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गयासुद्दीन बलबन का इतिहास (1265-1287 ईस्वी) | ghiyasuddin balban in hindi

गयासुद्दीन बलबन के इतिहास को जानने के लिए गयासुद्दीन बलबन के शासनकाल के पूर्व में हुए राजनीतिक घटनाओं को जानना बहुत जरूरी है क्योंकि बलबन ने अपने सत्ता में आने से पूर्व कई पदों में रहकर महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। सर्वप्रथम तो इल्तुतमिश ने उसे गुलाम के रूप में खरीदा और अपने “चालीस दल” में शामिल कर लिया था। धीरे-धीरे वह अपनी योग्यता और कार्यशाली नीतियों के द्वारा नायब तक का पद प्राप्त कर ली। सबसे पहले रजिया सुल्तान की मृत्यु के बाद से जो शासक हुए जैसे:- बहराम शाह, अलाउद्दीन मसूद शाह और नसीरुद्दीन महमूद छोटे-छोटे समय के लिए शासन किए एवं उसमें गयासुद्दीन बलबन की क्या भूमिका थी विस्तार से पढ़ेंगे।

Table of Contents

इसके बाद हम बलबन को जब वह सत्ता में बैठ जाता है उसके बारे में विस्तार से पढ़ेंगे।

गयासुद्दीन बलबन

सुल्तान बनने से पहले बलबन की भूमिका (भाग- 1)

रजिया सुल्तान के बाद की परिस्थिति

रजिया सुल्तान की मृत्यु के बाद रजिया के विरोधियों के द्वारा बहराम शाह को पुनः सिहासन में बैठाया गया। जो इल्तुतमिश का तीसरा पुत्र था। इस समय के जितने भी प्रमुख पदों के पदाधिकारी थे यह चाहते थे कि बहराम शाह सुल्तान बने क्योंकि यह काफी विलासी किस्म का व्यक्ति था और तुर्क अमीरों, पदाधिकारियों और मलिक, उनको सत्ता का उपभोग भी करने देगा। ऐसा अमीरों की इच्छा थी लेकिन यह बात बहराम शाह को पसंद नहीं आया।

उसने अपने नायब इख्तियारूद्दीन एतगीन का वध करवा दिया। इसके बाद बदरुद्दीन जो अमीर-ए-हाजिब के पद पर था। ये सारी शक्ति हड़पनी चाहिए। यह “चालीस दल” का प्रभावशाली व्यक्ति था। इस समय लगभग सभी प्रमुख पदों के अधिकारी एवं उलेमा बहराम शाह से दुखी थे और उसे गद्दी से हटाना चाहते थे।

1241 ईस्वी में मंगोलों का पंजाब पर आक्रमण हुआ बहराम शाह का वजीर सेना लेकर मंगोलों को रोकने के लिए गया। परंतु मार्ग में एक अधिकारी ने वजीर को यह बताया कि उसे सुल्तान वध कराना चाहता है वजीर अपनी सेना के साथ लौट आया और सेना के सामने दिल्ली की जनता हार मानी। और विद्रोहियों ने 1242 ईस्वी में बहराम शाह की हत्या कर दी।

इसके बाद अलाउद्दीन मसूद शाह 1242 से 1246 ईस्वी में तुर्क अमीरों की सहायता से सुल्तान बना और फिर इन्हीं तुर्क अमीरों के हाथों ही पराजित होना पड़ा। गयासुद्दीन बलबन की भूमिका हमें अलाउद्दीन मसूद शाह के समय से देखने को मिलती है अमीरों ने एक असफल और अयोग्य व्यक्ति को जानबूझकर ही बैठाया था। उसकी अयोग्यता के कारण इल्तुतमिश के पौत्र अलाउद्दीन मसूदशाह को गद्दी पर बिठाया गया ताकि अमीरों का सत्ता पर एकाधिकार बना रहे और अमीरों का मानना था कि अलाउद्दीन मसूद शाह सत्ता की संपूर्ण शक्ति “चालीस दल” को सौंप देगा और हुआ भी ऐसा ही।

नायब के पद फिर से गठित किए गए। उस पर मलिक कुतुबुद्दीन हसन को नियुक्त किया गया और खास पदों पर “चालीस दल” के सदस्यों का एकाधिकार कायम हो गया। वजीर पद पर मुहाजबुद्दीन नामक एक व्यक्ति था। वजीर और अमीरों के बीच मतभेद होने लगा। अमीर-ए-हाजिब के पद पर बलबन था। यद्यपि अमीरों में गयासुद्दीन बलबन निचली तबका का था।

गयासुद्दीन बलबन को इल्तुतमिश ने इसे 1233 ईस्वी में ग्वालियर विजय के बाद खरीदा था एवं “चालीस दल” में शामिल किया था। बलबन अपनी योग्यता के बल पर “चालीस दल” में अपनी प्रभुत्व कायम कर पाया था। यह बहुत ही दूरदर्शी व्यक्ति था एवं लगभग सत्ता की शक्ति हथिया ली।

इस समय मंगोल आक्रमण का भय था एवं बलबन को अपनी नीति से उस पर सफलता मिली। अब तुर्की सल्तनत की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और मसूद की शासन लगभग 4 वर्षों तक चला लेकिन आंतरिक कलह अभी भी खत्म नहीं हुई थी। बंगाल के सूबेदार तुग़ल खाँ दिल्ली की प्रभुत्व मानने से इनकार कर दिया और बिहार को भी मिला लिया और अवध पर भी आक्रमण किया। मुल्तान और उच्च पर भी आक्रमण करने का असफल प्रयास किया।

