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हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण

हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण का कार्य काफी जटिल समस्या है। मोटे तौर पर हम कह सकते हैं कि हिंदी भाषा की उत्पत्ति से यह समस्या जुड़ा है। किसी भाषा का काल निर्धारण करना कि अमुक अवधि के बाद यह भाषा खत्म होकर अमुक अवधि में एक नई भाषा या विचारधारा की शुरुआत हो गई तो इस तरह की तिथि का निर्धारण बहुत कठिन होता है। क्योंकि भाषा और विचारधारा तो निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है। किसी भी भाषा का शुरुआत अचानक नहीं होता और वह अचानक समाप्त भी नहीं होती, वह धीरे-धीरे विकास को प्राप्त करती है और धीरे-धीरे ही वह समाप्त भी होती है।

इसी तरह से विचारधारा की भी होती है।भाषा और विचारधारा मिलकर ही साहित्य का निर्माण करते हैं। किसी साहित्य का उस काल के परिस्थितियों और घटनाओं से और किसी विशेष कारणों से प्रभावित होता है और इन सब का प्रभाव जब समाज में पड़ता है तो इसका प्रभाव साहित्य पर भी पड़ता है। क्योंकि समाज का प्रतिबिंब साहित्य ही होता है।

अतः समाज की परिस्थितियाँ जैसी है उसका साक्षात चित्र हमें साहित्य के द्वारा मिल जाती है। इस प्रकार साहित्य किसी युग विशेष की विशेष प्रवृत्ति से प्रभावित होता है या फिर उस समय कोई विशेष पुरुष (महापुरुष) के अवतरित होकर पूरे समाज को नई दिशा प्रदान करे तो साहित्य पर इसका भी छाप पड़ जाता है। और साहित्य की दिशा हमेशा परिवर्तनशील होती रहती है।साहित्य की दिशा में प्रवृतियां एवं उसकी विकास की विशेष विचारधारा से प्रभावित होकर साहित्य चलता है उसे ही आधार बनाकर के हिंदी साहित्य का काल विभाजन किया जाता है।

हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण

हिंदी साहित्य का इतिहास, संक्षिप्त जानकारी

हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण के बारे जानने से पहले हमें हिंदी साहित्य का इतिहास के बारे में भी जान लेना उचित होगा।

हिंदी भाषा साहित्य की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है। संस्कृत का काल लगभग 1000 ईसा पूर्व से 500 ईसा पूर्व माना जाता है। इस समय संस्कृत के दो रूप मिलते हैं वैदिक संस्कृत एवं लौकिक संस्कृत। इस समय वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों के साथ-साथ बाल्मीकि, व्यास, भाष, अश्वघोष, कालिदास, माघ की रचना हमें देखने को मिलती है। इस काल में पाणिनी ने संस्कृत के बिगड़ते स्वरूप को व्याकरणबद्ध किया था। इस समय कुछ क्षेत्रीय बोलियाँ भी विकसित हुई जैसे:- पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय एवं पूर्वी बोलियां।

संस्कृत अब बोल चाल की भाषा में परिवर्तित होकर लगभग 500 ईसा पूर्व के बाद सामने आई जिसे “पालि” नाम दिया गया। बौद्ध ग्रंथों में पालि का प्रयोग हुआ है वह इसी बोलचाल भाषा का ही शिष्ट और मानक रूप था। इस समय की क्षेत्रीय बोलियां थी- पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय, पूर्वी बोलियां एवं दक्षिणी बोलियां।

इसके बाद पालि भाषा में बदलाव देखने को मिलता है जिसे “प्राकृत” कहा गया। प्राकृत भाषा से ही क्षेत्रीय अपभ्रंश का विकास हमें देखने को मिलता है। अपभ्रंश भाषा का काल 500 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक माना जाता है। अपभ्रंश भाषा प्राकृत तथा आधुनिक आर्य भाषाओं के बीच की कड़ी है। अपभ्रंश भाषा से निकलने वाली आधुनिक भाषाएं निम्न है जैसे:- शौरसेनी, पैशाची, ब्राचड़, खस, महाराष्ट्री, अर्धमागधी, मागधी इत्यादि।

इसके बाद अवहट का समय (लगभग 900 ईस्वी से 1100 ईस्वी) आता है जिसे अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के बीच की कड़ी माना जाता है। इस समय अवहट भाषा में सिद्ध साहित्य और नाथ साहित्य की रचना हुई।

