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जनहित याचिका (Public Interest Litigation) क्या है? प्रासंगिकता एवं दुरुपयोग | Janhit Yachika in Hindi

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) भारतीय संविधान या किसी कानून में कहीं भी उल्लेखित नहीं है यह सुप्रीम कोर्ट के संवैधानिक व्याख्या से उत्पन्न हुआ एक पहलू है। जिसके द्वारा भारतीय कानून में सार्वजनिक हित की रक्षा के लिए मुकदमों का प्रावधान किया गया है।

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) बिल्कुल भी अन्य अदालती याचिकाओं से परे है एवं इसमें यह जरूरी नहीं कि पीड़ित पक्ष ही  स्वयं जाकर अदालत में याचिका दायर करे। इसमें कोई भी नागरिक या स्वयं न्यायालय द्वारा पीड़ितों के पक्ष में याचिका दायर कर सकता है।

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) से अब तक बहुत सारे मामले सुलझाए गए हैं इससे व्यापक क्षेत्रों में प्रभाव पड़ा है जैसे- कारागार और बंदी, सशस्त्र सेना, बाल श्रम, बंधुआ मजदूरी, शहरी विकास, पर्यावरण, संसाधन, ग्राहक मामले, शिक्षा, राजनीति और चुनाव लोकनीति और जवाबदेही, मानवाधिकार एवं स्वयं न्यायपालिका।

वास्तव में देखा जाए तो यह एक सुप्रीम कोर्ट की अच्छी पहल है इसके द्वारा काफी मामले सुलझा लिए गए हैं और इसका मध्यम वर्ग ने सामान्यतः स्वागत किया है।

जनहित याचिका

उत्पत्ति

इसकी उत्पत्ति अमेरिका से हुई है। वहां इसे “सामाजिक कार्यवाही याचिका” कहते हैं। अमेरिका में यह न्यायपालिका एवं न्यायाधीश द्वारा निर्मित एक विधि है।

भारत में जनहित याचिका (Public Interest Litigation) का प्रारंभ 1986 में पी एन भागवती ने भारतीय न्याय प्रणाली में गुप्ता बनाम भारत संघ मामले में पेश किया था।

पी एन भागवती का मानना था कि कैदियों के भी मौलिक अधिकार हैं एवं उनको भी अपना हक मिलनी चाहिए एवं इन्होंने इसका समर्थन करते हुए क़ैदियों के पक्ष में फैसला भी सुनाया था। ये भारत के 17वें  मुख्य न्यायधीश थे।

यह एक ऐसा न्यायिक उपकरण है जिनका लक्ष्य ‘जनता का हित’ प्राप्त करना है। साथ ही इसका लक्ष्य जल्द से जल्द एवं सस्ता न्याय आम आदमी को दिलवाना। लेकिन अगर कोई इसका दुरुपयोग करता है तो याचिकाकर्ता पर जुर्माना भी लगाया जा सकता है। अर्थात याचिका को स्वीकार करना यह स्वीकार न करना न्यायालय पर निर्भर करता है। न्यायालय ने जनहित याचिका के लिए कुछ नियम भी बनाए हैं-

  • लोकहित से जुड़ा व्यक्ति या संगठन इन्हें लाए।
  • कोर्ट को दिया गया पोस्टकार्ड भी रिट याचिका मानकर जारी किया जा सकता है।
  • कोर्ट को अधिकार है कि वह याचिका हेतु सामान्य न्यायालय शुल्क को माफ भी कर दे।
  • ये राज्य के साथ ही निजी संस्थान के विरुद्ध भी लाई जा सकती है।

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) का विकास।

आरंभ में इसकी स्वीकार्यता बहुत ही गौण था परंतु समकालीन भारतीय कानून व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसकी शुरुआत होने के कई राजनैतिक और न्यायिक कारण है देखा जाए तो 70 के दशक से शुरू होकर 80 के दशक में यह अवधारणा अपनी मूल अवस्था में आ पहुंची। भारतीय न्याय व्यवस्था के अंदर कई मुद्दे सामने आए जिससे कई परिस्थितियां सामने आई। और कई ऐसे लोगों के अधिकारों का हनन हुआ जिसके कारण धीरे-धीरे करके इसकी अवधारणा मजबूत होती चली गई।

