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परिवार की परिभाषा | परिवार किसे कहते हैं ? परिवार का अर्थ एवं स्वरूप, प्रकार, विशेषता, कार्य

हरेक समाज के अंतर्गत परिवार का अस्तित्व होता है लेकिन सभी समाज के परिवारों के स्वरूप में विविधता पाई जाती है। परिवार एक तरह का सामाजिक और आर्थिक इकाइयां होती है जिसके अंतर्गत माता-पिता तथा उनकी संताने होती है साथ ही परिवार के सभी सदस्यों के बीच परस्पर कुछ उत्तरदायित्व एवं अधिकार होते हैं जिसका आधार आर्थिक होता है। परिवार के सदस्य सामान्यता एक ही घर में रहते हैं किंतु यह आवश्यक नहीं है कि एक ही स्थान पर रहें क्योंकि परिवार के बच्चे अपनी पढ़ाई या नौकरी पेशा के लिए अलग स्थानों पर भी रहते हैं। व्यवसायिक तरीके से एकजुट रहकर भी परिवार के सदस्य अलग-अलग जगहों पर रहने लगते हैं इन सभी परिस्थितियों का आधार आर्थिक ही होता है क्योंकि एक बालक जो परिवार में अभी-अभी जन्म लिया है वह अपना भरण-पोषण स्वयं नहीं कर सकता। अतः खुद के परिपक्व होने तक परिवार में निर्भर रहता है और वहीं सब कुछ सीखता है ताकि वयस्क समाज के योग्य बन सके। बालक समाज में रहने के लिए व्यवहार, विश्वास तथा नैतिक मूल्यों का ज्ञान प्राप्त करता है तो परिवार उसकी देखरेख करता है।

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परिवार किसे कहते हैं ? परिवार की परिभाषा

मैकाइवर एवं वेज के अनुसार:- “परिवार पर्याप्त निश्चित यौन संबंधों द्वारा स्थापित एक समूह है जो बच्चों के जन्म और पालन-पोषण की व्यवस्था करता है।”

किग्सले डेविस के अनुसार:- “परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है जिनके पारस्परिक संबंध सगात्रेता पर आधारित होते हैं और जो इस प्रकार एक दूसरे के रक्त संबंधी होते हैं।”

लूसी मेयर के अनुसार:- “परिवार एक गृहस्थ समूह है जिसमें माता-पिता और बच्चे साथ-साथ रहते हैं इसका मूल दंपत्ति और उनके संतान होते हैं।”

मर्डक के अनुसार:- आर्थिक, शैक्षणिक, यौन एवं प्रजनन, कुछ ऐसे मूलभूत कार्य हैं जो सिर्फ परिवार के द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं। मर्डक ने परिवार को परिभाषित करते हुए कहा है:- “परिवार एक सामाजिक समूह है जिसके लक्षण सामान्य निवास, आर्थिक सहयोग और प्रजनन है। इनमे 2 लिंगों के वयस्क शामिल हैं जिनमें कम से कम 2 व्यक्तियों में स्वीकृत यौन संबंध होता है और जो वयस्क व्यक्तियों में यौन संबंध होता है उनके अपने या गोद लिए गए एक या अधिक बच्चे हैं।”

अतः उपर्युक्त परिभाषाओं से पता चलता है कि परिवार रक्त संबंधों पर आधारित एक समूह है जिसमें माता-पिता एवं उनके संतान होते हैं तथा इसका उद्देश्य परिवार के मूलभूत प्रकार्यों को पूरा करना होता है।

परिवार का अर्थ एवं स्वरूप

परिवार का अर्थ

एल्मर के अनुसार:- Family (परिवार) शब्द का उद्गम लैटिन शब्द Famulus से हुआ है जो एक ऐसे समूह के लिए प्रयुक्त हुआ है जिसमें माता-पिता, बच्चे, नौकर व दास हो।

पति-पत्नी एवं उनके बच्चों द्वारा निर्मित एक ऐसे समूह से है जो एक लंबे समय तक साथ-साथ रखते हैं एवं आर्थिक संसाधनों के सहभागी होते हैं। यद्यपि विभिन्न समाजों में अथवा एक ही समाज के अंतर्गत परिवार के स्वरूप में अलग-अलग समय में अंतर देखने को मिलता है। लेकिन इसके बावजूद परिवार एक सर्वभौमिक विशेषता है। क्योंकि सभी मानवीय समाज में इसकी अस्तित्व पाया जाता है। हर तरह के सांस्कृतिक समाजों में चाहे वह प्राचीन हो या वर्तमान समाज, सभी में कोई न कोई स्वरूप अवश्य देखने को मिलता है।