इसके बाद पुरानी हिंदी का समय (1100 ईस्वी से 1400 ईस्वी) आया। यह भाषा आधुनिक हिंदी से मिलती-जुलती है अर्थात इसे हम आधुनिक हिंदी का प्रारंभिक अवस्था कह सकते हैं।

हिंदी भाषा का विकास अपभ्रंश के (शौर सेनी, मगधी और अर्धमगधी) के रूपों में हुआ है।अपभ्रंश भाषा का काल 500 से 1000 ईस्वी तक माना जाता है लेकिन अपभ्रंश से हिंदी को मूल-रूप में आने के लगभग 7-8वीं शताब्दी के मध्य में भाषा की एक नई रूप उभरी। जिसे उत्तर अपभ्रंश या वहट्ट कहा जाता है। यही आवहट्ट को हिंदी की प्रारंभिक रूप कहा गया। इसे पुरानी हिंदी भी कहते हैं। यह आधुनिक हिंदी के प्रारंभिक अवस्था को दर्शाता है।

काल विभाजन की आवश्यकता क्यों?

अतः अब हम यह समझेंगे कि हिंदी साहित्य का काल विभाजन की जरूरत क्यों हुआ? हिंदी साहित्य के काल विभाजन की जरूरत इसलिए है क्योंकि इससे हमें अध्ययन में सुविधा होती है। साहित्य को सही ढंग से समझ पाने में मदद मिलती है। एवं साहित्य के विकास की दिशा एवं विकास को प्रभावित करने वाले तत्व को समझ सकने में मदद मिलती है।

हिंदी साहित्य के विकास में हमेशा नए तत्वों का समावेश होता रहता है और इस विकास में कौन सी दिशा रही, कौन सी ऐसी घटक रहे, जिसने विकास की दिशा को प्रभावित किया।

हिंदी साहित्य में हुए विभिन्न परिवर्तनों को जानने के लिए भी काल विभाजन की आवश्यकता होती है। समय-समय पर हमें भक्ति रस, शृंगार रस, वीर रस तो कभी राजनीति से प्रभावित साहित्य देखने को मिलता है। अतः हिंदी साहित्य के विकास की परंपरा को अच्छी तरह समझने के लिए भी काल विभाजन की आवश्यकता है।

इस संबंध में रेने वेलेक का कहना है कि “काल विभाजन के बिना साहित्य का इतिहास घटनाओं की अर्थव्यवस्था का समूह, मनमाना नामकरण, साहित्य का दिशाहीन प्रवाह हो जाता है।”

अर्थात एक साहित्य को व्यवस्था प्रदान करने के लिए तथा सही नामकरण कर पाने के लिए काल विभाजन जरूरी है। एवं अध्ययन कर्ता के सुविधा के लिए भी काल विभाजन जरूरी है।

