाली बनाया। एवं एक तुर्की साम्राज्य की भारत में स्थापना 1206 ईस्वी में की। चूँकि कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गौरी का गुलाम था इसलिए उसने गुलाम वंश (slave dynasty) की नींव डाली। कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद इल्तुतमिश सुल्तान बना, जो सत्ता में बैठने से पूर्व गुलामी से मुक्त हो चुका था इसलिए इस वंश को मामलूक वंश भी कहा जाता है। गुलाम वंश का अंतिम शासक समसुद्दीन क्यूमर्स था जो तीन साल का एक अबोध बच्चा था इसके बाद खिलजी वंश की शुरुवात होती है।

कुतुबुद्दीन ऐबक के बाद कई शक्तिशाली शासक हुए एवं कई आयोग्य शासक भी हुए। गुलाम वंश (slave dynasty) के शासक लगभग 84 वर्ष तक शासन किए एवं तुर्की राज्य को भारत में बनाए रखे एवं मध्य एशिया तथा गजनी और गोर की राजनीति से भारत की तुर्की राज्य को पृथक करने में सफल रहे।

गुलाम वंश

गुलाम वंश (slave dynasty) के पतन का कारण

गुलाम वंश (slave dynasty) के शासकों में कई तरह के गुण थे जिससे वे लंबे समय तक शासन कर पाए लेकिन गयासुद्दीन बलबन के बाद गुलाम वंश धीरे-धीरे पतन की ओर उन्मुख होता चला गया। क्योंकि बलबन के बाद के उत्तराधिकारी (कैुसरव,कैकुबाद,और क्यूमर्स) बिल्कुल भी योग्य नहीं थे। ये विलासी जीवन में लिप्त थे। गुलाम वंश का अंतिम शासक क्यूमर्स तो अबोध था। जिसको धोखे से हत्या कर इन्हीं के एक खिलजी सेनापति जलालुद्दीन ने सत्ता हथिया ली और खिलजी वंश की नींव डाली। तो आइए हम गुलाम वंश (slave dynasty) के पतन के कारणों को विस्तार से जानते हैं:-

राजनीतिक एकता का अभाव

गुलाम वंश (slave dynasty) के पूरे शासनकाल में हमें राजनीतिक अस्थिरता देखने को मिलती है। कुतुबुद्दीन ऐबक से लेकर गयासुद्दीन बलबन तक जगह-जगह विद्रोह हो रहे थे। सभी गुलाम वंश के शासक विद्रोह को दमन करने में अधिक से अधिक समय लगाए।

इतिहासकार हेग का भी कहना है कि:- “आरंभिक मुस्लिम साम्राज्य में राजनैतिक एकरूपता का अभाव था।” किसी भी साम्राज्य में यदि राजनीतिक अस्थिरता हो तो उसके संचालनकर्ता को प्रशासनिक कार्य में बाधा होगी और गुलाम वंश में प्रशासनिक कार्य में रुकावट देखने को मिलती है जिस कारण जनता में रोष हुआ और लगभग हर शासक विद्रोहों को शांत करने में ही व्यस्त रह गए। प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत करने के लिए कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया और धीरे-धीरे सत्ता दुर्बल होने लगी।

उत्तराधिकारीयों के नियम का अभाव

गुलाम वंश (slave dynasty) के शासन के समय हमें यह भी देखने को मिलता है कि सुल्तान के मृत्यु या गद्दी से हटने के बाद, गद्दी प्राप्त करने के लिए संघर्ष का होना। क्योंकि इस समय कोई भी ऐसे नियम नहीं बनाए गए थे जिससे कि उत्तराधिकारी आसानी से गद्दी पर बैठ सके। गद्दी की प्राप्ति की निर्णय तलवार की नोक पर होती थी जैसे:- इल्तुतमिश ने रजिया सुल्तान को उत्तराधिकारीणी बनाया तो तुर्की अमीर इससे खुश नहीं थे। वे षड्यंत्र करके रुकुनुद्दीन फिरोज को सुल्तान चुन लिया।

अतः ये तुर्की अमीरों (चालीस दल के तुर्की अमीर) पर ही निर्भर हो गया था कि सत्ता पर वे किसे बैठाते हैं और किसे उतारते हैं। इस “चालीस दल” के षड्यंत्र से इस वंश के शासक परेशान हो गए थे अतः अंत में बलबन ने इसे समाप्त ही कर डाला था।

रजिया सुल्तान कौन थी? (1236-1240 ईस्वी) इस लेख को विस्तार पूर्वक जानने के लिए अवश्य पढ़ें।

“चालीस दल” के तुर्की अमीरों का संगठन (तुर्कान-ए-चिहलगानी)

