देवनागरी लिपि किसे कहते हैं | देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई
देवनागरी लिपि किसे कहते हैं
देवनागरी लिपि हिंदी भाषा की लिपि है। किसी भाषा की मूल ध्वनियों के लिए एक निश्चित चिन्ह समूह को लिपि कहते हैं। भारत की मुख्य भाषा हिंदी है तथा हिंदी भाषा को लिखने के लिए जो निश्चित चिन्ह समूह का प्रयोग किया जाता है देवनागरी लिपि कहते हैं।
आरंभ में मानव अपने विचारों का आदान-प्रदान करने के लिए भाषा को जन्म दिया और भाषा को स्थाई स्वरूप प्रदान करने की आवश्यकता हुई जिससे लिपि का निर्माण हुआ।
वास्तव में देखा जाए तो लिपि के विकास की चार अवस्थाएं हैं:- प्रतीक लिपि, चित्र लिपि, भाव लिपि, ध्वनि लिपि। हमारी हिंदी भाषा की देवनागरी लिपि ध्वनि मूलक लिपि ही है।
प्रत्येक भाषा के वर्ण अलग-अलग होते हैं और जिस रूप में उन वर्णों को अंकित किया जाता है लिपि कहलाती है।
देवनागरी लिपि का इतिहास
किसी भी भाषा की लिपि होना अति आवश्यक है। लिपि ही किसी भाषा को स्थायित्व प्रदान करती है। लिपि ही भाषा को मौखिक से लिखित बनाने में रचनात्मक भूमिका निभाती है।
वैश्विक संदर्भ में देखा जाए तो लिपि के उद्भव का आरंभिक समय 1000 ईसा पूर्व के आसपास माना गया है किंतु लिपि के व्यवस्थित रूप धारण करने में लगभग 6000 वर्ष लग गए। अंततःलिपि हमें पूरी तरह से व्यवस्थित रूप में 4000 वर्ष ईसा पूर्व में देखने को मिलती है।
सबसे पुरानी लिपि प्रतीक लिपि होती थी जो कालांतर में भाव मूलक लिपि एवं भाव ध्वनिमूलक लिपि होते हुए ध्वनि मूलक लिपि में उभर कर सामने आई। वर्तमान में जो लिपि हमें देखने को मिलती है वह ध्वनिमूलक ही होती है। यह भी दो प्रकार की होती है:- अक्षरात्मक तथा वर्णनात्मक।
भारत की लिपि अक्षरात्मक होती है अर्थात क + अ = क, प + अ = प ये स्वर व व्यंजन के योग से बना होता है। इसमें दो वर्ण मिले होते हैं (यहां एक वर्ण नहीं होते)। रोमन आदि लिपियां वर्णनात्मक होते हैं इनमें प्रायः एक ही ध्वनि होती है अर्थात ये वर्णनात्मक होते हैं।
भारत में देवनागरी लिपि का विकास
सर्वप्रथम भारत में सिंधु घाटी सभ्यता से लिखने की कला का प्रमाण हमें मिलता है। सिंधु घाटी की खुदाई में मिले प्रमाण (सिंध के लरकाना तथा मोंट गोमरी जिले (हड़प्पा) से पता चलता है कि वहां कुछ चित्र एवं अक्षर द्वारा लिखा गया है। लेकिन इतिहासकार पढ़ने में असफल रहे।
सिंधु घाटी के इस लिपि की उत्पत्ति पर अलग-अलग मत देखने को मिलती है:-
- एच हेरास तथा जॉन मार्शल ने इसकी द्रविड़ उत्पत्ति मानी है। क्योंकि इनके अनुसार यहां द्रविड़ लोग निवास करते थे।
- एल ए बैडेल तथा डॉ प्राणनाथ ने इसकी उत्पत्ति सुमेरी से मानी है क्योंकि इनके अनुसार सिंधु घाटी में सुमेरी लोग थे।
- कुछ इतिहासकारों ने इसे आर्य उत्पत्ति मानी है क्योंकि इनके अनुसार यहां आर्या/असुरों का निवास था।
लेकिन ये उपरोक्त तीनों मत सही नहीं लगता क्योंकि इनके तथ्य प्रामाणिक नहीं लगते हैं।