हिंदी साहित्य का काल विभाजन का आधार

हिंदी साहित्य के काल विभाजन के कई आधार हैं:-

  •  ऐतिहासिक कालक्रम का आधार – इसके अनुसार इतिहासकारों द्वारा आदि काल, मध्यकाल एवं आधुनिक काल के रूप में कालों का विभाजन किया गया है।
  •  शासक और शासन काल के आधार पर –  भारत में  कई महान शासकों का युग हुआ जैसे एलिजाबेथ  का युग, विक्टोरिया का युग, मराठा युद्ध इत्यादि। इस तरह के महत्वपूर्ण युगों में किसी खास साहित्यिक प्रवृत्तियाँ दिखाई देता हो तो काल विभाजन में शासकों के युग का नाम दिया जा सकता है।
  • युग प्रवर्तक (महान व्यक्ति) साहित्यकार के आधार पर- किसी महान पुरुष साहित्यकार के अवतरित होने पर तथा उनके द्वारा साहित्य को नई दिशा में ले जाने की क्षमता हो जैसे भारत में कई महान पुरुष साहित्यकार उत्पन्न हुए जिन्होंने भारत के समाज को एक नई दिशा देने में सफल रहे जैसे भारतेंदु जी, द्विवेदी जी इत्यादि इन्होंने साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान दिए इनके आधार पर भी काल विभाजन किया जा सकता है जैसे भारतेंदु युग, द्विवेदी युग,प्रसाद युग।
  •  राजनीतिक नेता के आधार पर- भारत में कई राजनीतिक नेता हुए जिनके युग आज भी स्मरणीय है जैसे गांधी युग, नेहरू युग, स्टालिन युग। विशेष युग में कोई खास साहित्यिक प्रवृतियां दिखाई दे तो राजनीतिक नेताओं के आधार पर भी हिंदी साहित्य का काल विभाजन किया जा सकता है।
  •  राष्ट्रीय सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलनों के आधार पर- भारत में कई ऐसे काल देखने को मिलते हैं जहां राष्ट्रीय आंदोलन, सामाजिक पुनर्जागरण, सांस्कृतिक आंदोलन इत्यादि देखने को मिलते हैं यदि इस तरह के किसी भी काल में साहित्य के किसी खास प्रवृत्ति अगर देखने को मिले तो इसके आधार पर भी काल विभाजन किया जा सकता है जैसे भक्ति काल, पुनर्जागरण काल, सुधार काल इत्यादि।
  •  साहित्य प्रवृत्ति के आधार पर- सभी साहित्यों की रचना एक समय सीमा के अंतर्गत, किसी खास प्रवृत्तियों को देखा जाए तो, इसे भी आधार बनाकर हिंदी साहित्य का काल विभाजन किया जा सकता है जैसे -रीतिकाल, छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद इत्यादि।

वास्तव में समाज या देश में चल रही गतिविधियां वहां के तत्कालीन साहित्य को प्रभावित करती है और जैसे-जैसे घटनाएं परिवर्तित होती वैसे-वैसे साहित्य भी परिवर्तित होती जाती है। इसलिए हिंदी साहित्य का काल विभाजन “साहित्यिक प्रवृत्तियों” के आधार पर किया जाना ही सही प्रतीत होता है।

इसके साथ-साथ नामकरण की समस्या भी थी कि किस कालखंड को क्या नाम दिया जाना चाहिए। इन्हीं सभी समस्याओं का समाधान अलग-अलग इतिहासकारों ने अलग-अलग मत देकर करने की कोशिश की है जिसे हम विस्तार से देखेंगे:-

हिंदी साहित्य का काल विभाजन

सर्वप्रथम गार्सा द तासी जो फ्रेंच के लेखक थे इन्होंने इतिहास लेखन (इस्तवार द ला लितरेत्युर ऐन्दुई ऐन्दुस्तानी (फ्रेंच भाषा) में पहली हिंदी साहित्य लिखे इस संपूर्ण ग्रंथ को तीन खंडों में बांटा। तथा कवियों का विवरण अंग्रेजी वर्णानुक्रम में दिया था। यह प्रारंभिक प्रयास था हिंदी साहित्य लेखन का। लेकिन इन्होंने काल विभाजन का कोई प्रयास नहीं किया।

दूसरा प्रयास हमें शिवसिंह सेंगर का देखने को मिलता है और उनके ग्रंथ का नाम शिव सिंह सरोज जो 1839 ईस्वी में प्रकाशित हुआ था इसमें हिंदी के 1000 कवियों का परिचय दिया गया था लेकिन इसमें भी हिंदी साहित्य का काल विभाजन का प्रयास नहीं किया गया।

जार्ज ग्रियसेन का काल विभाजन

इस क्रम में सबसे पहला प्रयास जार्ज ग्रियर्सन का है:- इन्होंने अपनी पुस्तक “मॉडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ नादर्न हिंदुस्तान” में हिंदी साहित्य का काल विभाजन एवं नामकरण इस तरह से किया है:-

  •  चारण काल – 700-1300 ईस्वी
  •  15 वीं सदी का धार्मिक पुनर्जागरण
  •  जायसी की प्रेम कविता
  •  ब्रज का कृष्ण संप्रदाय
  •  मुगल दरबार
  •  तुलसीदास
  •  रीति काव्य
  •  तुलसीदास के अन्य परवर्ती
  •  18वीं शताब्दी
  •  कंपनी के शासन में हिंदुस्तान
  •  महारानी विक्टोरिया के शासनकाल में हिंदुस्तान

