मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण, विस्तृत जानकारी | muhammad ghori ka bharat par aakraman
महमूद गजनवी के बाद मोहम्मद गौरी ने भारत पर आक्रमण किया। मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण का उद्देश्य महमूद गजनवी से बिल्कुल अलग था। तो आइए हम मोहम्मद गौरी के भारत पर आक्रमण के बारे में जानेंगे।
मोहम्मद गजनवी के भारत पर आक्रमण के बाद लगभग डेढ़ शताब्दी (1030-1175) तक भारत को विदेशी आक्रमण से राहत मिली। इस समय भारत में एक नए वर्ग का उदय हुआ। वो वर्ग था राजपूतों का। इनमें कन्नौज में गढ़वाल, मालवा में परमार, और अजमेर में चौहान सबसे महत्वपूर्ण थे। अन्य क्षेत्रों में कई छोटे-छोटे राजवंश भी थे जैसे- कलचुरी, बुंदेलखंड में चंदेल, गुजरात में चालुक्य एवं दिल्ली में तोमर आदि। कुछ समय बंगाल में पाल वंश ने शासन किया फिर सेन वंश ने।
उधर मध्य एशिया में महमूद गजनवी के उत्तराधिकारीयों के कमजोर होने के कारण इसका साम्राज्य को विघटित होने में समय नहीं लगा। जल्द ही गजनवी का साम्राज्य दो भागों में बंट गया। पश्चिम में ख्वारिज्मों ने अधिकार कर लिया और पूर्व में गौरो ने। इनके द्वारा कालांतर में गजनवीयों को यहां से भी भगा दिया गया।
अंत में इन्हें भागकर पश्चिम पंजाब में शरण लेना पड़ा। एवं इन्होंने छोटे गजनी वंश की नींव डाली। इसके अंतिम शासक मलिक खुसरव की मृत्यु हमें मोहम्मद गौरी के कैद खाने में देखने को मिलती है जिसे हम आगे भी पढ़ेंगे।
गौरो को आरंभ में गजनी द्वारा कमजोर किया गया लेकिन जल्द ही ये गजनवीयों को खदेड़ कर गौर में अपनी साम्राज्य स्थापित कर लिए। गौरो की शक्ति दिनों दिन बढ़ती गई एवं सुल्तान अलाउद्दीन हुसैन के काल में बहुत ज्यादा सक्रिय हो गए। इन्होंने ही गजनी को जीतकर ध्वस्त (जला) कर डाला। इसी कारण इन्हें जहांशोज (World Burner) कहा जाता है।
मध्य एशिया के पश्चिम में ख्वारिज्मों की साम्राज्य भी ताकतवर होती जा रही थी एवं यह गौरियों के बढ़ते हुए साम्राज्य को रोक लगाने में सफल हुए। यहां के शासक ने खुरासान (पूर्वी ईरान) को जीत लिया जो गौरो और ख्वारिज्मों के लड़ाई का मूल कारण था अतः अब गौरो के साम्राज्य प्रसार-प्रचार का रास्ता मध्य एशिया के पश्चिम में बंद हो चुका था अतः गौरो के लिए एक ही रास्ता बचा था- पूर्व में भारत।
इसके बाद 1173 ईस्वी में गयासुद्दीन मोहम्मद गोर का शासक बना जिसने गजनी पर अपने भाई शिहाबुद्दीन (मुईजुद्दीन) को शासक बनाया। इन्हें ही मोहम्मद गौरी कहा जाता है। इन्होंने (मुईजुद्दीन मोहम्मद गौरी) अपने भाई गयासुद्दीन गौरी जो गोर का सुल्तान था इसके लिए भारतीय उपमहाद्वीप पर गौरी साम्राज्य का विस्तार किया।
इस समय दिल्ली में पृथ्वीराज तृतीय (तोमर वंश), कन्नौज में जयचंद, बिहार-बंगाल में पाल एवं सेन वंश, बुंदेलखंड में चंदेल शासक परमर्दि देव, पंजाब में गजनी वंश तथा मुल्तान में इस्लामिक वंश शासन कर रहे थे।