आइए कुछ केस ( विवाद/मुद्दे) का अध्ययन कर इसके विकास के बारे में जानते हैं:-

ए के गोपालन और मद्रास राज्य  (1905- 1950)

1950 में जब केंद्र सरकार ने निवारक निरोध अधिनियम बनाया तो मद्रास सरकार ने इस अधिनियम का इस्तेमाल कर गोपालन को नजर बंद कर दिया। जब गोपालन ने इसके खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका दायर किया तो उन्हें उनके सभी आधारों को पेश करने से रोक दिया गया।

अतः गोपालन ने अनुच्छेद 13, 19, 21 एवं 22 का हवाला देते हुए कि उनकी सुरक्षा एवं स्वतंत्रता का हनन हो रहा है उन्होंने न्यायालय में याचिका दायर किया और कोर्ट ने निवारक निरोध अधिनियम के धारा 14 के प्रावधान कि आधारों के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करता है असंवैधानिक माना।

बाद के फैसलों में न्यायालयों की सर्वोच्चता तो स्थापित हुई परंतु विधायिका और न्यायपालिका के बीच मतभेद और संघर्ष भी बढ़ी।

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गोलकनाथ और पंजाब राज्य मामला (1967)

जजों की खंडपीठ ने विचार विमर्श करने के बाद 6:5 के बहुमत से यह फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 13 के तहत जिस विधि शब्द का इस्तेमाल किया गया है वह संविधान संशोधन पर भी लागू होती है। अगर संविधान में संशोधन हो रही है तो वह भी विधि कहलाएगा और कोई भी विधि किसी के मौलिक अधिकारों का हनन करती है तो वह असंवैधानिक होगा लेकिन पांच जजों ने माना कि विधि और संशोधन दोनों अलग अलग चीज है।

जिस तरह से शंकरी प्रसाद केस में कहा गया था। लेकिन बहुमत ने माना कि दोनों अर्थात विधि और संविधान संशोधन दोनों विधि ही कहलाएगा। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सरकार कोई भी विधि बनाकर किसी भी व्यक्ति का मौलिक अधिकार का हनन नहीं कर सकती। इस फैसले में साफ शब्दों में कहा गया है कि सरकार व्यक्ति के मौलिक अधिकार को ना तो छीन सकती है और ना ही कम कर सकती है।

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) केस विस्तार पूर्वक जानने के लिए अवश्य पढ़ें

केशवानंद भारती और केरल राज्य मामला ( 1973)

इस केस में सुप्रीम कोर्ट के 13 जजों की बेंच 7:6 बहुमत से गोलकनाथ निर्णय को रद्द करके यह फैसला दिया कि संसद को यह अधिकार नहीं है कि वह संविधान की मौलिक संरचना को बदलने वाला संशोधन करें अर्थात संसद द्वारा किया गया कोई भी संशोधन संविधान के बुनियादी ढांचे और आवश्यक विशेषताओं में परिवर्तन या संशोधन नहीं कर सकती है। साथ ही यह भी माना कि न्यायिक समीक्षा मौलिक संरचना का भाग है।

केशवानंद भारती और केरल राज्य मामला (1973) विस्तार पूर्वक जानने के लिए क्लिक करें

ए डी एम जबलपुर और अन्य तथा शिवकांत शुक्ला केस (1976)

आपातकाल के दौरान नागरिक स्वतंत्रता का हनन होने पर जबलपुर हाईकोर्ट ने पीड़ित के पक्ष पर सरकार के खिलाफ जाकर फैसला सुनाया था लेकिन इस फैसले को सरकार द्वारा चुनौती देने पर सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट के फैसले को पलट कर सरकार के पक्ष में फैसला सुना दिया और कहा कि मौलिक अधिकार आपातकाल के दौरान स्वतः समाप्त हो जाती है एवं संविधान द्वारा मिले हुए मौलिक अधिकार शांति के समय के लिए मिले हुए हैं

यह फैसला 5 जजों की बेंच ने 4:1 के बहुमत से सुनाया था इस फैसले ने अदालत के नागरिक स्वतंत्रता के संरक्षक होने की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया आपातकाल के दौरान जनहित याचिका के विकास हो काफी हद तक आलोचना के प्रतिक्रिया के रूप में देखा जा सकता है

मेनका गांधी और भारतीय संघ केस (1978)

