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अवहट्ट किसे कहते हैं? | हिन्दी भाषा का उद्भव और विकास

अवहट्ट किसे कहते हैं?

अवहट्ट, पुरानी हिंदी और अपभ्रंश भाषा के बीच की कड़ी है।अवहट्ट भाषा का काल 900 ई – 1100 ई तक निश्चित किया गया है साहित्य में इसका प्रयोग 14वीं सदी तक होता रहा है। ज्योतिरीश्वर ठाकुर के ‘वर्णरत्नाकर’ में अवहट्ट शब्द का प्रथम प्रयोग मिलता है। अपभ्रंश के ही उत्तरकालीन या परवर्ती रूप को ‘अवहट्ट’ नाम दिया गया है।

अपभ्रंश काल 500 से 1000 ईस्वी तक के समय को भाषा वैज्ञानिकों ने माना है। इसी काल में लगभग 900 ईस्वी से 1100 ईस्वी तक अवहट्ट के स्वरूप का भी होने का कई भाषा विदों॒ ने जिक्र किया है लेकिन कई विद्वान इसे निराधार मानते हैं। निराधार मानने वालों में डॉ भोलानाथ तिवारी एवं कई अन्य विद्वान है जिन्होंने अवहट्ट के स्वरूप का खंडन किया है।

कई विद्वान तो अपभ्रंश और अवहट्ट को एक ही मानते हैं तथा कई विद्वान इसे अलग-अलग मानते हैं। अवहट्ट का स्वरूप अपभ्रंश से अलग होने की बात को समर्थन करने वालों में डॉ सुनीति कुमार चटर्जी एवं कई अन्य विद्वान प्रमुख हैं। जो मानते हैं कि अपभ्रंश तथा आधुनिक भारतीय भाषाओं के बीच की कड़ी अवहट्ट है।

अवहट्ट का नामकरण

अवहट्ट के नामकरण पर भी काफी मतभेद है। कई हिंदी कवियों ने इसके लिए अलग-अलग शब्दों का प्रयोग किया है। 12 वीं सदी में अट्टहमाण ने इसके लिए ‘अवहट्ठ’ शब्द का प्रयोग किया है। अट्टहमाण का नाम अब्दुररहमान भी है। ये हिंदी के पहले मुसलमान कवि थे जिन्होंने धर्मेंतर ग्रंथ संदेशरासक में देसी भाषा का प्रयोग किया और इसी ग्रंथ में उन्होंने इस भाषा के लिए  ‘अवहट्ठ’ शब्द का प्रयोग किया है। जबकि ज्योतिरेश्वर ठाकुर ने 14वीं सदी में अपने ग्रंथ वर्णरत्नाकर में ‘अवहट्ट’ शब्द का प्रथम प्रयोग किया है।

दामोदर पंडित ने 12 वीं सदी में अवहट्ट को अपभ्रंश कहा तथा विद्यापति ने अपने ग्रंथ कीर्तिलता में ‘अवहट्ठ’ शब्द का प्रयोग किया है। रविकर ने 16वीं सदी में एक स्थान पर इसके लिए ‘अपभ्रंश’ तथा दूसरे स्थान पर ‘अपभ्रष्ट’ शब्द का इस्तेमाल किया था। अतः हमें अवहट्ट के लिए कई अलग-अलग नाम देखने को मिलता है लेकिन वर्तमान में अवहट्ट नाम ही अपभ्रंश और आधुनिक भाषाओं के बीच की कड़ी के लिए सर्वमान्य हो गया है।

अवहट्ट

अवहट्ट भाषा की प्रमुख कृतियां

रचना          –       रचनाकार

सनेहसराय      –      अद्दहमाण

राउलबेली       –       रोडा

कीर्तिलता        –       विद्यापति

वर्णरत्नाकर      –       ज्योतिरीश्वर ठाकुर

नाथ और सिद्ध साहित्य

नेमिनाथ चउपई

बाहुबलिरास

अवहट्ट भाषा की विशेषताएँ

इसके चार निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं हैं

(1) ध्वनिगत विशेषता

(2) शब्दगत विशेषता

(3) व्याकरणिक विशेषता

(4) शब्दावली विशेषता

(1) ध्वनिगत विशेषता

सामान्यतया अवहट्ट की ध्वनियों में कोई विशेष अंतर नहीं आया। ‘ऐ’ और ‘औ’ दो नई स्वर ध्वनियाँ हैं जिनका इस युग में विकास हुआ तत्सम शब्दों में ‘श’ का प्रयोग अधिक व्यापक हो गया। ‘ड’ ‘ढ’ की नई ध्वनियाँ आई। ध्वनि विकास और आगे बढ़ी जिससे भाषा विशेषतया हिंदी की निकट आई।

