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हिंदी भाषा का उद्भव और विकास | hindi bhasha ka udbhav aur vikas

हमारा भारत देश एक हिंदी प्रधान देश है और हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है तो आईये हम  हिंदी भाषा का उद्भव और विकास के बारे में जानेंगे | हिंदी भाषा का उद्भव और विकास के बारे में जानना विभिन्न प्रतियोगिता परिक्षाओं के लिए फायदेमंद है

Table of Contents

हिंदी भाषा का उद्भव और विकास

हिंदी यूरोपीय भाषा परिवार की आधुनिक काल की प्रमुख भाषाओं में से एक है जिसकी उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है जिसे आर्य भाषा या देव भाषा भी कहा जाता है भाषा नदी की धारा के समान चंचल होती है या रुकना नहीं जानती यदि कोई भाषा को बलपूर्वक रोकना भी चाहे तो यह उसके बंधन तोड़ आगे निकल जाती है यह भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति है हिंदी भाषा के विकास के क्रम में भाषा की समायाकुल, गत्यात्मकता प्रकृति स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है| हिंदी भाषा का जन्म संस्कृत भाषा के कोख से हुआ है

हिंदी भाषा का उद्भव और विकास

इसके तीन हजार पुराने इतिहास को तीन भागों में विभाजित करके हिंदी भाषा का उद्भव और विकास क्रम को निर्धारित किया जा सकता है:

(1) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा: (काल: 1500 ई•पू• – 500 ई•पू•)

(2) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा: (काल: 500 ई•पू• – 1000 ई•)

(3) आधुनिक भारतीय आर्य भाषा: (काल: 1000 ई• – अब तक)

(1) प्राचीन भारतीय आर्य भाषा: (काल: 1500 ई•पू• – 500 ई•पू•):-

भारत में आर्यों के पूर्व भी कई जातियां प्रविष्ट हुई थी लेकिन आर्यों के प्रविष्ट होने के बाद (चूँकि आर्य इरान से आए थे उनकी भाषा ही ईरानी थी) इनके भाषा में परिवर्तन होने लगी। यह परिवर्तित भाषा तो हमें कई वैदिक संहिताओं में भी दिखाई देती है हालांकि वैदिक संहिताओं में भाषा में एकरूपता नहीं देखने को मिलती है। आर्यों की दो शाखाएं भारत में आई थी पहली शाखा मध्यदेश में आकर बस गई तो दूसरी शाखा इन्हें खदेड़ कर उनका स्थान ग्रहण कर लिया और पहली शाखा चारों ओर फैल गया।

पहली शाखा को बाहरी शाखा कहा जाता है और बाद वाली शाखा को भीतरी शाखा। इन दोनों शाखाओं के भाषाओं का प्रभाव ऋग्वेद में देखने को मिलती है जैसे- ऋग्वेद के पहले और दसवें मंडल में एक सी भाषा है अर्थात आर्यों की बाद की शाखा वाली भाषा से मिलती जुलती है तो शेष (2-9 मंडल में) पुरानी शाखा के भाषा से मिलती जुलती है।

ब्राह्मण उपनिषदों में पुरानी शाखा की भाषा है एवं बाकी के सहिंताओं में बाद की शाखा की भाषा है। अतः इस समय तक हमें भाषा की जटिलता देखने को मिलती है वास्तव में भाषा का विकसित रूप सूत्रों में मिलता है इसका समय लगभग 700 ईस्वी पूर्व के बाद का है इस समय में पाणिनी द्वारा संस्कृत व्याकरणबध किया गया जो कि एक लौकिक एवं सर्वमान्य था। पाणिनी के रचना के बाद बोलचाल की भाषा पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा आधुनिक भाषाओं के रूप में विकसित होती चली आ रही है। इस समय के प्रसिद्ध ग्रंथ रामायण महाभारत संस्कृत में लिखी गई।

इस काल में वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों, के अलावा बाल्मीकि, व्यास, अश्वघोष, भाष, कालिदास तथा माघ आदि की संस्कृत में रचना हुई इस कालखंड को व्याकरणिक नियमों के अंतर के आधार पर निम्नलिखित दो भागों में बांटा गया है:-

1. वैदिक संस्कृत (काल: 1500 ई• पू• – 1000 ई• पू•)

2. लौकिक संस्कृत (काल: 1000 ई• पू• – 500 ई• पू•)

1. वैदिक संस्कृत (काल: 1500 ई• पू• – 1000 ई• पू•):-

मूल रूप से वेदों की रचना जिस भाषा में हुई उसे वैदिक संस्कृत कहते हैं। संस्कृत का प्राचीनतम रूप और विश्व की प्रथम कृति ऋग्वेद के रूप में प्राप्त होती है। वैदिक संस्कृत का उदाहरण हमें वैदिक संहिताओं, ब्राह्मणों, आरण्यकों तथा प्राचीन उपनिषदों आदि में मिलता है।

हालांकि इनके भाषा का कोई एक सुनिश्चित रूप नहीं है इस समय वैदिक साहित्य में संस्कृत भाषा का विकास हो रहा था। वैदिक संस्कृत के कई विशेषताएं हमें देखने को मिलते हैं जैसे:-

  • इस समय वैदिक संस्कृत को ध्वनियों के अनुदात्त, उदात्त एवं स्वरित तीन प्रकार के स्वाराघात देखने को मिलता है। इस समय स्वाराघात बहुत महत्वपूर्ण था इसका हमें सभी सहिताओं, कुछ ब्राह्मणों, आाण्यकों, वृद्धारण्यक एवं कुछ उपनिषदों में भी देखने को मिलता है।

टर्नर का मानना है कि वैदिक संस्कृत में संगीतात्मक एवं बलात्मक दोनों ही स्वाराघात था। इस समय वैदिक भाषा में तीन लिंग थे- पुलिंग, स्त्रीलिंग एवं नपुंसक। वचन भी तीन थे- एकवचन, द्विवचन और बहुवचन। कारक विभक्तियाँ आठ थी। संज्ञा के जैसे ही विशेषणों के रूप भी थे। सर्वनाम के मूल बहुत अधिक थे।

वैदिक भाषा में उत्तम पुरुष को ही प्राचीन पंडितों ने श्रेष्ठ माना है। वैदिक भाषा में धातुओं के दो रूप थे। क्रिया रूप तीनों वचनों एवं तीनों पुरुषों में होते थे। काल तथा क्रिया के कुल दो रूप थे। ऋग्वेद में तथा अथर्ववेद में ‘लेट्’ लकार का प्रयोग बहुत मिलता है। लेकिन कालांतर में कम होते होते लौकिक संस्कृत में पूर्णतः समाप्त हो गया।