गयासुद्दीन बलबन का इस समय प्रभाव बढ़ता जा रहा था। बलबन ने ही इसके एक अन्य पुत्र नसीरुद्दीन महमूद को अलाउद्दीन मसूद शाह को गद्दी से उतार कर बैठा दिया और 1246 ईस्वी में उसका राज्याभिषेक हो गया।

नसीरूद्दीन महमूद (1246 से 1265 ईस्वी)

नसीरूद्दीन महमूद को सिहासन में बैठाने का काम गयासुद्दीन बलबन ने ही किया था। 10 जून 1246 ईस्वी को दिल्ली के गद्दी में नसीरुद्दीन महमूद बैठा। इस समय तक सुल्तान तथा अमीरों में शक्ति के लिए संघर्ष चल रहा था। वह खत्म हो गया था। तुर्की अमीर सर्वे-सर्वा हो गए। अब “चालीस दल” के नेता बलबन को बना दिया गया एवं महत्वपूर्ण पद बलबन के संबंधियों को मिले। 1249 ईस्वी में बलबन को नायब -ए- मुमालिकात नियुक्त किया गया। बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान नसीरूद्दीन महमूद से कर दिया। अब बलबन की स्थिति और सुदृढ़ हो गया और उसका राजशक्ति पर एकाधिकार हो गया। 

बलबन की स्थिति बहुत सुदृढ़ होने से बलबन अपनी शक्ति का गलत इस्तेमाल करने लगा। अब बलबन के विरूद्ध एक गुट तैयार होने लगा। जिस गुट का नेता इमादुद्दीन रायहन था। यह एक हिंदू था। बलबन के बढ़ते प्रभाव से नसरुद्दीन महमूद को भी परेशानी होने लगी और नसीरुद्दीन रायहन के गुट में जा मिला। नसीरुद्दीन ने बलबन और उसके संबंधियों से पद छीन लिए और राज्य के महत्वपूर्ण पदों पर रायहन के संबंधियों का अधिकार हो गया।

ऐसा करने से रायहन की काफी निंदा हुई एवं उसे शक्ति हड़पने वाला एवं कई और नाम दिये गये। ऐसी परिस्थिति का लाभ उठाकर बलबन ने “चालीस दल” पर अधिकार स्थापित कर लिया। अब बलबन की नेतृत्व में रायहन की सेना के साथ झड़प हुई नसीरुद्दीन मजबूर होकर रायहन को उसके पद से हटा दिया और उसे बदायूं भेज दिया फिर वहां से बहराइच भेज दिया गया। एक बार फिर बलबन को नायब का पद मिल गया एवं महत्वपूर्ण पदों पर उसके संबंधियों को नियुक्त किया गया। अब अमीरों का प्रभुत्व नसीरूद्दीन महमूद के शासनकाल के अंत तक बना रहा।

रजिया सुल्तान कौन थी? (1236-1240 ईस्वी) इस लेख को विस्तार पूर्वक जानने के लिए अवश्य पढ़ें।

बलबन द्वारा नायब रहते हुए विद्रोहों का दमन

बंगाल में विद्रोहियों का दमन

बलबन नायब रहते हुए ताज की शक्ति को संगठित करने तथा विद्रोहियों को दमन कर प्रांतों को सल्तनत की अधीनता को स्वीकार कराने का दृढ़ संकल्प लिया। बंगाल का शासक था तूगन खाँ। वह दिल्ली की अधीनता अस्वीकार कर दिया। अतः बलबन ने हस्तक्षेप किया। तूगन खाँ उड़ीसा में जाज नगर के राजा द्वारा परास्त हो गया। और वह दिल्ली के सुल्तान से सहायता मांगी। बलबन ने तैमूर खान के नेतृत्व में सेना भेजी एवं तूगन खाँ को दंड देकर बंगाल की सुबेदारी छीन ली और मुआवजा के रूप में अवध की जागीर तुगन खाँ को दे दी।

तूगन खाँ की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारी तूगरिल खाँ ने सुल्तान की उपाधि धारण कर अपने नाम के सिक्के चलाए और खुतबा भी पढ़ावाया। 1257 ईस्वी में जब वह कामरूप (असम) पर आक्रमण किया जहां उसे परास्त कर मार दिया गया। इसके बाद ही बंगाल में दिल्ली की सत्ता स्थापित हो पायी। कुछ वर्षों बाद ही कड़ा के सूबेदार अर्सला खाँ ने लखनौती पर अधिकार कर खुद को स्वतंत्र घोषित कर दिया एवं नसीरुद्दीन महमूद के शासन के खत्म होने तक बंगाल स्वतंत्र बना रहा।

उत्तर पश्चिम में विद्रोह का दमन

इस समय उत्तर पश्चिम में कई विद्रोह हो रहे थे:-

  • बनियान में सैफुद्दीन कार्लगू मुल्तान एवं सिंध तक अपना राज्य बढ़ाना चाहता था।
  •  मंगोल भी दिल्ली पर नजर बनाए हुए थे।
  •  दिल्ली के पदाधिकारियों द्वारा भी विद्रोह उठ खड़ा हुआ था।

1249 ईस्वी में सैफुद्दीन कार्लगू ने मुल्तान पर अधिकार कर लिया। कुछ समय बाद मुल्तान को जीतकर बलबन ने कश्लू खाँ को सूबेदार बना दिया। कश्लू खाँ खुद को दिल्ली से स्वतंत्र कर लिया एवं ईरान के मंगोल शासक हूलागू की अधीनता मान ली। कश्लू खाँ ने अवध के सूबेदार कुतल खाँ से संधि कर दिल्ली पर अधिकार करने की योजना बनाई।  जिसे बलबन ने विफल कर दिया।