मैक्समूलर के अनुसार- भारत में लगभग चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक पाणिनि के अष्टाध्यायी के लिखने के समय तक लिपि का कोई संकेत नहीं मिलता। उन्होंने यह भी कहा कि चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के बाद ही भारत में लिपि का ज्ञान हुआ। बर्नेल ने चौथी या पांचवी शताब्दी ईसा पूर्व में ही भारतीयों को लिपि ज्ञान की बात कही। लेकिन डॉ बूलर ने इन दोनों मतों का खंडन करते हुए कहा कि 500 ईसा पूर्व से पहले ही भारतीयों ने ब्राह्मी लिपि का निर्माण कर लिया था।
लेकिन हम भारत में लेखन ज्ञान की प्राचीनता को कई ग्रंथों से जान सकते हैं जैसे:- ग्रंथ (देशी एवं विदेशी), शिलालेख आदि।
विदेशी ग्रंथ | देशी ग्रंथ |
मेगास्थनीज (इंडिका) चीनी यात्री ह्वेनसांग विश्वकोश फा-वान-शु-लिन (प्रसिद्ध चीनी शब्दकोश) |
विनय पिटक, जातक (बौद्ध ग्रंथ) रामायण, महाभारत कौटिल्य का अर्थशास्त्र पाणिनि का अष्टाध्यायी |
विदेशी ग्रंथ एरिअन की “इंडिका” में भारत के वृतांत का वर्णन है उससे पता चलता है कि लिखने के लिए कागज का इस्तेमाल किया जाता था। मेगास्थनीज ने 305 ईसा पूर्व में इंडिका में जन्म कुंडली का उल्लेख किया है। चीनी यात्री ह्वेनसांग ने भी भारतीयों के लिपि ज्ञान होने का उल्लेख किया है।
देसी ग्रंथ में बौद्ध ग्रंथ (विनय पिटक, जातक), रामायण, महाभारत, कौटिल्य का अर्थशास्त्र, पाणिनि का अष्टाध्यायी इत्यादि से पता चलता है कि यहां लेखन की कला बहुत विकसित अवस्था में थी।
पाणिनि की अष्टाध्यायी में तो लिपि की निश्चितता स्पष्ट थी। गोल्ड स्टाकर एवं डॉ वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार पाणिनी के अष्टाध्यायी में लिपिविषयक पर्याप्त प्रमाण मिलते हैं।
लिपि तथा लेखन कला का प्रमाण तो इससे पूर्व भी देखने को मिलते हैं जैसे:- छांदोग्य उपनिषद, तैतीरीय में वर्ण तथा स्वर मात्राओं का मिलना, यजुर्वेद की वाजसनीय संहिता, शतपत ब्राह्मण तथा पंचविश ब्राह्मण में भी कई प्रमाण मिलते हैं। वेदों में भी इसके प्रमाण मिलते हैं।
शिलालेखों से भी भारत के लेखन कला के बारे में पता चलता है प्राचीनतम शिलालेख पिपरावा में 483 ईस्वी में मिला है। अशोक कालीन शिलालेखों मैं ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपि के शिलालेख मिलते हैं। सिक्के तथा ब्राह्मा और सरस्वती के मूर्तियों में पुस्तक की चित्रकारी से भी भारत में लेखन कला का प्रचलन का पता चलता है। धर्म ग्रंथ में 18 लिपियों का वर्णन है। बौद्ध साहित्य “ललित विस्तार” से 64 लिपियों का पता चलता है लेकिन दो लिपियां ही हमारे बीच उपलब्ध है:- खरोष्ठी और ब्राह्मी।
अतः हमें देवनागरी लिपि का विकास कैसे हुआ ? इसे विस्तार पूर्वक जानने के लिए इन दोनों लिपियों के बारे में संक्षिप्त रूप से जानना आवश्यक है।
खरोष्ठी लिपि
यह लिपि दाएं से बाएं ओर लिखी जाने वाली लिपि थी। अशोक कालीन शिलालेखों में ब्रह्मी और खरोष्ठी लिपि पाई जाती है। अशोक के शाहबाजगढ़ी और मानसेहरा के अभिलेख में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग हुआ है। खरोष्ठी लिपि के प्रमाण हमें प्रस्तरशिल्पों, धातु निर्मित पात्रों, सिक्कों, मूर्तियों आदि से मिलते हैं।
