History

मुगलकालीन जागीरदारी व्यवस्था | Jagirdari system of Mughals

मुगल काल में जागीरदारी व्यवस्था एक विशिष्ट संस्था के रूप में विकसित हुई जिसके व्यापक नियम विनियम थे। इस संस्था की नींव अकबर ने डाली किंतु शाहजहां ने इस सामान्य संगठन को एक जटिल संस्था के रूप में विकसित किया। धीरे-धीरे यह संस्था मुगल प्रशासनिक व्यवस्था का एक अत्यंत विशिष्ट अभिलक्षण बन गई। आरंभ में जागीरदारी व्यवस्था को लागू करने का उद्देश्य यह था कि शाही सेवा में दक्ष और अनुशासित व्यक्तियों को लाया जाए। साथ-साथ यह भी उद्देश्य था कि इससे सरकार पर भू-राजस्व प्रशासन का जो भारी बोझ था वह हल्का हो जाएगा और ग्रामीण क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था लागू करने में मदद मिलेगी। किंतु 17वीं शताब्दी के अंत तक तो इस व्यवस्था ने मुगल साम्राज्य के प्रशासनिक और आर्थिक स्थायित्व को अस्थिर करना शुरू कर दिया। इसलिए यह आवश्यक है कि हम जागीरदारी व्यवस्था के वास्तविक स्वरूप को पहचाने और इसकी कार्य शैली की जांच करें।

जागीरदारी व्यवस्था क्या है ?

जागीरदार वे मनसबदार थे जिन्हें उनके वेतन नगद नहीं मिलता किंतु इसके लिए उन्हें कुछ राजस्व क्षेत्र दिए जाते थे। जिन्हें  ‘जागीर’ कहते थे। अपनी जगीरों से वे राजस्व इकट्ठा कर उसका अपने लिए विनियोजन करते थे। जगीरों से उन्हें लगभग उतनी अनुमानित आय हो जाती थी जो जागीरदार के रूप में उनके नियत वेतन के बराबर होती थी।

अनुमानित आय को तकनीकी अर्थ में ‘जमा’ या ‘जमादामी’ कहते थे। इसमें ‘भू-राजस्व’ एवं ‘हासिलसैर’ और ‘पेशकश’ जैसे अन्य कराधान शीर्षों से होने वाली आय सम्मिलित होती थी। मुगलों के अधीन शाही इलाके भू-राजस्व प्रशासन की दृष्टि से मोटे तौर पर तीन लगभग असमान कोटियों में विभाजित थे। जो ‘खलिसा’, ‘जागीर’ और ‘इनाम’ कहलाते थे।

मुगलकालीन जागीरदारी व्यवस्था

‘खलिसा’ से सरकारी मुलाजिम राजस्व इकट्ठा कर उसे शाही खजाने में जमा करवा देते थे। जिन दी गई जमीनों के साथ किसी प्रकार का प्रशासनिक दायित्व नहीं जुड़ा होता था उन्हें ‘इनाम’ कहते थे। इनमें ‘मदद-ए-माश’ कहलाने वाली वे जमीन भी सम्मिलित थी जो या तो धर्म परायण, विद्वान और सम्मानीय व्यक्तियों को दी जाती थी या उन लोगों को जिनके पास आजीविका का कोई अन्य साधन नहीं होता था। अनुदान प्राप्त व्यक्तियों को इन अनुदानों में मिले भूखंडों से आजीवन भू-राजस्व संग्रह करने का अधिकार होता था।

मुगलकालीन जागीरदारी व्यवस्था का सार तत्व

जागीरदारी व्यवस्था का सार तत्व यह है कि यह व्यवस्था भू-राजस्व आवंटन के द्वारा वेतन भुगतान का एक तरीका थी।

जागीरदारों को अपना निजी खर्च चलाने और बादशाह की सेवा के लिए रखी फौजी टुकड़ियों के रखरखाव पर खर्च करने का अधिकार था।

वेतन भुगतान के एक प्रकार के रूप में जागीर मिलने का आशय था कि उसका दावा केवल ‘महाल’ से प्राप्त राजस्व तक ही सीमित था नियतन आदेश में यह बात साफ तौर पर लिखी जाती थी।

जागीरदार को नियत भूमि पर स्थाई अधिकार प्राप्त नहीं थे फिर भी यह देखा गया कि मुगल शासन में कुछ जागीरें वंशानुगत आधार पर भी प्राप्त थी।