मोहम्मद गौरी के भारत आक्रमण का उद्देश्य
मोहम्मद गौरी एक अत्याधिक महत्वाकांक्षी और योग्य सेनानायक होने के कारण उनकी भारत आक्रमण का उद्देश्य भी गजनवी से अलग था गजनवी में साम्राज्यिक प्रवृत्तियां नहीं थी। जबकि मोहम्मद गौरी इसके विपरीत साम्राज्य स्थापित करना चाहता था। साथ ही इस्लाम का प्रचार प्रसार का उद्देश्य हमें गौण दिखाई पड़ता है आक्रमण कर पराजित शासकों एवं सरदारों से विजयोपहार एवं सोना चांदी लेने का विशेष दिलचस्पी था लुटे हुए संपत्ति का इस्तेमाल ख्वारिज्मों शाहों के आक्रमणों के विरुद्ध अपने राज्यों की सुरक्षा के लिए सैन्य संगठन को मजबूत करना था। साथ ही हमें यह भी देखने को मिलता है कि विजित प्रदेशों में सुदृढ़ सैन्य व्यवस्था एवं प्रशासनिक संगठन पर भी विशेष ध्यान दिया। कई बार विपरीत परिस्थितियां भी उसके उद्देश्य को विचलित नहीं कर पाई। जैसे- दो बार पराजय। अपने दृढ़ आत्मविश्वास, असाधारण धैर्य और उद्देश्य की प्राप्ति के कारण ही उत्तर भारत में एक शक्तिशाली मुस्लिम राज्य को स्थापित कर पाने में सक्षम रहा।
मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण
मोहम्मद गौरी अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लगातार तीन वर्ष की अवधि तक भारत पर आक्रमण किया। उन्होंने भारत पर आक्रमण के लिए खैबर दर्रे का चयन नहीं किया बल्कि गोमल दर्रे से आक्रमण करने की योजना बनाई। इसके अलावा मोहम्मद गौरी गजनवीयों से प्रत्यक्ष संघर्ष से बचना चाहता था। उसने अपने आक्रमण योजना के तहत सिंध और गुजरात पर कब्जा कर वहां से गजनवीयों के राज्य को चारों ओर से घेर कर अपना आधिपत्य स्वीकार कराने तथा मध्य भारत में प्रवेश करना था।
तो आइए हम मोहम्मद गौरी के आक्रमण को सिलसिलेवार तरीके से देखते हैं:-
मुल्तान (1175) एवं कच्छ (1176) में आक्रमण
मोहम्मद गौरी के भारत आक्रमण के योजना में गोमल दर्रे के मार्ग पर सबसे पहले मुल्तान और फिर कच्छ पड़ता था। यहां उस समय करमटिया शासकों का राज्य था। मुल्तान में 1175 ईस्वी में और कच्छ में 1176 ईस्वी में आक्रमण कर उसे जीत लिया और विजित क्षेत्रों को सैन्य नियंत्रण में लेकर कुशल प्रशासन स्थापित किया।
गुजरात के आहिन्लवाड़ में आक्रमण (1178 ईस्वी)
1178 ईस्वी में मोहम्मद गौरी ने गुजरात के आहिन्लवाड़ में आक्रमण किया। इस समय चालुक्य शासक मूलराज द्वितीय और भीम द्वितीय में उत्तराधिकारी का युद्ध होना था। ये दोनों अल्प वयस्क थे अतः इनकी मां नायिका देवी संरक्षिका थी तथा इन्हीं के नेतृत्व में उनके योद्धाओं ने साहस से युद्ध लड़ा और मोहम्मद गौरी को पराजित किया। इसी कारण हमें अलग जगहों पर मूलराज द्वितीय एवं अलग जगहों पर भीम द्वितीय का नाम मिलता है जिसने पहली बार गौरी को पराजय का स्वाद चखाया था।
पेशावर पर आक्रमण (1179 ईस्वी) गजनवी वंश का अंत