इस समय भविष्य के रूप का इस्तेमाल बहुत कम था उसके स्थान पर संभावनार्थ या निश्चयार्थ का प्रयोग मिलता है। समास रचना की प्रवृत्ति भारोपीय एवं भारत-ईरानी में थी। यहीं से यह परंपरा वैदिक संस्कृत में आई। समास के चार रूप ही इस समय देखने को मिलते हैं- तत्पुरुष, कर्मधाराय, बहुब्रीहि एवं द्वन्द्व। बाद में (लौकिक संस्कृत) दो शेष समास का विकास हुआ।

वैदिक भाषा में तद्भव या मूल शब्द से ज्यादा विकसित रूप का प्रयोग होने लगे थे। एवं इस समय अनेक आर्येतर शब्दों का प्रवेश वैदिक भाषा में होने लगा था जैसे- अणु, कपि, काल, गण, पुष्कर ये सभी द्रविड़ भाषा से आए थे तो कंबल, कोसल, अंग ये सभी ऑस्ट्रिक भाषा से आए थे। इस समय तीन बोलियां थी जैसे:- पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय तथा पूर्वी बोलियां। पश्चिमोत्तरीय बोली अफगानिस्तान से पंजाब तक बोली जाती थी। मध्यदेशीय बोली पंजाब से मध्य उत्तर प्रदेश तक बोली जाती थी तथा पूर्वी बोली पंजाब से मध्य उत्तर प्रदेश से पूर्व के क्षेत्रों में बोली जाती थी।

ऋग्वेद में पश्चिमोत्तरीय बोली का ही इस्तेमाल हुआ है। इस बोली को इस समय आदर्श बोली समझा गया क्योंकि इस पर स्थानीय प्रभाव नहीं पड़ा क्योंकि स्थानीय आर्येतर जातियां इस समय तक दक्षिण और पूर्व में पलायन कर गई थी।

पढ़ें:- देवनागरी लिपि किसे कहते हैं? देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई?

2. लौकिक संस्कृत (काल: 1000 ई• पू• – 500 ई• पू•):-

प्राचीन ग्रंथों के अतिरिक्त संस्कृत का प्रयोग साहित्य में भी हुआ। जिसे लौकिक संस्कृत कहते हैं। कालिदास, अश्वघोष, माघ, भाष, वाल्मीकि, व्यास आदि की रचनाएं इसी काल में रची गई। संस्कृत शब्द का प्रथम प्रयोग हमें सर्वप्रथम बाल्मीकि रामायण में देखने को मिलता है।

हमने वैदिक संस्कृत काल में तीन बोलियां भौगोलिक आधार पर देखा था पश्चिमोत्तर बोली, मध्यदेशीय बोली तथा पूर्वी बोली। लौकिक संस्कृत का मूल आधार पश्चिमोत्तर बोली थी अतः मध्यदेशीय तथा पूर्वी बोली का संस्कृत में थोड़ा बहुत ही छाप देखने को मिलती है लौकिक संस्कृत इस समय एक साहित्यिक भाषा थी।

हार्नले,  वेबर, तथा ग्रियसन आदि विद्वानों ने संस्कृत को बोलचाल की भाषा नहीं माना है। जयशंकर प्रसाद की गद्य या पद्य को बोल चाल की भाषा नहीं कह सकते, वैसे ही संस्कृत को भी बोल चाल की भाषा नहीं कह सकते, लेकिन जयशंकर प्रसाद की भाषा का आधार जो खड़ी बोली हिंदी है और यह बोलचाल की भाषा भी है उसी प्रकार पाणिनीकृत संस्कृत भी तत्कालीन पंडितों की ही बोलचाल की भाषा थी। अतः इस आधार पर हार्नले,  वेबर, तथा ग्रियसन आदि विद्वानों के मत को खंडन किया जा सकता है।

कई बातों में वैदिक संस्कृत और लौकिक संस्कृत में समानताएं देखने को मिलती है तो कई बातों में आसमानताएं देखने को मिलती है जैसे:-

  • इस समय तक एक प्रकार का भाषा का स्थायित्व हो गया था अर्थात भाषा का मानकीकरण होने के कारण इस समय का सांस्कृत साहित्यिक भाषा बन गई थी जबकि वैदिक संस्कृत में आसमानता एवं जटिलताएं देखने को मिलती है। अर्थात एकरूपता का अभाव था।
  • वैदिक संस्कृत में ‘लृ’ ‘ॠ’ के उच्चारण स्वरवत होते थे जबकि लौकिक संस्कृत में ‘लि’ ‘रि’ हो गया।
  • ‘ऐ’ ‘औ’ को वैदिक में ‘आइ’ ‘आउ’ कहा जाता था लेकिन लौकिक संस्कृत में ‘अइ’ ‘अउ’ हो गए।
  • ‘ए’ ‘ओ’ का उच्चारण वैदिक में ‘अइ’ ‘अउ’ था जो लौकिक संस्कृत में मूल स्वर हो गए जैसे:- ‘ो’ ‘ए’ ‘ओ’
  • लेखन में ‘ल’ ‘ळह’ अक्षर खत्म होकर इसके स्थान पर ‘ड’ ‘ढ’ होने लगे।
  • वैदिक संस्कृत संगीतात्मक स्वाराघात था जबकि लौकिक संस्कृत में बलात्मक स्वाराघात था।
  • क्रिया रूपों में बदलाव देखने को मिलती है। वैदिक संस्कृत का ‘लेट्’ लकार लौकिक संस्कृत में नहीं मिलता। इस समय ‘लोट्’ लकार प्रचलन में आ गया।
  • समास पहले चार थे अब छः हो गए:- तत्पुरुष, कर्मधाराय, बहुब्रीहि, द्वन्द्व, द्विगु और अव्ययीभाव।
  • वैदिक संस्कृत में उपसर्ग की स्वच्छन्दता मिलती है जबकि लौकिक संस्कृत में उपसर्ग की स्वच्छन्दता समाप्त हो गई।
  • वैदिक संस्कृत में कई शब्द द्रविड़ और ऑस्ट्रिक से आए जो कि लौकिक संस्कृत में इनकी संख्या बहुत अधिक हो गई।
  •  इस समय क्षेत्रीय स्तर पर तीन बोलियां थी:- पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय और पूर्वी बोलियां भी विकसित होती गई।

(2) मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा: (काल: 500 ई•पू• – 1000 ई•):-

इस काल में लोकभाषा (जनभाषा) का विकास हुआ एवं इसी लोकभाषा पर आधारित वैदिक एवं लौकिक संस्कृत भाषा के दो रूपों का प्रयोग हुआ। लौकिक संस्कृत को पाणिनी ने अपने ग्रंथ में व्याकरणबद्ध कर एक स्थाई रूप दिया। इसके बाद संस्कृत में तेजी से परिवर्तन होती रही और जनभाषा के रूप में उभर कर सामने आई। इसी जनभाषा को मध्यकाल में ‘मध्यकालीन आर्य भाषा’ की संज्ञा दी गई।