जगीरों की इस कोटि में ‘वतन जागीर’ और ‘अलतमगा जागीर’ सम्मिलित थी। वतन जागीर कुछ राजाओं और जमींदारों को मिली हुई थी इन जगीरो में वतन (वह भूमि जो मूल रूप से उनके शासन में थी) एवं अन्य प्रकार के राजस्व नियतन आते थे और ये दोनों प्रकृति से वंशानुगत होते थे।

राजाओं के पुश्तैनी इलाकों को वतन जागीर की कोटि में लाने का एक लाभ यह हुआ कि इससे वे इलाके भी उन्ही शाही नियमों-विनियमों से नियंत्रित होने लगे जिनसे जागीर भूमि नियंत्रित होती थी।

जहांगीर द्वारा प्रवर्तित अलतमगा जागीर पुश्तैनी जागीर की दूसरी कोटि में आती है पर जागीर का यह प्रकार बहुप्रचलित नहीं थी। बादशाह की जिन परिवारों पर कृपा दृष्टि हो जाती केवल उन्हीं को यह जागीरें मिलती थी।

जागीरदारों के कर्तव्य

जागीरदार के अनेक कर्तव्य थे क्योंकि जागीरदार एक मनसबदार होता था इसलिए उसे नियत मात्रा में फौजी टुकड़ियां रखनी पड़ती थी। वह चौधरियों, कानूनगो, देशमुख, देशपाण्डों और कृषकों से ‘माल-ए-वाजीब’ नियत मात्रा में राजस्व और ‘हुकूक-ए-दीवानी’ (राजकोषीय मांगे) वसूलता था।

किंतु उसकी कृषकों और सरकार के मध्य बिचौलिए की स्थिति नहीं थी क्योंकि जागीर से जो आय होती थी उसका विनियोजन उसी के लिए होता था। वह यदाकदा राजमार्गों पर यात्रियों की सुविधा के लिए साराय बनवाता था। कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण स्थानों पर आवासीय बस्तियां बसाता था और यहां तक की लूटपाट और डाकुओं से लोगों को बचाने के लिए चौकियां भी स्थापित करता था। इस तरह जागीरदारी प्रथा सैनिक और नागरिक (राजस्व) प्रशासन से और यहां तक की कुछ मामलों में ग्रामीण क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था से पूरी तरह जुड़ गई।

दिल्ली सल्तनत का प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन | administrative system of delhi sultanate

जागीरदारी व्यवस्था पर प्रशासनिक तंत्र और उसका नियंत्रण

मुगल काल में ‘जागीर’ भरपूर शक्ति एवं प्रभाव का स्रोत था इसलिए सरकार इसे विस्तृत नियमों-विनियमों द्वारा नियंत्रित करना चाहती थी। जगीरों का प्रशासनिक तंत्र इस प्रकार से बनाया गया कि उससे दो प्रमुख समस्याओं का हल निकल सके। ये समस्याएं थी:-

  • शाही नियंत्रण बनाए रखने तथा राजस्व व्यवहार में निरंतरता बनाए रखना।

जगीरों पर नियंत्रण रखने के लिए एक अलग दीवान था। वित्त मंत्रालय जगीरों की आय का आकलन करता था और जागीरदार को राजस्व निर्धारण और संग्रहण से संबंधित सभी सरकारी विनियमों का अनुपालन करना पड़ता था।

जगीरों के आंतरिक प्रशासन के पर्यवेक्षण और नियंत्रण के लिए एकाधिक विधियां प्रचलित थी। जागीरदारों पर नियंत्रण रखने के लिए जो महत्वपूर्ण अभिकरण था। उसे ‘सावानिह निगार’ कहते थे। ये अधिकारी जागीरदारों की कार्यवाहीयों और जगीरों की तत्कालीन स्थिति का पूरा विवरण लिखित रखते और उसे आगे भेजते थे। अगर किसी जागीरदार के दमनकारी होने या वह शाही विनियमों के अनुसार कार्य नहीं कर रहा है तो उसे दंडित किया जा सकता था। दंड स्वरूप या तो उसका स्थानांतरण कर दिया जाता या उसे जागीर से बेदखल कर दिया जाता या उस पर दंड शुल्क लगाया जाता था।

प्रशासन तंत्र जागीर के भू-राजस्व प्रशासन पर भी अंकुश रखता था। यद्यपि राजस्व निर्धारण और संग्रह का अधिकार जागीरदार को था फिर भी इसका कार्यकारी अधिकारी ‘फौजदार’ होता था वह उस जागीर के भू-राजस्व प्रशासन से भी जुड़ा रहता था और उसके कामकाज की सामान्य देखरेख भी करता था।