गुजरात असफलता के बाद अब उन्होंने गजनवीयों से पंजाब विजय पाने के लिए आक्रमण किया। इस समय यहां मलिक खुसरव गजनी शासक शासन कर रहा था। सबसे पहले उन्होंने खैबर दर्रे पर आक्रमण किया और गजनी सेना को पराजित किया और अंततः पेशावर पर अधिकार कर लिया। अब खैबर दर्रे को अपने नियंत्रण में ले लिया।
लाहौर पर आक्रमण (1181 ईस्वी)
लाहौर भी गजनवीयों के साम्राज्य के अंतर्गत आता था। 1181 ईस्वी में गौरी ने लाहौर पर आक्रमण किया परंतु वह असफल रहा। मलिक खुसरव के साथ संधि कर युद्ध अंत करना पड़ा संधि में उन्होंने खुसरव के 5 वर्षीय पुत्र को बंधक बना ले गया।
सिंध व मेव पर आक्रमण (1182 ईस्वी)
1182 ईस्वी में सिंध पर आक्रमण कर वहां से विपुल मात्रा में संपत्ति लूटा। यहां के सुम्र शासक इनका आधिपत्य स्वीकार करने के लिए बाध्य हो गए। इसके बाद उन्होंने मेव पर भी अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया।
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सियालकोट (1184 ईस्वी) और लाहौर पर आक्रमण (1186 ईस्वी)
1184 ईस्वी में मोहम्मद गौरी ने सियालकोट पर हमला किया एवं पंजाब के उत्तरी पूर्वी सीमा प्रांत सहित सियालकोट नगर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। सियालकोट भी मलिक खुसरव के साम्राज्य का हिस्सा था एवं यह उसके साम्राज्य का ह्रदय था।
अतः सियालकोट पर मोहम्मद गौरी का कब्जा मलिक खुसरव को सहन नहीं हो पाया। अतः गौरी की अफगानिस्तान लौटते ही पुनः खुसरव सियालकोट की घेराबंदी कर दी। इसी कारण मोहम्मद गौरी ने तीसरी बार पंजाब आक्रमण की घोषणा की। जिसके डर से खुसरव ने घेराबंदी वापस हटा लिया एवं लाहौर दुर्ग में जाकर छिप गया।
मोहम्मद गौरी तुरंत लाहौर दुर्ग का घेराव किया लेकिन गजनवीयों ने अपने दुर्ग की रक्षा करने में सफल हुए। ऐसे में गौरी ने चालाकी की कि उसके 5 साल पूर्व बंधक बनाए गए अवयस्क पुत्र को मुक्त करने की बात कही। जैसे ही खुसरो दुर्ग के बाहर आता है उसे गुरियस सैनिकों द्वारा बंदी बना लिया जाता है और पंजाब को गुरिया साम्राज्य में मिला लिया गया। इस प्रकार गजनी साम्राज्य का अंत हो गया। खुसरो को बंदी बनाकर गौर भेज दिया गया। खुसरो और उसके पुत्र की हत्या कर दी गयी।
भटिंडा पर आक्रमण (1189 ईस्वी)
अब मोहम्मद गौरी की नजर राजपूत राज्यों की ओर पड़ी इसे जीतने के लिए सबसे पहले वह योजना बनाया। राजपूत शासक पृथ्वीराज चौहान तृतीय पर आक्रमण से पूर्व 3 वर्ष तक सैन्य तैयारी किया। लाहौर को राजपूतों के विरुद्ध सैनिक गतिविधियों का अड्डा बनाया। सैन्य तैयारी पूरी कर लेने के बाद सबसे पहले सन 1189 में भटिंडा पर आक्रमण किया जो चौहान राज्य की सुरक्षा दीवार थी। यहां गौरी ने धुआंधार आक्रमण कर चौहान सरदार पृथ्वीराज चौहान को पराजित किया। इसके बाद तुर्की सामंत को यहां नियुक्त कर राजपूतों को रोकने की जिम्मेदारी सौंपकर वापस चला गया।
तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ईस्वी)
