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भारतेंदु युग (1843 – 1902 ईस्वी) | भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय | भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रमुख रचनाएं

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के प्रथम चरण के रूप में ‘भारतेंदु युग’ के नाम से काल का विभाजन किया गया है। इस काल को पुनर्जागरण या नवजागरण काल भी कहा जाता है। हिंदी साहित्य के इस युग के प्रवर्तक भारतेंदु हरिश्चंद्र जी को माना जाता है क्योंकि साहित्य के दृष्टि से इस युग के प्रतिभा संपन्न व्यक्ति थे।

भारतेंदु युग भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय

हमें इस युग में देश प्रेम, राष्ट्रीयता की भावना एवं जन चेतना की भावना देखने को मिलती है। अंग्रेजों के भारत आने के बाद उनके द्वारा किया जा रहा शोषण से लोग परेशान थे। साथ ही देश के प्रणेता स्वतंत्र भारत के लिए जनता में नई जोश भरने एवं देश प्रेम की भावना जगाने का कार्य कर रहे थे। इन सभी का प्रभाव भारतेंदु युगीन कवियों के साहित्य में भी पड़ना स्वाभाविक था। इस युग के कवियों ने मातृभूमि प्रेम, स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग, गौरक्षा, बाल विवाह निषेध, शिक्षा को महत्व, मद्यनिषेध, भ्रूण हत्या की निंदा आदि विषयों को आधिकाधिक उजागर करने का कार्य किया।

इस काल की महत्वपूर्ण विशेषता राष्ट्रीयता की भावना का उदय था। समाज में विद्यमान कुरीतियों जैसे- जाति प्रथा, रूढ़िवादीता, विधवा पुनर्विवाह, बाल विवाह, पाखंड आदि को दूर करने के लिए कई समाज सुधारकों ने महत्वपूर्ण सुधारवादी आंदोलन चलाए। जैसे- ब्रह्म समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसायटी, प्रार्थना समाज, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद।

इनके विचारों से जनमानस में जागृति आई। औद्योगिक क्षेत्रों में भी पुनर्जागरण तथा धर्म सुधार आंदोलन जोर पकड़ा। अंग्रेजों की शिक्षा नीति से भी जनता में शिक्षा के प्रति झुकाव हुआ जिसके कारण भी भारतीय जनता में एक नई ऊर्जा का संचार हुआ।

इन सभी सामाजिक, धार्मिक, औद्योगिक परिस्थितियों का असर तत्कालीन लेखक एवं कवियों के रचना में देखने को मिलता है। इस तरह से पूरे भारत में एक राष्ट्रीय भावना का वातावरण तैयार हुआ। जिसके परिणाम स्वरूप इस समय के साहित्य में नवीन परिवर्तन और साहित्य नई दिशा की ओर अग्रसर होती हुई दिखाई देती है।

भारतेंदु युग की समय सीमा और नामकरण

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जीवन परिचय

हिंदी साहित्य के आधुनिक काल के वर्गीकरण में प्रथम कालखंड को ‘भारतेंदु युग’ कहा गया है अर्थात हिंदी साहित्य का आधुनिक काल के प्रथम चरण को ‘भारतेंदु युग’ की संज्ञा दी गई है और भारतेंदु हरिश्चंद्र इस काल के प्रतिनिधि कवि हैं।

भारतेंदु युग के काल निर्धारण के संबंध में कई विद्वानों ने अलग-अलग अपनी राय दी है:-

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850 – 1885 ईस्वी) के रचनाकाल को ‘नई धारा या प्रथम उत्थान’ की संज्ञा दी है।

डॉ नगेंद्र के अनुसार- भारतेंदु युग का काल निर्धारण भारतेंदु द्वारा संपादित मासिक पत्रिका ‘कविवचनसुधा’ के प्रकाशन वर्ष 1886 ई्स्वी से प्रारंभ एवं ‘सरस्वती’ के प्रकाशन वर्ष 1920 ईस्वी को समाप्ति का सूचक माना जा सकता है।

अधिकांश विद्वानों ने आधुनिक काल का प्रारंभ 1843 ईस्वी से ही माना है।

मिश्र बंधुओं ने 1868 – 1888 ईस्वी तक के 19 वर्षों को भारतेंदु युग माना है।

डॉ रामविलास शर्मा ने 1868 – 1900 ईस्वी तक के काल को भारतेंदु युग माना है।

अंततः अधिकांश विद्वानों ने डॉ नगेंद्र के कालखंड (1868 – 1900 ईस्वी) को ही भारतेंदु युग के रूप में स्वीकार किया है।

डॉ लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय ने लिखा है कि- “प्राचीन से नवीन के संक्रमण काल में भारतेंदु हरिश्चंद्र भारतवासियों को नवदीप आकांक्षाओं और राष्ट्रीयता के प्रतीक थे वे भारतीय नवोत्थान के अग्रदूत थे।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि- “नई शिक्षा के प्रभाव से लोगों की विचारधारा बदलते चली थी लोगों के मन में देश हित, समाज हित आदि की नई उमंगे उत्पन्न हो रही थी। काल की गति के साथ-साथ उनके भाव और विचार तो बहुत आगे बढ़ गए थे पर साहित्य पीछे ही पड़ा था। भारतेंदु ने उसे साहित्य को दूसरी ओर मोड़कर जीवन के साथ फिर से लगा दिया। इस प्रकार हमारे जीवन और साहित्य के बीच जो विच्छेद बढ़ रहा था उन्होंने उसे दूर किया।”

भारतेंदु हरिश्चंद्र  का जीवन परिचय (1850 – 1885 ईस्वी)

भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर 1850 ईस्वी में वाराणसी में हुआ था। इनके पिता गोपालचंद्र कृष्ण भक्ति से प्रेरित कविता गिरधरदास नाम से रचना करते थे। भारतेंदु ने अपने 5 वर्ष की आयु में छंद की रचना की। इनका वास्तविक नाम हरिश्चंद्र था। इनकी प्रतिभा को देखते हुए उस समय के साहित्यकारों (पंडितों) ने उसे ‘भारतेंदु’ की उपाधि दी थी।

