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भक्तिकाल का उदय | भक्ति काल की परिभाषा | भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

भक्तिकाल, आदिकाल के बाद के काल को कहा जाता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्तिकाल का समय 1375 विक्रम संवत् से 1700 विक्रम संवत् बताया है। पूरे हिंदी साहित्य को इस तरह से बांटा गया है:-

Table of Contents

भक्तिकाल

भक्ति काल की परिभाषा

अतः हिंदी साहित्य के मध्यकाल को भक्तिकाल और रीतिकाल कहते हैं। पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया है और उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल कहा गया है। आदिकाल का मुख्य रस वीर और श्रृंगार रस है तथा रीतिकाल का प्रधान रस श्रृंगार रस है लेकिन इन दोनों काल के बीच का काल अर्थात भक्तिकाल में या तो वीर रस होना चाहिए या शृंगार रस, लेकिन ऐसा न होकर दोनों कालखंड के बीच अचानक भक्ति रस का आ जाना सवाल खड़ा करता है कि जो प्राचीन साहित्य परंपरा पूर्व से चली आ रही थी वह एकदम से बीच में टूट कर नई परंपरा को कैसे स्थान मिल जाती है।

आदिकाल के बाद के काल को हम भक्तिकाल के रूप में जानते हैं। हिंदी साहित्य के मध्यकाल को दो भागों में बांटा जाता है:- पूर्व मध्यकाल और उत्तर मध्यकाल। पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल कहा गया है और उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल कहा गया है। अतः यहां हम पूर्व मध्यकाल के भक्तिकाल का अध्ययन करेंगे।

पूर्व मध्यकाल की काव्य हमें भक्ति आंदोलन के रूप में सामने मिलता है। इस समय भागवत धर्म का प्रचार-प्रसार तेजी से हो रहा था तथा इस समय के कई कवियों ने भक्ति आंदोलन में अपना-अपना योगदान दिया। इस समय हिंदी के इत्तर भी कई भाषाओं में कविताएं लिखी गई। यह आंदोलन पूरे भारतवर्ष में मुखरता से चली जिसका प्रभाव हिंदी साहित्य में भी देखने को मिलता है भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता का मुख्य कारण यह था कि यह हिंदी भाषा तक सीमित न होकर जनभाषा में भी आगे बढ़ी।

यही कारण थी कि इस आंदोलन की पूरे भारत में लहर चली। साथ-ही-साथ यह केवल वैष्णो धर्म तक सीमित नहीं रही। यह शैव धर्म, बौद्ध धर्म एवं जैन संप्रदायों तक फैल गई थी। अतः भक्ति आंदोलन के समय की स्थिति क्या थी? जो भक्ति काल के सृजन या उद्धव के लिए अनुकूल थी। या फिर ऐसी क्या वजह थी जो इस समय के कवियों को भक्ति की ओर आकर्षित कर रहा था।

भक्तिकाल का उदय के कारण / परिस्थितियां

अतः इस समय की परिस्थितियों को भी यहां हमें विस्तार से जानना होगा:-

राजनीतिक परिस्थितियाँ

इस समय तक चूँकि उत्तर भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना हो चुकी थी। मोहम्मद बिन तुगलक के शासनकाल में चूँकि यह काल (भक्तिकाल) इसके शासनकाल का समय था। भक्तिकाल का समय विक्रम संवत् 1375 से 1700 विक्रम संवत् तक माना जाता है। इसके आधार पर मुस्लिम शासको के कार्यकाल को दो भाग में बांट सकते हैं:-

  • 1375 – 1583 विक्रम संवत् (तुगलक वंश – लोदी वंश तक)
  • 1583 – 1700 विक्रम संवत् तक (मुगल, बाबर, हुमायूं, अकबर, जहांगीर और शाहजहां का शासन काल तक)

मुस्लिम शासकों ने साम्राज्य के विस्तार और इस्लाम का प्रचार-प्रसार पर विशेष बल दिया। मोहम्मद बिन तुगलक एक धार्मिक सहिष्णु व्यक्ति होने के कारण इसके शासनकाल में सभी धर्म के साहित्य को फलने-फूलने का मौका मिला। इसके बाद उनके उत्तराधिकारियों में धार्मिक असहिष्णुता होने के कारण दूसरे धर्मों को ध्यान नहीं दिया गया। जिससे उनकी साहित्यिक प्रगति में रुकावट देखने को मिलती है।

तुगलक वंश के बाद सैयद वंश एवं लोदी वंश का शासन काल आया क्योंकि यह समय राजनीतिक अस्थिरता का काल था। इस समय जगह-जगह युद्ध होते थे। जिससे यह काल अशांत एवं संघर्ष में था इसी कारण ईश्वर के भक्ति की भावना लोगों में जागी।