इस समय तक क्योंकि पंजाब में गजनवीयों का अंत हो जाने एवं मुल्तान, सिंध और लाहौर गौर साम्राज्य का अंग बन जाने से मोहम्मद के लिए भारत विजय का मार्ग खुल गया। साथ ही इस समय मोहम्मद की राज्य की सीमाएं अजमेर तथा दिल्ली में बैठे पराक्रमी राजा पृथ्वीराज चौहान की सीमाओं से टकराने लगी। राजपूत महमूद गजनवी के रवैयों से अच्छी तरह वाकिफ थे, उनके आक्रमणकारी प्रवृत्ति को देखकर राजपूत भी सतर्क हो गए थे।
इस समय गजनवीयों के लाहौर में पतनशील साम्राज्य के साहसी सेनाओं से भी इनकी झड़प होती रहती थी। कन्नौज तथा अजमेर के राजपूत शासकों ने सैन्य संगठन की ओर विशेष ध्यान दिया और गजनवीयों के पंजाब प्रांत के सीमावर्ती इलाके पर आक्रमण कर हांसी और भटिंडा को जीत लिया था।
तराइन का प्रथम युद्ध मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच हुआ। पृथ्वीराज चौहान का साम्राज्य अजमेर से लेकर दिल्ली तक फैला हुआ था कहा जाए तो भारत की उत्तर पश्चिम में होने वाले आक्रमणों से भारत को बचाने की जिम्मेदारी इनके सिर पर थी। पृथ्वीराज चौहान ने भटिंडा तक किलेबंदी कर अपने राज्य को सुरक्षित कर लिया।
अतः मोहम्मद गौरी ने सर्वप्रथम भटिंडा पर ही आक्रमण किया एवं पृथ्वीराज चौहान (1189) को हराकर उसके दूर्ग को अपने नियंत्रण में लेकर जियाउद्दीन नामक सेनापति को नियुक्त कर वापस गौर के लिए मुड़ा।
पृथ्वीराज चौहान दुर्ग को छीनने के लिए सेना तैयार कर पहुंच गया लेकिन मोहम्मद गौरी वापस मुड़कर हमला किया एवं 1191 ईस्वी में भटिंडा के पास तराइन गांव में दोनों सेनाओं के बीच भयंकर युद्ध हुआ। पृथ्वीराज चौहान के सैनिकों ने मोहम्मद गौरी पर प्रहार किया और उसे हरा दिया।
फरिश्ता इस घटना का इस तरह वर्णन करते हैं “घायल सुल्तान युद्ध भूमि में मृत और मरणासन्न सैनिकों के मध्य आचेतन पड़े थे और उसके दास रात्रि में उसको उठा ले गए थे दूसरे दिन प्रातः वह अपने शिविर में पहुंचे और उसको तृणशय्या में रख दिया।”
विजय होकर राजपूतों ने भटिंडा पर घेरा डाल दिया लेकिन सेनापति जियाउद्दीन से भटिंडा छीनने में इन्हें 13 माह का समय लगा जिसे गौरी ने राजपूतों से झटके में छीना था यहां राजपूतों की कुसैन्य प्रबंधन का पता लगता है।
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तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ईस्वी)
मोहम्मद गौरी का तराइन युद्ध में हारने के बाद गौरी का यह हार दूसरी बार थी। पहली हार आहिन्लवाड़ के युद्ध में भीमदेव द्वितीय ने हराया एवं दूसरी बार तराइन के प्रथम युद्ध में हार हुई। मोहम्मद गौरी अब चैन से नहीं बैठ सकता था क्योंकि इस हार को अपना अपमान समझकर भरपूर तैयारियाँ की एवं 1,20,000 अश्वरोही सेना लेकर भारत की ओर चल पड़ा। लाहौर पहुंचते ही पृथ्वीराज चौहान को संदेश भेजकर अधीनता स्वीकार करने को कहा लेकिन पृथ्वीराज ने अन्य राजपूत राजाओं को सहायता के लिए निवेदन किया। पृथ्वीराज चौहान के सम्मिलित सेना को फरिश्ता “5 लाख घुड़सवार और तीन हजार हाथी बताते हैं।”