भारतेंदु एक कवि होने के साथ-साथ पत्रकार भी थे। ये काफी प्रभावशाली व्यक्तित्व के व्यक्ति थे एवं ये उस युग के साहित्यकारों के नेता, संपादक, संगठनकर्ता तथा समाज को नई दिशा देने वाले महान सुधारवादी विचारक थे। इनके सामाजिक कार्यों को देखते हुए भारत सरकार ने 1976 ईस्वी में उनके नाम से एक डाक टिकट जारी किया था।

जिस समय खड़ी बोली अपने गद्य के प्रारंभिक रूप में थी उसी समय हिंदी साहित्य में भारतेंदु हरिश्चंद्र का आविर्भाव हुआ। इन्होंने साहित्य के प्रत्येक विधाओं में की रचना की। जैसे- निबंध, नाटक, उपन्यास, आलोचना, पत्रकारिता, कविता, अनुवाद, यात्रा वृतांत,संस्मरण आदि। इन्होंने कविता के क्षेत्र में भी सराहनीय कार्य किया। इनकी कविता में प्राचीन परंपरागत विशेषताओं के साथ-साथ नयी कविता की भी शुरुआत किया इसी कारण इन्हें कविता के क्षेत्र में ‘नवयुग के अग्रदूत’ कहा जाता है। इनकी कविता अधिकांश प्रेम और भक्ति से जुड़ी रही। इन्होंने हिंदी साहित्य जगत को इतना प्रभावित किया की हिंदी साहित्य में क्रांतिकारी बदलाव आ गया। इसी कारण इस काल का नामकरण ‘भारतेंदु युग’ हो गया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की मृत्यु 6 जनवरी 1885 ईस्वी को 35 वर्ष की उम्र में ही हो गई। देखा जाए तो इन्होंने बहुत कम उम्र में ही हिंदी साहित्य के लेखन में अपनी विद्वता हासिल कर ली थी।

भारतेंदु युग के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं

इस काल में कई कवि हुए जिनमें प्रमुख हैं- भारतेंदु हरिश्चंद्र, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, प्रतापनारायण मिश्र, जगमोहन सिंह, अंबिकाव्यास और राधा कृष्ण।

इनको हम विस्तार से जानेंगे :-

भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रमुख रचनाएं

आधुनिक काल से पूर्व रीतिकाल में जहां कवि दरबारी थे और उनकी काव्य रचना की सीमा रेखा वहीं तक सीमित थी। वहीं आधुनिक काल में हमें साहित्य रचना की व्यापकता देखने को मिलती है। पूर्व के कालों में कविता रचनाओं की मुख्य प्रवृत्ति श्रृंगार, प्रेम या रीति निरूपण कर लक्षण ग्रंथों की रचना करते या संस्कृत ग्रंथों का काव्यानुवाद करते थे।

आश्रयदाता तथा सामंतों की प्रशस्तिपरक काव्य लिखा करते थे अर्थात इनकी काव्य रचना का सीमा केवल दरबार तक सीमित था। इसी परंपरा में ही भारतेंदु हरिश्चंद्र का प्रादुर्भाव हुआ। साथ ही पारिवारिक संस्कार (जैसे- उनके पिता कृष्ण भक्ति में कविताएं लिखते थे) के रूप में वैष्णव भक्ति प्राप्त हुई थी। एवं ये राधावल्लभ के पुष्टिमार्ग से प्रभावित थे।

अतः इन्होंने भी भक्ति परक एवं श्रृंगार प्रेम की रचना साथ ही साथ तत्कालीन समाज की स्थितियों (व्यावहारिक) को भी अपने साहित्य में जोड़ा।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की साहित्यिक परिचय

हिंदी साहित्य के पितामह कहे जाने वाले भारतेंदु हरिश्चंद्र जी ने अपने अल्पावस्था से ही रचनाएं शुरू कर दी थी। इन्होंने हिंदी साहित्य में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया। जिसके कारण ही 1858 – 1900 ईस्वी के काल को भारतेंदु युग माना जाता है।

इन्होंने लगभग 15 वर्ष की आयु से साहित्य के लिए विशेष सेवा प्रारंभ कर दिया था। इन्होंने 18 वर्ष की उम्र में ‘कविवचन सुधा’ नामक पत्रिका का संपादन किया एवं इनका प्रकाशन 1868 ईस्वी में शुरू हुआ। 20 वर्ष की आयु में ऑनरेरी मजिस्ट्रेट बन इन्होंने ‘हरिश्चंद्र’ पत्रिका का संपादन 1873 ईस्वी में किया एवं स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए ‘बाला बोधिनी’ नाम की एक पत्रिका भी निकाली।

इन्होंने हिंदी साहित्य के हरेक क्षेत्र में नई दिशा दिया। वे एक महान कवि, कुशल नाटककार, कुशल साहित्यकार थे। जिसने अपने लेखन से जनता में जोश भरने का काम किया एवं अपने देश के लिए साहित्यिक क्षेत्र में एक बड़ा योगदान दिया। इसलिए इस युग को भारतेंदु युग कहा जाता है।

भारतेंदु हरिश्चंद्र की प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं:-

मौलिक नाटक

सत्य हरिश्चंद्र, श्री चंद्रावली, विषस्य विषमौषधम, भारत दुर्दशा, वैदिकी हिंसा,  हिंसा न भवति, नीला देवी, अंधेर नगरी, सती प्रताप, प्रेम जोगिनी।

अनुदित नाटक

कालचक्र, विद्या सुंदर, पाखंड विडंबन, मुद्राराक्षस, दुर्लभ बंधु, कर्पूर मंजरी, भारत जननी, धनंजय विजय।

काव्य रचना

इनके काव्य कृतियों की संख्या 70 है। काव्य रचना में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने तीन तरह के भाषाओं में काव्य की रचना की:-