मानव विज्ञान में परिवार की परिभाषा के अनुसार परिवार पति-पत्नी एवं उनके बच्चों द्वारा निर्मित समूह है जो प्राय: एक ही घर में निवास करते हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि परिवार के ये सभी सदस्य एक ही घर में रहे। प्राचीन समाजों में एक परिवार के लोग एक साथ रहते थे लेकिन वर्तमान काल में ऐसा संभव नहीं है।

परिवार का स्वरूप

परिवार में हमें विभिन्न पर्यावरणीय एवं सांस्कृतिक संदर्भअलग-अलग स्वरूप देखने को मिलता है। इसका मुख्य कारण प्रौद्योगिकी एवं आर्थिक विकास है। सामान्यत: परिवार का आशय पति-पत्नी एवं उनके बच्चों के समूह से है।

परिवार किसे कहते हैं

मानव विज्ञान में कई कारक को आधार मानकर परिवार के स्वरूप का वर्गीकरण किया गया है जैसे:-

  • संरचना के आधार पर।
  •  विवाह के आधार पर।
  •  सत्ता के आधार पर।
  • विवाहोपरांत आवास के स्वरूप के आधार पर परिवार का स्वरूप।

तो आइए परिवार के स्वरूप को विस्तार पूर्वक जानने का प्रयास करेंगे:-

संरचना के आधार पर वर्गीकरण

एकाकी परिवार / नाभिकीय परिवार

एकाकी या नाभिकीय परिवार का निर्माण दो पीढ़ियों अर्थात माता-पिता एवं उनके आविवाहित बच्चों के मिलकर रहने से होता है अर्थात इस परिवार में पति-पत्नी एवं उनके बच्चों का समूह होता है। इस परिवार में पति-पत्नी एवं उनके बच्चों का होना जरूरी है।

मर्डक के अनुसार:- “एकाकी परिवार सभी समाजों की सार्वभौमिक विशेषता है क्योंकि सभी समाजों की बंधुत्व इकाई का मूल पुरुष एवं स्त्री का वह समूह है जो बच्चों का प्रजनन करता है।”

वार्नर के अनुसार:- “प्रत्येक व्यक्ति दो एकाकी परिवारों का वर्तमान या भावी सदस्य होता है जिसे जन्म मूलक एकाकी परिवार एवं प्रजनन या विवाह मूलक एकाकी परिवार की संज्ञा दी जाती है।”

परिवार के प्रकार

वह एकाकी परिवार जिसके हम जन्म से सदस्य हैं उसे जन्म मूलक (अभिमुखता) एकाकी परिवार कहेंगे एवं वह परिवार जिसका स्वयं विवाह एवं प्रजनन द्वारा निर्माण करते हैं उसे हम प्रजनन या विवाह मूलक एकाकी परिवार कहेंगे। जैसे कि चित्र में दिखाया गया है:-

उपरोक्त चित्र से स्पष्ट होता है कि ऊपर के चित्र में व्यक्ति उस एकाकी परिवार का सदस्य है इसलिए इस परिवार को जन्म मूलक परिवार कहेंगे। जबकि नीचे के चित्र में उस व्यक्ति की विवाह के द्वारा एकाकी परिवार का निर्माण हो रहा है अतः यह विवाह मूलक एकाकी परिवार है।

हमें भारत के अनेक जनजातीय समाजों में जैसे:- बिरहोर, खड़िया, उराँव, मुंडा, कादर इत्यादि में एकाकी परिवार देखने को मिलता है। इन जनजातियों में एकाकी परिवार होने का मुख्य कारण आर्थिक बाध्यता है। इनका जीवन का मुख्य आधार खाद्य जमा करना एवं शिकार है। लेकिन अब धीरे-धीरे इसमें भी परिवर्तन दिखाई देता है क्योंकि आधुनिक औद्योगिक शहरी समाज ने अब एकाकी परिवार को बढ़ावा देता है। अब लोग शिक्षित होकर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं और ऐसे में छोटे परिवार (एकाकी) का महत्व बढ़ जाता है। एकाकी परिवार के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं जैसे:- वेतन पर आश्रित आजीविका, मौद्रिक अर्थव्यवस्था, प्रेम विवाह, नारियों की अर्थव्यवस्था में भागीदारी, व्यक्तिवादीता इत्यादि।

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विस्तृत परिवार

विस्तृत परिवार का अर्थ वैसे समूह से है जिसमें पति-पत्नी एवं उनकी संतानों के अलावा निकट के अन्य संबंधी भी शामिल हो। इस तरह के परिवार में विवाहित दंपति के बच्चों की भी विवाहित संतान सभी एक साथ रहते हो। या तो हम यह कह सकते हैं कि दो या दो से अधिक नाभिकीय परिवारों (एकाकी परिवार) के मिलने से विस्तृत परिवार का निर्माण होता है।