अपभ्रंश भाषा किसे कहते हैं? अधिक जानकारी के लिए पढ़ें

(2) शब्दगत विशेषता

इस भाषा की निम्नलिखित शब्दगत विशेषता है

(क) स्वर गुच्छों में कमी:-

उदाहरण:- भंडारिअ – भंडारी

गोरुअ – गोरु

अंधधार – अंधार

(ख) स्त्रीलिंग शब्दों के अन्त्य ‘आ’ का लोप:-

उदाहरण:- आकांक्षा – आकांख

लज्जा – लाज

(ग) शब्दों के अकारण अनुनासिकता बढ़ी

उदाहरण:- अश्रु – आंसु

ग्रीवा – गींव

निद्रा – निंद

(घ) क्षतिपूरक दीर्घाीकरण

उदाहरण:- भत्त – भात

पक्क – पाक

कम्म – काम

(3) व्याकरणिक विशेषता

संज्ञा के रूप सरल, नपुंसक लिंग नहीं रही। कई पुलिंग शब्दों के अंत में ‘उ’ और स्त्रीलिंग शब्दों के अंत में ‘इ’ लगने लगा।

(4) शब्दावली विशेषता

परंपरागत तत्सम शब्दों का प्रयोग होता रहा। और तत्सम और विदेशी शब्दों का प्रयोग बढ़ता गया। इसमें देसी शब्दों की संख्या भी पर्याप्त थी।

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अवहट्ट, अपभ्रंश तथा पुरानी हिंदी में अंतः संबंध

अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी के बीच अंतः संबंध को देखने से पूर्व में अपभ्रंश और अवहट्ट को भी संक्षेप में देखना होगा तभी हम इन तीनों में अंतः संबंध स्थापित कर पाएंगे।

अपभ्रंश

अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है- भ्रष्ट भाषा या बिगड़ी हुई भाषा। कालक्रम की दृष्टि से देखा जाए तो इसकी समय 500 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक माना गया है। यह मध्यकालीन आर्य भाषा की अंतिम अवस्था थी। पतंजलि, हेमचंद्र, दंडी आदि भाषा शास्त्रियों के परिभाषाओं के आधार पर जिस भाषा के शब्द संस्कृत के मानक शब्दों से विकृत हो उसे ही ‘भ्रष्ट भाषा’ या ‘अपभ्रंश’ कहा जाता है।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में कहा है कि “जब से प्राकृत बोलचाल की भाषा न रह गई तभी से अपभ्रंश साहित्य का आविर्भाव मान लेना चाहिए। पहले जैसे- ‘गाथा’ या ‘गाहा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था वैसे ही बाद में ‘दोहा’ या ‘दूहा’ कहने से अपभ्रंश या लोक प्रचलित काव्यभाषा का बोध होता है।”

विदेशी जातियां भारत में आकर पश्चिमी भारत में बस गई थी। ये जातियां थी- गुर्जर, आमीर, जाट आदि। इनकी भाषा को ही अपभ्रंश समझा जाता था। धीरे-धीरे इनके भाषा में शौरसेनी प्राकृत का प्रभाव पड़ने से अपभ्रंश का विकास हुआ और अब यह राज्य भाषा ही नहीं बल्कि साहित्यिक भाषा और देश भाषा बन गई। अपभ्रंश लगभग 7 वीं सदी से लेकर 11 वीं सदी तक साहित्यिक भाषा के रूप में विद्यमान रही।