  • ब्रजभाषा काव्य:- भक्त सर्वस्व, प्रेम तरंग, उत्तरार्द्ध भक्तमाल, राज संग्रह, तन्मय लीला, नहए जमाने की मुकरी, प्रेम मालिका, प्रेम प्रलाप, होली, विनय प्रेमपचासा, समनांजलि, प्रेम माधुरी, प्रेम फुलवारी, मधु मुकुल, दान लीला, वर्षा विनोद।
  • खड़ी बोली काव्य:- दशरथ विलाप, फूलों का गुच्छा।
  • हास्य व्यंग्य रचना:- बंदर सभा, बकरी विलाप।

निबंध संग्रह

भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?, नाटक, कालचक्र, लेवी प्राण लेवी, स्वर्ग में विचार सभा, कश्मीर कुसुम।

कहानी

अद्भुत अपूर्व स्वप्न।

यात्रा वृतांत

सरयू पार की यात्रा, लखनऊ की यात्रा।

आत्मकथा

एक कहानी – कुछ आपबीती, कुछ जगबीती।

उपन्यास

चंद्रप्रभा, पूर्ण प्रकाश।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु के काव्य रचना के वर्ण्य विषय से प्रभावित होकर उनके विषय में कहा था कि- “भारतेंदु अपने सर्वोच्च सर्वोत्तन्मुखी प्रतिभा के बल से एक और तो पदमाकर, द्विजदेव की परंपरा में दिखाई पड़ते थे तो दूसरी ओर बंग देश के माइकल और हेमचंद्र की श्रेणी में…….। प्राचीन और नवीन का सुंदर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है।”

अर्थात एक और हिंदी साहित्य की पुरानी परंपरा को नई दिशा देते हुए प्रतीत होते हैं और दूसरी और बांग्ला साहित्य जो यूरोपीय साहित्य से प्रभावित होकर एक नई परंपरा के रूप में चली आ रही थी उससे भी प्रभावित होते हुए हमें दिखाई पड़ते हैं।

अतः इनके काव्य में प्राचीनता और नवीनता दोनों का सामंजस्य दिखाई पड़ता है। इनकी रचना कहीं पर भी प्राचीन परंपरा का विरोध करते हुए दिखाई नहीं पड़ते हैं। इस प्रकार भारतेंदु ने आधुनिक काल से पूर्व तीनों कालों के काव्य धारा (श्रृंगार वर्णन, रीति निरूपण और भक्ति और नीतिपरक) इनको भी आगे बढ़ाया और कविता की धारा को नए-नए विषयों की ओर मोड़ा। जिससे उस समाज में देश प्रेम की भावना जागृत हो रही थी तो उन्होंने अपने रचना को राष्ट्रीयता की भावना, स्वतंत्रता की भावना जागृत करने की ओर, लोगों में चेतना जागृत करने की ओर, साहित्य को मोड़ा। सामाजिक कुरीतियों जैसे- रुढ़ियों, जातिव्यवस्था, बाल विवाह, शिक्षा को महत्व देना, इत्यादि जैसे विषयों को लेकर अपनी कविता की रचना इन्होंने की।

इनकी भक्ति परक कविता में पुराने परंपरा ही दिखाई पड़ते हैं। जैसे:-

 ब्रज के लता पता मोही कीजे।

 गोपी पद पंकज पावन की राज जायें सिरभिंजे।

 आवत जात कुंज की गलियन रूप सुधा नित पीजें

 श्री राधे मुख यह वर मुँह मांग्यो हरि दीजें।

 इसमें एक भक्त का भाव व्यक्त किया जाने वाला पंक्ति है जिसमें भक्ति की भाव स्पष्ट दिखाई देती है।

रीतिकालीन कविता में शृंगारिक रचनाएं कलात्मकता की ओर बढ़ गई थी या कहें स्थूल रूप में थी। भारतेंदु अपने रचना में श्रृंगार का सूक्ष्म वर्णन करते हैं और प्रेम और सौंदर्य को चित्रण करने में मर्यादा का ध्यान रखते हैं। जैसे:-

“लाज समाज निवारी सबै प्रन

 प्रेम को प्यारे पसारन दीजिए।

 जानन दीजिए लोगन को कुलटा कहि

 मोहि पुकारन दीजिए।”

काव्य रचना में इन्होंने प्रेम-सौंदर्य परक, श्रृंगार परक, भक्ति परक, रीति परक, कविताओं की रचना की। इस संबंध में डॉ बच्चन का कहना है कि- “भक्ति परक रचनाओं में सरसता और रीति काव्य पद्धति पर लिखी गई रचनाओं में रमणीयता, खुलापन और रोमानी स्पर्श उनकी विशेषताएं हैं।”

जब इन्होंने गद्य की ओर कदम रखा तो यहां इन्होंने राष्ट्र प्रेम को प्राथमिकता दी। यहां वे समाज सुधारक के रूप में समाज में चेतना जागृत करने के रूप में एक अग्रदूत के रूप में हमें दिखाई देते हैं। तत्कालीन परिस्थिति 1857 के क्रांति के बाद यह आंदोलन जनान्दोलन का रुप ले लिया था। अंग्रेजों द्वारा आंदोलन को दमन करने के बाद जनता में सरकार के विरुद्ध आक्रोश की भावना जागृत हो गयी एवं देश प्रेम की भावना जागी जिसे इन्होंने अपने साहित्य के माध्यम से आगे बढ़ाने का कार्य किया।

1857 के विद्रोह के बाद जब 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी से शासन को हटकर सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथ चली गई, तो महारानी विक्टोरिया ने एक घोषणा पत्र निकाला जिसमें भारत में कई तरह के सुधार एवं सुविधा देने की बात कही गई जिससे जनता में एक उम्मीद जागी कि आब उन्हें ईस्ट इंडिया कंपनी के दामन से छुटकारा मिल जाएगा। ऐसी स्थिति में भारतेंदु एवं उनके अन्य सहकर्मी लेखक ये सभी महारानी विक्टोरिया की राजप्रशस्ति करते हुए दिखाई देते हैं। विक्टोरिया के आने पर प्रशस्ति गीत (प्रशंसा के गीत) गाते हैं।