मोहम्मद गौरी 5 भाग में अपनी सेना को बाँटकर चार भाग से राजपूतों को चारों ओर से घेर लिया और एक भाग को सुरक्षित रख लिया। यह युद्ध रणनीति सफल हुई और पृथ्वीराज चौहान को हरा डाला। राजपूत सेना ने भी सफलतापूर्वक लड़ाई की लेकिन जब ये थक रहे थे मोहम्मद गौरी ने अपनी सुरक्षित सैनिक इनके ऊपर छोड़ दिए। इस अंतिम प्रहार में राजपूत योद्धा मारे गए इस युद्ध में पृथ्वीराज के सेनापति खंडेराव जो तराइन के प्रथम युद्ध में गौरी को पराजित किया था मारा गया। पृथ्वीराज भी घोड़े पर सवार होकर युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ। परंतु सरस्वती नदी के पास पकड़ लिया गया एवं बेरहमी से उनका वध कर दिया गया।
थ्वीराज चौहान की मृत्यु के बारे में हमें अलग-अलग वर्णन मिलते हैं।
मिन्हाज-उस-सिराज के अनुसार- “उसका तुरंत ही पकड़कर वध कर दिया गया था।”
हसन निजामी– मुसलमान उसे पकड़कर अजमेर ले गए जहां कुछ समय बाद विद्रोह के अपराध में वध कर दिया गया। यह मत ज्यादा सही लगता है क्योंकि पृथ्वीराज के कुछ सिक्कों में “हम्मीर” शब्द खुदा हुआ है जिससे पता चलता है कि वह मोहम्मद की अधीनता स्वीकार कर ली थी एवं कुछ समय तक वह जीवित था।
चन्दवादाई के अनुसार- पृथ्वीराज को गजनी ले जाकर बंदी बना लिया गया जहां उसे गौरी की हत्या करने के सजा में वध कर दिया गया। पर यह सही जान नहीं पड़ता।
हासी, कुहराम, दिल्ली व सरसुती पर आक्रमण (1193 ईस्वी)
अब मोहम्मद गौरी की भारत विजय निश्चित दिशा में जा रही थी क्योंकि तराइन के द्वितीय युद्ध में विजय ने जल्द ही हासी, कुहराम, दिल्ली सरसुती आदि जगह पर अधिकार कर वहां तुर्क सैनिक नियुक्त कर दिया। लेकिन गौरी को यह पता था कि पृथ्वीराज चौहान के संपूर्ण राज्य पर सीधा नियंत्रण में लेना सही नहीं होगा अतः उसने पृथ्वीराज के एक पुत्र को चौहान की गद्दी पर बैठा दिया। साथ ही खंडेराव जो पृथ्वीराज के सेनापति का उत्तराधिकारी था दिल्ली का शासक बना दिया।
दिल्ली से सटे इंद्रप्रस्थ में अपने विश्वासनीय नायब कुतुबुद्दीन ऐबक को बैठा दिया और एक तुर्क सेना दे दिया। साथ ही इस साम्राज्य का राज्य धर्म इस्लाम को घोषित कर दिया गया। मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनाई गई।
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कुतुबुद्दीन ऐबक का अभियान
मोहम्मद गौरी के वापस चले जाने के बाद पृथ्वीराज के भाई हरिराज ने दो बार अजमेर को अपने नियंत्रण में लेने का प्रयास किया परंतु ऐबक ने उसके प्रयासों पर पानी फेर दिया। अब ऐबक बुलंदशहर, मेरठ और दिल्ली को अपने प्रत्यक्ष नियंत्रण में ले लिया। 1193 ईस्वी से दिल्ली भारत में गौरी के राज्य की राजधानी बन गई। ऐबक ने रणथंभौर और कोल को भी जीत कर अपने साम्राज्य में मिला लिया। ध्यान रहे मोहम्मद गौरी की अनुपस्थिति में ऐबक द्वारा किया गया यह भारत में अभियान था।
जयचंद पर आक्रमण (1194 ईस्वी)
मोहम्मद गौरी के जयचंद पर आक्रमण को देखने से पूर्व हमें यह जान लेना अनिवार्य होगा कि जयचंद कौन था?