हुलागू और दिल्ली सुल्तान के बीच संधि हुई। संधि में हुलागू ने यह कहा कि वह दिल्ली के नियम को कभी उल्लंघन नहीं करेगा, परंतु फिर भी उसने 1254 ईस्वी में लाहौर में अधिकार कर लिया जो की संधि शर्त की खिलाफ थी। अब पंजाब का छोटा भाग (दक्षिण पूर्व) दिल्ली सल्तनत के हिस्से में रह गया। उत्तर-पश्चिम का प्रदेश मंगोलों के हाथ में चला गया। सिंधु और मुल्तान को किसी तरह बलबन ने दिल्ली का हिस्सा बनाने में सफल रहा।

हिंदू सामंतों का विद्रोह

इस समय हिंदू सामंत अपनी खोई हुई स्वाधीनता पुनः स्थापित करने के लिए प्रयत्न करने लगे थे। बलबन ने सबसे पहले दोआब पर विद्रोहियों का दमन किया एवं यमुना के घाटी में एक सामंत को पराजित किया। इतिहासकार इसे चंदेल वंश का शासक त्रैलोक्य वर्मा बताया है। यहां बलबन लोगों का वध करके स्त्रियों तथा बच्चों को बंदी बना लिया इसके बाद मेवात में हुए विद्रोह को भी दबाया। रणथंभौर पर भी आक्रमण कर उसे पुनः जीत लिया। कालिंजर के चंदेल शासक के विद्रोह को 1247 ईस्वी में दमन किया तथा 1251 ईस्वी में ग्वालियर के शासक पर चढ़ाई कर उसे  पराजित किया।

इल्तुतमिश कौन था ? (1211-1236 ईस्वी) विस्तृत जानकारी के लिए क्लिक करें।

नसीरुद्दीन महमूद की मृत्यु

नसीरुद्दीन महमूद की मृत्यु के बारे में कहा जाता है कि 1265 ईस्वी में अचानक हो गई उसका कोई पुत्र न होने के कारण बलबन उसका उत्तराधिकारी बना।

सुल्तान बनने के बाद बलबन (1265-1287 ईस्वी) (भाग- 2)

गयासुद्दीन बलबन कौन था? प्रारंभिक जीवन एवं सत्तारोहण

बलबन ने “बलबनी वंश” की नींव डाली। बलबन का मूल नाम बहाउद्दीन था। सत्ता में बैठने के बाद उसने अपना नाम गयासुद्दीन बलबन रखा। बलबन के जन्म का पता नहीं है। बाल्यावस्था में उसे मांगोलों द्वारा पकड़े जाने और एक ख्वाजा जमालुद्दीन नामक व्यक्ति के हाथों बेच दिए गए थे। ख्वाजा ने उसे दिल्ली लाकर इल्तुतमिश को बेच दिया था। इल्तुतमिश ने 1235 ईस्वी के ग्वालियर विजय के बाद बलबन को खरीदा था। बलबन काफी होनहार था। इसलिए इल्तुतमिश उसे लाकर अपने चालीस गुलामों के दल में शामिल कर लिया एवं कुछ दिनों बाद उसे खासदार का पद प्राप्त हो गया। रजिया के शासनकाल में वह “अमीर-ए-शिकार” के पद तक पहुंच गया।

बलबन ने रजिया सुल्तान के विरुद्ध षड्यंत्रकारियों का सहयोग कर रजिया को अपदस्थ करने में मदद किया। सुल्तान बहराम के शासनकाल में उसे पंजाब के रेवाड़ी की जागीर मिली एवं उसने हाँसी को भी अपने जागीर में मिला लिया। सुल्तान बहराम ने उसे “अमीर-ए-खुर” का (अश्वशाला का प्रधान) पद प्रदान किया था। मंगोलों के विरुद्ध भी योजना बनाई जो सफल सिद्ध हुई। सुल्तान मसूद को गद्दी से उतार कर नसीरुद्दीन को गद्दी पर बैठाने में बलबन का ही हाथ था।

1249 ईस्वी में बलबन ने अपनी पुत्री का ब्याह सुल्तान नसीरुद्दीन से कर दिया। इस अवसर पर उसे “उलूगखाँ” की उपाधि और “नाइब-ए-मामलिकात” का पद दिया गया और अब सत्ता पर बलबन का एकाधिकार हो गया। अतः धीरे-धीरे अपनी योग्यता एवं कुचक्रों से बलबन एक साधारण पद से उठकर तुर्की सरदारों में केवल श्रेष्ठ ही नहीं बल्कि 1265 ईस्वी में सुल्तान बन बैठा।

गुलाम वंश का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक कौन था? विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें

गयासुद्दीन बलबन के सामने आने वाले कठिनाइयां एवं कार्यवाहीयाँ

सुल्तान बनते ही उसके सामने कई कठिनाइयां थी। चूँकि बलबन ने नसीरुद्दीन मोहम्मद के समय से ही नायब के पद पर लगभग 20 वर्ष शासन किया था फिर भी उसके समक्ष अनेक कठिनाइयों थी जैसे:-