इस केस में मेनका गांधी से पासपोर्ट अधिनियम 1967 की धारा 10(3) के तहत क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी द्वारा पासपोर्ट वापस करने का अनुरोध किया गया था भारतीय संविधान अनुच्छेद 21 के तहत मेनका गांधी ने एक रिट याचिका दायर की जिसमें पी एन भगवती एवं न्यायमूर्ति वी आर कृष्णा अय्यर ने सरकार के खिलाफ जाकर मेनका गांधी के पक्ष में फैसला सुनाया जिससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता का दायरा काफी बढ़ गया और मौलिक और संवैधानिक अधिकार को संरक्षित रखा गया

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) के प्रमुख मुकदमे

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) के कई महत्वपूर्ण मुद्दों में निम्नलिखित मुद्दे हैं:-

हुसैनारा खातून और बिहार राज्य (AIR 1979 SC 1360) केस

यह  केस कारागार में रह रहे विचाराधीन कैदियों की अमानवीय परिस्थितियों से जुड़ा थाफैसले में 40000 से भी अधिक कैदियों को रिहा किया गया था साथ ही त्वरित न्याय को एक मौलिक अधिकार माना गया जो उन कैदियों को नहीं दिया जा रहा था इस सिद्धांत को कालांतर में भी कई केसों में भी स्वीकार किया गया

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एस सी मेहता और भारतीय संघ और अन्य (1985- 2001)

यह केस पर्यावरण से जुड़ा हुआ थाकोर्ट ने आदेश दिया कि दिल्ली मास्टर प्लान के तहत दिल्ली में प्रदूषण कम करने के लिए दिल्ली के रिहायशी इलाकों से करीब 1,00,000 औद्योगिक इकाइयों को दिल्ली से बाहर स्थानांतरित किया जाएइससे वर्ष 1999 के अंत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में औद्योगिक अशांति एवं सामाजिक अस्थिरता को जन्म दियाइसकी आलोचना इस कारण हुई कि आम मजदूरों के हितों की अनदेखी पर्यावरण के लिए की जा रही है इस केस के फैसले से तकरीबन 20,00,000 लोग प्रभावित हुए जो इन इकाइयों में सेवारत थे

अस्वीकृत जनहित याचिका

पी जी नारायणन जो अन्नाद्रमुक के सांसद थे। इन्होंने मद्रास उच्च न्यायालय में जनहित याचिका (Public Interest Litigation) दायर की थी जिसमें कोर्ट ने संघ सरकार को जनहित में सन टीवी प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्ट टू होम सेवा के आवेदन को आज स्वीकार करने का अनुरोध किया था इसे न्यायालय ने अस्वीकार कर दिया।

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) का दुरुपयोग और प्रणाली की समस्या

उपरोक्त वर्णित कई मामलों में हमने पाया कि जनहित याचिका के केस में सुप्रीम कोर्ट के कई फैसलों का आलोचना किया गया है।