इसका गठन इल्तुतमिश ने अपने 40 गुलामों को मिलाकर एक दल के रुप में निर्माण किया था। जिसे तुर्कान-ए-चिहलगानी नाम दिया गया था। इल्तुतमिश के शासनकाल में ये काफी वफादार थे तथा इन्हें इल्तुतमिश ने उच्च पदों पर बैठाया था। सभी तुर्की गुलाम अपनी-अपनी जिम्मेदारियां अच्छी तरह निभाई लेकिन इल्तुतमिश के मृत्यु के बाद ये खुद को किंग मेकर बना लिए।

अब ये जो चाहते वही होने लगा। वे जानबूझकर अयोग्य शासक चुनते ताकि सत्ता पर उनका पूर्ण नियंत्रण हो सके। मुईजुद्दीन बहरामशाह (1240-42 ईस्वी) को सिर्फ इसलिए गद्दी पर अमीरों ने बैठाया ताकि वह तुर्क अमीरों को पूर्ण रूप से राजशक्ति का उपभोग करने देगा और स्वयं केवल राज्य करेगा, शासन नहीं। उच्च पदों पर नियुक्ति भी इस समय अमीर ही करने लगे, न की सुल्तान। अतः इस समय सत्ता पर तुर्की अमीरों का पूर्ण प्रभुत्व हमें देखने को मिलता है।

अलाउद्दीन मसूदशाह (1242-1246 ईस्वी) को भी तुर्की अमीरों ने इसलिए बैठाया ताकि वह राज्य की समस्त शक्ति “चालीस दल” को सुपुर्द करके स्वयं केवल सुल्तान की उपाधि का उपयोग करेगा। तुर्की अमीरों के इन्हीं कार्यों के कारण गुलाम वंश (slave dynasty) का विघटन होता चला गया।

 महमूद गजनवी का भारत पर आक्रमण, विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।

शासकों का निरंकुश होना

गुलाम वंश (slave dynasty) के अधिकांश शासक निरंकुश थे। यह निरंकुशता सबसे पहले रजिया सुल्तान में देखने को मिलती है। इसके समय “चालीस दल” के  अमीर तुर्की सत्ता पर अपना अधिकार मानते थे।

अतः सत्ता को सुल्तान के अधीन लाने के लिए वह गैर तुर्की पदाधिकारियों की नियुक्ति की। इतिहासकारों का मानना है कि यह कार्य उसने “चालीस दल” के शक्ति को तोड़ने के लिए किया था। उसकी इस्लाम परंपरा को न मानना और पुरुष वेश में दरबार में आना-जाना भी लोगों को पसंद नहीं आया।

इसके बाद हमें बलबन में भी अत्याधिक निरंकुशता देखने को मिलती है। उन्होंने सुल्तान को निरंकुश बनाने के लिए राजत्व का सिद्धांत एवं लौह और रक्त की नीति का सहारा लिया। सैन्य शक्ति का इस्तेमाल कर जनता में डर कायम किया।

गयासुद्दीन बलबन ने अपने विरोधियों का कठोर नीति से दमन किया और विद्रोहों को दबाने के लिए भीषण नरसंहार किया। एक घटना के विषय में बर्नी कहते हैं कि:- “लखनौती के मुख्य बाजार के दोनों ओर खूँटों की कतार गाड़ी गई और उस पर तुगरिल खाँ के समर्थकों को ठोक दिया गया। देखने वाले पहले ऐसा भयानक दृश्य कभी नहीं देखा था और बहुत से लोग तो डर और घृणा से मूर्छित हो गए।”

इस तरह के निरंकुशता से धीरे-धीरे सुल्तान के प्रति लोगों का विचार उदासीन होता चला गया और जनता के सहयोग न मिलने से गुलाम वंश (slave dynasty) पतन की ओर बढ़ता चला गया।

गयासुद्दीन बलबन और उसके शासनकाल के बारे में जानने के लिए क्लिक करें।

उत्तराधिकारियों का अयोग्य होना

गुलाम वंश में गयासुद्दीन बलबन के बाद के उत्तराधिकारी हमें अयोग्य देखने को मिलते हैं क्योंकि बलबन अपने आखिरी समय में अपना उत्तराधिकारी कैखुसराव को नियुक्त किया था। किंतु बलबन के मृत्यु के बाद अमीरों ने उसे (कैखुसराव को) हटाकर कैकुबाद को सत्ता में बैठा दिया। इसकी देखरेख बलबन की कट्टर संरक्षण में हुआ।

अतः बलबन के मृत्यु के बाद वह आजाद हो गया। अब वह कामवासना, शराब, स्त्री-प्रसंग, तड़क-भड़क जीवन में लिप्त हो गया और इसके दरबारी भी ऐसा जीवन जीने लगे जिससे दिल्ली की शक्ति अब निजामुद्दीन नामक चरित्रहीन व्यक्ति में चली गई।