इस प्रकार से 1583 से 1700 तक का समय (मुगल काल का समय) भी राजनीतिक दृष्टि से अशांत और संघर्ष में रहा था। अतः इन सभी परिस्थितियों ने एक राजनीतिक आधार तैयार किया जिससे ‘भक्तिकाल’ का उदय हुआ।

सामाजिक परिस्थितियाँ

कई सामाजिक परिस्थितियाँ भी रही जिससे भक्तिकाल को उदय होने का अवसर मिला। इस समय जनसमान्य में वर्ण, जाति, धर्म, विश्वास, टोने-टोटके, रीति रिवाजों का दबदबा, संस्कारों का प्रचलन पूरे देश में था।

अतः कबीर दास ने जाति-पाति, भेद, अंधविश्वास का प्रखर विरोध किया था। जादू टोना, धर्म परिवर्तन, कर्मकांड, सती प्रथा, छुआछूत, गरीबी, बेरोजगारी, पक्षपात, ऐसे अनेक सामाजिक कर्मकांडों का दबदबा उस समय के समाज में विद्यमान थी।

अतः इन सभी चीजों को देखते हुए लगता है कि सामाजिक परिस्थितियाँ भी ऐसी हो गई थी जहां लोग भक्ति की ओर आकर्षित हो रहे थे। उस सामाजिक स्थिति को कई कवियों ने अपने कविता के माध्यम से व्यक्त भी किया। जिसमें तुलसीदास जी की ग्रंथ ‘कवितावली’ में देखने को मिलता है:-

“खेती न किसान को, भिखारी को न भीख,

बलि, बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी।

जीविका विहीन लोग सीद्यमान सोच बस,

कहैं एक एकन सों, कहां जाई, का करी?”

अर्थात उस समय के लोग परेशान थे किसनों की खेती नहीं होती थी, भिखारी को भीख नहीं मिलती, बनियों का व्यापार नहीं चलता और नौकरी करने वालों को नौकरी नहीं मिलती, जीविका हीन होने के कारण सब लोग दुखी और बेचैन होकर एक दूसरे से कहते हैं कि कहां जाएं और क्या करें।

सांस्कृतिक परिस्थितियाँ

मुस्लिम शासको द्वारा मंदिरों को तोड़े जाने के बाद एक बार फिर से शैव, शाक्त, भागवत जैसे प्रमुख धर्मों में ज्ञान योगतंत्र और भक्ति की प्रवृत्तियों का समन्वय हो रहा था। इन सब की प्रतिबिंब उस समय के मूर्ति कला तथा वास्तुकलाओं में देखी जा सकती है। खजुराहो के बैजनाथ मंदिर के शिलालेख में ब्रह्म, जिन, बुध तथा वामन को शिव रूप कहा गया।

अतः इस समय धर्म का फिर से प्रचार-प्रसार होने लगा था। जिससे जनमानस के मन में एक अदृश्य शक्ति के ऊपर विश्वास बढ़ने लगा। अवतारवाद की स्वीकृति जनमानस में वृहद स्तर पर होने लगी। मूर्ति पूजा का प्रचलन होने लगा तथा तीर्थाटन पर लोगों का ध्यान बढ़ने लगा था। समन्वय साधना पर बल दिया जाने लगा था।

अतः जो मुस्लिम शासकों के द्वारा जनता के मन में धर्म के नाम पर जो असहिष्णुता का बर्ताव किया गया था अब जनता धीरे-धीरे भक्ति के जरिए वापस एक अनुशासन की ओर जाने के लिए तत्पर थी। मूर्ति पूजा, तीर्थाटन, अवतारवाद, गौ रक्षा, ब्राह्मण रक्षा, धर्म ग्रंथो की रक्षा, साधुओं का सम्मान, पुराख्यानों की स्वीकृति, श्रद्धा कर्म, पिंडदान, आदि का प्रचलन धीरे-धीरे समाज में बढ़ रहा था।

इस तरह अध्यात्म, धर्म और दर्शन की सामाजिक स्वीकृति होने लगी थी और जनमानस का आकर्षण उनके प्रति होने लगा था अर्थात इन सबके लिए जनमानस में सहज स्वीकृत होने लगी थी। इस समय नैतिक दायित्व का निर्वाह का संदेश भी लोगों में जाने लगा था। धर्म साधना की वृद्धि हुई और योग साधना का प्रचार प्रसार होने लगा था।