इस प्रकार जार्ज ग्रियर्सन का काल विभाजन वैज्ञानिक नहीं है क्योंकि चारण काल के तुरंत बाद वे 15वीं सदी में पहुंच जाते हैं 14वीं शताब्दी का जिक्र ही नहीं मिलता है। उनका काल विभाजन तो साहित्यिक प्रवृत्ति के आधार पर है लेकिन कालों का नामकरण के लिए अनेक आधारों का सहारा लिया है साथ ही इन्होंने 11 कालखंड बताए जो कि बहुत अधिक है। इन का काल विभाजन पूर्णतयः त्रुटिपूर्ण है परंतु प्रथम प्रयास के रूप में इनका कार्य सराहनीय है परवर्ती इतिहासकारों के लिए इन का काल विभाजन एक नई दिशा प्रदान किया।

पुरानी हिंदी किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।

मिश्र बंधुओं का काल विभाजन

मिश्र बंधुओं ने अपनी पुस्तक “मिश्रबंधु विनोद” (1913 इस्वी) में काल विभाजन करने का प्रयास किया था जो जार्ज ग्रियर्सन के काल विभाजन से ज्यादा विकसित प्रतीत होता है। इन्होंने संपूर्ण हिंदी साहित्य को 5 भागों में बांटा है जो निम्नलिखित है:-

  •  प्रारंभिक काल – पुनः इसे दो भागों में बांटा है:- (1) पूर्वाम्भिक काल (700-1343 वि• स•) और (2) उत्तराम्भिक काल (1344-1444 वि• स•)
  •  माध्यामिक काल – इस काल को भी पुनः दो भागों में बांटा है:- (1) पूर्व माध्यमिक काल (1445-1560 वि• स•) और (2) प्रौढ़ माध्यमिक काल (1561-1680 वि •स•)
  •  अलंकृत काल – (1) पूर्वालंकृत काल (1681-1790 वि• स•) और (2)  उत्तरालंकृत काल (1791-1889 वि• स•)
  •  परिवर्तन काल (1890-1924 वि• स•)
  •  वर्तमान काल (1926- अब तक)

मित्र बंधुओं का यह विभाजन को अधिक मान्यता नहीं मिली क्योंकि काफी सही एवं स्पष्ट विभाजन के बाद भी अनेक विसंगतियां पाई गई जैसे:-

  •  कालखंडों के नामकरण में किसी एक पद्धति को नहीं अपनाई गई।
  •  700-1300 ईस्वी के काल को हिंदी साहित्य से नहीं जोड़ सकते क्योंकि यह अपभ्रंश का काल है।
  •  इनका परिवर्तन का काल है जो अनावश्यक प्रतीत होती है।
  •  काल विभाजन का भी कोई स्पष्ट आधार नहीं है।
  •   इनका काल विभाजन में काफी विसंगतियां है परंतु इनका कार्य सराहनीय है एवं परवर्ती इतिहासकारों के लिए एक नई दिशा प्रदान किया

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार हिंदी साहित्य का काल विभाजन

आचार्य रामचंद्र शुक्ल साहित्य के नामकरण के विषय में कहते हैं कि:- “सारे रचनाकाल को केवल आदि, मध्य, पूर्व और उत्तर इत्यादि खंडों में आंख मूंदकर बांट देना यह भी न देखना कि खंड के भीतर क्या आता है, क्या नहीं। किसी वृत्त संग्रह को इतिहास नहीं बना सकता।”

इन्होंने अपने पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” में स्वयं नामकरण के संदर्भ में लिखा है कि “जिस काल विभाग के भीतर किसी विशेष ढंग की रचनाओं की प्रचुरता दिखाई पड़ती है वह एक अलग काल माना गया है और उनका नामकरण उन्हीं रचनाओं के स्वरूप के आधार पर किया गया है।”

उनका यह भी मानना है कि किसी विशेष समय में लोगों में रुचि विशेष का संचार और पोषण किधर से और किस प्रकार से हुआ है। इन्होंने अपनी पुस्तक हिंदी साहित्य का इतिहास जो उनकी स्वतंत्र पुस्तक नहीं है इन्होंने इसे काशी की नागरी प्रचारिणी सभा से प्रकाशित हिंदी  शब्द सागर की पुस्तक में भूमिका के रूप में लिखा था जिसकी रचना 1929 ईमें इन्होंने की और इसमें 900 वर्षों की हिंदी साहित्य का इतिहास को मुख्य रूप से 4 खंड में बांटा:-

