वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत | Continental drift theory upsc
जो पाठक UPSC की तैयारी कर रहे हैं उनके लिए वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) काफी उपयोगी होगा साथ ही उनके लिए भी उपयोगी होगा जो अपना ज्ञान को बढ़ाना चाहते हैं। तो आइए हम वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory)को विस्तार पूर्वक जानेंगे।
इंग्लैंड के विद्वान फ्रांसिस बेकन ने सर्वप्रथम 1960 ईस्वी में महाद्वीपीय विस्थापन का जिक्र करते हुए अफ्रीका तथा दक्षिण अमेरिका के अटलांटिक तटों की साम्यता की ओर ध्यान आकर्षित किया। इसके साथ ही कई भूगोल वेताओं ने इसका समर्थन किया।
पहली बार 1858 ईस्वी में फ्रांसीसी विद्वान एंटोनियो स्नाइडर ने मानचित्र की सहायता से महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) को सामने रखा। इन्होंने इस सिद्धांत को मजबूती देने के लिए कई आधार प्रस्तुत किए।
अमेरिकी भूवैज्ञानिक एब बी टेलर ने 1908 ईस्वी में अपना सिद्धांत प्रस्तुत किया एवं इन्होंने कहा कि स्थल भागों का क्षैतिज दिशा में विस्थापन हुआ क्योंकि रॉकी तथा एंडीज पर्वत का विस्तार उत्तर-दक्षिण दिशा में है जबकि अल्पस एवं हिमालय का विस्तार पूर्व-पश्चिम दिशा में है।
इसी स्थिति को देखते हुए इन्होंने कहा कि महाद्वीपों का प्रवाह विषवत रेखा की ओर हुआ एवं जहां कमजोर (मुलायम) अवसाद का जमाव था वहां पर्वतों का निर्माण हो गया। टेलर ने महाद्वीपीय प्रवाह का मुख्य कारण जो ज्वारीय शक्ति को ही माना है।
वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory)
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) बीसवीं सदी में कई वैज्ञानिकों ने प्रस्तुत किया था। लेकिन फिर भी इस सिद्धांत के प्रतिपादन का श्रेय वेगनर को ही जाता है। इन्होंने 1912 ईस्वी में महाद्वीपों की उत्पत्ति तथा उनके वितरण से जुड़ी एक सिद्धांत प्रतिपादित किया था जिसे महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) कहा जाता है।
1922 में इन्होंने अपनी पुस्तक “Die Entstehung Der Kontineteent Ozeane” (जर्मनी में) में महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) को विस्तृत रूप से वर्णन कर प्रकाशित कराया। 1924 में इसका इंग्लिश रूप में आने के बाद यह काफी रोचक और विवाद का विषय बन गया।
उद्देश्य
इस सिद्धांत को प्रतिपादित करने पीछे वेगनर साहब का उद्देश्य यह था कि उन्होंने विश्व के जलवायु के संबंध में काफी विसंगतियाँ पाई जैसे:-
उदाहरण स्वरूप:-
- गर्म क्षेत्र में ठंडे जलवायु का प्रमाण एवं ठंडे क्षेत्र में गर्म जलवायु का प्रमाण।
- शीतोष्ण कटिबंधों (अंटार्कटिक महाद्वीप) में विशाल कोयले का भंडार का मिलना गर्म व आर्द्र जलवायु में ही संभव है जबकि आज या विश्वा का सबसे बड़ा हिमाच्छादित क्षेत्र हैं।
- प्रायद्वीपीय भारत के राजस्थान में हिमावरण के कुछ चिन्हों का मिलना भी एक जलवायु विसंगति है क्योंकि आज यह उष्ण प्रदेश है।