कैकुबाद अब उसके हाथ का कठपुतली बन गया। इसी का लाभ उठाकर मंगोलों ने तैमूर खान के नेतृत्व में पंजाब पर आक्रमण कर दिया। मलिक बकबक जो एक सूबेदार था ने किसी प्रकार मंगोलों को पराजित किया। इसके बाद हमें बुगरा खाँ और उसके बेटे कैकुबाद में मतभेद देखने को मिलता है।

अंततः दोनों के बीच समझौता हो जाता है कि बुगरा खाँ दिल्ली के सुल्तान की अधीनता मानेगा। इसके बाद कैकुबाद, निजामुद्दीन को विष देखकर मरवा दिया। कुछ दिनों तक अपने पिता बुगरा खाँ की सलाह मानकर भोग-विलासी जीवन छोड़ दिया लेकिन फिर से बिलासी हो गया।

निजामुद्दीन के मृत्यु के बाद जलालुद्दीन फिरोज नामक खिलजी अमीर को सुल्तान ने बुलंदशहर की जागीर दी एवं अपनी सेना का सेनापति नियुक्त किया।

इसके बाद कैकुबाद को लकवा मार दिया इसलिए अमीरों ने उसके पुत्र को जो अभी अबोध था समसुद्दीन क्यूमर्स के नाम से सिहासन पर बैठा दिया। जलालुद्दीन जो खिलजी वंश का था वह कैकुबाद को मारकर खुद ही उसके पुत्र का संरक्षक बन बैठा और धोखे से समसुद्दीन क्यूमर्स का भी वध कराकर मार्च 1290 ईस्वी में गद्दी पर बैठा।

इस तरह से गुलाम वंश का अंत हो गया और दिल्ली में खिलजी वंश की शुरुआत हुई। अतः इस से साफ पता चलता है कि बलबन के बाद के जितने भी उत्तराधिकारी हुए वे सभी अयोग्य थे।

गुलाम वंश का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक कौन था? विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें

मंगोलों का आक्रमण

गयासुद्दीन बलबन के शासनकाल में मंगोलों के आक्रमण का भय बना हुआ था। अतः बलबन ने अपने साम्राज्य के उत्तर-पश्चिमी सीमाओं को सुदृढ़ बनाने के लिए एक दुर्ग श्रंखला बनवाया तथा वीर अफगानी सैनिकों की नियुक्ति की। जाहिर सी बात है इतना कार्य करने के लिए बहुत सारे धनराशि व्यय किए गए। साथ ही सेना का पुनः संगठन के द्वारा भी अपनी आय का बहुत बड़ा भाग खर्च करना पड़ा। धन की कमी से भी खजाना खाली हो गया।

अतः ऐसे खर्चों के कारण जनकल्याणकारी कार्यों पर ध्यान न दिया जा सका। जिससे जनता में गुलाम वंश (slave dynasty) और अलोकप्रिय हो गया।

आंतरिक विद्रोह का होना

गुलाम वंश (slave dynasty) के शासनकाल में हमें कई विद्रोह देखने को मिलते हैं जैसे:- कुतुबुद्दीन ऐबक और इल्तुतमिश के शासनकाल में सिंधु और मुल्तान के शासक कुबाचा, गजनी के शासक एल्दौज तथा बंगाल के शासक अलीमर्दान खलजी  (जिन्होंने खुद को स्वतंत्र घोषित कर लिया था) के विद्रोह हुए।

बलबन के समय में भी बंगाल के शासक (सूबेदार) तुगरिल खाँ ने विद्रोह कर दिया था। अतः गुलाम वंश के जितने भी योग्य और शक्तिशाली शासक हुए विद्रोहों को शांत करने तथा दिल्ली की अधीनता मनवाने में ही सारा समय बर्बाद कर दिए। शासन व्यवस्था के लिए कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। जिससे गुलाम वंश की अलोकप्रियता बढ़ गई।

इल्तुतमिश कौन था ? (1211-1236 ईस्वी) विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें।

दुर्बल प्रशासनिक व्यवस्था

गुलाम वंश के शासनकाल में हमें कमजोर प्रशासनिक व्यवस्था देखने को मिलती है। किसी भी सुल्तान ने प्रशासनिक व्यवस्था को मजबूत करने की ओर ध्यान नहीं दिया। प्रत्येक सुल्तान के शासनकाल में आंतरिक विद्रोह एवं बाह्य आक्रमण का भय बना हुआ था सुल्तान इसी में व्यस्त रहते थे और प्रशासनिक व्यवस्था पर ध्यान न दे सके। ऐसे में इसका असर सत्ता पर भी हुई और धीरे-धीरे सत्ता को कमजोर बनाती गई और यह भी पतन का कारण बन गया।