इस समय लॉर्ड लिटन के द्वारा  वर्नाकुलर प्रेस एक्ट के बनने पर क्षेत्रीय भाषाओं में लिखने (पत्र-पत्रिका) की स्वतंत्रता का अधिकार छीन लिया गया। इसके बाद लॉर्ड रिपन द्वारा इस एक्ट को वापस ले लिया गया तो उससे भी प्रसन्न हो कर ये राजप्रशस्ति भी करते थे।

अतः भारतेंदु युग के जितने भी कवि हुए ये सभी इस युग के प्रारंभ में राज्यप्रशस्ति करते हुए दिखाई देते हैं। जैसे- महारानी विक्टोरिया के जन्मदिन पर प्रशस्ति गान, रिपनाष्टक की रचना में भारतेंदु ने रिपन की प्रशंसा की है। लेकिन जब दादा भाई नौरोजी के पुस्तक “ड्रेन ऑफ वेल्थ” जिसमें दादाभाई नौरोजी कहते हैं कि- “अनेक नालियों से बहते हुए भारत का धन विदेशों में जा रहा है और अंग्रेजों द्वारा कूटनीति अपनाकर यहां का धन विदेशों में ले जाया जा रहा है और विदेश का तैयार माल भारत आकर निर्धनता में बढ़ोतरी कर रही है जिससे आर्थिक विषमता देखने को मिल रही है।”

इसके बाद भारतेंदु और भारतेंदु मंडल के कवियों में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ आक्रोश का भाव जागृत हुआ।

भारतेंदु युग के कवियों के रचना की जब आलोचना हुई तो आलोचनाकर्ताओं का मानना था कि यह तो राजप्रशस्ति रचनाएं हैं। इस रचना (काव्य) में राजद्रोह की भावना दिखाई देता है क्योंकि इन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य के प्रशंसा में लिखा है।

लेकिन ऐसा कहना सही नहीं जान पड़ता क्योंकि हो सकता है कि प्रारंभ में ब्रिटिशों की कूटनीतिक चाल को न समझ पाएँ हो और उनकी तारीफ में राजप्रशस्ति लिखी हो लेकिन बाद में जब उनकी नीति को जानकर कि इनकी नीति उदार नहीं है वे खुलकर ब्रिटिश हुकूमत का विरोध भी करते हैं। इस संबंध में भारतेंदु की पंक्ति उल्लेखनीय है :-

 अंग्रेजी राज सुख साज सजे सब भारी

 पै धन विदेश चलीजात इहै अति ख्वारी।

अर्थात अंग्रेजों के राज के कारण भारत का बहुत हित हुआ लेकिन इस राज की सबसे खराब बात यह है कि देश का धन विदेश चला जाता है। अतः भारतेंदु की पहली पंक्ति तो ब्रिटिश हुकूमत की तारीफ करती नजर आती है लेकिन असली मकसद तो उनका यह बताना है कि अंग्रेज भारत को लूट रहे हैं और बर्बाद कर रहे हैं।

पढ़ें:- आधुनिक काल के साहित्य का उद्भव और विकास।

बद्रीनाथ चौधरी ‘प्रेमधन’ (1855 – 1923 ईस्वी)

इनका जन्म 1855 ईस्वी में उत्तर प्रदेश के जिला मिर्जापुर के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। बद्रीनाथ चौधरी ‘प्रेमधन’ का भारतेंदु मंडल में प्रमुख स्थान था। इन्होंने हिंदी और संस्कृत के प्रचार-प्रसार में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया। इन्होंने गद्य और पद्य दोनों में ही साहित्य की रचना की। इन्होंने भी भारतेंदु की भांति कविता में श्रृंगारिकता एवं तत्कालीन समाज की जातीयता, सामाजिक दशा और देश प्रेम की भावना को उजागर किया है। इन्होंने राजभक्ति संबंधी कविताओं की भी रचना की है।

इनकी रचना तीन प्रकार के हैं:- (1) प्रबंध काव्य (2) संगीत काव्य (3) स्फुट निबंध। गद्य में इन्होंने निबंध, नाटक, आलोचना, प्रहसन आदि की रचना की।

इनकी प्रमुख रचनाएं हैं:-

जीर्णजनपद, आनंद, अरुणोदय, हार्दिक हर्षादर्श, मयंक महिमा, प्रयाग रामागमन, संगीत सुधासरोवर, अलौकिक लीला, वर्ष बिंदु, लालित्य लहरी, वृजचंद्र पंचक, भारत सौभाग्य, भारत भाग्योदय काव्य, आनंद कदंबिनी (पत्रिका)।

प्रताप नारायण मिश्र (1856 – 1894 ईस्वी)

इनका जन्म उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बैजेगांव में हुआ था। ये भी भारतेंदु मंडल के प्रमुख कवियों में से एक थे। ये खुद को भारतेंदु के शिष्य मानते थे। इनकी रचना शैली, विषय वस्तु और भाषागत विशेषताएं हू-बहू भारतेंदु के जैसे होने के कारण इन्हें ‘प्रति-भारतेंदु’ और ‘द्वितीय हरिश्चंद्र’ कहा जा सकता है।

इनका प्रसिद्ध नारा “हिंदी हिंदु हिंदुस्तान” था। तत्कालीन समाज की दशा को देखते हुए समाज सुधार पर अनेकों लेख लिखे।

प्रताप नारायण मिश्र की प्रमुख रचनाएं:-

नाटक- हठी हम्मीर, गो संकट, जुआरी-खुआरी, कलि प्रभाव, कलि कौतुक, संगीत शाकुंतल (कालिदास के ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का अनुवाद)।