  •  आदिकाल या वीरगाथा काल – (वि• संवत् 1050 – 1375)
  •  पूर्व मध्यकाल या भक्ति काल – (वि• संवत् 1375 – 1700)
  •  उत्तर मध्यकाल या रीतिकाल – (वि• संवत् 1700 – 1900)
  •  आधुनिक काल या गद्य काल – (वि• संवत् 1900 – अब तक)

रामचंद्र शुक्ल ने आधुनिक काल (गद्य काल) को पुनः दो भाग में बांटा है:-

हिंदी साहित्य

साथ ही आधुनिक काल को तीन उत्थानों में भी विभक्त किया है:-

  •  प्रथम उत्थान –  (वि• संवत् 1925 – 1950)
  •  द्वितीय उत्थान –  (वि• संवत् 1950 – 1975)
  •  तृतीय उत्थान –  (वि• संवत् 1975 से अब तक)

इन्होंने इन कालों की रचनाओं की विशेष प्रवृत्ति को आधार बनाकर नामकरण किया है लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि किसी विशेष काल में और तरह की रचनाएं नहीं होती होगी। जैसे- भक्तिकाल या रीतिकाल में भक्तिरस के अलावा वीररस के काव्य भी मिलेंगे, जिस ढंग की रचना वीरगाथा काल में होती थी। अर्थात उसकाल की विशेष प्रवृत्ति का वर्णन होगा फिर उस काल के अतिरिक्त और प्रकार की प्रवृत्ति पर ध्यान दिए जाने योग्य रचनाओं का वर्णन होगा।

आचार्य शुक्ल की काल विभाजन सरल और स्पष्ट होने के कारण काफी मान्यता मिली लेकिन कई इतिहासकारों ने आलोचना कर कई दोषों को उजागर भी किया लेकिन नया रूप देने में असफल रहे। 

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी की काल विभाजन पूर्ववर्ती इतिहासकारों के काल विभाजन से अधिक प्रौढ़ एवं विकसित है। इन का काल विभाजन अधिक श्रेष्ठ है जबकि उन्होंने स्रोत के रूप में पूर्ववर्ती इतिहासकारों का ही नामकरण और काल विभाजन को लिया था लेकिन काल विभाजन का एक अलग रूप ही प्रस्तुत किया।

अपभ्रंश काल को आदि काल उन्होंने नहीं माना लेकिन आदि काल का समय उन्होंने 1050 से 1375 विक्रम संवत् रखा। परवर्ती जितने भी इतिहासकार हुए वे इस काल विभाजन को ही श्रेष्ठ मानते हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के नामकरण में त्रुटि दिखाई देती है जैसे आदिकाल को वीरगाथा काल कहना एवं मध्य काल को दो भाग पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल के रूप में बांटना

इसी का खंडन करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने अपने ग्रंथ हिंदी साहित्य का उद्भव और विकास में काल विभाजन कर शुक्ल जी को ही मान्यता देते हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि शुक्ल जी ने विक्रम संवत के आधार पर काल विभाजन किए हैं और द्विवेदी जी ने ईस्वी सन् के आधार पर काल विभाजन किए हैं और आदिकाल को वीरगाथा काल शुक्ल जी ने कहा था। इसका खंडन कर हजारी प्रसाद द्विवेदी जी केवल आदिकाल कहते हैं।

जिन रचना के आधार पर शुक्ल जी आदिकाल को वीरगाथा काल कह रहे हैं उन रचनाओं को द्विवेदी जी नहीं मानते हैं और वीरगाथा काल कहने से जो वीर रस से बाद की रचनाएं हैं फुटकल में चली जाती हैं उनको स्थान नहीं मिल पाता है जैसे हमीररासो या विद्यापति की पदावली और अमीर खुसरो के पद हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इसे वीरगाथा काल का नाम दिया

अवहट्ट किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी

इन्होंने संपूर्ण हिंदी साहित्य के इतिहास को चार प्रमुख काल खंडों में बांटा है जो निम्नलिखित हैं:-

  •  आदिकाल (1000-1400 ईस्वी)
  •  भक्तिकाल (1400-1600 ईस्वी)
  •  रीतिकाल (1600-1800 ईस्वी)
  •  आधुनिककाल (1800-1952 ईस्वी)

 

डॉ गणपति चंद्र गुप्त का काल विभाजन

डॉ गणपति चंद्र गुप्त जी ने अपने पुस्तक “हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास” में निम्न प्रकार से काल विभाजन किया है:-