  •  सुल्तान की प्रतिष्ठा का समाप्त हो जाना। जिसके लिए उसने राजत्व का सिद्धांत प्रतिपादित किया।
  •  “चालीस दल” को खत्म करना क्योंकि वे कभी भी सुल्तान को सत्ता से बेदखल कर देते थे।
  •  जनसाधारण में सुल्तान की छवि को अच्छा बनाना।
  •  दिल्ली साम्राज्य की सुरक्षा एवं अच्छी शासन व्यवस्था की प्रबंध करना।
  •  बंगाल का स्वतंत्र होना।
  •  मंगोल आक्रमण से सुरक्षा।
  •  हिंदू शासकों के शक्ति को नष्ट करना।

बलबन का राजत्व सिद्धांत / लौह और रक्त नीति

सत्ता में बैठते ही बलबन ने सुल्तान के प्रतिष्ठा को बढ़ाने के लिए सर्वप्रथम राजत्व के सिद्धांत का प्रतिपादन किया और बलबन ने खुद को निरंकुश बनाने के लिए लौह और रक्त की नीति अपनाई। ये सिद्धांत राजा के दैवीय सिद्धांत के जैसा ही था। जियाउद्दीन बर्नी के अनुसार “नसीरूद्दीन महमूद के अंतिम समय में ताज की प्रतिष्ठा खत्म हो चुकी थी अतः खोई प्रतिष्ठा को वापस प्राप्त करने हेतु बलबन ने प्रयास किया।”

बलबन ने यह देखा था कि सुल्तान को जब चाहे अमीर सत्ता में बैठाते हैं और जब चाहे सत्ता से उतार देते हैं अतः अमीर एवं जनता में आतंक कायम करने का प्रयास किया।

राजत्व का सिद्धांत एक प्रकार का राजाओं के दैवी सिद्धांत के जैसा था और अपने इन्हीं सिद्धांत की व्याख्या अपने पुत्र बुगरा खाँ के समक्ष कही थी।:- “राजा का हृदय ईश्वरीय कृपा का विशेष भंडार होता है इस दृष्टि से कोई भी मनुष्य उसकी समानता नहीं कर सकता।”

  • एक बार बलबन ने यह भी कहा कि राजा को अपना व्यक्तित्व पवित्र रखना चाहिए। ऐसा कह कर उसने मांस-मदिरा का सेवन करना बंद कर दिया एवं आनंद प्रिय लोगों का साथ त्याग दिया।
  • उसने खुद को पौराणिक तुर्की वीर तूरान के अफ्रासियाब का वंश बताकर एकांतवास करने लगा और अपने व्यवहार में अत्याधिक गंभीरता ले आया।
  • उसने दरबार में हंसी-मजाक बंद कर दिया एवं साधारण लोगों से वार्तालाप करना बंद कर दिया।
  • दरबार में सुल्तान के अभिवादन के लिए सिजदा और पैबोस प्रथा प्रारंभ किया। जो ईरानी और सेल्जुक शिष्टाचार थे।
  • अपने दरबार की रस्मों को उसने ईरानी आदर्श में ढालने का प्रयास किया एवं नौरोज (ईरानी त्यौहार) त्यौहार मनाने की प्रथा आरंभ की।
  • उसने निरंकुश शासन तंत्र का गठन किया। “चालीस दल” के सदस्य जब उदंड व्यवहार करते तो उन्हें लौह और रक्त की नीति अपनाते हुए बहुत ही असहनीय दंड दिए। जिससे जनता में उसकी प्रतिष्ठा कम होती गई जैसे:-
  • बदायूं के गवर्नर मलिक बकबक ने जब अपने नौकर को पीट कर मार डाला तो बलबन ने उसे जनता के सामने कोड़े से पिटवाया।
  •  अवध के सूबेदार अमीन खाँ को अयोध्या के फाटक में लटका दिया क्योंकि वह बंगाल के शासक तुगरिल बेग से हार कर आया था।
  • हैबात खाँ (40 दल का सदस्य) ने नशे में एक व्यक्ति की हत्या कर दी तो बलबन ने उसे कोड़ों से पिटवा कर मृत पुरुष के विधवा के हाथों सौंप दिया।
  • उसने अपने लिए लंबे-चौड़े एवं क्रुर शक्ल के लोगों को अपना अंगरक्षक नियुक्त किया एवं ये सदैव नंगी चमचमाती तलवारें लेकर उसके आसपास खड़े होते थे।
  • दरबारियों तथा सरकारी पदाधिकारियों के लिए मद्यपान निषेध कर दिया एवं उनके लिए विशेष पोशाक निर्धारित किया गया।
  • बलबन किसी भी अमीर या गरीबों से मिलना पसंद नहीं करता था। एक बार दिल्ली के एक व्यापारी सुल्तान से मिलने की बात की और वह अपनी संपत्ति उसे अर्पित करने की इच्छा प्रकट की। तो बलबन ने इंकार कर दिया।
  • अपने बड़े पुत्र मुहम्मद की मृत्यु की खबर सुनकर वह विचलित नहीं हुआ। अपना कार्य करता रहा लेकिन कहा जाता है कि अपने कमरे में जाकर बहुत रोया।

बलबन स्वयं भी इन नियमों का कड़ाई से पालन करता था। इस प्रकार उसके राजत्व के सिद्धांत में कठोर नियमों को लागू कर शासन की प्रतिष्ठा को पुनः बलबन ने स्थापित की।

गुप्त साम्राज्य (Gupta Empire) के पतन के बाद भारत की स्थिति के बारे में जानने के लिए क्लिक करें