इस प्रकार के तीन पीढ़ीयों का होना जरूरी है। विस्तृत परिवार का निर्माण करने वाली एकाकी परिवार सामान्यतः मात- पिता एवं बच्चे के बंधन से आपस में जुड़े होते हैं। कभी-कभी हमें ऐसी भी स्थिति देखने को मिलती है कि वैसे नाभिकीय परिवार जो आपस में सिबलिंग के बंधन से जुड़े होते हैं ऐसे परिवार में दो या दो से अधिक विवाहित भाई एवं उनकी पत्नियां तथा बच्चे होते हैं।

विस्तृत परिवार

विस्तृत परिवार का मानव शास्त्रियों ने इस प्रकार से परिभाषित किया है:- विस्तृत परिवार का आशय वैसे परिवार संकुल से है जो वंशानुक्रम से संबंध होते हुए भी अलग-अलग आर्थिक इकाइयों में बँटे होते हैं। वे एक ही घर पर निवास नहीं करते लेकिन एक दूसरे के निकट रखकर सम्मान गतिविधियों में भाग लेते हैं।

विस्तृत परिवार का चित्र:-

 

यह संयुक्त परिवार जैसा ही है एवं भारत की अनेक जनजातियों में देखने को मिलता है जैसे:- संथाल, उरांव, हो, मुंडा, भील, गोंड इत्यादि। विस्तृत परिवार की आवश्यकता प्रायः कृषक अर्थव्यवस्था में मानवीय श्रम की पूर्ति के लिए होती है। जब माँ घर से बाहर जाकर काम करे तो ऐसी स्थिति में बच्चों की देखभाल के लिए अन्य सदस्य की जरूरत के कारण विस्तृत परिवार की अस्तित्व बनी हुई है।

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संयुक्त परिवार

परिवार की परिभाषा

संयुक्त परिवार का मतलब ऐसा विस्तृत परिवार जिसमें कई पीढ़ी के लोग एक साथ रहते हैं और सामूहिक खानपान तथा संपत्ति पर भी संयुक्त स्वामित्व होता है साथ ही साथ इनके बीच आपस में गहरे भावनात्मक संबंध भी होते हैं। संयुक्त परिवार का आदर्श स्वरूप हमें हिंदू समाज में देखने को मिलता है। भारत में कृषक अर्थव्यवस्था में अधिक मानवीय श्रम की जरूरत के कारण, संयुक्त परिवार का अस्तित्व का मुख्य कारण है इसमें कम से कम तीन पीढ़ी के लोग एक साथ रहते हैं अर्थात दादा-दादी, माता-पिता एवं पोता-पोतीयों से मिलकर होता है।

इसे चित्र के द्वारा समझेंगे:-

विवाह के आधार पर परिवार का स्वरूप

एकल विवाही परिवार

इस तरह के परिवार वह परिवार हैं जिसमें एक पुरुष एवं एक स्त्री के बीच विवाह से बना परिवार होता है एवं यह परिवार का एक सामान्य प्रकार है जो हर एक समाज में हमें देखने को मिलता है। भारत में खासी, हो, संथाल, कादर आदि जनजातियों में मुख्य रूप से एकल विवाही परिवार देखने को मिलता है।

परिवार का महत्व

बहुपत्नी विवाही परिवार

इस तरह के परिवार में एक पुरुष का अनेक स्त्रियों के साथ विवाह से निर्मित परिवार होता है। प्रत्येक पत्नी का अपने पति की पत्नियों के साथ व्यक्तिगत एवं सामूहिक संबंध होता है एवं प्रत्येक पत्नी अपने पति के साथ व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोनों स्तरों पर अंतः क्रिया में संलग्न रहती है। पारंपरिक हिंदू समाज में बहुपत्नी विवाही परिवार पाया जाता था। भील जनजाति में भी बहूपत्नी विवाही परिवार हमें देखने को मिलता है।

बहुपति विवाही परिवार

इस तरह के परिवार में एक स्त्री के अनेक पति होते हैं। सामान्यतः ये पति भाई होते हैं। टोडा एवं खस जनजाति में तथा नायर समाज में बहुपति विवाही परिवार का अस्तित्व पाया जाता है। वर्तमान में यह समाप्त होता जा रहा है। यह परिवार सामान्यतः मातृसत्तात्मक समाज में पाई जाती है।

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सत्ता के आधार पर परिवार के स्वरूप

परिवार क्या है

भारतीय समाज में सत्ता के आधार पर भी परिवार देखने को मिलता है। इस तरह के परिवार के निम्नलिखित स्वरूप पाए जाते हैं:-

  •  पितृसत्तात्मक परिवार
  •  मातृसत्तात्मक परिवार
पितृसत्तात्मक परिवार

ऐसे परिवार में पुरुष सत्ता होती है अर्थात वंशजता निर्धारण पुरुष की दिशा में होता है। इस तरह के परिवार भारत के साथ-साथ पूरे विश्व में प्रचलित है। भारत में हिंदू, मुस्लिम तथा गोंड, भील, संथाल, हो, उरांव, मुंडा इत्यादि जनजातियों में पितृसत्तात्मक परिवार पाई जाती है।