इसका प्रभाव हमें संत काव्य में देखने को मिलता है इस तरह भक्ति आंदोलन के लिए एक मजबूत आधारशिला तैयार हो रही थी और हिंदू, जैन, बौद्ध, सिख, यहूदी, ईसाई, पारसी और इस्लाम जैसे धर्म का प्रचार-प्रसार पूरे देश में हुआ किंतु हिंदू और इस्लाम धर्म का ही प्रचार-प्रसार मुख्य रूप से इस युग में देखने को मिलता है।

इस प्रकार इस युग में सूफी और संत कवियों ने, सगुण और निर्गुण धारा के कवियों में इस आंदोलन को मिलकर के जनमानस तक पहुंचाया, इसे लोकप्रिय बनाया और उसे व्यापक और वृहद स्तर पर आंदोलन का रूप देने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस युग की वास्तुकला, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला, नृत्य कला जैसे सभी कलाओं में भक्ति का प्रतिबिंब दिखाई देता है।

अर्थात यह युग, भक्ति का युग था इसलिए हिंदी साहित्य में इस काल को “स्वर्ण युग” भी कहा जाता है। भक्तिकाल के चारों काव्य धारा अपने भाषा और अभिव्यक्ति के दृष्टि से, अपने दर्शन की दृष्टि से एवं आध्यात्मिक चेतना की दृष्टि से, सामाजिकता की दृष्टि से अतुलनीय है। इस काल की इस विलक्षण उपलब्धि के कारण ही इस कल को ‘स्वर्ण युग’ कहते हैं।

धार्मिक परिस्थितियाँ

इस समय कई धर्म विद्यमान थे जैसे बौद्ध धर्म, वैष्णव धर्म, सूफी धर्म। इस समय बौद्ध धर्म का दो भाग हो चुका था- हीनयान एवं महायान। हीनयान में सैद्धांतिक जटिलता के कारण कम लोगों की आस्था थी। महायान में व्यावहारिक पक्ष की प्रधानता होने के कारण अधिक लोगों की आस्था थी। महायान संप्रदाय पुनः दो भागों में विभाजित हुआ सहजयान और वज्रयान के रूप में।

वज्रयान शाखा का प्रचार प्रसार करने वाले सिद्ध कहलाए। जप-तप, जादू-टोना के माध्यम से सिद्ध चाहते थे इसलिए यह ‘सिद्ध’ कहलाए। वज्रयान में 84 सिद्ध हुए। इनमें गोरखनाथ प्रमुख रहे। वज्रयान का वर्चस्व असंस्कृत लोगों पर रहा जबकि सुसंस्कृत जनता शंकराचार्य की ओर आकृष्ट हुई। अतः कहा जा सकता है कि समाज में कुरीति फैली हुई थी जिसके कारण भक्ति आंदोलन के लिए एक अच्छी पृष्ठभूमि तैयार हो रही थी।

विद्वानों द्वारा दिए गए कारण

भक्तिकाल के उदय के अलग-अलग कारण विद्वानों द्वारा दिए गए है और वे इस प्रकार से अपना मत प्रकट करते हैं:-

  • जॉर्ज ग्रियर्सन:- भक्ति काल के उदय के बारे में जॉर्ज ग्रियर्सन का मानना है कि इसका उदय ईसाई धर्म के प्रभाव के कारण हुआ था लेकिन स्वयं इसके लिए कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं दे पाए। अतः इस मत का सभी विद्वानों ने खंडन किया है।
  •  डॉ सत्येंद्र:- डॉ सत्येंद्र का मानना है कि भक्ति रस दक्षिण भारत में उपजी थी और दक्षिण भारत से लाने वाले रामानंद थे डॉ सतेंद्र ने रामानंद के बारे एक प्रचलित कहावत का जिक्र करते हैं- “भक्ति द्रविड़ी उपजी, लाये रामानंद।” इसी के आधार पर भक्ति दक्षिण में उपजी एवं रामानंद द्वारा उत्तर भारत में लाया गया था। ये तर्क बाद के समय में भी काफी पुष्ट हुआ और काफी विद्वान इससे सहमत भी हैं।
  •  डॉ ताराचंद:- भक्तिकाल का उदय और अरबों के आक्रमण के कारण हुआ। अर्थात अरबों के आक्रमण से भारतीय शासकों की हार से जनता में निराशा फैली एवं भक्ति की ओर अग्रसर हुए।
  •  बाबू गुलाब राय:- भक्तिकाल का उदय पराजय की क्षति का पूरक बताया है। अर्थात मुसलमानों के भारत पर आक्रमण से भारतीय शासकों की पराजय होने से जनता में रोष और निराशा का क्षतिपूर्ति के रूप में भक्ति को ग्रहण किया गया।
  •  आचार्य रामचंद्र शुक्ल:- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्ति के उदय के लिए दो परिस्थितियों को जिम्मेदार बताया है:-