राज्य की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत

यह सिद्धांत बहुत ही प्राचीन सिद्धांत है। मनुष्य आरंभ में यह जानने की इच्छा की कि राज्य की उत्पत्ति कब और किस तरह से हुई होगी। इसके लिए पहले उसने इतिहास, और फिर उससे समस्या का हल नहीं हुआ तो फिर कल्पना का सहारा लिया तथा इस कल्पना को सत्य सिद्ध करने के लिए कई तर्क दिए।

समय-समय पर कई विद्वानों ने राज्य की उत्पत्ति के कई सिद्धांतों का प्रतिपादन किया। जिसमें प्रमुख है राज्य की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत

दैवीय उत्पत्ति के सिद्धांत का समर्थन

इस सिद्धांत के समर्थकों का मानना है कि राज्य मानवीय नहीं बल्कि ईश्वर द्वारा स्थापित एक दैवीय संस्था है और ईश्वर का कार्य भी यह है कि अपने प्रतिनिधि नियुक्त करे और वह प्रतिनिधि राजा है एवं राजा को ईश्वर के प्रति उत्तरदाई होना चाहिए साथ ही राजा के आज्ञा का पालन करना जनता का परम पवित्र तथा धार्मिक कर्तव्य है।

दैवीय सिद्धांत का समर्थन विभिन्न धर्म ग्रंथों से भी हो जाता है जैसे:- यहूदी धर्म के प्रसिद्ध पुस्तक ओल्ड टेस्टामेंट में राजा को ईश्वर का प्रतिनिधि माना गया है। ईसाई संतों एवं पोप ने भी समर्थन किया है तथा ईसाई संतों का मानना है कि:- “राजा के प्रति विद्रोह की भावना ही ईश्वर के प्रति विद्रोह है जो राजा का विद्रोह करेगा उसे मृत्यु मिलेगी।”

महाभारत, मनुस्मृति आदि हिंदू धर्म ग्रंथों में भी दैवीय सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है।

आलोचना

काफी लंबे समय तक इस सिद्धांत को मान्यता मिली लेकिन अब वैज्ञानिक और प्रगतिशील संसार में इसे अस्वीकार कर दिया गया है।

कुतुबुद्दीन ऐबक और गुलाम वंश को अच्छी तरह समझने के लिए “मोहम्मद गौरी का भारत पर आक्रमण” ये लेख जरूर पढ़ें।

“चालीस दल” को समाप्त करना

“चालीस दल” का गठन इल्तुतमिश ने 40 गुलामों को मिलाकर किया था एवं उसका नाम “तुर्कान-ए-चिहलगानी” रखा था। चूँकि इल्तुतमिश ने गुलाम खरीदकर उनकी अच्छी योग्यता को देख कर रखा था और ये इल्तुतमिश के शासन व्यवस्था के अच्छे-अच्छे पदों पर थे और ये इल्तुतमिश के बहुत वफादार थे। इल्तुतमिश के मृत्यु के बाद ये अब किंग मेकर बन गए। अपने चहेते को सुल्तान बना कर उसे अपनी कठपुतली बना लेते थे।

अतः गयासुद्दीन बलबन ने सुल्तान की शक्ति को निरंकुश बनाने के लिए  “चालीस दल” को समाप्त करने की योजना बनाई। इसके लिए उसने निम्न कोटि के तुर्कीयों को महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्त किया और इन्हें  “चालीस दल” के समक्ष बना दिया। इसके बाद  “चालीस दल” के सदस्यों के महत्व को खत्म करने के लिए छोटे-मोटे अपराधों के बड़े दंड दिए। बदायूं के गवर्नर मलिक बकबक  “चालीस दल” का सदस्य था इन्होंने अपने नौकर को पिटवा कर मार डाला। तो बलबन ने आज्ञा दी कि उसे जनता के सामने ले जाकर कोड़ों से पीटा जाए।

इसी तरह एक और अमीर हैबात खाँ जो “चालीस दल” का सदस्य एवं अवध का शासक था। शराब के नशे में एक आदमी का वध कर दिया। तो बलबन ने 500 कोड़े लगवाए तथा उसे मृत पुरुष के विधवा को सौंप दिया।

एक बार बलबन अपने चचेरे भाई शेर खाँ को, जो “चालीस दल” का योग्य एवं प्रमुख सदस्य था, साथ ही भटनेर, समाना, भटिंडा तथा सुनाभ का सूबेदार था, को विष देकर मार डाला क्योंकि वह सुल्तान से ईर्ष्या रखता था।

अवध के शासक अमीन खां को, जो बंगाल के शासक तुगरिल से पराजित होने पर अयोध्या के फाटक में लटका दिया। इस तरह अब गयासुद्दीन बलबन ने “चालीस दल” के सदस्यों का नाश कर दिया।

गुप्तचर विभाग का गठन

गयासुद्दीन बलबन ने अपनी शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए गुप्तचर विभाग की स्थापना की और उस पर अधिक धन और समय व्यय किया। उन्होंने प्रत्येक सरकारी विभागों, प्रत्येक प्रांतों और जिले में गुप्त संवाददाता नियुक्त कर दिए। इन गुप्तचरों के चरित्र परीक्षण बलबन बहुत ही सावधानी से करता था। गयासुद्दीन बलबन ने इन्हें अच्छी वेतन देकर गवर्नरों तथा सेनापतियों की अधीनता से मुक्त रखा। जिन्हें हर दिन समाचार सुल्तान को भेजना होता था और लापरवाही की बड़ा ही कठोर सजा थी।