भामह और चंडी ने सर्वप्रथम अपभ्रंश शब्द का उल्लेख किया था। अपभ्रंश मध्य प्रदेश की भाषा थी जिसका प्रयोग शिलालेखों में किया जाता था। पउम, चरिउ, आदिपुराण, नेमिराम आदि अपभ्रंश की प्रसिद्ध रचनाएं हैं। वास्तव में देखा जाए तो प्राकृत के अंतिम रूप को ही अपभ्रंश कहा गया है। क्योंकि डॉ भोलानाथ तिवारी के अनुसार प्राकृतिक के तीन रूप- पाली जिसे उन्होंने प्रथम प्राकृत कहा है। प्राकृत जिसे द्वितीय प्राकृत कहा है एवं अपभ्रंश को तृतीय एवं अंतिम प्राकृत कहा है।

 

अपभ्रंश की विशेषताएं

  • अ, इ, उ, ए, ओ ह्रस्व स्वर आ, ई, ऊ, ऐ, औ दीर्घ स्वर थे।
  • ‘ॠ’ का प्रयोग होता था पर उसका उच्चारण ‘रि’ था।
  • ‘ॠृ’ ‘ऐ’ सभी स्वर अनुनासिक रूप में प्रयोग होते थे।
  • उकार की बहुलता थी जैसे- मन – मनु, अंग – अंगु।
  •  स्वर का लोप हो गया एवं आयोगात्मक की प्रवृत्ति में वृद्धि हुई।
  •  व्यंजन 33 थे और 10 स्वर थे। व्यंजनों में क, कह, ण्ह, न्ह, रह, म्ह और ल्ह उल्लेखनीय है।
  •  तद्भव शब्दों की संख्या में वृद्धि हुई।
  • ‘ट’ वर्ग की बहुलता और द्वि व्यंजन वाले शब्दों की अधिकता थी।

पुरानी हिंदी

आधुनिक हिंदी के प्रारंभिक अवस्था को ‘पुरानी हिंदी’ कहा जाता है। स॒न 1000 के आखिरी दशक के आसपास पुरानी हिंदी का उदय हुआ। सर्वप्रथम इसका नामकरण चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने किया था। कई भाषा शास्त्रियों ने अपभ्रंश और अवहट्ट की अगली कड़ी पुरानी हिंदी को माना है पुरानी हिंदी (1100-1400) के बीच कई ऐसी शब्द है जो आधुनिक हिंदी से मिलती जुलती है जिस कारण पुरानी हिंदी को हम आधुनिकता की श्रेणी में रख सकते हैं।

सर्वप्रथम नाथ-जोगियों की वाणीयों में आधुनिक हिंदी का जहां-तहां प्रयोग मिलता है। हेमचंद्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में जिस ग्राम्य भाषा का उल्लेख किया है वह हिंदी का आरंभिक रूप जान पड़ता है। वस्तुतः 11 वीं सदी से 14वीं सदी के मध्य का समय अपभ्रंश और हिंदी के बीच संक्रांति काल जैसा था। इसे या तो परवर्ती ‘अपभ्रंश’ या ‘अवहट्ट’ या ‘पुरानी हिंदी’ कह सकते हैं। स्वयंभू, विद्यापति, मुल्ला दाऊद, अमीर खुसरो, रासो साहित्य इन सभी के रचनाओं में पुरानी हिंदी देखने को मिलती है।

पुरानी हिंदी की विशेषता

  •  इस समय अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ स्वर थे। अर्थात इस समय की स्वर रचना अपभ्रंश और अवहट्ट के समान ही थी एवं यहां ‘ऐ’ और ‘औ’ का प्रयोग बहुत अधिक होने लगी।
  • ‘ॠ’ का प्रयोग अ, इ, उ, ए, रि के स्थान पर होती थी जैसे- अमृत – अमिय।
  •  कुछ स्वर ह्रस्वीकृत जैसे- दीपावली – दिवारी और कुछ स्वर दीर्घकृत जैसे- दिवस – देवस।
  •  अकारण अनुनासिकता का प्रयोग होता था जैसे- छाया – छांह।
  •  व्यंजन में कुछ नए शब्दों का समावेश था जैसे- ङ, ञ, ण, ड, द, नङ, ञ और अपभ्रंश और अवहट्ट में नहीं थे ये तीनों पुरानी हिंदी में ही जुड़े।
  •  क्षतिपूरक दीर्घीकरण यहां भी देखने को मिलती है जैसे- पुत्र – पुत – पूत। लक्ष्मण – लछमण (छ), लखन (ख)।
  •  व्याकरण –  संज्ञा, कारक, परसर्गों का विकास बढ़ा।
  •  वचन दो थे- एकवचन और बहुवचन एवं लिंग भी दो थे स्त्रीलिंग और पुलिंग।
  •  शब्द समूह में देशज, विदेशज दोनों का प्रचलन था एवं तद्भव शब्द भी पर्याप्त मात्रा में थी।

