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बेरुबाड़ी संघ मामला (1960) | Berubari Case in Hindi

बेरुबाड़ी संघ मामला भारतीय इतिहास का बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है बेरुबाड़ी संघ मामला के द्वारा ही भारतीय संविधान की प्रस्तावना पर पहली बार सवाल उठा कि यह भारतीय संविधान का हिस्सा है या नहीं?

इस लेख में हम विस्तार से जानने का प्रयास करेंगे कि बेरुबाड़ी संघ मामला मे हुआ क्या था और सुप्रीम कोर्ट ने अपने परामर्श में क्या कहा?

बेरुबाड़ी संघ मामला क्या था?

Berubari Case की पृष्ठभूमि

बेरुबाड़ी संघ मामला के बारे में संक्षिप्त शब्दों में कहें तो बेरुबाड़ी संघ मामला भारत-पाकिस्तान सीमा समझौता से संबंधित मामला था हमारा भारत देश जब अंग्रेजों के गुलामी से आजाद हुआ तो हमारे देश को दो भागों में विभाजित कर दिया- भारत और पाकिस्तान।

हमारा देश दो भागों में विभाजित होने के कारण (भारत-पाकिस्तान) सीमा का निर्धारण होना भी जरूरी था इसी भारत-पाकिस्तान सीमा निर्धारण का कार्यभार लाॅर्ड माउंटबेटन ने सर रेडक्लिफ को सौंपा था इस सीमा निर्धारण के कार्य को सर रेडक्लिफ को बहुत ही कम समय में पूरा करना था

इस कारण रेडक्लिफ ने सीमा का निर्धारण अपने हिसाब से नक्शे पर लाइन खींच कर एवं कई जगह पुलिस थाने को आधार बनाकर सीमा का निर्धारण किया

बेरुबाड़ी संघ मामला

विवाद का कारण

जब यह विवाद सामने आया उस समय बांग्लादेश, पाकिस्तान का हिस्सा हुआ करता था और इसे पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाना जाता था

पहले के (1960) अनुसार देखा जाए तो यह मामला भारत और पूर्वी पाकिस्तान (पाकिस्तान) सीमा विवाद होगा और अभी के अनुसार देखा जाए तो भारत और बांग्लादेश सीमा होगा

भारत के पश्चिम बंगाल के जलपाईगुड़ी जिले में बेरुबाड़ी नामक एक जगह थी जो पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश से सटा हुआ क्षेत्र था

सर रेडक्लिफ के अनुसार बेरुबाड़ी को भारत के हिस्से में दिया गया था लेकिन यह लिखित रूप में नहीं था इसी कारण पाकिस्तान ने पहली बार 1952 में बेरुबाड़ी संघ का मुद्दा को भारत के सामने उठाया और बेरुबाड़ी को पाकिस्तान ने अपना अधिकार क्षेत्र बताया क्योंकि यह मुस्लिम बहुल क्षेत्र था और लिखित रूप में कोई भी कार्यवाही नहीं हुई था

Berubari Case समाधान की प्रक्रिया

उस समय भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू और पाकिस्तान के प्रधानमंत्री फिरोजशाह नून थे बेरुबाड़ी संघ मामला तब तक चलता रहा जब तक दोनों देशों के प्रधानमंत्री के बीच समझौता नहीं हो गया इस समझौता को नेहरू-नून समझौता (1958) कहा जाता है

नेहरू-नून समझौता के तहत बेरुबाड़ी क्षेत्र को दो भागों में बांट कर आधा भारत को और आधा पाकिस्तान को देने का प्रावधान किया गया

इस समझौता से पश्चिम बंगाल की सरकार बिल्कुल खुश नहीं थी और पश्चिम बंगाल की जनता भी अपनी नाराजगी जाहिर कर रही थी क्योंकि यहाँ की जनता को भारत देश के अंतर्गत रहना था।

तत्कालीन नेहरू सरकार के खिलाफ काफी आलोचनाएं भी होने लगी थी और सवाल यह था कि भारत अपने हिस्से का क्षेत्र को दूसरे देश को कैसे दे सकता है

उस समय केंद्र की सरकार ने इस मामला को लेकर समझौता तो कर लिया लेकिन उसे यह नहीं पता था कि संविधान के किस प्रावधान के तहत इसका क्रियान्वयन करे।

संविधान के अनुच्छेद 3* के तीसरे प्रावधान के तहत या अनुच्छेद 368* के आधार पर संविधान संशोधन करके।

अनुच्छेद 3*

अनुच्छेद 3 कहता है कि संसद, विधि द्वारा:-

(क) किसी राज्य में से उसका राज्य क्षेत्र को अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्य क्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नए राज्य का निर्माण कर सकेगी।

(ख) किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ा सकेगी

(ग) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकेगी

(घ) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकेगी

(ङ) किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी

अनुच्छेद 368*

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संविधान संशोधन करने की संसद की शक्ति और उसके प्रक्रिया का वर्णन है

भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इन सारी बातों से भ्रमित होने के कारण इस समस्या को लेकर तत्कालिक राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद के सामने समस्या को रखा। डॉ राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष भी रह चुके थे इसलिए वे इस समस्या की गंभीरता को भली-भांति समझ पाए।