इसके अतिरिक्त दरबार द्वारा नियुक्त कुछ स्थानीय अधिकारी ‘अहल-ए-खिदमत’ भी होते थे। जागीरदार के कारिंदे यदि इन अधिकारियों के कर्तव्यों में किसी तरह का हस्तक्षेप करते तो वह इसकी सूचना ऊपर भेजते थे। ये अधिकारी चौधरी, कानूनगो और काजी कहलाते थे।

काजी

यद्यपि काजी मुख्यतः न्यायिक अधिकारी होता था फिर भी कुछ हद तक स्थानीय भू-राजस्व प्रशासन से भी संबंध होता था वह भू हस्तांतरण से संबंधित प्रलेखों को साक्ष्यांकित करता था। इसके अलावा सभी महत्वपूर्ण राजस्व लेखों को उच्चाधिकारियों को अग्रप्रेषित करने से पूर्व या उन्हें स्थानीय अभिलेखों के रूप में सुरक्षित रखने से पूर्व वह उन्हें सत्यापित कर साक्ष्यांकित करता था।

चौधरी और कानूनगो

चौधरी और कानून गो प्रत्यक्ष भू-राजस्व प्रशासन से संबंधित अधिकारी होते थे। इनके पद कमोवेश पुश्तैनी होते थे। इनका काम उन महत्वपूर्ण राजस्व संबंधी कागजात के अनुरक्षण से था जिन में परगने के भू-वितरण और कृषि संबंधि सारी आवश्यक जानकारी उपलब्ध होती थी। चाहे जगीरों का हस्तांतरण हो जाए चाहे खालिसा में उनका अधिग्रहण हो जाए इन परिवर्तनों से चौधरी और कानून गो के पद प्रभावित नहीं होते थे।

इसके अतिरिक्त एक स्थापित प्रथा यह भी थी कि जागीरदारों को हर साल अपने इलाके से संबंधित चालू साल और गुजिश्ता सालों के निर्धारित भू-राजस्व आंकड़े ‘हाल-ए-हासिल’ प्रस्तुत करने पड़ते थे। उन्हें यह भी वचन देना पड़ता था कि प्रस्तुत आंकड़े सही नहीं है तो इसकी जवाब दे ही उन पर होगी। राजस्व मंत्री सभी स्रोतों से प्राप्त विवरणों को देखकर सही तौर पर जान सकता था की जागीर में भूमि संबंधित स्थिति कैसी चल रही है।

जागीरदारों पर बादशाह का नियंत्रण

जागीरदारों पर बादशाह का भी नियंत्रण था। जागीरदारों को जागीरें ‘महाल’ के रूप में प्राप्त होती थी। उन पर अधिकार जताने या अधिकार पत्र प्राप्त करने के उनके दावे नमंजूर कर दिए गए क्योंकि इससे जमीन साल दर साल उसकी जागीर बनी रहती थी और ऐसी स्थिति में अगर किसी व्यक्ति के पास पर्याप्त समय तक किसी क्षेत्र विशेष में भू-राजस्व निर्धारण और संग्रह का अधिकार बना रहा रहता तो हो सकता था कि उस व्यक्ति के ऐसे स्थानीय संबंध बन जाएं जिनकी मदद से वह किसी न किसी तरह उस भूमि पर अपनी संपत्ति का अधिकार स्थापित करने का प्रयत्न करे।

जागीरदार के रूप में लंबी कालावधि मिल जाने से इस प्रकार की संभावनाएं उत्पन्न हो सकती थी। इसलिए इस खतरे से बचने के लिए आवश्यक कदम उठाए। जगीरों के नियमित हस्तांतरण को लागू करने से इस उद्देश्य की पूर्ति हुई।

राजगामिता कानून

राजगामिता कानून के लागू किए जाने से भी जागीरदारों के प्रभाव पर नियंत्रण बढ़ा। इसकी वजह से जागीरदार के वारिस उस जागीर पर अपनी पुश्तैनी हक का दवा नहीं कर सके। जागीरदार की मृत्यु हो जाने पर उसकी सारी संपत्ति राजगामी हो जाती थी। उसकी देनदारी ‘मुतलबा’ होती थी। उसका पूरा विवरण तैयार कर राजगामी चल संपत्ति से उसकी कटौती कर ली जाती थी। इसके बाद शेष चल संपत्ति का मृत व्यक्ति के उत्तराधिकारियों में वितरण कर दिया जाता था।