मातृसत्तात्मक परिवार

मातृसत्तात्मक परिवार में सत्ता स्त्री सदस्य में निहित होती है एवं वंशजता का निर्धारण भी स्त्री की दिशा में होता है। भारत के पूर्वोत्तर में स्थित गारो, खासी जनजाति एवं केरल के नायर समाज में इस तरह की मातृसत्तात्मक परिवार प्रचलन में है।

विवाहोपरांत आवास के स्वरूप के आधार पर परिवार का स्वरूप

हमें विवाह के बाद दांपत्य का आवास के आधार पर भी परिवार का स्वरूप देखने को मिलता है। इस तरह के निम्नलिखित परिवार होते हैं:-

  •  पितृ स्थानिक परिवार
  •  मातृ स्थानिक परिवार
  •  नव स्थानिक परिवार
पितृ स्थानिक परिवार

भारत के साथ-साथ संपूर्ण विश्व में पितृ स्थानिक परिवार देखने को मिलता है। इसमें स्त्री विवाह के बाद अपने पति के घर में आकर निवास करती है। भारत में खड़िया, भील, हो, गोंड, उरांव, संथाल, एवं हिंदू समाज में इस तरह के परिवार देखने को मिलते हैं।

मातृ स्थानिक परिवार

मातृ स्थानिक परिवार का अर्थ है इसमें पति अपने पत्नी के परिवार के साथ निवास करता है या फिर एक समय के अंतराल में अपनी पत्नी के घर आता जाता रहता है या स्थाई रूप से वहीं निवास करता है। पूर्वोत्तर भारत के खासी जनजाति में इस तरह के परिवार देखने को मिलते हैं।

नव स्थानिक परिवार

इसमें पति-पत्नी के द्वारा स्थापित नई जगह में जाकर रहने लगते हैं। आधुनिक औद्योगिक समाजों में इस तरह के परिवार का स्वरूप देखने को मिलता है। भारत के कई जनजातीय समाजों में भी इस तरह के पारिवारिक अवधारणा देखने को मिलता है।

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परिवार की सार्वभौमिकता (Universality of family)

हम देखते हैं कि विभिन्न समाजों में या एक ही समाज के अंदर अलग-अलग समय में परिवार के संरचना में परिवर्तन देखने को मिलता है फिर भी परिवार एक सार्वभौमिक विशेषता है क्योंकि हम जितने भी मानवीय समाज जिनके बारे में ज्ञात है, परिवार का अस्तित्व देखने को मिलता है। चाहे वह परिवार आधुनिक समाज की हो या प्राचीन समाज की।

“मर्डक” का भी मानना है कि परिवार सामाजिक संगठन का एक सर्वभौमिक पक्ष है एवं परिवार की सार्वभौमिकता का प्रमुख कारण यह हो सकता है कि परिवार कुछ मूलभूत प्रकार्यों को निष्पादित करता है जिससे मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।

परिवार अपने समाज की संस्कृति के लिए कुछ मूलभूत जैविकीय एवं आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करता है इसके बिना संस्कृति का अस्तित्व संभव नहीं अर्थात संस्कृति और परिवार के बीच सह संबंध है। संस्थागत तरीके से यौन आवश्यकताओं की पूर्ति, बच्चों का लालन-पालन, प्रजनन और सुरक्षा परिवार के मूलभूत प्रकार्य हैं जिसे प्रत्येक समाज एवं संस्कृति में न्यायोचित माना जाता है। विश्व के सभी समाजों में परिवार का अस्तित्व पाया जाता है।

“मर्डक” के विचार में आर्थिक, शैक्षणिक, यौन, एवं प्रजनन कुछ ऐसे मूलभूत प्रकार्य है जो सिर्फ परिवार के द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं।

परिवार की सार्वभौमिकता में प्रश्नचिन्ह

कई बार अलग-अलग समाजों के अंतर्गत परिवार के स्वरूप एवं सामान्य परिभाषा में विविधता के कारण मानव विज्ञान में परिवार की सर्वभौमिकता पर प्रश्नचिन्ह लगता है। क्योंकि परिवार की सामान्य परिभाषा के अनुसार परिवार पति-पत्नी एवं उनके बच्चों के द्वारा निर्मित समूह है जो प्रायः एक ही घर में निवास करते हैं अर्थात परिवार एक घरेलू व्यवस्था है। लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि परिवार के ये सभी सदस्य एक ही घर में रहें। प्राचीन समाजों में संभव तो था परंतु आधुनिक समाज में संभव नहीं होता है।