- ठंडी जलवायु के वनस्पतियों का अवशेषों का ब्राजील, अफ्रीका, भारत व ऑस्ट्रेलिया जैसे गर्म प्रदेशों में पाया जाना।
- ग्रीनलैंड में पेड़ों की जड़ों का उपस्थित होना।
हिंदी विसंगतियों का कारण ढूंढना ही वेगनर साहब का मुख्य उद्देश्य था। सामान्यतः इन विभेदों को हम दो रूप से समझ सकते हैं:-
- जलवायु पट्टी में स्थानांतरण:- स्थल भाग का स्थिर रहना और जलवायु कटिबंधों में परिवर्तन होना जिस कारण एक ही स्थान पर कभी शीत, कभी उष्ण, कभी शुष्क तथा कभी आर्द्र जलवायु का विस्तार होता रहा।
- महाद्वीपीय खंडों या स्थल खंडों में स्थानांतरण:- जलवायु कटिबंध स्थिर रहे होंगे और महाद्वीप एक स्थान से दूसरे स्थान तक विस्थापित होते रहे।
चूंकि जलवायु पट्टी का निर्धारण सूर्य से नियंत्रित होता है अतः इसका स्थानांतरण संभव नहीं है और यही कारण है कि वेगनर ने स्थल खंडों के स्थानांतरण को आधार बनाते हुए महाद्वीपीय प्रवाह से सिद्धांत को प्रस्तुत किया।
महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत की रूपरेखा
वेगनर साहब ने जलवायु संबंधी परिवर्तनों को स्पष्ट करने के लिए सभी महाद्वीपों का बहुत ही गहराई से अध्ययन किया एवं उसने पाया कि सभी महाद्वीपों के बीच आश्चर्यजनक समानता देखने को मिली। बताया कि:-
- दक्षिण अमेरिका में ब्राजील का उभार को अफ्रीका की गिनी की खाड़ी में भली-भांति सटाया जा सकता है।
- उत्तरी अमेरिका के पूर्वी तट को पश्चिमी यूरोप के तट के साथ जोड़ा जा सकता है।
- पूर्वी अफ्रीका में इथोपिया तथा इरीट्रिया का उभार को पश्चिमी भारत तथा पाकिस्तान की तट रेखा से सटाया जा सकता है।
- ऑस्ट्रेलिया बंगाल की खाड़ी में आसानी से जुड़ सकता है।
इसे वेगनर साहब ने “साम्य स्थापना” का नाम दिया।
वेगनेर साहब का मानना था कि:-
- कार्बानिफेरस युग में संपूर्ण महाद्वीप एक साथ जुड़े हुए थे इस बड़े भूभाग को इन्होंने ‘पैंजीया’ नाम दिया तथा इसके चारों ओर समुद्री जल का विस्तार जिससे ‘पैन्थालासा’ Panthalasa का नाम दिया।
- इन्होंने बताया कि 250 मिलियन वर्ष पूर्व ‘पैंजीया’ का दो भाग में टूटने से एक भाग- ‘लौरेशिया’ जिसमें उत्तरी अमेरिका, यूरेशिया (वर्तमान यूरोप और एशिया का संयुक्त भाग)। दूसरा भाग- ‘गोंडवाना लैण्ड’ जिसमें दक्षिणी अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, भारत व अंटार्टिका का निर्माण हुआ।
- ‘लौरेशिया’ तथा ‘गोंडवाना लैण्ड’ के बीच एक उथला एवं संकीर्ण महासागर था जो ‘टेथिस सागर’ कहलाता था।
- 135 मिलीयन वर्ष पूर्व ‘लौरेशिया’ तथा ‘गोंडवाना लैण्ड’ का पुनः कई भागों में विखंडित होना।
- 60 मिलीयन वर्ष पूर्व हिमालय का निर्माण शुरू एवं टेथिस सागर का धीरे-धीरे भूमध्य सागर में बदलना।
- 1 मिलियन वर्ष पूर्व सभी भूखंडों का अपने वर्तमान स्वरूप में आना।
महाद्वीपीय प्रवाह के लिए वेगनर ने दो शक्तियों को उत्तरदाई माना है
- सूर्य व चंद्रमा की ज्वारीय शक्ति