  •  जनहित याचिका (Public Interest Litigation) के दुरुपयोग की संभावना को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी स्वयं एक के आलोचना में कहा है कि- ”अगर इसको सही तरीके से नियंत्रित नहीं किया गया और इसके दुरुपयोग को ना रोका गया तो यह अनैतिक हाथों द्वारा प्रचार, प्रतिरोध, निजी या राजनैतिक स्वार्थ का हथियार बन सकता है”
  •  भारत के मुख्य न्यायाधीश के जी बालकृष्णन ने 8 अक्टूबर 2008 को सिंगापुर लॉ अकादमी में स्वयं के द्वारा दिए गए भाषण में कहा था- “जनहित याचिका द्वारा न्यायालय मनमाने तरीके से विधायिका के नीतिगत फैसले में दखल दे सकता है और ऐसे आदेश दे सकता है जिनका क्रियान्वयन कार्यपालिका के लिए कठिन हो, जिससे सरकार के अंगों के बीच के शक्ति संतुलन की अवहेलना हो। उन्होंने यह भी माना कि जनहित याचिका ने बेमतलब केसों को भी जन्म दिया है जिनका लोक न्याय से कोई लेना देना ही नहीं है। न्यायालय में मुकदमों की संख्या बढ़ाकर इसने न्यायालय के मुख्य कामों में बाधा डालने का काम किया है।”
  •  सर्वोच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति ए के माथुर और मार्कण्डेय कटजू ने एक मामले की फैसला सुनाते हुए नाराजगी जाहिर करते हुए लिखा था कि- “ भारत में मौजूदा न्यायिक हालात से जनता क्षुब्ध है। मुकदमों में होने वाली जरूरत से अधिक देरी के कारण न्याय व्यवस्था में उसकी आस्था तेजी से घट रही है। हम संबंधित अधिकारियों से आग्रह करते हैं कि अगर न्यायपालिका में नागरिकों का विश्वास बनाए रखना है तो तुरंत आवश्यक कार्यवाही करें ताकि मामलों को तीव्र गति से निपटाया जा सके।
  • हमें यह भी देखने को मिलता है कि ज्यों ही जनहित याचिकाओं को मंजूरी मिली त्यों ही एक के बाद एक कई स्वयंसेवी संगठन, प्रबुद्ध समाजसेवी, कई बड़े वकील ,वरिष्ठ पत्रकार और कुछ प्रसिद्ध लोगों द्वारा कई बड़े मुद्दे लेकर कोर्ट चले गए कुछ मुद्दे तो खुद की प्रायोजित होते थे और कुछ तो अपने ही मुद्दे को लेकर कोर्ट चले गए कई बार तो ऐसे भी परिस्थितियों देखी गई की जनहित योजनाओं पर अपनी सारी ताकत और प्रतिभा झोंक दी कुछ ने तो ऐसा करके नाम सम्मान भी कमाया एवं राष्ट्रीय फण्ड भी कमाया है ऐसे लोगों की विश्वसनीयता पर हमेशा प्रश्नचिन्ह लगेंगे
  •  कई बार तो हम यह भी देखते हैं कि सुप्रीम कोर्ट ने इनकी याचिकाओं को खारिज भी किया है साथ ही भारी-भरकम जुर्माना भी लगाया है हमें कई प्रकार के हास्यास्पद याचिकाएं भी देखने को मिलते हैं जैसे भारत का नाम बदलकर हिंदुस्तान कर देना इत्यादि इंदौर में एक मामला ऐसा भी था जो सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों के ही  विरुद्ध था जोकि भारी जुर्माने के साथ खारिज किया गया था
  • कई बार तो जनहित याचिका (Public Interest Litigation) समाजोपयोगी ना होकर जनविरोधी सिद्ध हो गई है अदालतों द्वारा पर्यावरण प्रदूषण पर अनेक आदेश दिए गए जैसे एस सी मेहता और भारतीय संघ एवं अन्य (1985-2001) इस फैसले के तहत हजारों फैक्ट्रियों को बंद करने का आदेश, झुग्गी झोपड़ियां हटाने के आदेश सभी जनविरोधी सिद्ध हुए

जनहित याचिका (Public Interest Litigation) की आवश्यकता क्यों ?

इसकी आवश्यकता इसलिए है क्योंकि यह शासन की संरचनाओं के भीतर उत्तरदायित्व और पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए एक बेहतर विकल्प है साथ ही गरीबों और अंतिम छोर में खड़े लोगों तथा हाशिये के वर्ग के लोगों के लिए न्याय को सुलभ बना सकने में यह सक्षम है जनहित याचिका (Public Interest Litigation) ने मानव अधिकारों एवं पर्यावरण किस क्षेत्र में काफी प्रभावी कार्य किया है जोकि आम जनता के समस्याओं का समाधान दिलाने में सक्षम है जनहित याचिका नागरिकों को सस्ते और तीव्र गति से न्याय दिलाने में भी सक्षम है

निष्कर्ष

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि हर पहलू की तरह जनहित याचिका (Public Interest Litigation) में गुण और अवगुण दोनों हैं इसकी अत्यधिक उपयोग और दुरुपयोग ही केवल इसको कमजोर एवं प्रभावी बना देता है इसलिए इस के संदर्भ में फिर से विचार-विमर्श करके इसकी पुनर्गठन कर न केवल जरूरतमंदों को बल्कि वंचित लोगों के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा से जुड़े मामलों तक ही सीमित कर देना चाहिए ताकि इन गरीब लोगों को न्याय प्रदान करने के साधन के रूप में खरा उतर सके

[शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार] जानकारी के लिए क्लिक करें

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