जयचंद उत्तर भारत के गढ़वाल वंश के एक राजा थे। इसके साम्राज्य में कन्नौज, वाराणसी से लेकर अंटारवेदी तक फैला था (वर्तमान उत्तर प्रदेश और बिहार का कुछ भाग)। जयचंद की बेटी संयोगिता से चालूक्य नरेश पृथ्वीराज का प्रेम संबंध था और धोखे से उसने संयोगिता को भगा ले गया था जिसके कारण जयचंद पृथ्वीराज से घोर ईर्ष्या करता था।
1194 में मोहम्मद गौरी जब कन्नौज के शासक जयचंद पर आक्रमण के लिए भारत आया उस समय कन्नौज राज्य काफी सशक्त था। चूँकि जयचंद का पृथ्वीराज से शत्रुता होने के कारण जयचंद ने तराइन के युद्ध में गौरी के विरुद्ध पृथ्वीराज की सहायता नहीं की थी।
इस समय जयचंद अकेले ही युद्ध लड़ा। यह लड़ाई कनौज और इटावा के बीच चंदावर नामक स्थान पर लड़ाई लड़ी गई। इसलिए इस युद्ध को चंदावार का युद्ध भी कहा जाता है। इस युद्ध में जयचंद मारा गया और राजपूतों की पराजय हो गई। गौरी ने जयचंद के राज्य पर अधिकार कर लिया परंतु कन्नौज अभी भी बाकी था। बाद में इसे भी मिला लिया गया अब तुर्कों के लिए बिहार और बंगाल की विजय का मार्ग तैयार हो गया। इस युद्ध के बाद गौरी वापस चला गया और विजित प्रदेश का उत्तरदायित्व ऐबक को दे दिया।
कुतुबुद्दीन ऐबक द्वारा विद्रोहों का दमन
इसके बाद उत्तर भारत में कई विद्रोह हुए जिनका दमन ऐबक ने किया। जैसे:-
- कोल विद्रोह (अलीगढ़ के समीप)
- अजमेर विद्रोह (अजमेर के आसपास का इलाका)
- ग्वालियर के किले पर कब्जा
- राजस्थान में विद्रोह
बयाना पर आक्रमण (1195-96)
1195 ईस्वी में मोहम्मद गौरी पुनः भारत आया और बयाना पर हमला कर उसे अपने अधीन कर लिया। इसके बाद उसने ग्वालियर पर आक्रमण कर उसके राजा सुलक्षणपाल से संधि कर ली और वापस चला गया। कुछ दिनों बाद बयाना के सूबेदार तुगरिल ने डेढ़ वर्ष के लंबे युद्ध के बाद ग्वालियर को जीत लिया था।
राजस्थान में विद्रोह
काफी समय तक मोहम्मद गौरी वापस भारत नहीं आ पाया जिसके कारण राजस्थान में विद्रोह शुरू हो गया। कई राजपूत वंश ने मिलकर तुर्कों को राजस्थान से खदेड़ने का प्रयास किया। इस परिस्थिति से लड़ने के लिए गजनी से सहायता लिया और विद्रोह को दबा दिया गया। ऐबक की सैन्य संचालन योजनाबद्ध तरीके से होने के कारण इन विद्रोह को दबाने में सफल रहा। इसके बाद 1197 ईस्वी में आहिन्लवाड़ को लूटा। लेकिन यहां पर कुतुबुद्दीन ऐबक को प्रत्यक्ष शासन करना संभव न हो सका। इसके बाद बदायूं में जीत हासिल की। वाराणसी और चंदवार जिसे विद्रोहियों ने जीत लिया था पुनः हासिल कर लिया और कन्नौज को भी जीत लिया।
बुंदेलखंड की विजय (1197-98 ईस्वी)
इस समय तक मध्य भारत पर तुर्कों का अधिकार स्थापित हो चुका था केवल बुंदेलखंड का चंदेल वंश ही बचा था। और इसकी सीमाएं तुर्की राज्य से टकराने लगी थी अतः 1202 ईस्वी में कुतुबुद्दीन ऐबक ने चंदेल राजा परमर्दी देव की राजधानी कालिंजर पर आक्रमण कर दिया। आरंभ में चंदेलों ने वीरता पूर्वक लड़ाई लड़ी परंतु बाद में उन्हें भागकर किले में शरण लेनी पड़ी किले का घेराबंदी कर लिया गया। अंततः चंदेलों ने तुर्कों की अधीनता स्वीकार कर ली। परमर्दी देव की इसी बीच मृत्यु हो गई। उनके मंत्री अजमदेव ने युद्ध को जारी रखा। कुछ समय बाद उन्होंने अपना किला छोड़ दिया।