- गुरुत्वाकर्षण बल तथा प्लावनशीलता का बल
सूर्य व चंद्रमा की ज्वारीय शक्ति
वेगनर साहब ने महाद्वीपों के विस्थापन का एक कारण सूर्य व चंद्रमा की ज्वारीय शक्ति को माना है। सूर्य व चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण पृथ्वी पर ज्वारीय बल उत्पन्न हो जाता है।
जब चंद्रमा की घूर्णन गति तीव्र होगी उस समय यह बल अधिक शक्तिशाली होगा। साथ ही पृथ्वी पश्चिम से पूर्व की दिशा में घूमती है एवं ज्वारीय शक्ति पृथ्वी के घूर्णन को रोकने का काम करती है।
परिणामतः महाद्वीपीय भाग घूर्णन में पृथ्वी का साथ नहीं दे पाते और पीछे रह जाते हैं। अतः स्थल भाग पश्चिम की ओर विस्थापित होने लगे।
गुरुत्वाकर्षण बल तथा प्लावनशीलता का बल
वेगनर साहब का मानना था कि महाद्वीप कम घनत्व वाले सियाल से बने हुए हैं। तथा वे अधिक घनत्व वाले सीमा पर स्वतंत्र रूप से तैर रहे हैं। इनके ऊपर इन बलों का प्रभाव होने से महाद्वीप भूमध्य रेखा की और विस्थापित होते हैं।
वास्तविकता यह है कि यह दोनों बल विपरीत दिशा में कार्य करते हैं और पृथ्वी का आकार अंडाकार रूप से होने के कारण यह बल प्रत्यक्ष रूप में विपरीत दिशा नहीं होते। अगर प्लावनशीलता बिंदु गुरुत्व केंद्र के नीचे होता तो गति भूमध्य रेखा की ओर होती है।
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कई स्वरूपों का उभरना
वेगनर के अनुसार जब महाद्वीपीय विस्थापन हुए तो कई स्वरूप उभरकर सामने आए:-
- पैंजिया का टूटना तथा लौरेशिया एवं गोंडवाना लैंड का एक दूसरे के निकट आना। टेथिस सागर का आकार छोटा होना। प्रायद्वीपीय भारत का उत्तर की ओर खिसकना। उत्तरी तथा दक्षिणी अमेरिका के पश्चिम दिशा में खिसकने से अटलांटिक महासागर का चौड़ा होना।
- प्रायद्वीपीय भारत का उत्तर की ओर खिसकने से हिंद महासागर का विस्तार हुआ। लगभग 5 से 7 करोड वर्ष पूर्व में महाद्वीपों ने वर्तमान स्थिति में लगभग आ गया। अटलांटिक महासागर का विस्तार हुआ एवं प्रशांत महासागर का आकार छोटा हो गया।
- अफ़्रीका को वेगनर ने सबसे स्थिर स्थलीय भाग माना है।
- वेगनर के अनुसार उत्तरी ध्रुव तथा दक्षिणी ध्रुवों की स्थिति में मौलिक परिवर्तन हुए:-
युग उतरी ध्रुव दक्षिणी ध्रुव सिल्युरिन ( 35.0 करोड़ वर्ष ) 14° उत्तर 124° पश्चिम मेडागास्कर के उत्तर पूर्व में कार्बोनिफेरस ( 28.5 करोड़ वर्ष 16° उत्तर 147° पश्चिम नाटाल में डर्बन के पास टर्शियरी ( 7.0 करोड़ वर्ष ) 15° उत्तर 153° पश्चिम अफ्रीका के दक्षिण में 53° दक्षिणी अक्षांश के पास - भूमध्य रेखा में परिवर्तन ध्रुवों की स्थिति में हुए परिवर्तन के कारण ही हुआ। अतः वेगनर के अनुसार महाद्वीपीय विस्थापन ध्रुवों तथा भूमध्य रेखा की स्थिति में परिवर्तन के कारण ही हुए हैं।
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वेगनर ने मोड़दार पर्वत की उत्पत्ति की समस्या को भी अपने महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) से हल करने का प्रयास किया है इनके अनुसार-