खरोष्ठी के प्राचीनतम लेख तक्षशिला और पुष्कलावती के आसपास से मिले हैं। कुछ मथुरा से भी खरोष्ठी लिपि के अभिलेख मिले हैं। दक्षिण भारत, उज्जैन तथा मैसूर के सिद्दापुर से भी खरोष्ठी लिपि के प्रमाण मिले हैं चूँकि ब्राह्मी लिपि का उपयोग भारत में व्यापक था खरोष्ठी लिपि के उद्भव के संबंध में कहा जा सकता है कि यह विदेशी लिपि है। इसका उद्भव अरमाइक और सीरियाई लिपि से हुआ है।
हखमनी शासक इसका इस्तेमाल अपने शासन संबंधी कार्यों के लिए करते थे बाद में भारतीयों को भी इसको अपनाना पड़ा। इसी कारण अशोक के शिलालेख जो पाकिस्तान वाले इलाके से (मानसेहरा और शाहबाजगढ़ी) मिलते हैं उसमें खरोष्ठी लिपि मिलती है।
अर्थात इसका प्रचार-प्रसार उत्तरी-पश्चिमी भारत एवं पूर्वी अफगानिस्तान तक था। कालांतर में लगभग चौथी शदी ईसा पूर्व से तीसरी शदी ईसा पूर्व तक उत्तर-पश्चिमी भारत में मथुरा तक इसका प्रचलन रहा।
खरोष्ठी लिपि, ब्राह्मी लिपि की अपेक्षा भारत में संकुचित रही तथा खरोष्ठी लिपि का देवनागरी लिपि के विकास से कोई संबंध नहीं है इसलिए यहां हम ब्रह्मी लिपि को विस्तार से जानेंगे कि कैसे ब्राह्मी लिपि में धीरे-धीरे परिवर्तन के बाद देवनागरी लिपि का उदय हुआ।
ब्राह्मी लिपि
सर्वप्रथम अजमेर के वडली गांव पिपरावा जो बस्ती जिले में स्थित है से मिला शिलालेख में ब्राह्मी लिपि का इस्तेमाल किया गया है। यह लिपि बाएं से दाएं ओर लिखी जाने वाली लिपि थी। ब्राह्मी लिपि का समय 5 वीं शदी से 350 ईस्वी तक माना गया है। ब्राह्मी लिपि के उत्पत्ति पर विद्वानों का दो राय है:- (1) विदेशी लिपि (2) भारतीय लिपि
- विदेशी लिपि मानने वाले विद्वानों में अल्फ्रेड, मूलर,सेनार्ट, साहा आदि है परंतु इनके तथ्य प्रामाणिक नहीं है।
- भारतीय लिपि कहने वाले विद्वानों का भी अलग-अलग मत है जो इस प्रकार है:-
द्रविड़ उत्पत्ति
द्रविड़ उत्पत्ति मानने वाले विद्वानों में एडवर्ड थॉमस का नाम आता है। इन्होंने ब्राह्मी लिपि के आविष्कारक द्रविड़ों को माना है। परंतु इस बात का खंडन करते हुए डॉ राजबली पांडे कहते हैं कि द्रविड़ ब्राह्मी लिपि के अविष्कारक नहीं हो सकते क्योंकि इनका मूल स्थान दक्षिण भारत था जबकि ब्राह्मी लिपि के अवशेष उत्तर भारत के मिले हैं।
यदि ब्राह्मी लिपि के आविष्कार द्रविड़ किए होते तो दक्षिण भारत में इसके अवशेष जरूर मिलते। डॉ पांडे यह भी मानते हैं कि द्रविड़ भाषाओं का सबसे प्राचीनतम भाषा तमिल है और तमिल तथा ब्राह्मी लिपि में काफी अंतर दिखाई देती है।
कुछ विद्वान द्रविड़ भाषा जोकि दक्षिण भारत की भाषा है पश्चिमी पाकिस्तान में ब्राहुई भाषा का मिलना जो द्रविड़ भाषा है इसे द्रविड़ों का उत्तर भारत में निवास करने का प्रमाण बताया है। एवं कालांतर में आर्यों द्वारा खदेड़ने के कारण वे दक्षिण में जाकर बस गए। पांडे का यह भी मानना है कि तमिल में ब्राह्मी से कम ध्वनि है लेकिन विद्वान कहते हैं कि हो सकता है आर्यों ने तमिल या द्रविड़ों की लिपि में आवश्यकता अनुसार परिवर्तन कर लिया हो। अतः किसी अपूर्ण लिपि को पूर्ण लिपि बनना स्वाभाविक है।
सांकेतिक चिन्ह से उत्पत्ति