मध्यकालीन आर्य भाषा को ‘प्राकृत भाषा’ भी कहा गया है। लेकिन प्राकृत तो संस्कृत के पहले की जनभाषा थी। अर्थात प्राकृत शब्द का प्रयोग उस जनभाषा के लिए है जो वैदिक और संस्कृत काल में जनभाषा थी। कुछ विद्वान प्राकृत की उत्पत्ति संस्कृत से मानते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि प्राकृत पुरानी भाषा है और संस्कृत बाद की भाषा है। इस समय कुछ प्रमुख जन भाषा का विकास तीन भागों में हुआ:-

इस काल में लोक भाषा का विकास हुआ भाषा का विकास तीन भागों में हुआ
1. पाली भाषा / प्रथम प्राकृत (काल: 500 ई• पू• – 1 ई•)
2. प्राकृत भाषा / द्वितीय प्राकृत (काल: 1 ई• – 500 ई•)
3. अपभ्रंश / तृतीय प्राकृत (काल: 500 ई• – 1000 ई•)

1. पाली भाषा / प्रथम प्राकृत (काल: 500 ई• पू• – 1 ई•):-

इस समय संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा बनते-बनते काफी बदलाव आया एवं जनभाषा बनकर जो रूप उभर कर सामने आया उसे ‘पालि’ नाम दिया गया। ‘पालि’ शब्द की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में मतभेद है। सर्वप्रथम इसका उपयोग चौथी सदी में लंका के एक ग्रंथ ‘दीपवंश’ में मिलता है। दीपवंश का अर्थ है बुद्धवचन

कालांतर में प्रसिद्ध आचार्य बुद्धघोष ने भी इसी अर्थ में प्रयोग किया है। पाली बौद्ध धर्म की भाषा है जो पांचवी सदी ईसा पूर्व से पहली सदी तक दक्षिणी बौद्धों की भाषा थी। पालि शब्द की उत्पत्ति श्री विधुशेखर भट्टाचार्य ने संस्कृत ‘पंक्ति’ से माना है। जैसे:- पन्ति>पति>पट्ठि>पल्लि>पालि। कुछ ‘पल्लि’ शब्द का संबंध ‘गांव’ की भाषा पर करते हैं क्योंकि ‘पल्लि’ का अर्थ होता है- गांव। अर्थात ‘गांव की भाषा’।

भण्डारकर तथा वाकरनागल पालि की उत्पत्ति ‘प्राकृत’ से बताते हैं। जैसे:- पाकट>पाउड>पाअल>पालि।

कोसाम्बी के अनुसार इसका संबंध ‘पाल’ अर्थात रक्षा करना’ से है। लेकिन यह भी तर्कसंगत नहीं है।

डॉ मैक्सवेलेसर ने ‘पालि’ को ‘पाटलि’ से उत्पन्न माना है। ‘पाटलि’ का अर्थ पाटलिपुत्र से जोड़कर पाटलिपुत्र की भाषा कहा है। परंतु पालि पाटलिपुत्र की भाषा नहीं थी।

भिक्षु जगदीश कश्यप ने कहा है कि ‘पालि’ का संबंध ‘परियाय’ से हैं। परियाय का प्रयोग बौद्ध साहित्य में बुद्ध के उपदेश के लिए मिलता है अतः परियाय परिवर्तित होकर ‘पालि’ बना। जैसे:- परियाय>पलियाय>पालियाय>पालि।

चूँकि पालि भाषा मगध प्रांत में उत्पन्न होने के कारण इसे मागधी भी कहा जाता है। बौद्ध ग्रंथों में पालि भाषा का शिष्ट और मानक रूप देखने को मिलता है। इस समय क्षेत्रीय बोलियों की संख्या चार हो गई पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय, पूर्वी तथा दक्षिणी।

पालि साहित्य को ‘पिटक’ और ‘अनुपिटक’ दो भागों में बांटा गया है। जिसमें जातक, धम्मपद, मिलिन्दपन्हो, बुद्धघोष की आत्मकथा तथा महावंश प्रमुख है। पालि साहित्य का रचनाकाल 483 ईस्वी पूर्व से लेकर 2500 ईस्वी पूर्व तक माना जाता है।

पालि भाषा की विशेषताएं

पालि भाषा की कुछ विशेषताएं भी हमें देखने को मिलती है:-

  • कच्चायान के अनुसार पालि में 41 ध्वनियाँ थी एवं मोग्गलन के अनुसार 45 ध्वनियाँ थी।
  • ॠ, ॠृ, लृ स्वर खत्म हो गए साथ ही ए, औ स्वर भी समाप्त हो गए एवं व्यंजन में लृ, ल़॒ह ध्वनियां अभी भी विद्यमान थे।
  •  पहले (वैदिक) श, ष, स तीन थे अब इसके स्थान में एक ‘स’ हो गया।
  •  पालि में स्वराघात के विषय पर भिन्न-भिन्न मत हैं टर्नर ने संगीतात्मक और बलात्मक दो स्वराघात वैदिक संस्कृत की तरह ही बताते हैं लेकिन गियर्सन केवल बलात्माक स्वराघात का जिक्र करते हैं। जबकि जूल किसी भी स्वराघात को मानने से इनकार करते हैं। डॉ भोलानाथ तिवारी ने बलात्मक स्वराघात पर जोर दिया है।
  •  पालि में व्याकरण, स्वच्छंद एवं विभिन्न प्रकार के थे। अब तक काफी सरलीकरण भी देखने को मिलता है।
  •  तीनो लिंग यहां पर भी विद्यमान थे।
  •  दो वचन थे- एकवचन और बहुवचन। द्विवचन नहीं था।
  •  क्रिया में तीन पुरुष थे एवं धातुओं के दस गण थे।

पालि भाषा के प्रमाण अशोक के अभिलेख एवं अशोक के बाद के अभिलेख से मिलता है।

संस्कृत भाषा बोल-चाल की भाषा बनते बनते इसमें काफी बदलाव आया जिसे पाली नाम दिया गया इसे भारत की प्रथम देश भाषा कहा गया मगध प्रांत में उत्पन्न होने के कारण इसे मागधी भी कहा जाता है
बौद्ध ग्रंथों में पाली भाषा का शिष्ट और मानक रूप देखने को मिलता है
इस समय क्षेत्रीय बोलियों की संख्या चार हो गई:- (1) पश्चिमोत्तरीय (2) मध्यदेशीय (3) पूर्वी (4) दक्षिणी।

⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।

2. प्राकृत भाषा / द्वितीय प्राकृत (काल: 1 ई• – 500 ई•):-

देखा जाए तो 1 ईस्वी आते-आते बोलचाल की भाषा में परिवर्तन आया और इस काल के भाषा को ‘प्राकृत’ की संज्ञा दी गई। यह असंस्कृत भाषा थी और पंडितों द्वारा बोली जाने वाली संस्कृत भाषा के विरुद्ध जो भाषा आम जनता द्वारा बोली जाती थी वह भाषा का नाम ‘प्राकृत’ हो गया।