राष्ट्रपति को अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से परामर्श लेने का अधिकार होता है और राष्ट्रपति ने इसी अधिकार का इस्तेमाल करते हुए इस मामले में सुप्रीम कोर्ट से इन दो चीजों पर अपना परामर्श लेने का निर्णय लिया

लेकिन इस मामले में एक समस्या और थी और वह था भारतीय संविधान का प्रस्तावना। क्योंकि भारतीय संविधान के प्रस्तावना में अंकित थे दो शब्द- लोकतांत्रिक गणराज्य और संप्रभुता। जो कि इस देश की जनता को दूसरे देश को सौंपने का इजाजत नहीं देता।

लोकतांत्रिक गणराज्य

लोकतंत्र में जनता के द्वारा सरकार चुनी जाती है अर्थात सरकार को जनता से शक्ति मिलती है और सरकार उसी शक्ति का इस्तेमाल करके जनता को दूसरे देश को नहीं सौंप सकती थी।

संप्रभुता

संप्रभुता शब्द का अर्थ है कि हमारा भारत देश अपने आप में सभी क्षेत्रों में संपन्न है और कोई बाहरी ताकत हमारे भारत देश की एकता और अखंडता को नुकसान नहीं पहुंचा सकती। हमारे देश के अंदरूनी मामले में कोई बाहरी देश हस्तक्षेप नहीं कर सकता। भारत इसी संप्रभुता का इस्तेमाल करके अपने क्षेत्र को किसी और देश को नहीं दे सकता था।

इन सारी पहलुओं पर सुप्रीम कोर्ट ने गंभीर विचार किया और Berubari Case मामले में सीमा निर्धारण में जो भी चनौतियाँ सामने आयी उस पर अपना परामर्श दिया।

केरल राज्य बनाम केशवानंद भारती मामला (1973) क्लिक करें

भारतीय संविधान की प्रस्तावना का उद्देश्य क्लिक करें

बेरुबाड़ी संघ मामले (Berubari Case) में सुप्रीम कोर्ट का परामर्श

बेरुबाड़ी संघ मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपने परामर्श में कई बातें कही:-

(1) सर्वप्रथम सुप्रीम कोर्ट ने अपने परामर्श में कहा कि सातवीं अनुसूची के संघ सूची के भाग 14 के तहत भारत किसी अन्य देश के साथ संधि या समझौता कर सकता है और उसे देश में लागू भी कर सकता है( क्योंकि संसद के पास इसकी शक्ति होती है)

(2) अनुच्छेद 253 के अनुसार संसद दूसरे देश के साथ अंतरराष्ट्रीय संधि या समझौता को लागू करने के लिए कानून बना सकता है

(3) अनुच्छेद 243(1) के तहत संसद को भारत के पूरे क्षेत्र या किसी हिस्से के लिए कानून बनाने का अधिकार है

(4) अनुच्छेद 248 में संसद को अपशिष्ट शक्ति प्राप्त है के तहत समवर्ती सूची, राज्य सूची और केंद्र सूची में शामिल नहीं होने वाले विषयों पर भी कानून बना सकता है

इस तरह सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आप इन आधारों पर भी कानून बना सकते हैं और लागू कर सकते हैं

प्रस्तावना के संबंध में सुप्रीम कोर्ट का परामर्श

लेकिन दूसरी बात यह थी कि भारतीय संविधान के प्रस्तावना में अंकित लोकतांत्रिक गणराज्य और संप्रभुता। जो कि केंद्र सरकार को इस बात की इजाजत नहीं देती थी

जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि- प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और यह सरकार को किसी भी प्रकार की शक्ति नहीं देती है

Berubari Case का समाधान

अंत में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कहा कि अनुच्छेद 3* के अनुसार भी आप इस समझौता (नेहरू-नून समझौता) को लागू नहीं कर सकते क्योंकि अनुच्छेद 3 में कहीं नहीं लिखा है कि आप भारत के किसी क्षेत्र को अलग करके किसी दूसरे देश को सकते हैं।

इस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने एक और परामर्श दिया और कहा कि अगर आपको नेहरू-नून समझौता को प्रभावी बनाना है तो आप अनुच्छेद 368* के तहत संविधान का संशोधन कर इसे प्रभावी बना सकते हैं (अनुच्छेद 368 के द्वारा सरकार (संसद) को संविधान संशोधन करने की शक्ति मिलती है)

सुप्रीम कोर्ट के परामर्श के बाद पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 1960 में 9वीं संविधान संशोधन लाकर अनुसूची 1 में बदलाव कर इस समझौता को प्रभावी बनाया


आगे चलकर सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिया गया फैसला कि “प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है” जिसे केरल राज्य बनाम केशवानंद भारती मामला (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने अपने इस फैसले को दुरुस्त किया

केरल राज्य बनाम केशवानंद भारती मामला को भारतीय इतिहास में ऐतिहासिक फैसला माना जाता है क्योंकि इस फैसले में संविधान की प्रस्तावना को मजबूती प्रदान किया गया और प्रस्तावना को संविधान का एक मुख्य हिस्सा माना गया

और साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आप संविधान का संशोधन तो कर सकते हैं लेकिन मूल ढांचा को बिना नुकसान पहुंचाए। इस तरह केशवानंद भारती मामला में सुप्रीम कोर्ट के द्वारा दिए गए फैसले को काफी ऐतिहासिक माना जाता है अधिक जानकारी के लिए क्लिक करें

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