  •  प्रारंभिक काल या आदिकाल (उन्मेष काल) – 1184-1350 ईस्वी :- इसे पुनः दो भागों में बांटा है:-
  1. धार्मिक रास काव्य परंपरा (जैन कवियों के काव्य)
  2. संत काव्य (संत कवियों के काव्य)
  •  मध्यकाल या विकास काल (1350-1857 ईस्वी):- इसे तीन भागों में बांटा:-
  1. पूर्व मध्यकाल (उत्कर्ष काल)
  2.  मध्यकाल (चरमोत्कर्ष काल)
  3.  उत्तर मध्यकाल (अपकर्षकाल)
  • आधुनिक काल (1857- अब तक) :- गुप्त जी ने आधुनिक काल को पुनः पांच भागों में बांटा है:-
  1.  भारतेंदु युग (1857-1900 ईस्वी)
  2.  द्विवेदी युग (1900-1920 ईस्वी)
  3.  छायावाद युग (1920-1937 ईस्वी)
  4.  प्रगतिवादी युग (1937-1945 ईस्वी)
  5.  प्रयोगवाद युग (1945-1965 ईस्वी)

डॉ गुप्त जी का काल विभाजन शुक्ल जी के काल विभाजन से मिलता-जुलता प्रतीत होता है। लेकिन उत्तर मध्यकाल को अपकर्ष काल कहना अनुचित लगता है क्योंकि यह काल काव्य का उत्कर्ष काल है।

डॉ रामकुमार वर्मा का काल विभाजन व नामकरण

 डॉ रामकुमार वर्मा ने संपूर्ण हिंदी साहित्य के इतिहास को पांच प्रमुख काल खंडों में बांटा है जो इस प्रकार से हैं:-

  •  संधिकाल (700-100 संवत्)
  •  चारणकाल (1000-1375 संवत्)
  •  भक्तिकाल (1375-1700 संवत्)
  •  रीतिकाल (1700-1900 संवत्)
  • आधुनिक काल (1900-अब तक)

इन्होंने भी हिंदी साहित्य का आरंभ 700 संवत् माना है जो कि अपभ्रंश भाषा का काल था अतः इनका संधिकाल सही नहीं प्रतीत होता। इन्होंने शुक्ल की आलोचना तो किया लेकिन नया काल विभाजन भी नहीं दे पाए अर्थात शुक्ल के काल विभाजन का संशोधित रूप इसे नहीं कहा जा सकता।

अपभ्रंश भाषा किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।

डॉ नगेन्द्र के अनुसार

इन्होंने संपूर्ण हिंदी साहित्य का इतिहास को 4 प्रधान खंडों में बांटा गया है एवं आधुनिक काल को भी पुनः चार उपभागों में बांटा है:-

  •  आदिकाल – 7 वीं – 14 वीं शताब्दी।
  •  भक्तिकाल – 14 वीं के मध्य – 17 वीं शताब्दी के मध्य तक।
  •  रीतिकाल – 70 वी शताब्दी के मध्य – 19 वीं शताब्दी के मध्य तक।
  •  आधुनिक काल – 19 वीं शताब्दी के मध्य से अब तक।

 आधुनिक काल के पुनः चार उप भाग निम्न है:-

  1.  पुनर्जागरण काल (भारतेंदु काल) – 1857-1900 ईस्वी
  2.  जागरण सुधार काल (द्विवेदी काल) – 1900 ईस्वी-1918 ईस्वी
  3.  छायावाद काल – 1918-1938 ईस्वी
  4.  छायावादोत्तर काल:- (1) प्रगति-प्रयोगकाल – 1938-1953 ईस्वी (2) नवलेखन काल – 1953 से अब तक।

डॉ मोहन अवस्थी का काल विभाजन

  •  आधार काल – 700-1400 ईस्वी
  •  भक्ति काल – 1400-1600 ईस्वी
  •  रीतिकाल – 1600-1857 ईस्वी
  •  विद्रोह काल – 1857- अब तक।

श्यामसुंदर दास का काल विभाजन व नामकरण

इन्होंने हिंदी साहित्य का इतिहास को चार खंडों में बांटा है:-

  •  वीरगाथा युग – (संवत् 1050 – 1400)
  •  भक्ति युग – (संवत् 1400 – 1600)
  •  रीति युग – (संवत् 1600 – 1900)
  •  नवीन विकास युग – (संवत् 1900 से अब तक)