परिवार की सामान्य परिभाषा हो सकता है कि अनेक समाजों के परिवार के स्वरूप में खरा न उतरे लेकिन परिवार के सभी महत्वपूर्ण प्रकार्यों को पूरा करने में सक्षम है। अतः हम प्रकार्यात्मक के दृष्टिकोण से इस परिभाषा को मान्यता प्रदान कर सकते हैं तथा परिवार की सर्वभौमिकता के प्रति उत्पन्न भ्रम व संदेह को समाप्त कर सकते हैं।

कुछ अपवाद भी हमें देखने को मिलते हैं जैसे:- ब्राजील तथा मध्य अमेरिका, ब्रिटिश गुयाना के नीग्रो समाज तथा इजराइल के किब्बूज समाज परिवार की सामान्य परिभाषा एवं संरचना के कुछ अपवाद हैं।

‘स्मिथ’ ने इन समाजों के अध्ययन में यह पाया कि नीग्रो समाज में मातृ दिक समूह रुपी घरेलू व्यवस्था पाई जाती है जो परिवार की सामान्य परिभाषा से मिलता जुलता नहीं है लेकिन फिर भी परिवार के प्रकार्यों को पूरा करने में सक्षम है। इन समाजों में पति अधिकांशतः घर के बाहर ही निवास करते हैं। एवं इनका परिवार एकाकी परिवार के रूप में संयोजित न होकर स्वतंत्र रूप से कार्य करते हैं। कुछ समाजों में पितृ दिक समूह पाए जाते हैं। इजराइल के किब्बूज समाज में बच्चे अपने माता-पिता के साथ नहीं रहते परंतु ये सामुदायिक भवन में निवास करते हैं। इनके माता-पिता अपने बच्चों का लालन-पालन नहीं करते। यह अपने परिवार के लिए नहीं वरन किब्बूज समाज के लिए कार्य करते हैं। इनमें परिवार का अभाव माना जा सकता है। फिर भी ये परिवार के मूलभूत प्रकार्यों को पूरा करने में सक्षम हैं इसलिए मेलफोर्ड ई स्पाइरो का मानना है कि प्रकार्यात्मक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से किब्बूज को परिवार की संज्ञा दी जा सकती है क्योंकि यह परिवार के मूलभूत प्रकार्यों के निर्वाह में सक्षम हैं।

अतः उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि भले ही समाजों में परिवार की संरचना एवं स्वरूप में विभिन्नता हो इसके बाद भी समाज में कोई न कोई घरेलू व्यवस्था पाई जाती है जो परिवार के मूलभूत प्रकार्यों को पूरा करने में सक्षम है तो ऐसे में परिवार की सर्वभौमिक विशेषता है।

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परिवार का बदलता स्वरूप

समय के साथ-साथ प्रौद्योगिकी एवं आर्थिक विकास के परिणाम स्वरूप परिवार के स्वरूप एवं प्राकार्य में परिवर्तन देखने को मिलता है। बच्चों का समाज के अंदर भरण-पोषण यौन व्यवहारों का नियमन तथा व्यक्ति को भावनात्मक एवं आर्थिक सुरक्षा जैसे परिवार के कई मूलभूत प्रकार्य है। कालांतर में औद्योगिक समाजों में परिवार के संरचना में बदलाव देखने को मिलता है।

एकाकी परिवार में परिवर्तन

नाभिकीय परिवार हमें मध्यम एवं उच्च वर्ग में देखने को मिलता है जो भूमंडलीकरण से बहुत ज्यादा प्रभावित है। निम्न वर्ग में विस्तृत परिवार अभी भी देखने को मिलता है क्योंकि इस वर्ग के लोग कृषक कार्य में संलग्न है। औद्योगिक समाज में विस्तृत परिवार के विघटन के बाद भी विस्तृत परिवार देखने को मिलता है। ब्रिटिश, यूरोपीय एवं जापानी ग्रामीण समाजों में विस्तृत परिवार देखने को मिलता है। संयुक्त राष्ट्र अमेरिका एवं ग्रेट ब्रिटेन जैसे देशों के शहरी क्षेत्रों में (नृ जातीय समूह में) भी विस्तृत परिवार देखने को मिलता है।

पाश्चात्य एवं औद्योगिक समाजों का बदलता हुआ स्वरूप जैसे शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था, व्यक्तिवादी सोच, नारीवादी आंदोलन, स्वतंत्र यौन की प्रवृत्ति, धर्म का समाज से घटता प्रभाव, नारियों की सामाजिक आर्थिक भागीदारी, प्रेम विवाह जैसे कारकों के प्रभाव के कारण परिवार का महत्व कम हुआ है।