निबंध संग्रह- प्रताप पीयूष, प्रताप समीक्षा, निबंध नवनीत।

अनूदित गद्य कृतियां- राजसिंह, शिशु विज्ञान, राधा रानी, अमर सिंह, युगलांगुरीय, शेनवंश का इतिहास, सुबे बंगाल का भूगोल, नीतिरत्नमाला।

कविता- प्रेम पुष्पावली, मन की लहर, लोकोक्ति शतक, तृष्यन्ताम, श्रृंगार विलास, दंगल खंड, ब्रेडला स्वागत।

इनके रचनाओं में देशप्रेम, समाज सुधार एवं हास्य कविता आदि विषय प्रमुख थे। इन्होंने ‘ब्राह्मण’ नामक पत्रिका का संपादन किया। इन्होंने खड़ी बोली को ही अपने साहित्य में स्थान दिया। कहावतें और मुहावरों का बहुत अधिक प्रयोग किया। इन्होंने अपने साहित्यिक रचनाओं से समाज के दशाओं को उजागर करने का कार्य किया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने पंडित प्रताप नारायण मिश्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट के बारे में लिखा है- “पंडित प्रताप नारायण मिश्र और पंडित बालकृष्ण भट्ट ने हिंदी गद्य साहित्य में वही काम किया जो अंग्रेजी गद्य साहित्य में एडिसन और स्टील ने किया।”

यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि पंडित बालकृष्ण भट्ट भी भारतेंदु मंडल के कवि थे।

पढ़ें :- रीतिकाल की संपूर्ण जानकारी।

जगमोहन सिंह (1857 – 1899 ईस्वी)

इनका जन्म मध्य प्रदेश के विजयराघवगढ़ रियासत में ठाकुर सरयू सिंह के राज परिवार में हुआ था। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में इन्होंने हिस्सा लिया। फलस्वरूप उन्हें अंग्रेजों द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया एवं काले पानी की सजा हुई। लेकिन इनहोंने काले पानी की सजा न भोगकर मौत को गले लगाना बेहतर समझा।

अपनी शिक्षा के दौरान उसकी मित्रता भारतेंदु से हुई थी। पढ़ाई समाप्ति के बाद वे छत्तीसगढ़ के धमतरी में 1880 ईस्वी में तहसीलदार नियुक्त हुए। कहा जाता है नौकरी के दौरान ही विवाहित होते हुए भी उसे एक स्त्री (श्यामा नाम की) से प्रेम हुआ और इन्होंने श्यामा को केंद्र बिंदु मानकर अपने अनेक रचनाओं को लिखा। इसलिए इनकी रचना का नाम श्यामा शब्द से जुड़ा हुआ दिखाई पड़ता है।

इनकी मुख्य रचनाएं:-

प्रेमसंपत्ति लता, श्यामलता, श्यामा सरोजिनी, देवयानी, ॠतु संहार, मेघदूत, श्याम-स्वप्न (उपन्यास)- इसमें गद्य तथा पद्य दोनों है लेकिन गद्य की संख्या बहुत अधिक है।, इन्होंने दो कुंडलियाँ भी लिखे थे।

अंबिका दास ब्यास

अंबिका दत्त ब्यास का जन्म जयपुर में सन 1858 ईस्वी में हुआ था। ये भारतेंदु मंडल के प्रमुख कवियों में से एक थे। इन्हें उनकी असाधारण विद्वत्ता के कारण समकालीन साहित्यकारों ने ‘भारत भास्कर’ ‘साहित्याचार्य’ ‘ब्यास’ आदि उपाधियों से नवाजा। इन्हें 19वीं शदी कीबाणभट्टमाना जाता है। इन्हें 12 वर्ष की अवस्था में ‘काशी कविता वर्धिनी सभा’ की ओर से ‘सुकवि’ उपाधि से सम्मानित किया गया। 42 वर्ष की अवधि में इन्हें ‘महाकवि’ की उपाधि मिली तत्पश्चात इनका निधन हो गया।

इन्होंने अपनी रचना शैली में कवित्त तथा सवैया जैसे प्रचलित शैली का प्रयोग किया। इन्होंने अपनी रचना हिंदी और संस्कृत दोनों भाषाओं में की। इनके द्वारा लगभग 75 ग्रंथ लिखा गया है।

इनकी प्रमुख रचनाएं निम्नलिखित हैं:-

शिवराजविजय (उपन्यास), सामवत (नाटक), गणेशशतकम, शिव विवाह (खंडकाव्य), सहस्त्रनाम रामायणम, पुष्प वर्षा (काव्य), उपदेशलता (काव्य), साहित्यगलिनी, रत्नाष्टकम (कथा), कथा कुसुमम (कथा संग्रह), ललिता नाटिका, प्रस्तार दीपिका, सांख्य सागर सुधा, पावस पचासा, सुकवि सतसई, हो हो होरी, गो संकट, गद्य काव्य मीमांसा।

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राधाकृष्ण दास (1865 – 1907 ईस्वी)

राधाकृष्ण दास भारतेंदु के फुफेरे भाई थे। ये प्रसिद्ध सरस्वती पत्रिका के संपादक मंडल में रहे थे तथा नागरी प्रचारिणी सभा के प्रथम अध्यक्ष भी थे। शरीर से अशक्त होने के बाद भी इन्होंने हिंदी, बांग्ला, गुजराती, उर्दू आदि का ज्ञान हासिल कर असाधारण योग्यता हासिल की। 15 वर्ष के अवस्था से ही लेखन कार्य शुरू किया तथा ‘दुःखिनी बाला’ नाम का एक छोटा रूपक लिखा। तत्कालीन भारतीय समाज के दशा को उजागर कर तथा उसमें सुधार के लिए कई लेख लिखे।

इनकी प्रमुख रचनाएं:-

कंस वध (अपूर्ण)

हिमन विलास

भारत बारहमासा

दुःखिनी बाला

देश दशा

पद्मावती (नाटक)

निस्सहाय हिंदू (उपन्यास)

महाराणा प्रताप (नाटक)