इस प्रकार प्रथा ने यह सुनिश्चित कर दिया कि जागीर को केवल सेवाकालीन धरणाधिकार ही माना जाए। जागीर एक तरह से जागीरदार द्वारा की गई सेवा के बदले मिलने वाला एक प्रकार का भुगतान भरा था। इसलिए उसकी मृत्यु हो जाने पर या उसे बर्खास्त कर देने पर उसकी सेवा समाप्त हो जाती थी और तदनुसार राज्य द्वारा जागीर का अधिग्रहण उचित था।

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जागीरदारों की शक्तियां एवं विशेषाधिकार

जागीरदारों को अपने पद पर शक्तियां एवं विशेषाधिकार प्राप्त थे। यदि जागीरदार अपने पद के साथ-साथ फौजदार भी नहीं होता तो वस्तुतः उसकी शक्ति एवं अधिकार भू-राजस्व निर्धारण और संग्रह तक ही सीमित थे। सैद्धांतिक रूप से जागीर का दावा प्राधिकृत भू-राजस्व और करों (माल-ए-वाजिबी-ओ-हहुकूक-ए-दीवानी) तक ही परिसीमित था और शाही विनियमों के अनुसार निर्धारित प्राधिकृत करों से अधिक वह कुछ नहीं मांग सकता था। उसे न्यायिक अधिकार नहीं प्राप्त थे।

एक छोटे जागीरदार के पास पुलिस के अधिकार भी नहीं होते थे। सल्तनत कालीन ‘इक्तादार’ के विपरीत मुगलकालीन जागीरदार मोटे तौर पर अपनी जागीर के प्रशासनिक दायित्वों से वंचित था। परंतु इरफान हबीब के अनुसार बड़े जागीरदारों पर फौजदारी एवं पुलिस की शक्तियां प्राप्त थी।

जागीरदारों की शक्ति इस तथ्य से भी अधिक बढ़ गई थी कि उनकी जगीरो में भूमि का क्षेत्र बहुत अधिक होता था। एक आकलन के अनुसार सन 1646 में केवल 68 राजाओं और उच्चतम अभिजात वर्ग के लोगों के पास साम्राज्य की कुल जमा का 36.6 प्रतिशत था तथा अन्य 587 उच्चतर अधिकारियों के पास लगभग 25 प्रतिशत था।

जबकि क्षेत्र 7555 मनसबदारों के पास कुल राजस्व का चौथा हिस्सा था या तीसरा हिस्सा ही था। बड़े जागीरदारों को जहां कहीं जागीरें मिलती थी वहां वे राजस्व उगाहने के लिए स्थाई प्रशासनिक तंत्र रखते थे। उनके पास बड़ी सैनिक शक्ति भी होती थी इसलिए यदि उनके खिलाफ किसी तरह की शिकायत शाही दरबार में पहुंचती भी थी तो उनके पद और प्राधिकार के बल पर वह बेअसर साबित हो जाती थी।

मुगलकालीन जागीरदारी व्यवस्था का विकास और ह्रास

अकबर द्वारा स्थापित जागीरदारी प्रथा भावी मुगल बादशाहों के काल में अधिक जटिल हो गई। अकबर के शासनकाल के अंतिम कुछ वर्षों कम से कम तीन प्रांतों में तो खालिसा से प्राप्त आय कुल जमा की चौथाई थी। जहांगीर के समय में पूरे साम्राज्य में यह अनुपात गिरकर न्यूनतम 1/20 पर पहुंच गया। शाहजहां ने इसे बढ़ाकर 1/7 तक पहुंचाया। चल रहा था

जागीरदारी प्रथा की कार्य प्रणाली में ह्रास के मुख्य कारण थे- युद्ध, साम्राज्य विस्तार, मनसबदारों की संख्या में वृद्धि, आकाल आदि। इजारादारी की प्रथा भी किसान और राज्य दोनों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ। औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम वर्षों में जागीरदारी प्रथा का विघटन शुरू हुआ। फारूर्खसियर के काल में जोर पकड़ी और स्पष्ट हो गई। अंततः पूर्ण रूप से असफल हुआ।

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जागीरदारों की ताकत और कमजोरियाँ