ब्राह्मी लिपि को सांकेतिक चिन्ह से उत्पत्ति बताने वाले श्री आर श्याम शास्त्री ने अपने लेख ‘इंडियन एंटीक्वेरी’ में देवनागरी लिपि की उत्पत्ति के बारे में लिखा था कि “देवताओं की मूर्तियां बनाने के पूर्व संकेतिक चिन्हों द्वारा उनकी पूजा होती थी जो कई त्रिकोण तथा चक्रों आदि से बने हुए मंत्र जो देवनगर कहलाता था के मध्य लिखे जाते थे।
देव नगर के मध्य लिखी जाने वाली अनेक प्रकार के सांकेतिक चिन्ह कालांतर में उन नामों के पहले अक्षर मान लिए गए और देव नगर के मध्य उनका स्थान होने से उनका नाम देवनागरी पड़ा।”
गौरीशंकर हीराचंद ओझा का मानना है कि शास्त्री जी का यह लेख जब तक सिद्ध न हो जाए कि जिन तांत्रिक पुस्तकों से जो उदाहरण दिए गए हैं वैदिक साहित्य से पूर्व के हैं तब तक इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।
वैदिक चित्रलिपि से उत्पत्ति
ब्राह्मी लिपि को वैदिक चित्र लिपि से उत्पन्न मानने वाले विद्वान श्री जगमोहन वर्मा ने अपने लेख (सरस्वती 1913-15) में यह कहा है कि वैदिक चित्र लिपि या उससे निकली सांकेतिक लिपि से ब्राह्मी लिपि का उदय माना है परंतु इस लेख में दिए गए चित्र काल्पनिक प्रतीत होते हैं अतः इसे भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।
आर्य उत्पत्ति
ब्राह्मी लिपि का आविष्कार आर्यों ने की थी ऐसा मानने वाले कई विद्वान हैं जैसे:- डाउसन, कनिंघम, लसन, थामस तथा डॉसन आदि। इनके अनुसार आर्यों ने भारत की पुरानी चित्र लिपि के आधार पर ब्रह्मी लिपि को बनाया है।
उपरोक्त वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि ब्रह्मी लिपि का आविष्कार तो भारतीयों ने ही किया है लेकिन बिना प्रामाणिक तथ्यों के यह मान लेना कि इसके अविष्कारकर्ता द्रविड़, आर्य या किसी अन्य जाति के द्वारा हुआ।
गौरीशंकर हीराचंद ओझा इस विषय में कहते हैं कि जितने प्रमाण मिलते हैं चाहे प्राचीन शिलालेखों के अक्षरों की शैली और चाहे साहित्य के उल्लेख सभी यह दर्शाते हैं कि लेखन कला अपनी प्रौढ़ अवस्था में थी। उनके आरंभिक विकास का पता नहीं चलता। ऐसी दशा में यह निश्चय पूर्वक नहीं कहा जा सकता कि ब्राह्मी लिपि का आविष्कार कैसे हुआ और इस परिपक्व रूप में वह किन-किन परिवर्तनों के बाद पहुंची।
निश्चित तौर पर इतना ही कहा जा सकता है कि इस विषय के प्रमाण जहां तक मिलते हैं वहां तक ब्राह्मी लिपि अपनी प्रौढ़ावस्था में और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिलती है तथा उसका किसी बाहरी स्रोत और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता।
डॉ भोलानाथ तिवारी का मानना है कि ब्राह्मी लिपि हड़प्पा, मोहनजोदड़ो की लिपि से निकली है। इन्होंने सिंधु घाटी सभ्यता के लिपि और ब्रह्मी लिपि में कुछ समानताएं पाई है। जैसे:-
अतः इस समानता के आधार पर यह तर्कसंगत लगता है।
⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।
देवनागरी लिपि की उत्पत्ति
ब्राह्मी लिपि पांचवीं शदी ईसा पूर्व से 350 ईस्वी तक भारत में देखने को मिलती है। 350 ईस्वी के बाद ब्राह्मी लिपि की दो शैलियां उभरकर सामने आती है :- उत्तरी शैली तथा दक्षिणी शैली। उत्तरी शैली का प्रचार-प्रसार उत्तर भारत में था तथा दक्षिणी शैली का प्रचार-प्रसार दक्षिण भारत में था। इन्हीं दोनों शैली से मिलकर ही भारत में अनेक लिपियों का विकास हुआ। जैसे:-