हमने पूर्व में देखा कि प्राकृत के तीन रूप हैं प्रथम प्राकृत जो पालि और अभिलेखी प्राकृत है और द्वितीय प्राकृत में  अपभ्रंश एवं अवहट आती है। तृतीय प्राकृत में भारत तथा इसके बाहर प्रयुक्त होने वाले धार्मिक और साहित्य में प्रयुक्त होने वाली अन्य प्राकृत भाषा।

लेकिन यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि द्वितीय प्राकृत को ही प्राकृत की संज्ञा दी गई है।

प्राकृत भाषा के निम्नलिखित पाँच बोलियां हमें देखने को मिलती है:-

  •  शौरसेनी जो मथुरा के आसपास बोली जाने वाली भाषा थी।
  •  पैशाची जो उत्तर-पश्चिम कश्मीर के आसपास बोली जाती थी।
  •  महाराष्ट्री जो महाराष्ट्र तथा विदर्भ के आसपास बोली जाती थी।
  •  अर्धमागधी जो कोशल प्रदेश की भाषा तथा जैन साहित्य की भाषा थी।
  • मागधी जो मगध के आसपास बोली जाने वाली भाषा थी।

प्राकृत भाषा की विशेषताएं

इसकी कुछ विशेषताएं भी हमें देखने को मिलती है:-

  •  प्राकृत ध्वनियां पालि से मिलती-जुलती थी।
  •  पालि में ‘स’ का केवल प्रयोग लेकिन यहां पुनः तीन ‘स’, ‘ष्’, ‘श्’ का प्रयोग होता था लेकिन यह भी कुछ समय बाद धीरे-धीरे ‘स’ हो गया। और मागधी में तो केवल ‘श’ ही था। कुछ बोलियों में केवल ‘स’ का प्रयोग, तो कुछ में ‘श्’, ‘ष’ का प्रयोग।
  •  इस समय ‘न’ के स्थान पर ‘ण’ का भी प्रयोग हुआ।
  •  इस समय वचन दो ही थे एकवचन और बहुवचन।
  •  प्राकृत काल में भाषा आयोगात्मक एवं वियोगात्मक की ओर अग्रसर थी।
  •  ध्वनियों में विकास बहुत तेजी से हुआ लेकिन यह क्षेत्रीय था न की सर्वभौम। जैसे:- अघोष, अल्पप्राण, स्पर्श का होना। मूक :> मूगो तथा घोष और अघोष, अल्पप्राण स्पर्श का लोप (सागर>साअर) इत्यादि।

3. अपभ्रंश / तृतीय प्राकृत (काल: 500 ई• – 1000 ई•):-

भाषा वैज्ञानिक अपभ्रंश को भारतीय आर्य भाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था मानते हैं जो कि प्राकृत और आधुनिक भाषा के बीच की स्थिति है। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ बिगड़ा हुआ या गिरा हुआ भाषा है। भारत के हर आधुनिक भारतीय आर्य भाषा का व्युत्पत्ति किसी न किसी अपभ्रंश से हुआ है। सर्वप्रथम छठवीं सदी में अपभ्रंश नाम का प्रयोग मिलता है। अपभ्रंश भाषा का विकास मध्य देश में हुआ एवं अपभ्रंश के भेदों में कई तरह के राय हमें देखने को मिलते हैं, लेकिन अपभ्रंश के निम्नलिखित सात भेद हैं:-

  • शौरसेनी (जिससे पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी और गुजराती भाषा का जन्म हुआ।)
  • पैशाची (पंजाबी) 
  • ब्राचड़ (सिंधी)
  • मागधी (बिहारी)
  • महाराष्ट्री (मराठी)
  • अर्धमागधी (पूर्वी हिंदी)
  • खस (पहाड़ी भाषा का जन्म हुआ)

अपभ्रंश भाषा की विशेषता

अपभ्रंश निम्नलिखित विशेषताएं भी हमें देखने को मिलती है:-

  1.  स्वर- ह्रस्व स्वर में- अ, इ, उ, ए, ओ आते थे। दीर्घ स्वर में- आ, ई, ऊ, ऐ, ओ आते थे।
  2. का प्रयोग नहीं मिलता है परंतु उच्चारण में रि का प्रयोग होता था। जैसे:- ॠण – रिण।
  3. का प्रयोग केवल मागधी में था।
  4. ल्, ल॒ह का भी प्रयोग होता था पर सभी अपभ्रंश भाषा में नहीं।
  5.  कहीं-कहीं स्वरों में अनुनासिक प्रयुक्त होता था। जैसे:- चलहि – चलहिं। लेकिन कुछ शब्द अनुनासिक रहित थे। जैसे:- सिंह – सीह। कहीं-कहीं पर बिना जरूरत के अनुनासिक का प्रयोग होता था। जैसे:- अक्षु – अंसु।
  6.  अपभ्रंश भाषा में उकार की बहुलता देखने को मिलती है। जैसे:- मन – मनु, चल – चलु।
  7.  संगीतात्मक स्वराघात की समाप्ति एवं बलात्मक स्वराघात की शुरुआत।
  8.  स्वर का लोपन भी देखने को मिलता है। जैसे:- अरण्य – रण्य, लज्जा – लाज।
  9.  व्यंजन माला में ङ, ञ, न, श, ष,  का अभाव एवं वर्ग प्रधान भाषा बन गया था।
  10.  संयुक्त व्यंजन खत्म। जैसे:- चक्र – चक्क, धर्म – धम्म।
  11.  अंत्य व्यंजन समाप्त। जैसे:- जगत – जग।
  12.  तत्सम, तद्भव, देशज, विदेशज सभी प्रकार के शब्द हमें देखने को मिलता है। तद्भव की संख्या सर्वाधिक होती थी। तुर्कों के आगमन से विदेशी शब्दों का प्रयोग होने लगा था।
  13.  दो वचन का प्रयोग होता था। जैसे:- एकवचन और बहुवचन।
  14.  लिंग दो थे – स्त्रीलिंग और पुल्लिंग। नपुंसकलिंग खत्म हो चुका था।
  15.  भाषा वियोगात्मक की ओर अग्रसर थी।

अतः हम कह सकते हैं कि अपभ्रंश भाषा अपनी पृथक भाषाई पहचान के साथ-साथ समकालीन सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक अनुभवों को भी व्यक्त करने में सफल थी।

अवहट्ट (900 ईस्वी – 1100 ईस्वी तक)