नागरी दास का जीवन चरित

सती प्रताप (भारतेंदु द्वारा अपूर्ण रचना को पूर्ण किया)

राजस्थान केसरी

स्वर्णजता (बांग्ला पुस्तक का हिंदी में अनुवाद)

महाराणा प्रताप सिंह (नाटक)

आर्य चरितामृत (बाप्पा रावल की जीवनी)

भारतेंदु की जीवनी

 

भारतेंदु युग के कई अन्य कवियों का भी योगदान आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में रहा जिनमें है:-

कवि

रचनाएं

नवनीत चतुर्वेदी (1868 – 1919 ईस्वी)

कुब्जा पचीसी (रीति पद्धति रचना)।

गोविंद गिल्लाभाई

श्रृंगार सरोजिनी, पावस पयोनिधि, राधामुख षोडसी षडॠतु (भक्ति और प्रेम वर्णन रचना) नीति विनोद।

दिवाकर भट्ट

नखशिख, नवोढ़ारत्न (रीति पद्धति रचना)।

रामकृष्ण वर्मा ‘बलवीर’

बलवीर पचासा।

राजेश्वरी प्रसाद सिंह ‘प्यारे’

प्यारे प्रमोद (श्रृंगार परक रचना)।

गुलाब सिंह

प्रेम सतसई।

राव कृष्ण देवशरण सिंह ‘गोप’

प्रेम संदेश (श्रृंगार परक रचना)।

राधाचरण गोस्वामी

नव भक्तमाल।

दुर्ग दत्त व्यास

अधमोद्धारक शतक।

अवश्य पढ़ें:- हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण

भारतेंदु युग के गद्य साहित्य

भारतेंदु युग में चूंकि पूरे देश में सांस्कृतिक जागरण की लहर दौड़ चुकी थी। इससे पूर्व के राज दरबारी एवं सामंतीय ढांचा टूटकर चूर हो गया था। अंग्रेज अपने उद्देश्य की पूर्ति कर रहे थे। उनकी शिक्षा नीति जैसे भी रही हो लेकिन इसका पूरे देश में व्यापक असर पड़ रहा था। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनीतिक सभी क्षेत्रों में सुधार की आवश्यकता तो थी ही इसी प्रगतिशील चेतना के समर्थक और प्रतिनिधि भारतेंदु हरिश्चंद्र थे।

अतः इन्होंने नाटकों, उपन्यासों, निबंधों आदि द्वारा जनता को जागरण का संदेश दिया। साथ ही उनके सहयोगियों ने भी इनका भरपूर साथ दिया। अतः हम इस काल में साहित्य को संस्कृतिक जागरण का साहित्य का सकते हैं। इस युग में गद्य की लगभग सभी विधाओं जैसे- नाटक, कहानी, उपन्यास, आलोचना आदि की रचना हुई है।

नाटक

नाटक हिंदी गद्य की प्रमुख विद्या है। नाटक का उद्भव एवं विकास 19वीं शदी में हुआ। हिंदी नाटक का प्रारंभ 12वीं-13वीं शदी की नाटक ‘गया सुकुमार रास’ से माना जाता है लेकिन नाट्य तत्वों के आधार पर हिंदी नाटक का विकास आधुनिक हिंदी युग के ‘भारतेंदु युग’ से ही मानी जाती है।

भारतेंदु से पूर्व कुछ महत्वपूर्ण नाटक लिखे गए:-

नाटककार

नाटक

प्राणचंद चौहान

रामयण महानाटक (1610 ईस्वी)

लछिरामा

करुणाभरण (1657 ईस्वी)

नेवाज

शकुंतला (1680 ईस्वी)

विश्वनाथ सिंह

आनंद रघुनंदन (1700 ईस्वी)

रघुराय नागर

सभासार (1700 ईस्वी)

उदय

रामकरुणाकर एवं हनुमान नाटक (1840 ईस्वी)

ये सभी नाटक, नाट्य तत्वों पर खरे नहीं उतरते क्योंकि इनमें पद्यात्मक वर्णन मात्र है। आनंद रघुनंदन में भी कुछ दोहे हैं उसे भी नाटक की श्रेणी में नहीं रख सकते। इसके बाद भारतेंदु के पिता गोपालचंद गिरधरदास का ‘नहुष’ नाटक है। जो ब्रज भाषा में लिखा गया है इसे नाट्य के दृष्टि से हिंदी के प्रथम नाटक की श्रेणी में रख सकते हैं।

इसके बाद भारतेंदु हरिश्चंद्र के आविर्भाव होने से भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा श्रेष्ठ नाटक लिखे गए। जैसे:-

विद्यासुंदर (1868 ईस्वी) – संस्कृत चौरपंचाशिका के बंगला संस्करण का हिंदी अनुवाद है

रत्नावली (संस्कृत से हिंदी अनुवाद)

पाखण्ड विडम्बना (1872 ईस्वी में कृष्ण मिश्र के ‘प्रबोध चंद्रोदय’ का हिंदी में अनुवाद)

धनंजय विजय (1873 ईस्वी) (संस्कृत नाटक का अनुवाद)

कर्पूरमंजरी (1875 ईस्वी) (संस्कृत नाटक का अनुवाद)

भारत जननी (1877 ईस्वी)

मुद्राराक्षस (1878 ईस्वी) (विशाखदत्त के संस्कृत नाटक का अनुवाद)

दुर्लभ बंधु (1873 ईस्वी)

मौलिक नाटक

सत्य हरिश्चंद्र (1875 ईस्वी)

श्री चंद्रावली

विषस्य विषमौषधम

भारत दुर्दशा (1880 ईस्वी)

नीला देवी (1881 ईस्वी)

अंधेर नगरी (1881 ईस्वी)

सती प्रताप (1883 ईस्वी)

प्रेमजोगिनी (1875 ईस्वी)