इस प्रकार कलिंजर, महोबा और खजुराहो पर तुर्कों का अधिकार हो गया। कुतुबुद्दीन ऐबक ने इन स्थानों को सैनिक किला बना लिया।
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बख्तियार खिलजी का अभियान
मध्य भारत में जितने भी विद्रोह उठे थे उनका दमन कुतुबुद्दीन ऐबक कर रहा था तो भारत के पूर्वी इलाकों में ऐबक के एक साधारण से सेनापति इख्तियारुद्दीन मोहम्मद बिन बख्तियार खिलजी ने अभियान चलाई। कहा जाता है कि कुतुबुद्दीन ऐबक का सेनापति कुरूप और भद्दी आकृति का था जिसके कारण वह उपयुक्त पद नहीं पा सका।
अतः उसने अवध के हाकिम हिसामुद्दीन अबुल-बक के यहां भर्ती हो गया। एवं वहां अपनी योग्यता का परिचय दिया जिससे उसे कुछ गांवों की जागीर मिल गई। जिससे उसके पास आय का स्रोत हो जाने के कारण उसने एक छोटी सी फौज तैयार कर ली। इसी सैनिक टुकड़ी को लेकर व छोटे-छोटे इलाकों में धावा मारने लगा।
बिहार विजय (1202-1203 ईस्वी)
बख्तियार खिलजी ने 1202-1203 ईस्वी में उदंतपुर बिहार में हमला बोला एवं लूट कर नष्ट कर दिया। यहां एक विश्वविद्यालय भी थी। यहां रक्षा हेतु नियुक्त सैनिकों को मार भगाया एवं नगर में बौद्ध भिक्षुओं को मार दिया एवं इस नगर के विख्यात पुस्तकालय पर कब्जा कर जला दिया। इस जीत से वह खुश होकर आगे बढ़ा और विक्रमशिला और नालंदा के विश्वविद्यालयों पर कब्जा कर उदंतपुर में किले का निर्माण किया।
बंगाल विजय (1204 05 ईस्वी)
बिहार विजय से बख्तियार खिलजी का घमंड बढ़ गया अब वह रुकना नहीं चाहता था। अब वह बंगाल जीतने का संकल्प कर बैठा। इस समय सेन वंश का राजा लक्ष्मण सेन बंगाल पर राज कर रहा था लक्ष्मण सेन की एक कमजोरी यह थी कि वह अपने पश्चिम में हो रहे तुर्की आक्रमण से वाकिफ होने के बावजूद भी अपनी सीमाओं को मजबूत नहीं किया। अपने राज्य की रक्षा के लिए कोई भी तैयारी नहीं किया। बख्तियार खिलजी को इस बात की पहले ही खबर मिल चुकी थी।
अतः उसने 1204-05 में अपनी सेना को लेकर रवाना हो गया एवं दक्षिण बिहार में वर्तमान झारखंड के जंगलों से होते हुए नदिया पर आक्रमण कर दिया। कहा जाता है कि बख्तियार खिलजी इतनी रफ्तार में नदिया पहुंचा की उसके साथ केवल 18 सैनिक ही पहुंच पाए। बाकी सब पीछे छूट गए। ‘नदिया’ सेन शासक का राजधानी था।
तुर्क सैनिकों ने फाटक के रक्षकों को मार डाला एवं अंदर चले गए। लक्ष्मण सेन को पता चलते ही कि वे अंदर आ गए हैं वह भाग खड़ा हुआ। लक्ष्मण सेन के भागने पर कोई भी सैनिक समय पर एकत्र ना हो सके। इतने में बख्तियार खिलजी के बाकी सेना भी पहुंच गए और निर्विरोध रूप से नगर पर तुर्कों का अधिकार हो गया। यहां भी लूटपाट करने के बाद उत्तर में लखनौती में जाकर उसे अपनी राजधानी बना लिया।