रामखेलावन पांडे का काल विभाजन

इन्होंने संपूर्ण हिंदी साहित्य का इतिहास को 6 काल खंडों में बांटा है:-

  •  संक्रमण काल या प्रवर्तन काल – 1000-1400 ईस्वी
  •  संयोजन काल – 1401-1600 ईस्वी
  •  संवर्धन काल – 1901-1800 ईस्वी
  •  संचयन काल – 1801-1900 ईस्वी
  •  संबोधित काल – 1900-1947 ईस्वी
  •  संचरण काल – 1947 – आगे।

रामस्वरूप चतुर्वेदी का काल विभाजन व नामकरण

इन्होंने संपूर्ण हिंदी साहित्य का इतिहास को चार काल खंडों में विभक्त किया है:-

  •  वीरगाथा काल (1000-1350 ईस्वी)
  •  भक्ति काल (1350-1650 ईस्वी)
  •  रीतिकाल (1650-1850 ईस्वी)
  •  गद्य काल (1850 से आगे।)

हिंदी भाषा का उद्भव और विकास विस्तार पूर्वक जानें।

आदर्श काल विभाजन

उपरोक्त वर्गीकरणों को आधार मानकर हिंदी साहित्य के संपूर्ण इतिहास को निम्नलिखित काल खंडों में वर्गीकृत किया जा सकता है:-

  •  आदिकाल (1000 ईस्वी-1350 ईस्वी)
  •  भक्ति काल/ पूर्व मध्यकाल (1350 ईस्वी-1650 ईस्वी)
  •  रीतिकाल/ उत्तर मध्य काल (1650 ईस्वी-1850 ईस्वी)
  •  आधुनिक काल (1850 से अब तक।)

आधुनिक काल को पुनः छः उप कालों में बांटा जा सकता है।

  1.  पुनर्जागरण काल (भारतेंदु युग) – (1850 ईस्वी-1900 ईस्वी)
  2.  जागरण सुधार काल (द्विवेदी युग) – (1900 ईस्वी-1920 ईस्वी)
  3.  छायावाद काल (प्रसाद-पंत-निराला युग) – (1920 ईस्वी-1936 ईस्वी)
  4.  प्रगतिवाद काल  (साम्यवादी युग) – (1936 ईस्वी-1943 ईस्वी)
  5.  प्रयोगवाद काल (तारसप्तक-अज्ञेय युग) – (1943 ईस्वी-1953 ईस्वी)
  6.  नवलेखन काल (नई कविता युग) – (1953 ईस्वी – अब तक।)

आदिकाल (1000 ईस्वी-1350 ईस्वी)

आदि काल का समय 1000 ईस्वी से 1350 ईस्वी तक अधिकांश साहित्यकारों ने माना है। यह काल राजनीतिक दृष्टि से अशांति तथा अव्यवस्था का युग था। इस समय भारत के पश्चिम में अरबों का अधिपत्य होने एवं इस्लामों के आक्रमण तथा मंदिरों को ध्वस्त करने से उत्तर भारत की समस्त जनता त्रस्त थी। तथा राजनीतिक और सामाजिक दोनों क्षेत्रों में अव्यवस्था फैलने से साहित्य में भी प्रभाव देखने को मिलता है। इस समय वीरोल्लास की प्रधानता देखने को मिलता है।

आदिकाल के उदय का मूल कारणों में तत्कालीन अव्यवस्थित धार्मिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा साहित्यिक प्रवृतियां रही है। विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों तथा दूषित धार्मिक भावना से पस्त होकर आदिकाल का उदय हुआ।

भक्ति काल/ पूर्व मध्यकाल (1350 ईस्वी-1650 ईस्वी)

इससे पूर्व मध्यकाल भी कहा जाता है। इस काल को आचार्य शुक्ल ने हिंदुओं की पराजित मनोवृति को भक्ति काल के उदय का कारण माना एवं भक्ति का मूल स्रोत दक्षिण भारत में रहा तथा 7 वीं शदी में अलवार संतो ने भक्ति-भावना प्रारंभ की तथा उसे उत्तर भारत में फैलने के लिए 14 वीं शदी में अनुकूल परिस्थितियां मिली। भक्ति काल को दो प्रमुख काव्य धाराओं में बांटा गया है:-