उत्तर भारत में गुप्त राजाओं के समय जो लिपि हमें देखने को मिलती है उसे विद्वानों द्वारा गुप्त लिपि का नाम दिया गया। गुप्त लिपि धीरे-धीरे कुटिल लिपि में परिवर्तित हुआ। कालांतर में प्राचीन नागरी लिपि तथा शारदा लिपि इसी से निकली। प्राचीन नागरी लिपि को दक्षिण में नंदिनागरी कहा जाता था।
आधुनिक काल में प्राचीन नागरी लिपि से ही देवनागरी लिपि विकसित हुई। इसके साथ-साथ गुजराती, महाजनी, राजस्थानी तथा महाराष्ट्री आदि लिपियां भी प्राचीन नागरी लिपि से ही विकसित हुई। प्राचीन नागरी लिपि के पूर्वी रुप से भारत के पूर्वी लिपियां अर्थात कैथी, मैथिली तथा बंगला आदि का विकास हुआ।
अतः क्रमानुसार देखा जाए तो सबसे पहले:-
देवनागरी लिपि
देवनागरी लिपि का उद्भव हम देख चुके कि ब्राह्मी लिपि से हुआ है। ब्राह्मी लिपि की तरह ही देवनागरी लिपि को भी बाएं से दाएं ओर लिखी जाती है। देवनागरी लिपि का सर्वप्रथम प्रयोग हमें गुर्जरवंशी नरेश जयभट्ट तृतीया के शिलालेख (गुजरात) से मिलता है। राष्ट्रकूट नरेशों के समय भी देवनागरी लिपि प्रचलन में थी। राष्ट्रकूट नरेश ध्रुव ने अपने राज्यादेशों में देवनागरी लिपि का ही प्रयोग किया था।
नागरी शब्द की उत्पत्ति
“नागरी” शब्द की उत्पत्ति के विषय में काफी मतभेद हैं
- कुछ विद्वानों का मानना है कि यह गुजरात के नागर ब्राह्मणों द्वारा प्रयोग किए जाने के कारण “नागरी” कहलाया।
- कुछ विद्वान इसे बौद्ध ग्रंथ “ललित विस्तर” में वर्णित “नाग लिपि” के कारण “नागरी” कहा है।
- तो कुछ विद्वानों का कहना है कि नगरों में प्रयोग होने के कारण “नागरी” नाम पड़ा।
- कुछ विद्वान इसे तांत्रिक चिन्ह “देव नागर” से जोड़कर इसका नाम देवनागरी कहा।
- आर श्याम शास्त्री का कहना है कि देवताओं की मूर्तियां बनाने के पूर्व उनकी सांकेतिक चिन्हों द्वारा उपासना की जाती थी जो त्रिकोण तथा चक्रों से बने हुए मंत्र थे (जो देवनगर कहलाते थे) के मध्य में लिखे जाते थे। यह अनेक प्रकार के सांकेतिक चिन्ह कालांतर में उन नामों के पहले अक्षर माने जाने लगे तथा देवनागर के मध्य उनका स्थान होने से उनका नाम देवनागरी हुआ।
- डॉ धीरेंद्र वर्मा ने मध्ययुग में स्थापत्य की एक शैली थी ‘नागर’ जिसमें चतुर्भुजी आकृतियां होती थी। और नागरी लिपि के अक्षरों में भी चौकोर आकृतियां होती थी (जैसे:- प,म,भ,ग) इसी सभ्यता के कारण इस लिपि का नाम “नागरी” पड़ा।
- कुछ विद्वानों ने तो इस लिपि का प्रचलन काशी में बहुत ज्यादा होने तथा काशी को भगवान शिव की नगरी या देवनगरी कहे जाने के कारण इस लिपि को देवनागरी कहा।
- डॉ उदय नारायण तिवारी का मानना है कि इस लिपि का प्रयोग देव भाषा संस्कृत लिखने में हुआ अतः इसका नाम देवनागरी पड़ा।
उपर्युक्त मतों में बहुत अधिक प्रामाणिकता की पुष्टि नहीं होती हां डॉ उदय नारायण तिवारी का मत तर्कसंगत जान पड़ता है। हम ‘देवनागरी’ या ‘नागरी’ शब्द की उत्पत्ति के बारे में इतना अवश्य कह सकते हैं कि देवनागरी का विकास ‘ब्राह्मी लिपि’ से ही हुआ।