चूँकि अवहट्ट का अलग से कोई काल निर्धारण नहीं किया गया है। अपभ्रंश काल 500 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक माना गया है। तो इसी काल समय में लगभग 900 ईस्वी से 1100 ईस्वी तक अवहट्ट का भी स्वरूप देखने को मिलता है। लेकिन कई विद्वान इसे निराधार मानते हैं। डॉ भोलानाथ तिवारी भी ऐसी मान्यता का खंडन किया है। डॉ सुनीति कुमार चटर्जी एवं अन्य कई विद्वानों ने अपभ्रंश और आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की कड़ी को अवहट्ट कहा है।

12 वीं सदी में अट्टहमाण ने इसके लिए अवहट्ठ शब्द का प्रयोग किया। सर्वप्रथम 14वीं शताब्दी में जो ज्योतिरेश्वर ठाकुर ने अवहट्ट शब्द का प्रयोग किया था। दामोदर पंडित ने 12वीं शताब्दी में अपभ्रंश शब्द का प्रयोग किया है एवं विद्यापति ने 14वीं शताब्दी में अवहट्ठ कहा तो रविकर ने एक स्थान पर अपभ्रंश कहा तथा दूसरे स्थान में अपभ्रष्ट शब्द का प्रयोग किया। लेकिन वर्तमान समय में अवहट्ट नाम ही अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं के बीच की कड़ी के लिए सर्वमान्य हो गया है।

अवहट्ट भाषा की विशेषताएं

अवहट्ट की निम्नलिखित विशेषताएं हमें देखने को मिलती है:-

  • अवहट्ट की ध्वनियों में कोई विशेष अंतर नहीं था। और दो नई स्वर ध्वनियों का विकास हुआ तथा तत्सम शब्दों में का प्रयोग व्यापक रूप में हुआ। ड, ढ की नई ध्वनियां जुड़ी एवं ध्वनि के विकास होने से ही यह भाषा हिंदी भाषा के बहुत निकट आई।
  •  स्वर गुच्छों में कमी होने लगी। जैसे:- भंडारिअ – भंडारी।
  •  स्त्रीलिंग शब्दों के अंत्य ‘आ’ का लोप। जैसे:- आकांक्षा – आकांख।
  •  बिना जरूरत के अनुनासिकता का प्रयोग में वृद्धि। जैसे:- ग्रीवा – गीव,  निद्रा – निंद।
  •  संज्ञा रूप सरल हो गए एवं नपुंसकलिंग खत्म हो गई।
  •  परंपरागत तत्सम शब्दों का प्रयोग एवं विदेशी शब्दों का प्रयोग बढ़ता गया।

 अतः अपभ्रंश के उत्तर काल में और आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के उदय के पूर्व संधि काल की भाषा अवहट्ट थी।

पुरानी हिंदी (1100 ईस्वी – 1400 ईस्वी)

आधुनिक हिंदी के प्रारंभिक अवस्था को पुरानी हिंदी कहा जाता है। सन 1000 के आखिरी दशक के आसपास पुरानी हिंदी का उदय हुआ। सर्वप्रथम इसका नामकरण चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने किया था। कई भाषा शास्त्रियों ने अपभ्रंश और अवहट्ट की अगली कड़ी पुरानी हिंदी को माना है। पुरानी हिंदी 1100 ईस्वी से 1400 ईस्वी के बीच कई ऐसी शब्द है जो आधुनिक हिंदी से मिलती जुलती है जिस कारण पुरानी हिंदी को हम आधुनिकता की श्रेणी में रख सकते हैं। सर्वप्रथम नाथ जोगियों की वाणियों में आरंभिक हिंदी का जहां-तहां प्रयोग मिलता है। हेमचंद्र ने अपने ‘प्राकृत व्याकरण’ में जिस ग्राम्य भाषा का उल्लेख किया है वह हिंदी का आरंभिक रूप जान पड़ता है। वस्तुतः 11वीं से 14वीं शताब्दी के मध्य का समय अपभ्रंश और हिंदी के बीच संक्रांति काल जैसा था इसे या तो परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ट या पुरानी हिंदी कह सकते हैं। स्वयंभू, विद्यापति, मुल्ला दाऊद, अमीर खुसरो, रासो साहित्य, इन सभी के रचनाओं में पुरानी हिंदी देखने को मिलती है।

यहां पर पुरानी हिंदी के विशेषताओं का जिक्र नहीं किया जा रहा है क्योंकि पुरानी हिंदी की विशेषताएं अपभ्रंश और अवहट्ट की विशेषताओं से मिलती जुलती है।

(3) आधुनिक भारतीय आर्य भाषा: (काल: 1000 ई• – अब तक):-

लगभग 1100 ईस्वी के आते-आते अपभ्रंश का काल समाप्त हुआ एवं आधुनिक भारतीय भाषाओं का काल आरंभ हुआ। अपभ्रंश के क्षेत्रीय स्वरूपों से ही आधुनिक भाषा का जन्म हुआ। यही आगे चलकर पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी, बिहारी, पूर्वी हिंदी और पहाड़ी तथा पांच उपभाषाओं तथा इनसे विकसित कई क्षेत्रीय बोलीयों जैसे:- ब्रज भाषा, खड़ी बोली, जयपुरी, भोजपुरी, अवधी व गढ़वाली आदि को समग्र रूप से हिंदी कहा जाता है।

आधुनिक भारतीय आर्य भाषा को भी क्षेत्रों के आधार पर कई वर्गों में विभाजित किया जा सकता है:-

hindi bhasha ka udbhav aur vikasअब हम आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के प्रमुख बोलियों को भी विस्तार से जानेंगे:-

लहंदा

इस भाषा को क्षेत्र के आधार पर उत्तरी-पश्चिमी वर्ग में रखा गया है। लहंदा का शाब्दिक अर्थ है पश्चिमी। एवं पश्चिमी पंजाब में बोली जाने वाली भाषा के कारण इसे लहंदा कहा जाता है। जनगणना 1961 के अनुसार लहंदा बोलने वालों की संख्या (पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में) 1 करोड़ 22 लाख थी।

लहंदा बोली अपभ्रंश के केकय से हुई है। जबकि लहंदा में  ब्राचड़ तथा पैशाची बोली का भी पर्याप्त प्रभाव देखने को मिलता है। इसमें फारसी और अरबी के शब्द व्यापक मात्रा में हैं एवं इसके बोलने वाले भी मुसलमान ही हैं। इसकी बोलियां जटकी, मुल्तानी तथा जांगली है। इस भाषा में साहित्य न के बराबर लिखा गया है।

पंजाबी

इस भाषा को भी उत्तरी-पश्चिमी वर्ग में रखा गया है। पंजाब का अर्थ ‘पांच नदियों का देश’ पंजाब में बोली जाने के कारण इसे पंजाबी कहा जाता है। पंजाबी बोलने वालों की संख्या पंजाब में बहुत अधिक है। 1961 के जनगणना के अनुसार इनकी संख्या 2 करोड़ 3 लाख थी। इसका विकास टक्क अपभ्रंश से माना जाता है।