कहा जाता है बदायूं के संवाददाता के द्वारा सही समाचार न देने पर उसे नगर के फाटक में लटका दिया था। गुप्तचर व्यवस्था बलबन के निरंकुश शासन का मुख्य आधार था।

सेना का पुनर्गठन

बलबन ने सुल्तान बनते ही सेना का पुनर्गठन में बहुत ध्यान दिया क्योंकि उसकी सत्ता की आधारशिला उसकी शक्तिशाली सेना थी। कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से ही तुर्की सिपाहियों को उनकी सेवा के बदले भूमि का कुछ भाग दिया जाता था। इल्तुतमिश ने भी सेवा के बदले जागीरें ही दी एवं सैनिकों के उत्तराधिकारी इन जगीरों का उपभोग करते थे।

बलबन ने एक बार इन जगीरों की जांच करवाया। तो पता चला कि अधिकतर भूमि वृद्ध पुरुष के अधिकार में थे जो अब सेवा ही नहीं करते थे। सुल्तान ने उन वृद्धों, अनाथों एवं विधवाओं से भूमि वापस लेकर नकद पेंशन की व्यवस्था करवाई। एवं जो सैन्य सेवा देने की योग्य थे उनकी जागीर उन्हें  दे दी गई। लेकिन भूमि कर वसूलने का कार्य बलबन ने अपने ऊपर ले लिया। अब सरकारी पदाधिकारीयों को यह काम सौंप दिया गया। इसकी जागीरदारों ने जोरदार विरोध किया और अंततः बलबन ने अपनी आज्ञा रद्द को कर दी।

अब पुनः पुरानी रिवाज चल पड़ी सैनिक सेवा की बदले भूमि दी जाने लगी। पहले जो अपने स्थान पर किराए के सैनिक भेजते थे वह पुरानी प्रथा बंद हो गई क्योंकि किराए के सैनिक योग्य नहीं होते थे। बलबन ने इमाद-उल-मुल्क को सेना मंत्री दीवान-ए-आरिफ के पद पर नियुक्त किया। इन्होंने बहुत अच्छी शासन प्रबंध कर सेना को शक्तिशाली बनाया।

अतः देखा जाए तो बलबन ने सैन्य संगठन में कोई भी ऐसा बदलाव नहीं कर पाया फिर भी सेना मंत्री के सजग और जागरूकता के कारण सेना के मनोबल में काफी उन्नति हुई।

 महमूद गजनवी का भारत पर आक्रमण, विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें।

गयासुद्दीन बलबन के द्वारा विद्रोहों का दमन

गुलाम वंश के शासकों को हम शुरू से देखते आए हैं कि वे ऐबक द्वारा जीते गए प्रदेशों से, जो प्रदेश खुद को स्वतंत्र कर लेता था उन्हें दुबारा जीतने में सारा समय निकल गया। कोई भी नया प्रदेश जीतकर अपने साम्राज्य में मिला न सके। उनके साम्राज्य के अंदर ही विरोध, विद्रोह एवं अधीनता स्वीकार करना, बंद कर देना ये सभी चीजें हो रही थी।

जब बलबन गद्दी पर बैठा तो उसके सामने भी यही प्रश्न खड़ा हुआ। नसीरुद्दीन मुहम्मद के शासनकाल में भी वह नायब के पद पर रहकर कई विद्रोह का दमन किया था और अब सत्ता में बैठने के बाद भी उसे कई विद्रोहों का दमन करना पड़ा।

पहला प्रश्न उसके सामने यह था कि हिंदू शासकों का प्रदेश को जीतकर मिला लिया जाए या नहीं। लेकिन उसे इस बात का भी एहसास था कि ऐसा करने से संकट में पड़ सकता है और मंगोलों के लिए मार्ग प्रशस्त हो सकता है क्योंकि उनकी नजर हमेशा से दिल्ली सल्तनत पर टिकी थी। आंतरिक व्यवस्था खराब हो न जाए इसलिए प्रदेशों को जीतने की ओर ध्यान नहीं लगाया बल्कि जो प्रदेश दिल्ली सल्तनत के अंदर थे उसे ही सुव्यवस्थित करना उत्तम समझा।

इस समय जगह-जगह पर तुर्की सत्ता की अधीनता अस्वीकार कर दिया गया था। तुर्की शासकों को प्रदेश से बाहर खदेड़ा जा रहा था। विद्रोहियों द्वारा तुर्की प्रदेशों को लूटना शुरू कर दिया गया। साथ ही खेती भी बर्बाद कर दिए गए। जिससे तुर्की पदाधिकारियों को लगान वसूल करने में कठिनाइयां होने लगी। वे लगान वसूल ही न कर सके।

कतेहर में भी सुल्तान के सैनिक थोड़ी भी भूमी कर वसूल नहीं कर पाते थे। दोआब तथा अवध में निरंतर विद्रोह हो रहा था। अमरोहा, पटियाली तथा कंपिल में राजपूतों ने विद्रोह कर दिया। दिल्ली के निकट डाकूओं ने भी लूटमार शुरू कर दी। बंगाल, बिहार तथा राजस्थान आदि दूरवर्ती  प्रदेशों में हालात बद से बदतर हो रहे थे।

अतः बलबन ने अपनी संकल्प को और मजबूत किया और सत्तारोहण के पहले वर्ष ही विद्रोहियों और डाकूओं का दमन करके दिल्ली के सीमावर्ती प्रदेश को सुरक्षित कर दिया। कठोर दंड का प्रावधान किया एवं दिल्ली के समीप 4 दुर्गों का निर्माण कर वीर अफगानी सैनिक नियुक्त किए।