जागीरदार व्यवस्था के अंतर्गत विशेष रूप से इसकी ह्रास में जगीरों की ताकत एवं कमजोरियों का भी हाथ रहा। अतः इसका मूल्यांकन कर लेना यहां जरूरी है। इसकी ताकत इस तथ्य में निहित है कि इसकी स्थापना एक शक्तिशाली भू-स्वामी अभिजात वर्ग पर शाही नियंत्रण के एक साधन के रूप में की गई थी ताकि इसके माध्यम से जागिरें बाँट कर एक दक्ष शाही सेवा व्यवस्था बनाई जा सके।

परंतु जागीरदार व्यवस्था की अपनी कुछ विसंगतियां थी। इस प्रथा में निहित कमजोरी का विश्लेषण करते समय इस बात की ओर संकेत किया जा सकता है कि यह प्रथा तभी सुचारू रूप से काम करेगी जब, या तो वितरण के लिए पर्याप्त भूमि उपलब्ध होगी या जागीरदार तथा मनसबदारों की संख्या पर उचित नियंत्रण रखा जा सकेगा।

राजस्व संग्रह और सैनिक दायित्वों के बारे में सरकारी विनियमों का उल्लंघन करने के लिए जागीरदार भ्रष्टाचार में लिप्त हो गए। कभी-कभी बिना परीक्षक के ही राजस्व संग्रह करने के लिए जागीरदार अपनी जगीरों की सबसे ऊंची बोली लगाने वाले ठेके पर दे देते थे। यह तरीका राज्य एवं किसान दोनों के लिए विनाशकारी सिद्ध हुआ।

जागीर के हस्तांतरण की प्रथम अनेक कठिनाइयां पैदा की। नोमान अहमद सिद्दीकी के अनुसार जगीरों के हस्तांतरण के पीछे मुख्य उद्देश्य यह था कि बादशाह यह नहीं चाहता था कि अपनी जागीर में जागीरदार की जड़े गहरी हो जाए अतः जागीर की निरंतर हस्तांतरण की प्रथा लागू की गई जो कठिनाई पैदा की।

जागीरदार संकट पर सतीश चंद्र ने विस्तार से विचार किया है। उनके अनुसार मुगल काल में जागीरदारी प्रथा का संकट मुख्यतः मध्यकालीन भारत में व्याप्त आर्थिक और सामाजिक संबंधों से जुड़ा हुआ था। विशेषतया भू-कृषि संबंधों से और इन संबंधों की आधारशिला पर खड़े प्रशासनिक ढांचे से। मुगल शासक वर्ग के सामने प्रमुख समस्या थी- राजस्व प्राप्ति में निरंतर होती कमी की।

मुगल शासन व्यवस्था राजस्व संग्रह के लिए जमींदारों और प्रभावशाली भूस्वामियों पर आश्रित था और ये लोग सरकार को इस काम में पर्याप्त सहयोग नहीं देते थे। सवारों की संख्या में कमी हो जाने के कारण मुगल फौजदारों की योग्यता और इच्छा शक्ति भी कमजोर हो गई और वे अपने हिस्से की मालगुजारी वसूल करने के लिए जमींदारों को पर्याप्त सहायता प्रदान नहीं कर सकते थे

सतीश चंद्र तत्कालीन सामाजिक ढांचे का गहराई से परीक्षण कर इस नतीजे पर पहुंचे कि उस समय के प्रभावशाली या विशेषाधिकार प्राप्त किसान समान्यतः भूमिहीन किसानों को या कम भूमि वाले किसानों को भू-स्वामित्व की अनुमति प्रदान करने के प्रति अभिच्छुक थे। भू-स्वामित्व न मिलने के कारण कृषि कर्म का विस्तार नहीं हो सका और विस्तार न होने के कारण कृषि उपज में वृद्धि सीमित रही। इसका परिणाम यह हुआ कि जगीरों की आय घट गई और इस प्रकार जागीरदारी संकट शुरू हुआ।

जागीरदारी संकट के जनक दो कारकों का ऊपर उल्लेख किया है इसके अलावा संकट को बढ़ाने वाले कुछ अन्य कारकों पर भी सतीश चन्द्र ने विचार किया है ये निम्नलिखित कारक थे:-

  • शासक वर्ग के आकार में वृद्धि
  • मनसबदारों की आडंबर पूर्ण जीवन शैली
  • जगीरों का हस्तांतरण और
  • नए मनसबदारों को जगीरों के आवंटन में विलंब, इत्यादि।