इस पर शौरसेनी, केकय तथा पैशाची का प्रभाव देखने को मिलता है। इसकी मुख्य बोलियां माझी, डोगरी, दोआबी, राठी है। पंजाबी में आधुनिक साहित्य पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है जबकि प्राचीन साहित्य का अभाव है।

सिन्धी

सिंधु नदी के नाम पर ही सिंध प्रदेश बना एवं वहां की भाषा को सिन्धी कही गई। सिन्धी बोलने वाले पाकिस्तान के सिंध प्रांत में तथा कुछ भारत में भी हैं। सिन्धी का विकास ब्राचड़ अपभ्रंश से हुआ है। सिन्धी बोलने वाले मुसलमान हैं इसलिए इनके शब्दों में अरबी और फारसी शब्दों का समावेश है। सिन्धी की मुखिया बोलियां बिचौली, सिराइकी, थरेली, लासी, लाड़ी तथा कच्छी है। सिन्धी में आधुनिक साहित्य पर्याप्त मात्रा में है जबकि प्राचीन साहित्य का अभाव है।

गुजराती

गुजराती ‘गुजरात’ की भाषा है एवं इसका संबंध ‘गुर्जर’ जाति से है। 1961 के जनगणना से पता चलता है कि गुजराती बोलने वालों की संख्या 2 करोड़ 3 लाख थी। इसका विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है तथा गुजराती साहित्य पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है एवं गुजराती भाषा साहित्य की दृष्टि से संपन्न भाषा है। इसकी कुछ प्रमुख बोलियां है- पट्टनी, सुरती, काठिया-वाड़ी।

मराठी

 महाराष्ट्र में बोले जाने के कारण इसका नाम ‘मराठी’ पड़ा। 1961 के जनगणना के अनुसार मराठी बोलने वालों की संख्या 3 करोड़ 33 लाख थी। इसका विकास महाराष्ट्री अपभ्रंश से हुआ है तथा इसकी मुखिया बोलियां- कोंकणी, नागपुरी, माहारी, कोष्टी है। मराठी में साहित्य पर्याप्त मात्रा में देखने को मिलती है तथा साहित्य के दृष्टि से मराठी भाषा एक संपन्न भाषा है।

बांग्ला

बांग्ला भाषा भारत के पश्चिम बंगाल और बांग्लादेश में बोली जाती है। 1961 के जनगणना के अनुसार भारत में 3 करोड़ 38 लाख और बांग्लादेश में 2 करोड़ 62 लाख लोग बांग्ला बोलते हैं। बांग्ला का विकास मागधी अपभ्रंश से है तथा इसकी प्रमुख बोलियां- पश्चिमी, दक्षिणी, पश्चिमी-उत्तरी राजवंशी, पूर्वी आदि है। यह बंगाली साहित्य के दृष्टिकोण से काफी संपन्न भाषा है।

असमी

असम में बोले जाने के कारण इसका नाम ‘असमी’ पड़ा। 1961 के जनगणना के आधार पर लगभग 3 करोड़ 39 लाख लोग इसे बोलते थे। इसका विकास मागधी अपभ्रंश के उत्तरी-पूर्वी रूप से हुआ है। इसकी मुखिया बोली विश्नुपुरिया है। असमी में भी पर्याप्त साहित्य देखने को मिलती है।

उड़िया

उड़ीसा में बोले जाने के कारण इसका नाम ‘उड़िया’ पड़ा। यह भाषा 1961 के जनगणना के अनुसार 1 करोड़ 57 लाख लोगों द्वारा बोली जाती थी। उड़िया का विकास मागधी अपभ्रंश के दक्षिणी-पूर्वी रूप से हुआ है। उड़िया की मुखिया बोलियां- गंजामी, भत्री एवं संभलपुरी है।

हिंदी

हिंदी का अर्थ ‘हिंद का’ है। हिंदी के भी पांच उप भाषाएं हैं:-

  •  पश्चिमी हिंदी (खड़ी बोली, हरियाणी, ब्रज, बुंदेली, कन्नौजी समूह)
  •  पूर्वी हिंदी (अवधी, बघेली, छत्तीसगढ़ी का समूह)
  •  राजस्थानी (उत्तरी, दक्षिणी, पूर्वी, पश्चिमी राजस्थानी समूह)
  •  पहाड़ी (पश्चिमी तथा मध्यवर्ती पहाड़ी समूह)
  •  बिहारी (भोजपुरी, मगही, मैथिली का समूह)

1961 ईस्वी के जनगणना के आधार पर हिंदी तथा उसके उप भाषाओं के बोलने वालों की संख्या 22 करोड़ 52 लाख थी। पश्चिमी हिंदी का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। पूर्वी हिंदी की उत्पत्ति अर्धमगधी अपभ्रंश से तथा राजस्थानी शौरसेनी के उपनागर अपभ्रंश से।

पहाड़ी के उत्पत्ति से संबंधित मत में विद्वानों में भिन्नता है। डॉ भोलानाथ तिवारी शौरसेनी से ही पहाड़ी की उत्पत्ति बताते हैं। बिहारी भाषा का विकास मागधी अपभ्रंश से हुआ है लेकिन इस पर पश्चिमी हिंदी, पूर्वी हिंदी तथा शौरसेनी का भी पर्याप्त प्रभाव देखने को मिलता है।

इस प्रकार हिंदी भाषा का क्षेत्र काफी विस्तृत है तथा यह भारत के बहुत अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है साथ ही यह साहित्य के दृष्टिकोण से भी संपन्न है। हमने देखा कि हिंदी की कई उपभाषाएं हैं तो कुछ प्रमुख उपभाषाओं का भी यहां वर्णन करना जरूरी है:-

खड़ी बोली (कौरवी)

‘खड़ी बोली’ का दो अर्थों में प्रयोग किया जाता है:-

  1.  मानक हिंदी के लिए क्योंकि खड़ी बोली ही कालांतर में अधिक विकसित होकर अपने मानक और प्रतिष्ठित रूप में वर्तमान और बहुप्रचलित मानक हिंदी के रूप में सामने आई।
  2.  यह उस बोली के लिए प्रयोग होता है जो दिल्ली तथा मेरठ के आसपास बोली जाती है। क्योंकि कुरु जनपद का यह क्षेत्र था और यहां की भाषा होने के कारण इसे राहुल सांकृत्यायन ने  कौरवी बोली कहा है।

खड़ी बोली का विकास शौरसेनी अपभ्रंश के उत्तरी रूप से हुआ है। खड़ी बोली का क्षेत्र देहरादून का मैदानी भाग, सहारनपुर, मेरठ, दिल्ली, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, बिजनौर, रामपुर आदि है। इसमें लोक साहित्य पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है तथा इसकी उप बोलियां- पश्चिमी कौरवी, पहाड़ ताली तथा बिजनौरी है।