बंगाल विजय से प्रसन्न होकर तिब्बत को जीतने की योजना बनाई पर वह विफल रही। इसके बाद बख्तियार खिलजी बीमार पड़ गए जिसका लाभ उठाकर उसके एक सरदार अलीमर्दन खिलजी ने उसका 1206 ईस्वी में कत्ल कर दिया। इस प्रकार बख्तियार खिलजी का अंत हो गया। परंतु अपनी मृत्यु से पूर्व बिहार और बंगाल के अधिकांश भाग को तुर्की अधीनता में ला दिया। जिसकी कभी भी कल्पना मोहम्मद गौरी और कुतुबुद्दीन ऐबक नहीं किए थे।
महमूद गजनवी के भारत आक्रमण का उद्देश्य, उपलब्धि एवं प्रभाव के बारे में जानकारी के लिए पढ़ें।
मोहम्मद गौरी की मृत्यु कैसे हुई ? | muhammad ghori death
मोहम्मद गौरी के जीवन के अंतिम क्षणों में उसके सरदार भारत में राज्य विस्तार कर रहे थे और उधर गौरी वंश का संघर्ष पश्चिम के ख्वारिज्म वंश से चलता रहा क्योंकि इस समय ईरान में सबसे शक्तिशाली राज्य की स्थापना ख्वारिज्म वंश ने कर लिया था।
1202 ईस्वी में मोहम्मद गौरी के बड़े भाई गयासुद्दीन जो गोर का शासक था की मृत्यु हो गई। एवं 1202 में संपूर्ण गौरी वंश का शासक मोहम्मद गौरी बना। इन्होंने भी ख्वारिज्म के शासकों से युद्ध जारी रखा एवं 1205 ईस्वी के अन्धखुद के युद्ध में भयंकर हार होने से भारत में अफवाह फैल गई कि गौरी युद्ध में मारा गया। भारत में विभिन्न स्थानों में विद्रोह शुरू हो गया। पंजाब में खोक्खरों ने गौरी के सूबेदार को परास्त कर लाहौर जीतने का प्रयास किया। इस कारण 1205 ईस्वी में गौरी पुनः भारत आया और इनका मुकाबला झेलम और चिनाब नदी के बीच हुआ। युद्ध भयंकर हुआ। कुतुबुद्दीन ऐबक की सेना की सहायता से मोहम्मद गौरी विजयी हो गया। इसके बाद मोहम्मद गौरी लाहौर चला गया और वहां प्रशासन व्यवस्थित पर गजनी चला गया। मार्ग में सिंधु नदी के तट पर दमयक नामक स्थान पर शाम की नमाज पढ़ते हुए गौरी पर कुछ व्यक्तियों ने अचानक हमला कर 15 मार्च 1206 ईस्वी को उसकी कत्ल कर दी।
कुछ इतिहासकार कत्ल करने वालों को खोक्खर कहा है। और कुछ अन्य इतिहासकार इस्माइल संप्रदाय के शिया माना है।
मोहम्मद गौरी के शव को गजनी लेकर दफना दिया गया एवं गौरी के कोई पुत्र न होने के कारण उसका भतीजा गोर वंश का उत्तराधिकारी बना। लेकिन ख्वारिज्म शासकों ने पूरी वंश को जल्द ही खत्म कर दिया। 1215 ईस्वी में गजनी पर ताजुद्दीन सिल्दौज ने शासन किया परंतु वहां से भी उसे ख्वारिज्म शासकों ने निकाल बाहर कर दिया एवं गोर साम्राज्य का संपूर्ण मध्य एशिया का राज्य ख्वारिज्मों के अधीन हो गया। एवं भारत में कुतुबुद्दीन ऐबक ने तुर्की साम्राज्य का स्थापना गुलाम वंश के नाम से स्थापित किया।
इस तरह से भारत में मोहम्मद गौरी के बाद भारत में गुलाम वंश की शुरुआत हुई। जिसे सल्तनत काल भी कहा जाता है।
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