अतः पुरानी हिंदी,अपभ्रंश और अवहट्ट के बाद की स्थिति है। अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी में थोड़ी बहुत अंतर के साथ एक समय पूरे भारत में शब्दों का सरलीकरण हुआ और हिंदी भाषा से संबंधित कई नवीनता आई जो कि आज की हिंदी का प्रारंभिक स्वरूप पुरानी हिंदी में देखने को मिलती है।

चूँकि ‘अपभ्रंश’,‘अवहट्ट’ और ‘पुरानी हिंदी’ में धीरे-धीरे करके बदलाव आ रही थी इसलिए इस समय इन तीनों में बहुत अधिक अंतर देखने को नहीं मिलती क्योंकि यह काल आधुनिक हिंदी के काफी निकट का काल था इसलिए इन तीनों में काफी समानताएं देखने को मिलती है।

अतः  हम इनकी सामानताओं को देखते हुए इन तीनों के बीच अंतःसंबंध स्थापित करेंगे:-

समानता

अपभ्रंश

अवहट्ट

  पुरानी हिंदी

ध्वनि

10 स्वर और 30 व्यंजन थे।

10 स्वर और 30 व्यंजन थे।

10 स्वर और 30 व्यंजन थे।

 

ऐ, औ का स्वर नहीं मिलते हैं।

ऐ, औ का स्वर मिलते हैं।

ऐ, औ के स्वर का अत्यधिक प्रयोग मिलते हैं।

 

ॠ के स्थान पर अ, इ, उ, ए का प्रयोग।

ॠ के स्थान पर अ, इ, उ, ए का प्रयोग।

ॠ के स्थान पर अ, इ, उ, ए का प्रयोग।

 

ट वर्ग की प्रधानता

ट वर्ग की प्रधानता

ट वर्ग की प्रधानता

 

ण का प्रयोग लेकिन न का प्रयोग नहीं होता था।

ण का प्रयोग लेकिन न का प्रयोग नहीं होता था।

पूर्वी क्षेत्र में न का प्रयोग एवं पश्चिमी क्षेत्र में ण का प्रयोग।

क्षतिपूरक दीर्घीकरण

क्षतिपूरक दीर्घीकरण का प्रयोग। पूरा जैसे- चक – चक्क, धर्म – धम्म

क्षतिपूरक दीर्घीकरण का प्रयोग। पूरा जैसे- चक – चक्क, धर्म – धम्म

क्षतिपूरक दीर्घीकरण का प्रयोग। पूरा जैसे- चक – चक्क, धर्म – धम्म

लिंग

स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दो प्रकार के लिंग होते थे।

स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दो प्रकार के लिंग होते थे।

स्त्रीलिंग और पुल्लिंग दो प्रकार के लिंग होते थे।

वचन

दो वचन होते थे- एकवचन और बहुवचन।

दो वचन होते थे- एकवचन और बहुवचन।

दो वचन होते थे- एकवचन और बहुवचन।

शब्द समूह

तद्भव, देशज, विदेशज शब्द का प्रयोग होता था।

तद्भव, देशज, विदेशज शब्द का प्रयोग होता था।

तद्भव, देशज, विदेशज शब्द का प्रयोग होता था।

निष्कर्ष

अतः अवहट्ट परवर्ती अपभ्रंश का रूप था। जिसका उपयोग साहित्य रचना के लिए किया गया। इस प्रकार अपभ्रंश के उत्तर काल में और आधुनिक भारतीय आर्य भाषा के उदय के पूर्व संधि काल की भाषा अवहट्ट थी। साथ ही अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी लगभग थोड़े समय के अंतराल में फलने-फूलने के कारण इनके विशेषताओं में समानता देखने को मिलती है। अतः हमने आज के लेख में अवहट्ट के बारे में जाना एवं अपभ्रंश, अवहट्ट और पुरानी हिंदी के बीच अंतः संबंध भी स्थापित करके इनके विशेषताओं को जाना।

⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।

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