दूसरे वर्ष में उन्होंने दोआब तथा अवध में सैनिक कार्यवाही की। पूरे साम्राज्य को अनेक सैनिक क्षेत्रों में बांटा। जंगलों को साफ कराना तथा हिंदू डाकूओं एवं सामंतों के खिलाफ अभियान चलाने के लिए योग्य पदाधिकारीयों की नियुक्ति की। भोजपुर, पटियाली, अमरोहा तथा कंपिल में सैनिक चौकी बनवाई। इसके बाद कतेहर में आक्रमण कर सैनिकों को कत्लेआम की फरमान सुनाया। बच्चों और स्त्रियों को दास बनाकर ले गए। बर्बर तरीके से कत्ल किया गया एवं समस्त प्रदेश को उजाड़ दिया गया। राजपूताना तथा बुंदेलखंड में भी सैनिकों द्वारा आंशिक सफलता हासिल की गई।

बंगाल पर पुनर्विजय

कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से ही बंगाल के शासकों ने कई बार दिल्ली की अधीनता स्वीकार करने से मना कर दिया था। इस समय बंगाल का सूबेदार तुगरिल खाँ था। जो 1279 ईस्वी में दिल्ली की अधीनता अस्वीकार कर दिया एवं स्वयं सुल्तान की उपाधि धारण कर अपने नाम के सिक्के चलवाए तथा खुतबा भी पढ़वाया। इस विद्रोह को दमन करने के लिए अवध के शासक आमिर खाँ को बंगाल भेजा लेकिन आमिर खाँ तुगरिल के हाथों से पराजित हो गया। इस पर बलबन ने क्रोध के मारे अमीन खां को अवध के फाटक में लटवा दिया।

इसके बाद तिरमित के नेतृत्व में दूसरी सेना भेजी। वह भी पराजित हो गया। एवं उसका हाल भी अमीन खाँ के जैसे हुआ।

तीसरी सेना भी पराजित होने पर बलबन स्वयं ही बंगाल जाने की तैयारी शुरू कर दिया। कहा जाता है उसने 2 लाख सैनिक एवं अपने द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ को लेकर लखनौती पहुंचा। तुगरिल खाँ राजधानी छोड़कर पूर्वी बंगाल भाग खड़ा हुआ। बलबन ने तुगरिल खाँ का पीछा करता हुआ ढाका के नजदीक सुनार गांव पहुंच गया। बलबन का एक सेनापति बकतार द्वारा तुगरिल खाँ पकड़ा गया और पूर्वी बंगाल के हाजी नगर में वध कर दिया गया। अब बलबन लखनौती लौटा और वहां उसके अनुयायियों को कठोर दंड दिया।

इस विषय पर बर्नी कहता है कि:- “लखनौती के मुख्य बाजार के दोनों ओर खूँटों की कतार गाड़ी गई और उस पर तुगरिल खाँ के समर्थकों को ठोक दिया गया। देखने वाले पहले ऐसा भयानक दृश्य कभी नहीं देखा था और बहुत से लोग तो डर और घृणा से मूर्छित हो गए।”

अब बलबन ने बुगरा खाँ को बंगाल का सूबेदार बना दिया और उसे दिल्ली के अधीनता में रहने के लिए सलाह दी। बलबन ने बुगरा खाँ से कहा:- “मैं जो कहता हूं उसे समझो और इस बात को मत भूलो कि यदि हिंद, सिंन्ध, मालवा, गुजरात, लखनौती अथवा सुनार गांव के सूबेदार अगर विद्रोही होकर दिल्ली के विरुद्ध तलवार उठाएंगे, तो उन्हें, उनके स्त्रियों, पुत्रों और अनुयायियों को वही दंड मिलेगा। जो तुगरिल खाँ या उसके साथियों को मिला।

गयासुद्दीन बलबन को यह विश्वास हो गया कि अब बंगाल में विद्रोह नहीं होगा। वह वापस लौट गया और दिल्ली के भगोड़ों को, जो तुगरिल खाँ से मिले हुए थे उन्हें भी दंड देने का निश्चय किया। बाद में काजी में प्रार्थना करने के बाद अपने दंड में बदलाव किया।

साधारण कोटि के अपराध करने वाले लोगों को क्षमा कर दिया। उच्च कोटि के अपराध करने वाले लोगों को अल्पकालीन दंड देकर कुछ को जेल में बंद कर दिया। एवं कुछ को भैंसों पर बिठाकर दिल्ली के सड़कों पर घुमाया।

इस तरह से निरंकुश शासक गयासुद्दीन बलबन ने बंगाल के विद्रोह का दमन किया।

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मंगोल आक्रमण

इस समय मंगोल, लाहौर पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिए थे। सिन्ध और मुल्तान, दिल्ली की अधीनता स्वीकार करता था। अतः इन प्रदेशों में भी मंगोलों की नजर थी।

गयासुद्दीन बलबन ने अपने उत्तर-पश्चिम के सीमाओं को सुदृढ़ बनाने हेतु दुर्गों की एक श्रृंखला बनवाई और वीर अफगान योद्धा को नियुक्त कर दिया। तथा इन समस्त प्रदेशों को चचेरे भाई शेर खाँ के हाथों दे दिया। शेर खाँ अत्यंत पराक्रमी योद्धा था। अपने आतंक से मंगोलों पर डर पैदा किया और खोक्खरों को भी भयभीत कर दिया।