अब विस्तृत परिवार के परंपरागत प्रकार्य द्वितीय संस्थाओं जैसे:- क्लब, शिशु गृह, रेस्तरां, नर्सिंग होम इत्यादि द्वारा पूरे किए जाते हैं। नाभिकीय परिवार इन कार्यों को निर्वाह नहीं कर सकता है। एक तरह से देखा जाए तो नाभिकीय परिवार अब न तो सामाजिकरण का अभिकर्ता है और न ही उत्पादन की इकाई है। अब बच्चों का प्रजनन स्थल नाभिकीय परिवार न होकर आधुनिक सुविधा से युक्त नर्सिंग होम है।

विस्तृत परिवार में बदलाव

वर्तमान में हमें विस्तृत परिवार के महत्व में कमी एवं नाभिकीय परिवार का तेजी से बढ़ना दिखाई देता है। ये सभी औद्योगिक समाज के कारण हो रहा है। अब परिवार के सभी मूलभूत प्रकार्य नाभिकीय परिवार के द्वारा ही संपन्न किए जा रहे हैं। परिवार  अब उत्पादन के दृष्टिकोण से आर्थिक इकाई नहीं रही।

इस संबंध में वुल्फ का मानना है कि विस्तृत परिवार का विखंडन एवं नाभिकीय परिवार की उद्भव का एक प्रमुख कारण है दैनिक श्रमिकों की सहज उपलब्धता।

विस्तृत परिवार में ह्रास का एक अन्य कारण औद्योगिकीकरण के प्रभाव से फैक्ट्री में काम के लिए गांव से आकर लोगों का शहर में नाभिकीय परिवार की स्थापना कर लेना। इसका जीता जागता उदाहरण जापान जैसे अत्यंत औद्योगिकृत देश में औद्योगिक विकास के फलस्वरूप ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित विस्तृत परिवार ‘डोजोकू’ का पतन एवं शहरी नाभिकीय परिवार ‘कजोकू’ का उद्भव होना है। यह परिवर्तन प्रायः सामाजिक, आर्थिक परिस्थिति के कारण देखने को मिलता है।

संयुक्त परिवार में परिवर्तन

आधुनिक एवं नवीनतम परिवर्तनों के बाद भी भारतीय समाज के शहरी क्षेत्रों में भी संयुक्त परिवार आज भी विद्यमान हैं। औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, भूमंडलीकरण, शिक्षा प्रणाली, नारीवादी चेतना तथा विवाह से संबंधित सामाजिक परंपराओं के कारण विस्तृत परिवार के महत्व में कमी आई है फिर भी भारत के शहरी क्षेत्रों में संयुक्त परिवार देखने को मिलता है।

आई पी देसाई (गुजरात के महुआ शहर) और के एम कपाड़िया नवसारी शहर के अध्ययन में पाया कि यहां एकाकी परिवार की संख्या ज्यादा है लेकिन फिर भी यहां के लोग भावनात्मक तरीके से संयुक्त परिवार से जुड़े हुए हैं। व पाश्चात्य समाज के विपरीत भारतीय समाज में संयुक्त परिवार प्रणाली पूर्ण रूप से भी खंडित नहीं हुई है। क्योंकि अभी भी भारतीय परिवार प्रणाली में संयुक्तता की परंपरा विद्यमान है।

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परिवार की विशेषता

परिवार एक सर्वभौमिक इकाई

मार्डक के अनुसार:- “परिवार एक सर्वभौमिक संस्था है।” अर्थात परिवार चाहे किसी भी देश या काल या हर समाज में विद्यमान है इसलिए परिवार को सर्वभौम संस्था माना गया है।

परिवार का भावात्मक आधार

परिवार के सदस्यों के अंदर की भावनाएं जिन की पूर्ति के लिए परिवार का बनाया गया है। जैसे स्नेह, यौन, सहयोग एवं सहानुभूति, संवेदना इत्यादि।

परिवार की सीमित आकार

चूँकि परिवार को बनाने के लिए पति-पत्नी एवं उनके संतानों का होना अनिवार्य है इसलिए परिवार का आकार सीमित होती है। बच्चों के बड़े होने पर उनका विवाह होता चला जाएगा एवं विवाहित जोड़े अपना अलग घर बसा लेंगे। अतः परिवार का एक निश्चित आकार होता है।

परिवार के सदस्यों की जिम्मेदारी

परिवार में रहने वाले हर व्यक्ति की जिम्मेदारी बहुत अधिक होती है। परिवार के सदस्य अपनी-अपनी जिम्मेदारी समझकर काम करते हैं तथा उनके बीच एक तरह का भावनात्मक संबंध होते हैं।

परिवार पर समाज का नियंत्रण

चूँकि मानव एक सामाजिक प्राणी है अतः वह समाज में रहता है तथा समाज की परंपराएं परिवार को नियंत्रण में रखता है। परिवार व्यक्ति के व्यवहारों में सीधा नियंत्रण रखता है और समाज अप्रत्यक्ष तरीके से नियंत्रित करता है।