हिंदी साहित्य का इतिहास

रीतिकाल/ उत्तर मध्यकाल (1650 ईस्वी-1850 ईस्वी)

इस काल को उत्तर मध्य काल भी कहा जाता है। हिंदी साहित्य का तीसरा कालखंड उत्तर मध्यकाल है। इसका समय वि• स्ं• 1650 से 1850 तक रहा है। इस काल के अधिकांश कवियों में “रीति निरूपण” की प्रवृत्ति प्रमुख थी। इस काल में रस, अलंकार, आदि का प्राधान्य था जिसके कारण इसे रीति काल कहा जाता है। इस समय के कवि लक्षण ग्रंथों की रचना करते थे।

आधुनिक काल (1850 से अब तक)

आधुनिक काल को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने गद्य काल की संज्ञा दी है। इस समय हमें कविता का बहुमुखी विकास देखने को मिलता है। दूसरे चरण में तो भाषाई क्रांति के कारण खड़ी बोली की कविताएं हिंदी में लिखी जाने लगी। इस समय हिंदी साहित्य का विकास गद्यात्मक और पद्यात्मक दोनों तरह से हुआ। गद्य में विभिन्न विधाओं से नाटक, निबंध, आलोचना, उपन्यास, कहानी, जीवनी, आत्मकथा आदि का रचना हुआ तथा पूर्ववर्ती कालों में भक्ति तथा श्रृंगार रस की सीमा नियंत्रित थी। अब आधुनिक काल में वह जनजीवन में घुल मिल गया।

आधुनिक काल को कई उप कालों में विभाजित किया गया है:-

लगभग 1850 से 1980 ईस्वी के समय को भारतेंदु काल कहा गया है। इसे पुनर्जागरण काल भी कहते हैं। 1900 से 1920 ईस्वी तक द्विवेदी युग। 1920 ईस्वी से काव्य की प्रचलन से छायावाद युग का आरंभ हुआ। इसे प्रसाद-पंत-निराला युग भी कहते हैं। इसके विकास करने वाले कवि आचार्य महावीर प्रसाद जी थे।

इसके बाद बंगला काव्य का प्रभाव हिंदी में देखने को मिलता है। छायावाद का नामकरण मुकुटधर पांडे ने किया था। छायावाद का काल 1920 से 1936 ईस्वी तक मानी जाती है एवं 1936 से प्रेमचंद के अगुवाई में एक प्रगतिशील लेखकों की संघ देखने को मिलती है यहीं से प्रगतिवाद काल का शुरुआत माना जाता है। यह काल 1936 से 1943 ईस्वी तक रहा।

1943 ईस्वी के बाद एक बदलाव की लहर दिखाई देती है जिससे प्रयोगवाद नामक एक नई काव्यधारा का जन्म होता है। जिसकी समय सीमा 1943 से 1953 ईस्वी तक मानी गई है। 1953 ईस्वी से हमें नए युग ‘नई कविता’ पत्रिका के माध्यम से एक नई काव्यधारा की शुरुआत हुई, जिसके संपादक डॉ जगदीश गुप्त थे। इसी पत्रिका के नाम पर नई कविता युग (नवलेखन युग) का नाम पड़ा जो आज भी लगातार चल रही है।

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निष्कर्ष

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि हिंदी साहित्य का काल विभाजन में ऐतिहासिक कालक्रम और साहित्य प्रवृत्ति दोनों का आधार ग्रहण करना उचित होगा क्योंकि हिंदी साहित्य का इतिहास में युग चेतना और साहित्यिक चेतना का सम्मिश्रण होता है। भले ही किसी भी साहित्य के काल विभाजन करने के सदस्यों के अपने-अपने गुण दोष होते हैं लेकिन उस समय और तत्कालीन साहित्य में विशेष प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर काल का विभाजन और नामकरण किया जाए तो इस समस्या का हल हो सकता है।

कई हिंदी साहित्यकार के हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण के परिपेक्ष में देखा जाए तो कोई नाम उपयुक्त और परिपूर्ण नहीं लगता लेकिन फिर भी आचार्य शुक्ल के द्वारा किया गया काल विभाजन श्रेष्ठ जान पड़ता है। यही कारण है कि उसके बाद के अनेक विद्वान शुक्ल की आलोचना के बाद भी इसे सही मानते हैं और इसे अब मानते चले आ रहे हैं।


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