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देवनागरी लिपि के गुण (विशेषताएं)
देवनागरी लिपि के अनेक कौन हैं जैसे:-
- एक ध्वनि के लिए एक ही वर्ण संकेत अर्थात ‘क’ के लिए एक लिपि चिन्ह निश्चित की गई है। रोमन लिपि में ‘क’ ध्वनि के लिए K,C,Q आदि अनेक चिन्हों का प्रयोग है।
- एक वर्ण संकेत से एक ही ध्वनि व्यक्त होती है। जैसे:- ‘क’ के लिए ‘क’ ध्वनि ही होगी। रोमन लिपि की तरह C की ध्वनि ‘क’ जबकि वर्ण की ध्वनि ‘सी’ होती है।
- देवनागरी लिपि में मूक वर्ण नहीं लेकिन रोमन लिपि में मूक वर्ण होते हैं जिससे भ्रमक स्थितियां पैदा होती है। जैसे:- Psychology रोमन लिपि में लिखा जाता है और ध्वनि उच्चारण साइक्लोजी होती है।
- वर्णमाला (स्वर और व्यंजन) ध्वनि वैज्ञानिक पद्धति के बिल्कुल अनुरुप है तथा स्वर और व्यंजन का मेल प्रस्तुत करने का वैज्ञानिक पद्धति है।
- जो बोला जाता है वही लिखा भी जाता है जिससे समझने वाले को कोई कठिनाई नहीं होती है।
- एक वर्ण में दूसरे वर्ण का भ्रम नहीं होता है।
- उच्चारण के सूक्ष्मतम भेद को भी प्रकट करने की क्षमता है।
- देवनागरी लिपि का प्रयोग बहुत ही व्यापक है। जैसे:- संस्कृत, हिंदी, मराठी, नेपाली की एकमात्र लिपि देवनागरी ही है।
- भारत के अनेक लिपियों से निकट का संबंध है।
- देवनागरी लिपि के हर व्यंजन में स्वर मिला होता है अर्थात यह अक्षरात्मक लिपि है जिसमें स्वर और व्यंजन दोनों मिले होते हैं जैसे:- क+अ=क, प+अ=प।
- देवनागरी लिपि में अनुनासिक (ं) ध्वनियों के लिए अलग-अलग स्वतंत्र वर्ण होते हैं। जैसे:- ङ्, ण, न, म आदि।
उपरोक्त गुणों के आधार पर हम कह सकते हैं कि देवनागरी लिपि सर्वाधिक वैज्ञानिक है एवं काफी सरल और आसान है। इसको लिखने, समझने और ध्वनि उच्चारण एवं यह भारतीय परंपराओं, सामाजिक एवं सांस्कृतिक रूप से अनुकूल है।
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देवनागरी लिपि के दोष / अवगुण
देवनागरी लिपि में कई दोष भी पाए जाते हैं जैसे:-
- टंकण, मुद्रण में काफी कठिनाइयां होती है।
- शिरोरेखा का प्रयोग अनावश्यक अलंकरण के लिए। शिरोरेखा के कारण तीव्र लेखन में रुकावट।
- अनावश्यक वर्ण जैसे:- ॠ, लृ, ङ, ञ, ष, ण जो कि शुद्ध उच्चारण के साथ कोई उच्चारित नहीं करता।
- कुछ ध्वनियां ऐसी है जिनके लिए उपयुक्त चिन्ह का अभाव है जैसे:- डॉक्टर में ‘ऑ’ स्वतंत्र ध्वनि तत्व है लेकिन इसके लिए निश्चित चिन्ह नहीं।
- समरूप वर्ण में ख में रव का, घ में ध का, म में भ का, भ्रम होना भी एक तरह का देवनागरी लिपि में दोष है।
- कुछ ध्वनियों का उच्चारण ‘न’ जैसा हो जाना और लिपि चिन्हों के स्थान पर अनुस्वार (ं) से काम चल सकता है जैसे:- ङ, ञ आदि।
- वर्णों को संयुक्त करने की कोई निश्चित व्यवस्था नहीं है।
- अनुस्वर एवं अनुनासिकता के प्रयोग में एकरूपता का अभाव।
- त्वरापूर्ण लेखन नहीं क्योंकि लेखन में हाथ बार-बार उठाना पड़ता है।
- ‘ई’ की मात्रा ‘ि’ का लेखन वर्ण के पहले परंतु उच्चारण बाद में होना। संयुक्ताक्षरों में इसकी स्थिति और भी कठिन होती है।