परिवार सामाजिक संरचना का केंद्र बिंदु

परिवार समाज का स्थाई एवं सबसे छोटी इकाई है। क्योंकि अनेक परिवार मिलकर एक समाज का निर्माण करते हैं जिससे सामाजिक मूल्यों एवं सामाजिक संबंधों का निर्माण होता है। साथ ही समाज परिवार को नैतिक मूल्यों एवं परंपराओं द्वारा नियंत्रित कर पाने में सक्षम होता है।

परिवार एक स्थायी संस्था

परिवार कभी भी नष्ट नहीं होती यह लगातार चलने वाली संस्था है यह मानव निर्मित नहीं है बल्कि इसका आधार मनोवैज्ञानिक प्रवृतियां है जो कभी खत्म नहीं होती। यदि परिवार में किसी की मृत्यु हो जाए या कोई व्यक्ति अलग हो जाए तो भी परिवार चलती रहती है।

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परिवार के कार्य

मर्डक के विचार में “आर्थिक, शैक्षणिक, यौन, एवं प्रजनन कुछ ऐसे मूलभूत प्रकार्य है जो सिर्फ परिवार के द्वारा ही पूरे किए जा सकते हैं।”

पारशंस के अनुसार “प्राथमिक सामाजिकरण एवं वयस्क व्यक्तित्व में स्थायित्व परिवार के दो मूलभूत प्रकार्य है। जो सभी समाजों में पाए जाते हैं। परिवार रूपी कारखाना में मानवीय व्यक्तित्व का निर्माण होता है।”

रीक ने “वंश की वृद्धि, समाजीकरण, यौन इच्छाओं की पूर्ति एवं आर्थिक कार्य को परिवार के महत्वपूर्ण कार्य माना है।”

ऑगबर्न तथा निमकॉफ के अनुसार “धार्मिक, आर्थिक, पालन-पोषण एवं सुरक्षात्मक कार्य, सहानुभूति एवं प्रेम संबंधी कार्य तथा शैक्षणिक कार्य परिवार के महत्वपूर्ण प्रकार्य है।”

उपरोक्त कार्यों को देखते हुए परिवार के निम्नलिखित कार्य हो सकते हैं:-

  •  यौन इच्छाओं की पूर्ति
  •  संतानोत्पत्ति
  •  सुरक्षात्मक कार्य
  •  समाजीकरण
  •  मनोरंजन
  •  शैक्षणिक कार्य
  •  सामाजिक नियंत्रण
  •  श्रम विभाजन
  •  उत्तराधिकार की व्यवस्था
  •  सांस्कृतिक कार्य
  •  धार्मिक कार्य

यौन इच्छाओं की पूर्ति

परिवार में विवाह के माध्यम से स्त्री तथा पुरुष को यौन संबंध स्थापित करने का अवसर मिलता है। अतः परिवार का एक महत्वपूर्ण भूमिका होती है कि पति-पत्नी की यौन इच्छा की पूर्ति करे।

संतानोत्पत्ति

परिवार में रखकर पति-पत्नी यौन इच्छा की पूर्ति कर संतान उत्पन्न करते हैं जो कि समाज को बनाए रखने के लिए अति आवश्यक है। समाज में एक ओर वृद्धों की मृत्यु होती है तो दूसरी ओर संतानोत्पत्ति द्वारा उसकी भरपाई होती रहती है। अर्थात समाज की निरंतरता बनी रहती है।

सुरक्षात्मक कार्य

परिवार में रहकर व्यक्ति खुद को सुरक्षित कर पाता है अर्थात परिवार में रहने वाले लोग एक दूसरे के लिए सुरक्षा प्रदान करते हैं परिवार बच्चों का भरण-पोषण तथा सुरक्षा एक निश्चित आयु तक देता है तथा विवाह उपरांत उनकी स्वयं की यह जिम्मेदारी हो जाती है कि उनके होने वाले संतानों का भरण-पोषण एवं सुरक्षा करे। परिवार में रहकर ही इन कार्यों को पूरा किया जा सकता है। सुरक्षात्मक कार्य केवल भौतिक ही नहीं लेकिन मानसिक रीति से भी की जाती है।

समाजीकरण

पारशंस के अनुसार “प्राथमिक समाजीकरण एवं वयस्क व्यक्तित्व में स्थायित्व परिवार के दो मूलभूत प्रकार्य है। जो सभी समाजों में पाए जाते हैं। परिवार रूपी कारखाना में मानवीय व्यक्तित्व का निर्माण होता है।”

एक बच्चा जब परिवार में जन्म लेता है तो परिवार के सा- साथ हुआ समाज का भी अभिन्न अंग बन जाता है। अतः समाज में रहकर वह सामाजिक मूल्यों एवं संस्कृति से परिचित होता है। परिवार और समाज दोनों ही नैतिक मूल्यों को सिखाता है एवं अनैतिक (लोभ, क्रोध, हिंसा) चीजों से नियंत्रित भी करता है।