जब उत्तर तथा दक्षिण अमेरिका पश्चिम की ओर विस्थापित हो रहे थे तो इन महाद्वीपों के पश्चिमी किनारे में बलन पड़ने के कारण रॉकी तथा एंडीज पर्वत का निर्माण हुआ।
इसी तरह उत्तर से यूरेशिया तथा दक्षिण से अफ्रीका तथा महाद्वीपीय भारत के मध्य रेखा की ओर विस्थापित होने से टेथिस सागर के निचले हिस्से में बलन पड़ गए जिस कारण हिमालय तथा आल्पस जैसे मोड़दार पर्वतों का निर्माण हुआ।
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वेगनर की महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) का समर्थन
कई विद्वानों ने माना कि:-
- विश्व के विभिन्न स्थल खंडों के बीच साम्य स्थापित रखता है।
- अटलांटिक महासागर के पूर्व तथा पश्चिम में स्थित थल भागों की भूवैज्ञानिक रचना में भी समानता दिखती है।
- नवीन मोड़दार पर्वतों का निर्माण भी संभव है।
- जलवायु में विसंगतियाँ भी वेगनर साहब की सत्य प्रतीत होती है।
- पुरातन जीवाश्म के अवशेष का साक्ष्य भी सत्य प्रतीत होती है। क्योंकि वेगनर साहब का कहना है कि पहले जहां ठंडा था वहां वर्तमान में गर्म स्थान का होना, जैसे- राजस्थान वर्तमान में गर्म स्थल है लेकिन यहां से ग्लोसोप्टारिस वनस्पति का अवशेष मिलता है।
- संपूर्ण विश्व में कोयले का वितरण जहां पर घने जंगल हो वहां यह संभव है कि कोयला हो। लेकिन वर्तमान में ठंडे प्रदेश में धने वनस्पति की कल्पना करना कठिन है अतः वेगनर ने स्पष्ट किया कि कार्बोनिफेरस युग में भूमध्य रेखा यूरेशिया से गुजरती थी इसलिए वहां उष्णकटिबंधीय जलवायु होने के कारण घने वनों का विकास हुआ होगा और कोयले का निर्माण हुआ होगा। वेगनर का यह तर्क भी सही मालूम पड़ता है।
- महाद्वीपों के विस्थापन के लिए जिन बलों को वेगनर ने उत्तरदाई माना है। इसकी समर्थन करते हुए 1916 में स्वेडर ने एक तीसरे बल को भी जोड़ दिया है जोकि है पृथ्वी के अक्ष का अग्रचलन बल।विस्थापन के वास्तविक प्रमाण भी हमें देखने को मिलते हैं क्योंकि 1823, 1870 एवं 1917 में ग्रीनलैंड तथा उत्तरी अमेरिका के बीच मापी गई दूरी से स्पष्ट होता है कि ग्रीनलैंड उत्तरी अमेरिका की ओर 32 मीटर प्रति वर्ष की रफ्तार से खिसक रही है एवं 1873 तथा 1907 में ग्रीनलैंड तथा इंग्लैंड की दूरी को मापने से पता चलता है कि इनके बीच की दूरी में 35 गज की वृद्धि हुई है।
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वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) की आलोचना
वेगनर ने महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत को ठोस आधार प्रदान करने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराई फिर भी इसमें कई त्रुटियां रह गई जिससे इस सिद्धांत की भी कटु आलोचना की गई इसके विपक्ष में भी कई तर्क दिए गए हैं:-
- वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) का मुख्य आधार महाद्वीपों का साम्य स्थापना है परंतु कई विद्वानों ने इसमें त्रुटियां निकाली है जैसे:- दक्षिणी अमेरिका को गिनी के तट से नहीं मिलाया जा सकता क्योंकि ऐसा करने से उसमें 15 डिग्री का अंतर रह जाता है। साथ ही अटलांटिक महासागर के विपरीत तटों में साधारण साम्यता तो पहले से ही है न कि विस्थापन से।
- विस्थापन की दिशा में भी असहमति है क्योंकि वेगनर ने विस्थापन के लिए 2 दिशाओं का जिक्र किया है एक पश्चिम की ओर और दूसरा भूमध्य रेखा की ओर। एफ बी टेलर ने दोनों ध्रुवों को ही विस्थापन का केंद्र माना है एवं हिमालय, आल्पस तथा रॉकी पर्वत श्रेणियां ऐसे विस्थापन की ही बाह्य सीमाएं है। जे डब्लू इवान्स ने अफ्रीका महाद्वीप को ही विस्थापन का केंद्र माना है।
- महाद्वीपों का वर्तमान वितरण विस्थापन के अनुकूल वेगनर का विस्थापन सिद्धांत नहीं है क्योंकि महाद्वीपों का विस्थापन भूमध्य रेखा की ओर हुआ तो अधिकांश महाद्वीपों को भूमध्य रेखा के आसपास ही एकत्रित होना चाहिए।
- विस्थापन के लिए जो शक्तियों को वेगनर ने उत्तरदाई माना उसे कई विद्वान पर्याप्त नहीं मानते हैं। श्वेडर द्वारा दी गई पृथ्वी के “अक्ष की अग्रचलन” की शक्ति को भी कई विद्वानों ने अपर्याप्त माना है।
- कुछ विद्वान तो वेगनर के सियाल के सीमा के ऊपर तैरने तथा उसमें बलन पड़ने को विरोधाभास बताया है। इनके अनुसार यदि सियाल सीमा से अधिक दृढ़ है तो उसमें बलन नहीं पड़ सकता और यदि सीमा सियाल से अधिक दृढ़ है तो सियाल का सीमा के ऊपर विस्थापन नहीं हो सकता।
- बलन के आकार संबंधी आपत्ति भी विद्वानों द्वारा की गई है उनके अनुसार वर्तमान के वलित पर्वतों को अपने मूल रूप में फैला दिया जाए तो महाद्वीपों का जो स्वरूप बनेगा वह महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत ( Continental drift theory) के अनुरूप नहीं होगा।
- वनस्पति संबंधी आपत्ती भी कुछ विद्वानों द्वारा की गई है। ग्लोसोप्टारिस वनस्पति को कई क्षेत्र में वेगनर ने फैले हुए बताएं हैं। जबकि कई स्थान जिनका जिक्र वेगनर साहब ने नहीं की है वहां भी (जैसे- कश्मीर, अफगानिस्तान, ईरान, साइबेरिया आदि में) पाए जाते हैं। अतः वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) निराधार प्रतीत होता है।
- कई विद्वान वेगनर द्वारा दिए गए काल को भी सही नहीं माना है। जैसे- वेगनर ने पैंजिया का विघटन पुराजीव काल में शुरुआत बताया। लेकिन विद्वानों का कहना है कि इस युग से पूर्व ऐसी कौन सी शक्ति थी जो इसे जोड़ रख पाया। इसका विघटन इस काल से पूर्व या बाद में क्यों नहीं हुआ।
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निष्कर्ष
इस तरह से वेगनर का महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) की कई विद्वानों ने समर्थन किया है और कई विद्वानों ने इसकी आलोचना की है और इसके विषय में अपने अलग-अलग तर्क दिए हैं फिर भी महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत (Continental drift theory) का श्रेय वेगनर साहब को ही जाता है।