- ‘र’ वर्ण संयुक्त रूप में तीन रूप बन जाते हैं जैसे:- त्र, प्र, र्ट आदि।
- कुछ लिपि चिन्ह वैज्ञानिक प्रतीत नहीं होते हैं जैसे:- क्ष, त्र, ज्ञ इत्यादि।
उपरोक्त अवगुणों को देखते हुए हम कह सकते हैं कि देवनागरी लिपि सरल नहीं है। वर्तमान जरूरतों के आधार पर काफी जटिल प्रतीत होता है साथ ही वर्णमाला भी अधिक है।
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देवनागरी लिपि में सुधार
हमने देवनागरी लिपि में कई विशेष गुण एवं कई अवगुणों को देखा। कई दृष्टि से देवनागरी में कमी होते हुए भी विश्व के अनेक लिपियों से बहुत ही अच्छी है। इसके बाद भी आधुनिक आवश्यकताओं को देखते हुए सुधार की जरूरत भी है। इस दिशा में अनेक विद्वान, कुछ साहित्यिक संस्थाएं, कुछ राज्य सरकारें एवं केंद्र द्वारा सुझाव देते रहे हैं। इसके साथ ही कुछ महत्वपूर्ण सुधार कार्य इस दिशा में हुए हैं जो निम्नलिखित हैं:-
- सर्वप्रथम महादेव गोविंद रानाडे ने एक लिपि सुधार समिति का गठन किया। बाद में महाराष्ट्र साहित्य परिषद पुणे ने एक लिपि सुधार समिति नियुक्त की। मराठी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में भी इस पर विचार कर प्रस्ताव पास किए गए थे।
- सावरकर ने ‘अ’ के आधार पर सभी स्वरों का लेखन का प्रतिपादन किया। महात्मा गांधी भी इस सुधार के समर्थक थे। जैसे:- अ, आ, अि, अी इत्यादि।
- विनोबा भावे ने अपने पत्र ‘लोक नागरी’ के माध्यम से नागरी लिपि में सुधार के लिए लोकमत जाग्रत करने का कार्य किया। जिससे गुजराती लिपि में शिरोरेखा हटा दी गई इसी दिशा में नागरी लेखन में भी शिरोरेखा हटाने की परंपरा आई।
- बाल गंगाधर तिलक ने 1904 इस्वी में अपने पत्र ‘केसरी’ के लिए 190 टाइपों का एक फॉन्ट साइज बनाया जिससे ‘तिलक फॉन्ट’ भी कहा जाता है उन्होंने इसे बनाकर देवनागरी लिपि में सुधार प्रारंभ की।
- डॉ श्याम सुंदर दास ने ङ, ञ, ण, न, म् यह स्थान पर अनुस्वार (ं) का प्रयोग का सुझाव दिया।
- गोरख प्रसाद ने मात्राओं का प्रयोग दाहिनी ओर से करने का सुझाव दिया।
- 1947 ईस्वी में देवनागरी लिपि सुधार समिति की स्थापना काका कालेलकर की अध्यक्षता में हुई। उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन में हिंदी, मराठी तथा गुजराती के लिए एक ही लिपि बनाने का सुझाव दिया।
- 1941 ईस्वी में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने एक लिपि सुधार समिति का गठन किया यह पहला योजनाबद्ध प्रयास था जिसमें कई बातें सुनाई गई:-
- उ, ऊ, ए, ऐ की मात्राओं, अनुस्वार तथा रेफ को ऊपर या नीचे न रख उच्चारण क्रम से अलग-अलग रखना जैसे:- खेल को ख े ल, कूद को क ू द । लेकिन इ की मात्रा इस हिसाब से बहुत ही कठिन साबित हुई क्योंकि वह लिखी पहले जाती है और बाद में बोली जाती है। अतः समिति इस मामले में कोई भी सुधार नहीं कर सकी।
- संयुक्त वर्ण जैसे:- प्रेम, त्रुटि, क्रम में पूरा र लिखना, जैसे:- प् रे म, त् रु टि आदि।
- इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ के स्थान पर ‘अ’ में मात्राएं लगाकर प्रयोग जैसे:- अि, अी आदि।