लेकिन जल्दी ही 1270 ईस्वी में शेर खाँ की मृत्यु के बाद गयासुद्दीन बलबन ने संपूर्ण सीमावर्ती प्रदेश को दो भागों में बांटकर (सुनभ तथा समाना) अपने पुत्र बुगरा खाँ तथा सिन्ध और लाहौर बड़े पुत्र मुहम्मद खाँ को दे दिया। मुहम्मद खाँ योग्य सैनिक था एवं साहित्य में रुचि होने के कारण अपने दरबार में कवि अमीर खुसराव तथा अमीर हसन को रखा था।

मुहम्मद ने मंगोलों को रोकने के लिए कई ठोस कदम उठाए तथा उन्होंने उतरी पंजाब और शतलज को पार कर आसपास के इलाके को लूट लिया। मुहम्मद और बुगरा खाँ के सम्मिलित सेना ने मंगोल आक्रमणकारियों को पराजित कर मार भगाया।

1286 ईस्वी में पुनः मंगोलों ने आक्रमण कर मुहम्मद को मार डाला और लाहौर को अपने कब्जे में ले लिया। मुहम्मद की मृत्यु के बाद अपने वृद्धावस्था में गयासुद्दीन बलबन ने पूरी तरह से उत्तर-पश्चिमी सीमाओं की सुरक्षा का ध्यान देता रहा।

बलबन ने लाहौर को पुनः जीत लिया तथा अब भी रावी के पश्चिम में मंगोलों का अधिकार था। मंगोल दिल्ली की सत्ता तक कभी भी पहुंच न सके।

गयासुद्दीन बलबन की मृत्यु

गयासुद्दीन बलबन ने अपने जेष्ठ पुत्र मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी पहले ही घोषित किया था परंतु उसके मृत्यु ने बलबन को गंभीर चोट दी। कहा जाता है कि:- उसकी मृत्यु की खबर सुनकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी परंतु अपने कमरे में जाकर फूट-फूट कर रोया।

इससे पता चलता है कि बलबन को अपने पुत्र मुहम्मद से काफी उम्मीद थी लेकिन उसकी मृत्यु के बाद अपने द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ को बुलाया। कि वह उसकी बीमार अवस्था में साथ दे लेकिन उसने उत्तरदायित्व से बचना चाहा और वह लखनौती चला गया। आखिर में बलबन ने मुहम्मद के बेटे कैखुसरव को अपना उत्तराधिकारी चुन लेता है। तदुपरांत ही उसकी निधन लगभग 1287 ईस्वी में हो जाती है। मुहम्मद का पुत्र कैखुसरव के बाद बुगरा खाँ का बेटा कैकुबाद सुल्तान बना।

बलबन का मूल्यांकन

हमने शुरुआत में ही कहा था कि बलबन को दो भागों में बांट कर पड़ेंगे- (1) सुल्तान बनने से पूर्व का बलबन और (2) सुल्तान बनने के बाद का बलबन

इस पूरे काल में गयासुद्दीन बलबन ने अपने नव स्थापित तुर्की सल्तनत को सुसंगठित किया एवं सफलता भी मिली। उसने आंतरिक शांति स्थापित करने के लिए कई कार्य किए तथा उत्तर-पश्चिमी सीमा को मंगोलों से रक्षा के लिए कड़ी सुरक्षा का इंतजाम किया। ताज की प्रतिष्ठा जो पूर्व कालीन सुल्तानों के समय खत्म हो गई थी पुनः स्थापित करवाया। तथा “चालीस दल” का दमन कर ताज की प्रतिष्ठा को पुनः स्थापित किया।

गयासुद्दीन बलबन ने अपने साम्राज्य में आतंक फैला के रखा था। ताकि कोई भी उसके साम्राज्य के अंदर सिर न उठा सके। अपने शत्रुओं को भयानक मौत का दण्ड उसकी कठोरता और निर्दयता को दिखाता है। बलबन में धार्मिक असहिष्णुता भी देखने को मिलती है। उसे शिक्षा एवं साहित्य पर भी रुचि थी।

उसने मध्य एशिया के अनेक राजकुमारों को शरण दिया था। ये मांगोलों के डर से यहां शरण लिए थे। उसने राजत्व सिद्धांत द्वारा खुद को निरंकुश शासक बना दिया। उन्होंने नस्लीय भेदभाव पर जोर दिया। तुर्की मुस्लिमों को ही राजकीय पदों पर बैठाया। भारतीय मुसलमानों को नहीं।

साधारण लोगों को घृणीत समझता था तथा निम्न वर्ग के लोगों से बात करना भी पसंद नहीं करता था। उसने कभी भी जनसाधारण को सहानुभूति नहीं दिखाई।

लेकिन फिर भी उसकी तुर्की सल्तनत की रक्षा का सुव्यवस्था करना यह पहली बड़ी सफलता थी। दूसरी सफलता ताज की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करना, को मान सकते हैं

प्रोफेसर ए बी एम हबीबुल्लाह का कहना है:- “बलबन का एकमात्र और महानतम कार्य राज्यों में सल्तनत (बादशाहत) को पुनः  श्रेष्ठतम स्थान प्रदान करना था।”

साम्राज्य में शांति स्थापित करना एक अन्य सफलता थी एवं दिल्ली सल्तनत को कठिनाइयों एवं संकटों से बाहर निकालना, यह सफलता अति उच्च कोटि की थी।

इस तरह से गयासुद्दीन बलबन का कार्यकाल रहा। और अपनी सल्तनत को बचाने के लिए कई अच्छे और बुरे काम किए।


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