विदेशी शासन का होना

गुलाम वंश के शासक विदेशी थे एवं ये इस्लाम धर्म के अनुयाई थे। जबकि भारत हिंदू बहुल प्रदेश था। भारतीय जनता इन्हें विदेशी कहकर घृणा की दृष्टि से देखती थी। इस समय लोगों में परस्पर भेदभाव की स्थिति बनी हुई थी। एक दूसरे के बीच सहयोग की भावना बिल्कुल भी नहीं थी। गुलाम वंश (slave dynasty) के शासकों में बलबन जो था वह हिंदुओं के प्रति सबसे अधिक कठोर नीति अपनाई थी।

कई बार तो आम जनता के कत्ल का फरमान सुनाया एवं स्त्रियों और बच्चों को बंदी बनाकर ले गया। इनकी नीतियों से अप्रसन्न होकर कई बार राजपूत शासकों ने विद्रोह कर दिया लेकिन बात वहीं पर आती थी कि कठोर नीति अपनाकर विद्रोह का दमन कर देना।

अतः स्थानीय हिंदू शासक एवं जनता गुलाम वंश (slave dynasty) के शासकों से परेशान थे। वे कभी भी उनके सहयोगी नहीं बन पाए एवं वे अपने को स्वाधीन करने के लिए लगातार प्रयासरत थे।

कुतुबुद्दीन ऐबक और गुलाम वंश को अच्छी तरह समझने के लिए “मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण” ये लेख जरूर पढ़ें।

तुर्की अमीरों का महत्वाकांक्षी होना

सर्वप्रथम इल्तुतमिश ने अपनी शक्ति को दृढ़ बनाने के लिए चालीस गुलाम सरदारों का एक गुट बनाया। जिसे तुर्कान-ए-चिहलगानी कहा जाता था। उसके समय ये उच्च पदों पर थे और इल्तुतमिश के बहुत वफादार थे। इल्तुतमिश के मृत्यु के बाद वे अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे एवं सत्ता अपनी इच्छा से बदलते थे और सुल्तान की शक्ति और प्रतिष्ठा को इनके द्वारा धीरे-धीरे समाप्त कर दिया गया।

गयासुद्दीन बलबन ने सुल्तान बनते ही सत्ता की प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए “चालीस दल” की शक्ति को समाप्त कर दिया। लेकिन वह अमीरों के प्रभाव को नष्ट नहीं कर पाया। बलबन के बाद आयोग्य एवं दुर्बल उत्तराधिकारीयों के समय वे फिर से कुचक्र रचना शुरू कर दिए। ये अमीर बलबन के समय दो गुट में विभाजित हो गए तुर्क एवं खिलजी। ये दोनों गुटों ने संघर्ष किया। अंत में खिलजीयों ने सफलता पाई और गुलाम वंश के बाद खिलजी वंश की नींव डाली गई और यहीं से खिलजी वंश की शुरुआत हुई।

पतन के लिए बलबन का उत्तरदाई होना

गुलाम वंश के पतन का एक मुख्य कारण खुद बलबन भी था। क्योंकि उन्होंने अपने ही तुर्की अमीरों को नष्ट कर दिया एवं ऐसा करके उसने न केवल अपने वंश के, अपितु दिल्ली के प्रशासन पर तुर्कों के अधिकार को भी नष्ट कर दिया।

उसने अपने को कठोर और निरंकुश बनाने के लिए जो नीतियां अपनाई वह बहुत ही कठोर थी तथा उस समय तलवार के बल पर ही सत्ता हथिया ली जाती थी। जैसे ही बलबन के उत्तराधिकारी बलहीन होते गए खिलजी सेनापतियों ने तलवार की नोक पर सत्ता हथिया ली।

निष्कर्ष

अतः उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि गुलाम वंश (slave dynasty) के पतन के बहुत सारे कारण थे। सभी कारणों ने मिलकर गुलाम वंश को पतन के गर्त में डाल दिया। सबसे महत्वपूर्ण एवं अहम कारण तो बलबन के उत्तराधिकारीयों का कमजोर होना था।

बलबन ने अपनी क्षमता से अपने साम्राज्य को तुर्क अमीरों को नष्ट कर नई ऊंचाइयों तक ले गया था। पर कमजोर उत्तराधिकारीयों ने अपने साम्राज्य को बचा नहीं पाए। एवं एक खिलजी सेनापति ने इन अयोग्य उत्तराधिकारीयों का फायदा उठाकर खिलजी वंश की नींव डाल दी।


  • हमारे देश के संविधान निर्माण में भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) का महत्वपूर्ण योगदान है। विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।
  • Hussainara Khatoon vs State of Bihar (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य मामला) मामला भारत में जनहित याचिका का पहला रिपोर्ट किया गया मामला था क्लिक करें

जनहित याचिका से संबंधित प्रमुख मामले पढ़ने के लिए क्लिक करें

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button