- 1945 ईस्वी में नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा लिपि समिति गठित की गई। श्रीनिवास ने ‘प्रति देवनागरी लिपि’ नामक एक नई लिपि सामने रखी जो नागरी लिपि को आधार मानकर बनाया गया था। लेकिन फिर भी वर्तमान लिपि से काफी भिन्न थी।
- 1947 ईस्वी में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा आचार्य नरेंद्रदेव की अध्यक्षता में देवनागरी लिपि सुधार समिति बनाई गई। 7 सदस्यों वाली इस समिति ने दो मुख्य सुझाव दिए थे:-
- संयुक्त वर्णों के स्वतंत्र रूपों को हटा देना जैसे:- क्ष, त्र, श्र, ध आदि।
- एवं ह, र, इ, ई की मात्रा तथा ध, भ को जैसा है वैसा ही रखना।
- डॉ सुनीति कुमार चटर्जी ने देवनागरी लिपि के स्थान पर रोमन लिपि को रखने का सुझाव दिया।
- 1953 ईस्वी में डॉ राधाकृष्णन (तत्कालीन उपराष्ट्रपति) की अध्यक्षता में एक बैठक लखनऊ में हुई। इसमें अनेक विद्वान एवं भाषा शास्त्री तथा मुख्यमंत्री एवं शिक्षा मंत्री के उपस्थिति में यह सुझाव दिया गया कि:-
- कि, खि के स्थान पर ‘ी’ ई की मात्रा का प्रयोग किया जाए।
- संयुक्त वर्णों के स्वतंत्र चिन्हों जैसे:- क्ष, त्र, श्र को छोड़कर वर्णों को मिलाकर लिखने का सुझाव दिया गया जैसे:- क् ष, त् र, श् र आदि।
हिंदी भाषा का उद्भव और विकास विस्तार पूर्वक जानें।
भारतीय मानक हिंदी वर्णमाला
वर्तमान में भारत सरकार ने देवनागरी लिपि को उच्च स्तरीय समिति के माध्यम से नए रूप में विकसित किया है जो कि सभी भारतीय भाषा को लिखने में सफल है:-
स्वर | अ आ इ ई उ ऊ ॠ ए ऐ ओ औ अं अः |
मात्राएँ | ा ि ी ु ू ृ े ै ो ौ ं ः |
व्यंजन |
क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ ट ठ ड ढ ण त थ द ध न प फ ब भ म य र ल व ळ श ष स ह ड़ ढ़ |
अंक | १ २ ३ ४ ५ ६ ७ ८ ९ ० |
परिवार की परिभाषा | परिवार किसे कहते हैं ? परिवार का अर्थ एवं स्वरूप, प्रकार, विशेषता, कार्य।
निष्कर्ष
अतः हमने इस लेख में देवनागरी लिपि से जुड़े सभी तथ्यों को देखा। इससे पता चलता है कि देवनागरी लिपि को अपने मूल रूप में आने के लिए कई चरणों से होकर गुजरना पड़ा। इस दौरान लिपि में कई प्रकार के परिवर्तन हमें देखने को मिलता है। कई तरह के सुझाव एवं परिवर्तन होने के बाद हमें हमारी देवनागरी लिपि एक दुनिया के श्रेष्ठ लिपि बनकर सामने आई। थोड़े बहुत लिपि में अवगुण के बावजूद भी हमारी हिंदी भाषा की देवनागरी लिपि वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी बेहतर सिद्ध होती है।
- हमारे देश के संविधान निर्माण में भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) का महत्वपूर्ण योगदान है। विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।
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- एडीएम जबलपुर केस (1976)
भारतीय संविधान के प्रस्तावना का महत्व और विवाद
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मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण, विस्तृत जानकारी
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इल्तुतमिश कौन था? (1211-36 ईस्वी)