ब्रजभाषा

‘ब्रज’ का अर्थ है- पशुओं का झूंड या चारागाह। पशुपालन की प्रधानता के कारण इस क्षेत्र को ब्रज कहा गया तथा यहां की भाषा भी ब्रज कहलाए। यह भाषा मथुरा, धौलपुर, मैनपुरी, आगरा, अलीगढ़, एटा और बदायूं के आसपास बोली जाती है। ब्रज भाषा का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है। इसकी मुखिया बोलियां- भुक्सा, डांगी, भरतपुरी, माथुरी है। यह साहित्य एवं लोक साहित्य दोनों दृष्टिकोण से संपन्न भाषा है। ब्रजभाषा के कवि सूरदास, तुलसीदास, रहीम, रसखान, बिहारी आदि हैं।

ब्रजभाषा का जिक्र करते समय यह भी जानना जरूरी है कि ब्रजबुलि और पिंगल क्या है?

ब्रजबुलि को कभी-कभी लोग ब्रजभाषा समझ लेते हैं लेकिन यह बांग्ला भाषा का कृत्रिम रूप है। जिसमें 15वीं-16वीं सदी में गोविंददास तथा ज्ञानदास आदि कवियों द्वारा कृष्ण भक्ति विषयक काव्य लिखा गया था तथा कृष्ण का संबंध ब्रज से होने के कारण ही इसे ‘ब्रजबुलि’ कहा गया। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि यह ब्रजभाषा है क्योंकि व्याकरण एवं शब्द समूह की दृष्टि से ब्रजबुलि में बांग्ला तथा मैथिली के अलावा ब्रज में पश्चिमी हिंदी के रूपों का भी थोड़ा मिश्रण हमें देखने को मिलता है।

पिंगल

ब्रजभाषा का एक अन्य नाम ‘पिंगल’ भी है। पिंगल प्राचीन मुनि थे जो छंदशास्त्र के आदि आचार्य थे। इसी से ‘पिंगल’ या ‘पिंगलशास्त्र’ कहने की परंपरा आई। इसका संबंध कविता से है पिंगल का प्रयोग शौरसेनी अपभ्रंश के लिए राजस्थान में प्रयोग आरंभ हुआ बाद में यह अन्य जगहों में भी प्रचलन में आया।

हरियाणी

हरियाणी भाषा का विकास शौरसेनी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुआ है। अधिकांशत यह भाषा हरियाणा तथा कुछ दिल्ली में बोली जाती है। इसकी दो बोलियां जाटू और बांगरू है। कुछ लोग बांगरु को ही हरियाणी बोलते हैं।

बुंदेली

बुंदेलखंड तथा आसपास में बोली जाने वाली भाषा है। बुंदेली का विकास शौरसेनी अपभ्रंश से हुआ है।

कन्नौजी

कन्नौज तथा आसपास में बोली जाने वाली भाषा है। यह शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है। ब्रजभाषा से समानता के कारण इसे कभी-कभी लोग ब्रजभाषा भी कहते हैं। यह भी शौरसेनी अपभ्रंश से निकली है।

बघेली

रीवा तथा आसपास के क्षेत्र को बघेलखंड कहा जाता है तथा यहां की बोली को बघेली कहा जाता है। इसका विकास अर्धमगधी अपभ्रंश से हुआ है। भाषा वैज्ञानिक से अवधी की उपबोली कहते हैं। इसकी कुछ प्रमुख बोलियां- जुड़ार एवं गहोरा है।

छत्तीसगढ़ी

छत्तीसगढ़ में बोली जाने के कारण इसका नाम छत्तीसगढ़ी पड़ा। इसका विकास अर्धमागधी अपभ्रंश के दक्षिणी रूप से हुआ। इसकी मुखिया बोलियां- सरगुजिया, सादरी, बैगानी, बिंझवाली है।

राजस्थानी

राजस्थानी के लिए आधुनिक भारतीय भाषाओं के आने से पूर्व ‘मरू’ का प्रयोग किया जाता था एवं आठवीं सदी में उद्योतन सूरी के अपभ्रंश ग्रंथ ‘कुवलयमाला’ में 18 देश भाषाओं के नाम में एक नाम मरु भी आता है। 15वीं सदी में तो अनेक ग्रंथों में राजस्थानी को मरूभाषा, मरुबानी, मरुदेशीय, मरुभूम भाषा इत्यादि कहा गया।

राजस्थानी में कई बोलियां तो आधुनिक युग के पूर्व के हैं। जैसे:- मालव, मारवार, मेवाती, मेवाड़ी इत्यादि। कुछ लोग राजस्थानी के लिए डिंगल या मारवाड़ी का इस्तेमाल करते हैं। इसकी भाषा क्षेत्र काफी विस्तृत है जैसे:- गुड़गांव, अलवर, भरतपुर, जयपुर, बूंदी, कोटा, भोपाल, इंदौर, खानदेश, बरार, उदयपुर, जैसलमेर, जोधपुर, पूर्वी सिंध एवं बीकानेर तक फैला है।

 इसके अलावा मुंबई, कोलकाता, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र तथा तमिलनाडु में भी राजस्थानी बोलने वालों की आंशिक रूप से संख्या है।

डॉ गियर्सन ने राजस्थानी बोलियों के 5 वर्ग किए हैं:-

  1.  पश्चिमी राजस्थानी – (जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर, उदयपुर) (बोलियां- ढटकी, थली, बीकानेरी, बागडी, मेवाड़ी)
  2.  उत्तर-पूर्वी राजस्थानी – (अलवर, भरतपुर, दिल्ली के आसपास) (प्रमुख बोलियां- आहिरवाटी, मेवाती)
  3.  मध्य-पूर्वी राजस्थानी – (जयपुर, कोटा तथा बूंदी) (बोलियां- जयपुरी, किशनगढ़ी)
  4.  दक्षिण-पूर्वी राजस्थानी – (मालवा के आसपास) (बोली- मालवी)
  5.  दक्षिणी राजस्थानी – (निमाड़ के आसपास) (बोली- निमाड़ी)

डिंगल

डिंगल राजस्थानी की एक प्रमुख बोली है। मारवाड़ी भाषा का यह साहित्यिक रूप है। डिंगल को भाटभाषा भी कहा जाता है। डिंगल शब्द की उत्पत्ति पर विद्वानों में मतभेद है। किसी के तर्क उचित नहीं लगते। डिंगल का सर्वप्रथम प्रयोग डिंगल के प्रसिद्ध कवि बाँकीदास की पुस्तक को ‘कुकवि बत्तीसी’ में मिलता है। साहित्य में 13वीं सदी में डिंगल का प्रयोग मिलता है। डिंगल के प्रसिद्ध कवि नरपति नाल्ह, ईसरदास, पृथ्वीराज, बाँकीदास, सरलादास आदि हैं।