मनोरंजन

परिवार सदस्यों को मनोरंजन का भी अवसर प्रदान करता है छोटे बच्चों से खेलना, नानी-दादी की कहानियां, त्योहारों के आनंद, ये सभी एक परिवार अपने सदस्यों को देता है। अतः परिवार एक तरह से मनोरंजन का केंद्र है।

शैक्षणिक कार्य

परिवार को प्रथम पाठशाला भी कहा जाता है जब बच्चा जन्म लेता है तो वह परिवार से हर क्षण कुछ ना कुछ सीखता रहता है और वह जीवन के नैतिक मूल्यों को बड़ों से ग्रहण करता है जो उसके जीवन में आजीवन काल तक अपनी छाप छोड़ जाता है अतः परिवार को पाठशाला कहना अनुचित नहीं है।

सामाजिक नियंत्रण

परिवार अपने सदस्य को जन्म से ही समाज के नैतिक मूल्यों के बारे में बताता है तथा अनैतिक मूल्यों को नियंत्रित करता है। एवं समाजीकरण के द्वारा ही सदस्य नैतिक मूल्यों को अपने जीवन में ढालता है।

श्रम विभाजन

प्रत्येक परिवार में श्रम विभाजन देखने को मिलता है। सदस्यों के आयु एवं लिंग श्रम विभाजन के मुख्य आधार होते हैं। स्त्रियों के कार्य आयु के अनुसार भिन्न होते हैं। तथा पुरुषों में भी आयु के अनुसार श्रम विभाजन भिन्न-भिन्न देखने को मिलता है।

उत्तराधिकार की व्यवस्था

परिवार में उत्तराधिकारी के नियम होते हैं। अधिकांश परिवार की सत्ता का हस्तांतरण पितृ पक्ष से होता है। कुछ अपवाद भी हैं जिसमें उत्तराधिकारी मातृ पक्ष से देखने को मिलता है। यह नियम परिवार ही बनाता है। इस नियम के द्वारा प्रत्येक व्यक्ति को अपनी वंशानुगत संपत्ति प्राप्त होती है अगर उत्तराधिकार के नियम न हो तो संपत्ति का बंटवारा सही तरीके से नहीं हो पाएगा। जिसकी जितनी शक्ति होगी वह उतनी संपत्ति का मालिक बन जाएगा।

व्यक्तित्व का विकास

परिवार में रहकर एक शिशु का पूर्ण रूपेण शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है। परिवार के सदस्य अपने शिशु के लालन-पालन का ध्यान रखते हैं तथा नैतिक-अनैतिक मूल्यों का ज्ञान कराते हैं जिससे बड़े होकर वह समाज के योग्य बन सके।

सांस्कृतिक कार्य

एक व्यक्ति परिवार के साथ-साथ अपने समाज का भी सदस्य होता है और हरेक समाज की एक अपनी संस्कृति भी होती है। परिवार अपने सदस्यों को समाज की संस्कृति से भी परिचिय कराता है तथा परिवार के माध्यम से ही संस्कृति का हस्तांतरण होता है।

धार्मिक कार्य

प्रत्येक परिवार के सदस्य किसी न किसी धर्म में आस्था रखते हैं तथा परिवार धार्मिक विश्वास के मूल्यों को भी अपने सदस्यों को परिचित कराता है। परिवार के बड़े बुजुर्गों द्वारा बच्चे का धार्मिक आस्था का विकास होता है। तथा बच्चे पर धार्मिक विचारों का काफी गहरा असर पड़ता है।

निष्कर्ष

उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि परिवार एक सार्वभौमिक विशेषता है। क्योंकि हर समाज में परिवार का अस्तित्व देखने को मिलता है चाहे वह परिवार अति प्राचीनतम ही क्यों न हो। परिवार के द्वारा कई मूलभूत प्रकार्यों को पूरा किया जाना परिवार की आवश्यकता का मूल कारण है।

हमें परिवार के स्वरूप अलग-अलग देखने को मिलते हैं इसके कारण आर्थिक ही है। औद्योगिक, भूमंडलीकरण एवं ऐसे कई कारण हैं जिसके कारण परिवार के स्वरूप में विभिन्नता दिखाई देता है। परिवार का बदलता हुआ स्वरूप से पता चलता है कि अब लोग एकल परिवार में रहना पसंद करते हैं। कम लोगों का भरण-पोषण एवं देखभाल एकल परिवार में आसानी से हो जाता है। नारियों के आर्थिक क्षेत्र में बढ़ती हिस्सेदारी, नारीवादी आंदोलन, व्यक्तिवादी सोच ये सभी मिलकर वर्तमान में विस्तृत परिवार और संयुक्त परिवार का विघटन होने का कारण बन गया है।


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