भारतेंदु जी ने एक ओर तो अन्य भाषाओं के नाटकों का हिंदी में अनुवाद किया तो दूसरी ओर मौलिक नाटक भी लिखे। भारतेंदु युगीन कवियों ने ही पद्य के स्थान पर गद्य और ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली को सफलतापूर्वक प्रतिष्ठा दिलायी।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अलावा भी कई और कवि हुए जिन्होंने भारतेंदु युग के नाटक में महत्वपूर्ण योगदान दिए जैसे:-

कवि

नाटक

श्रीनिवास दास

संयोगिता स्वयंवर, रणधीर प्रेम मोहिनी, तप्ता सवरण

राधाचरण गोस्वामी

अमर सिंह राठौर

राधाकृष्ण दास

महाराणा प्रताप

किशोरी लाल गोस्वामी

प्रणयिनी परिणय, मयंक मंजरी

समसामयिक समस्याओं पर लिखे गए नाटक:-

बालकृष्ण भट्ट

नई रोशनी का विष्

खड़गबहादुरमल्ल

भारत आरत

अंबिकादास व्यास

भारत सौभाग्य, इत्यादि

पढ़ें:- भाषा परिवार और उसका वर्गीकरण

उपन्यास

भारतेंदु युग में उपन्यास भी लिखे गए। उपन्यास आधुनिक साहित्य में सर्वाधिक लोकप्रिय विद्या है। हिंदी उपन्यास के विकास का श्रेय हम अंग्रेजी व बांग्ला उपन्यासों को दे सकते हैं क्योंकि हिंदी उपन्यास की शुरुआत अंग्रेजी एवं बांग्ला उपन्यासों से ही हुआ। अर्थात हिंदी उपन्यास को प्रेरणा इन्हीं उपन्यासों से मिली और फिर हिंदी उपन्यासों की रचना शुरू हुई।

अंग्रेजी उपन्यासों के जैसे हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास लाला श्रीनिवास दास का ‘परीक्षा गुरु’ (1892) को माना जाता है। इसके पूर्व 1877 में रचे गए श्रद्धा राम फुल्लौरी का ‘भाग्यवती’ को माना जाता है। लेकिन इसमें उपन्यास के तत्वों का अभाव दिखाई पड़ता है। हिंदी आलोचकों ने परीक्षा गुरु को ही हिंदी उपन्यास का प्रथम उपन्यास स्वीकार किया है।

अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग उपन्यास को हिंदी का पहला उपन्यास माना है-

उपन्यास

लेखक

मानने वाले विद्वान

भाग्यवती (1877 ईस्वी)

श्रद्धा राम फुलौरी

यह सर्वमान्य नहीं है।

परीक्षा गुरु (1882 ईस्वी)

लाला श्रीनिवास दास

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

रानी केतकी की कहानी

इंशाअल्ला खाँ

शिवनारायण श्रीनिवास

पूर्ण प्रकाश चंद्रप्रभा

भारतेंदु

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

चंद्रकांता

देवकीनंदन खत्री

श्री कृष्ण लाल

देवरानी जेठानी की कहानी

गौरी दत्त

गोपाल राय

इनमें से हिंदी का पहला उपन्यास के रूप में श्रीनिवास दास कृत ‘परीक्षा गुरु’ को मान्यता मिली है।

भारतेंदु काल में सामाजिक, ऐतिहासिक, तिलस्मी ऐयारी, जासूसी तथा रोमानी उपन्यासों की रचना अधिकारी हुई है।

सामाजिक उपन्यासों में:-

उपन्यास

लेखक

भाग्यवती

श्रद्धा राम फुलौरी

परीक्षा गुरु

लाला श्रीनिवास दास

नूतन ब्रह्मचारी, रहस्य कथा

बालकृष्ण भट्ट

सौ अजान एक सुजान

बालकृष्ण भट्ट

निःसहाय हिंदू

राधा कृष्ण दास

स्वतंत्र रमा, धूर्त रसिकलाल, परतंत्र लक्ष्मी

लज्जाराम शर्मा

त्रिवेणी, सौभाग्य श्रणी

किशोरी लाल गोस्वामी

तिलस्मी ऐयारी उपन्यास:-

उपन्यास

लेखक

चंद्रकांता, चंद्रकांता संतति, नरेंद्र मोहिनी

देवकीनंदन खत्री

⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।

कहानी

हिंदी कहानियों का प्रारंभ अधिकांश विद्वानों ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के प्रकाशन वर्ष 1900 ईस्वी से ही माना है। लेकिन कुछ आलोचकों ने इसे स्वीकार नहीं किया है और इससे पूर्व ‘रानी केतकी की कहानी’ (1803 – 1808 ईस्वी) से स्वीकार करते हैं लेकिन इसमें आधुनिक कहानी की कला के लक्षण का अभाव देखने को मिलता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल भी आधुनिक कहानी के श्रेणी में ‘सरस्वती’ पत्रिका को मानते हैं और यहीं से कहानी की शुरुआत मानते हैं

लेकिन इस युग में आधुनिक कलात्मक कहानी का आरंभ नहीं हुआ था। इस युग के कुछ कहानी के संग्रह प्रकाशित हुए थे जैसे:-

कहानीयां

लेखक

मनोहर कहानी (1980) (100 कहानियों का संग्रह)

मुंशी नवल किशोर

कथा कुसुम कलिक (1888)

अंबिका दत्त ब्यास

वामा मनोरंजन (1886)

राजा शिव प्रसाद सितार-ए-हिंद

हास्य रतन (1886)

चंडी प्रसाद सिंह

लेकिन ये सभी कहानियां लोक प्रचलित कथा तथा इतिहास पुराण से संबंधित नीति शिक्षा की तरह एवं हास्य कथाएं होती थी। इसे आधुनिक कहानी की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल आधुनिक कहानी के श्रेणी मेंती ‘सरस्वती’ पत्रिका को मानते हैं और यही से कहानी की शुरुआत मानते हैं।

कई कहानियां जो ‘सरस्वती’ पत्रिका के आरंभिक अंकों में प्रकाशित हुई थी। जैसे:-

कहानीयां

लेखक

इंदुमती (1900)