पहाड़ी

‘पहाड़ी’ नाम से ही पता चलता है कि यह पहाड़ में रहने वालों की भाषा होगी। अतः यह हिमाचल प्रदेश के भद्रवाह के उत्तर-पश्चिम से लेकर नेपाल के पूर्वी भाग तक फैली हुई है। पहाड़ी को भी तीन भागों में बांटा गया है:-

  1.  पश्चिमी पहाड़ी
  2.  मध्यवर्ती पहाड़ी
  3.  पूर्वी पहाड़ी

इनकी बोलियां नेपाली, कुमायूँनी तथा गढ़वाली है। पहाड़ी बोलियों का विकास के लिए अलग-अलग मत दिए गए हैं:-

डॉ सुनीति कुमार का कहना है कि यह दरद या खस अपभ्रंश से निकला है। जबकि डॉ भोलानाथ तिवारी का मानना है कि यह शौरसेनी अपभ्रंश से निकला है। साहित्यिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो नेपाली और कुमायूँनी का अधिक महत्व है। जबकि गढ़वाली में तो केवल लोकसाहित्य ही देखने को मिलती है।

बिहारी

यह भाषा मुख्यतः बिहार में बोली जाने के कारण ‘बिहारी’ कहलाया। बिहार में बोली जाने वाली तीन बोलियां मिलकर बिहारी भाषा बना है। बिहारी की उत्पत्ति पश्चिमी मध्य अपभ्रंश से हुआ है।गियर्सन के भाषा सर्वेक्षण ने लगभग 36लाख लोग इस भाषा को बोलते थे तथा बिहार से बाहर 9 लाख लोग।

इसका क्षेत्र- नेपाल की सीमा से लेकर दक्षिण में छोटानागपुर तक तथा पश्चिम में बस्ती, मिर्जापुर से लेकर पूर्व से माल्दह तक है। इसे भी दो भागों में बांटा जाता है:- पूर्वी बिहारी और पश्चिमी बिहारी। पूर्वी बिहारी के अंतर्गत मैथिली और मगही भाषा आती है और पश्चिमी बिहारी के अंतर्गत भोजपुरी आती है।

मैथिली

यह बिहारी भाषा की उपबोली है। मैथिली मिथिला क्षेत्र से संबंध रखता है। मैथिली भाषा के लिए प्राचीन नाम देसील बअना मिलता है। इसका अन्य नाम तिरहुतिया भी है। मैथिली नाम का प्रयोग आधुनिक काल में सर्वप्रथम 1801 ईस्वी में कॉल ब्रुक ने किया था। जॉर्ज ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार मिथिला बोलने वालों की संख्या 1 करोड़ से अधिक थी। मिथिला बिहार के उत्तरी भाग में पूर्वी चंपारण, दरभंगा, पूर्णिया, मुंगेर तथा उत्तरी संथाल परगना में बोली जाती है। इसकी उप बोलियां है उत्तरी मैथिली, दक्षिणी मैथिली, पूर्व मैथिली, पश्चिमी मैथिली, छिका-छिकी तथा जोलहा बोली। बिहारी बोलियों में मैथिली ही साहित्यिक दृष्टि से संपन्न है। वर्तमान में मैथिली भाषा के साहित्यकार खड़ी बोली हिंदी का प्रयोग कर रहे हैं। मैथिली की उत्पत्ति मागधी अपभ्रंश के मध्य रूप से हुई है।

मगही

मगही गया जिले तथा पटना, हजारीबाग, भागलपुर, पलामू, मुंगेर के साथ-साथ रांची के कुछ भाग में भी बोली जाती है। मगही शब्द मागधी का विकसित रूप है। यह मगध की भाषा होने के कारण इसका नाम मागधी पड़ा। ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 65 लाख लोग मगही बोलते थे। मगही पर मैथिली तथा भोजपुरी का प्रभाव पर्याप्त रूप से देखने को मिलता है। मगही में साहित्य न के बराबर है थोड़ी बहुत लोकसाहित्य देखने को मिलती है।

भोजपुरी

भोजपुरी का नाम भोजपुर नाम के एक छोटे से कस्बा जो शाहाबाद जिला का एक परगना है इसी के नाम पर पड़ा है। भोजपुरी शब्द का प्रथम प्रयोग 1789 ईस्वी में मिलता है। भोजपुरी को भोजपुरिया भी कहते हैं। ग्रियर्सन के भाषा सर्वेक्षण के अनुसार भोजपुरी बोलने वालों की संख्या 2 करोड़ थी।

भोजपुरी उत्तर में नेपाल बॉर्डर से दक्षिण में छोटानागपुर एवं पश्चिम में पूर्वी मिर्जापुर, बनारस तथा पूर्वी फैजाबाद से लेकर पूर्व में रांची तक बोली जाती है। इसकी चार उप बोलियां है:- उत्तरी भोजपुरी, दक्षिणी भोजपुरी, पश्चिमी भोजपुरी तथा नागपुरिया। भोजपुरी में साहित्य का अभाव है तथा यहां के लोग साहित्य में अवधि या ब्रज तथा वर्तमान में खड़ी बोली का प्रयोग करते हैं। भोजपुरी का विकास पश्चिमी मागधी या मागधी अपभ्रंश के पश्चिमी रूप से हुई है।

निष्कर्ष :-

संक्षेप में हम इस प्रकार से हिंदी भाषा के उद्भव और क्रमिक विकास को देख सकते हैं:-

हिंदी भाषा (उत्पत्ति और क्रमिक विकास)
 
संस्कृत (1500 ई•पू• – 500 ई•पू•) वैदिक और लौकिक

पाली (500 ई•पू• – 1 ई•) बुध के उपदेश

प्राकृत (1 ई• – 500 ई•) जन सामान्य की भाषा

अपभ्रंश (500 ई• – 1000 ई•) लोक कथा

 अवहट्ट (900 ईस्वी – 1100 ईस्वी तक) संक्रांति काल

पुरानी हिंदी (1100 ईस्वी – 1400 ईस्वी) संक्रांति काल

हिंदी (1000 ई• – अब तक) हिंदी के विविध रूप

अतः हमने हिंदी भाषा का उद्भव और विकास को एक विस्तृत संदर्भ में देखा। हिंदी के प्राचीनतम रूप से लेकर वर्तमान तक के एक लंबी इतिहास को देखने के बाद पता चलता है कि हिंदी भाषा को आधुनिक रूप पाने में हजारों साल का समय लग गया एवं धीरे-धीरे परिवर्तन के बाद हमारे सामने हिंदी की एक मानक रूप उभर कर सामने आयी जो साहित्य के दृष्टिकोण से काफी समृद्ध और संपन्न है।

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