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जागीरदारों की भूमिका

मुगलकालीन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन में जागीरदारों की भूमिका का निर्धारण बहुत हद तक जागीरदारी प्रथा की ताकत और कमजोरीयों से निर्धारण होता था। विभिन्न प्रशासनिक नियम-संहिताओं और ऐतिहासिक दस्तावेजों में उपलब्ध आंकड़ों की यदि तुलना की जाए तो पता चलेगा कि जगीरों के रूप में हस्तांतरित राजस्व के एक बड़े भाग का उपभाग तुलनात्मक दृष्टि से बड़े मनसबदारों का एक छोटा वर्ग कर रहा था। फिर भी जागीरदारी प्रथा ने न तो कृषकों के भू-अधिकारों को प्रभावित किया और न ही उन मध्यवर्ती लोगों के पुश्तैनी अधिकारों को (जमींदारों को)।

जहां जमींदार राजस्व इकट्ठा करके सरकारी अधिकारी के पास या शाही खजाने में उसे जमा करवाता था वहीं जमींदार उसी प्रकार जागीर में से भी राजस्व इकट्ठा करता था। पर जागीर से इकट्ठा हुए राजस्व को वह सरकार के पास जमा न करवा कर उसे जमींदार को सौंपता था।

जागीरदारों के बार-बार बदलते रहने के बावजूद राजस्व इकट्ठा करने की प्रथा और उनके बारे में स्थानीय अभिलेखों का रखरखाव स्थाई स्थानीय अधिकारियों (कानूनगो, चौधरी) तथा शाही अधिकारियों के माध्यम से होता रहता था।

इरफान हबीब बताते हैं कि जागीरदार किसानों का अधिक से अधिक दमन करने के लिए सदा ललायित रहते थे क्योंकि उन्हें प्रायः भविष्य के बारे में यह चिंता बनी रहती थी कि उनकी जागीर न जाने कब उनसे छिन जाए। इसलिए वह राजस्व संग्रह की लंबी अवधि की संभावनाओं के बारे में चिंता न कर तत्काल किसानों से अधिक से अधिक माल ऐंठ लेना चाहते थे।

वर्नियर ने भी इस प्रवृत्ति का बड़ा ही उत्कृष्ट विवरण दिया है इजारा प्रथा अर्थात ठेकेदारी प्रथा द्वारा राजस्व वसूली की पद्धति के लागू होने पर भी किसानों की हालत बिगड़ी।

औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम वर्षों में अमीर वर्ग में स्वार्थ-वृति और गुटबंदी बहुत बढ़ गई और साफ तौर पर दिखाई देने लगी। इसका मुख्य कारण यह था कि जब अमीरों की संख्या और उनके खर्चे में वृद्धि हो रही थी तो जागीरें कम पड़ गई और उपलब्ध जगीरों को प्राप्त करने के लिए उनके बीच पर परस्पर तीव्र प्रति स्पर्धा होने लगी तथा अमीर वर्ग ने अपनी जगीरों से अधिकतम आय प्राप्त करने का प्रयत्न किया जिसका परिणाम किसानों पर उलटा असर हुआ।

उन्होंने अपनी जगीरों और पदों को पुश्तैनी संपत्ति के रूप में बदलने का प्रयत्न किया। अपने बजट को संतुलित करने के लिए उन्होंने खालीसा जमीनों (बादशाह की जमीन) को भी नियोजित करना चाहा जिससे केंद्रीय सरकार का वित्तीय संकट गहरा हो गया और वे अपना खर्चा बचाने के लिए प्रायः अपेक्षित कोटे से कम सैनिक रखने लगे जिससे साम्राज्य की सैनिक शक्ति कमजोर पड़ गई।

भू-स्वामी अभिजात वर्ग की शक्ति और महत्वाकांक्षाओं को सीमित रखने के उद्देश्य से तथा भूमि-प्रदान कर दक्षता पूर्ण सेवा प्राप्त करने के लिए जागीरदारी प्रथा की शुरुआत हुई थी। 17वीं शताब्दी की समाप्ति तक पहुंचते-पहुंचते इस प्रथा की सुगम कार्य प्रणाली में गंभीर अवरोध आ गया और तत्कालीन परिवर्तित राजनीतिक और भू-स्वामित्व संबंधी परिस्थितियों के अनुकूल ढलने में असमर्थ हो गई ऐसी स्थिति में केंद्रीय सत्ता कमजोर पड़ गई और मुगल साम्राज्य के विघटन की प्रक्रिया तेज हो गई और नादिर शाह के आक्रमण काल तक पहुंचते-पहुंचते तो जागीरदारी प्रथा लगभग पूरी तरह से धराशायी हो गई।

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