किशोरी लाल गोस्वामी (सर्वमान्य हिंदी की प्रथम रचना)

गुल बहार (1908)

 

प्लेग की चुड़ैल (1909)

मास्टर भगवान दास

टोकरी भर मिट्टी (1900)

माधव राव सप्रे (यह प्रथम मौलिक कहानी है)

ग्यारह वर्ष का समय (1903)

आचार्य रामचंद्र शुक्ल

पंडित पंडितानी (1903)

गिरिजा दत्त बाजपेई

दुलाई वाली (1907), बंग महिला

राजेंद्र बाला घोष

राखी भाई (1907)

वृंदावन लाल वर्मा

अतः 1900 ईस्वी में ‘सरस्वती’ फिर ‘इन्दू’ पत्रिकाओं के प्रशासन से हिंदी कहानी रचना को बहुत ज्यादा प्रोत्साहन मिला।

निबंध

निबंध का अर्थ ‘स्वतंत्र लेखन’ होता है। अर्थात लेखक किसी भी विषय या वस्तु से संबंधित खुद के विचारों का प्रतिपादन स्वच्छंद होकर साहित्यिक शैली में लिखता हो। निबंध की शुरुआत भारतेंदु युग के भारतेंदु के द्वारा ही मनाना चाहिए क्योंकि स्वयं तो निबंध नुमा रचनाएं करते थे लेकिन अपनी भारतेंदु मंडल के कवियों को भी निबंध लिखने के लिए प्रेरित किया करते थे।

इस समय के निबंध का संबंध पत्र-पत्रिकाओं से ही जुड़ा होता था। भारतेंदु द्वारा तत्कालीन सामाजिक दशा, राजनीतिक, धर्म, आर्थिक परिस्थिति, महापुरुषों की जीवनियों पर निबंध लिखे गए। इस युग में पत्र-पत्रिकाओं द्वारा निबंध को समृद्धि मिली।

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अलावा तत्कालीन लेखकों के द्वारा भी निबंध लिखा गया जैसे:- पंडित बालकृष्ण भट्ट, पंडित प्रताप नारायण मिश्र, पंडित बद्री नारायण चौधरी ‘प्रेमधन’, राधा चरण गोस्वामी, बालमुकुंद गुप्त आदि।

इन सभी लेखकों का किसी न किसी पत्रिका से संबंध था जैसे:-

लेखक

संबंध

भारतेंदु

हरिश्चंद्र मैगजीन

प्रताप नारायण मिश्र

ब्राह्मण

बालकृष्ण भट्ट

हिंदी प्रदीप

बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’

आनंद कादंबिनी

श्रीनिवास दास

सदादर्श

राधाचरण गोस्वामी

भारतेंदु

इस समय के सबसे उत्तम निबंधकार बालकृष्ण भट्ट थे। इन्होंने तत्कालीन समस्याओं को अपने निबंध के जरिए खूब उजागर किया। जैसे- बाल विवाह, स्त्रियों की शिक्षा का महत्व, कृषकों की दुर्दशा, देश प्रेम, देश सेवा आदि।

भारतेंदु युग में कई शैलियों में निबंध लिखे गए। जैसे- भावात्मक, वर्णनात्मक, कथात्मक, विचारात्मक, इतिवृत्तात्मक, अनुसंधानात्मक एवं भाषण आदि शैलियों में। भारतेंदु युग के बाद द्विवेदी युग में निबंध का दूसरा दौर में हमें देखने को मिलता है।

आलोचना

आलोचना का अर्थ किसी विषय की सम्यक (भली-भांति या अच्छी तरह) जांच कर उसके गुण-अवगुण को सामने लाना ही आलोचना कहलाता है। इसे हिंदी साहित्य में समालोचना भी कहा गया है। इस समालोचना का जन्म भी भारतेंदु युग में ही हुआ। भारतेंदु ने अपने निबंध ‘नाटक’ में इसकी समीक्षा कर आलोचना का शुरूआत किया।

इसी क्रम में बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ ने श्रीनिवास दास कृत ‘संयोगिता स्वयंवर’ और गदाधर सिंह कृत ‘बंग विजेता’ की अनुवादों का आलोचना ‘आनंद कादंबिनी’ में किया था। बालकृष्ण भट्ट एवं बालमुकुंद ने भी इस कार्य को आगे बढ़ाया।

पढ़ें:- देवनागरी लिपि किसे कहते हैं? देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई?

निष्कर्ष

उपरोक्त वर्णन से पता चलता है कि भारतेंदु युग वास्तव में एक क्रांतिकारी युग है क्योंकि इस समय हिंदी साहित्य के लेखन परंपरा में क्रांतिकारी परिवर्तन देखने को मिलता है। इस काल में पुराने परंपरा के साथ-साथ नवीनता का सामंजस्य भी हमें देखने को मिलता है तथा इस काल के कवि ब्रिटिश शासन के अंतर्गत भारत की दुर्दशा को अपने साहित्य में उजागर करते हैं।

इस युग के सभी कवि अपने रचना में सामाजिक कुरीतियों, आर्थिक दुर्दशा,नारी शिक्षा के महत्व, रूढ़िवादिता, बाल विवाह, विधवा पुनर्विवाह आदि विषयों को आधिकारिक उजागर करने का कोशिश करते हैं। ब्रिटिशों ने जिस प्रकार से भारतीय धन को ब्रिटेन ले जा रहे थे एवं ब्रिटेन का माल भारत में बेच रहे थे। इससे देश में आर्थिक विषमता बढ़ रही थी।

इन सभी विषयों को इन्होंने अपने रचना के हर एक विद्या जैसे:- निबंध, उपन्यास, नाटक, संस्मरण, पत्रिका इत्यादि में लिखने का काम किया, ताकि देश की जनता जागरुक हो सके। इसलिए इस काल को नवजागरण काल या पुनर्जागरण काल भी कहा जाता है।

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