(1) राजनीतिक परिस्थिति

(2) धार्मिक परिस्थिति

(1) राजनीतिक परिस्थिति:-  इन्होंने भक्तिकाल के उदय होने का प्रमुख कारण राजनीतिक परिस्थिति को बताया है। उन्होंने कहा है कि- “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव, गर्व और उत्साह के लिए अवकाश न रह गया। उसके सामने ही उसके देव मंदिर गिराए जाते थे, देव मूर्तियां तोड़ी जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वे कुछ भी नहीं कर सकते थे। ऐसी दशा में अपनी वीरता के गीत न तो गा ही सकते थे और न बिना लज्जित हुए सुन ही सकते थे।”

अर्थात उनका मानना है कि इस समय खासकर उत्तर भारत के जितने भी हिंदू राजा थे वे मुस्लिम आक्रांताओं से हार रहे थे एवं लगातार पराजित होने के कारण यहां की जनता की मनोवृति भी पराजित हो चुकी थी। इन जनताओं को अपने राजाओं की ओर से कोई उम्मीद की किरण दिखाई नहीं दे रही थी। इस पाराजित मनोवृति का उनको समाधान ढूंढना था।

अतः इन्होंने इसका आधार धर्म को बनाया। एवं इस समय इस्लाम आक्रमणकारी मंदिरों को तोड़ते थे और महापुरुषों का अपमान करते थे। इसलिए जनता को केवल धर्म में ही आस्था दिखाई दे रही थी। ये युद्ध के क्षेत्र में हारने से धर्म के क्षेत्र में श्रेष्ठता दिखाने का प्रयत्न करने लगे थे।

(2) धार्मिक परिस्थिति:- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने धार्मिक परिस्थितियों को भी भक्तिकाल के उदय के लिए उत्तरदाई माना है। उनका कहना है कि- “वज्रयानी सिद्ध, कापालिक आदि देश के पूर्वी भागों में और नाथ पंथी जोगी पश्चिमी भागों में रहते चले आ रहे थे। इसी बात से इसका अनुमान हो सकता है कि सामान्य जनता की धर्म भावना कितनी दबती जा रही थी, उनका ह्रदय धर्म से कितनी दूर हटता चला जा रहा था।”

आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ सत्येंद्र की कथन का भी समर्थन करते हैं और कहते हैं कि सातवीं सदी में दक्षिण भारत में जो भक्ति की लहर उठी वो उत्तर भारत तक फैली और यहां फैलने के लिए एक अनुकूल परिस्थितियां मिली क्योंकि इस समय उत्तर भारत में जो सिद्ध नाथ करते थे ये जनता को शुष्क वाणी में उपदेश दे रहे थे। सिद्धों द्वारा चमत्कारी कार्य एवं नाथों द्वारा गृहस्थ जीवन की उपेक्षा के कारण इनके जीवन में उदासीनता थी।

अतः ऐसी वातावरण में भक्ति रस को दक्षिण भारत से अलवारों ने उत्तर भारत में लाए और यह पूरे भारत में फैल गई। और भक्तिकाल का एक नया युग प्रारंभ होता है।

अतः रामचंद्र शुक्ल ने भक्तिकाल के उदय होने के दो प्रमुख कारण बताते हैं लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मान्यता को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी खंडन करते हैं।

  • आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी:- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने शुक्ल जी के मान्यता को चुनौती देते हैं और कहते हैं कि- “भारत में भक्ति आंदोलन भारतीयों की स्वाभाविक चिंतन का विकास है। यदि भारत में भक्ति काल का उदय इस्लामी आक्रमण के कारण हुआ होता तो इसका आरंभ सिंध में होना था न कि निरापद सुदूर दक्षिण में।”

उन्होंने पुनः जोर देकर कहा कि इस्लाम आक्रमण न भी होते तो भी भक्तिकाल का उदय जो 12 आने (75%) वैसा ही होता जैसा आज हुआ।”

अर्थात आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने हिंदुओं को कभी भी पराजित नहीं माना। साथ ही किसी भी कवि के रचना में इस प्रकार की निराश दिखाई नहीं पड़ती है। इनका मत सही भी लगता है क्योंकि भारत में प्राचीन काल से ही भक्ति की परंपरा रही है जैसे:- महाभारत के भीष्मपर्व एवं नारदभक्ति सूत्र में भक्ति का बहुत ही सुंदर ढंग से वर्णन मिलता है। साथ ही कई ऐसे धार्मिक ग्रंथ हैं जहां भक्ति का वर्णन हमें देखने को मिलता है।

अतः भक्तिकाल के उदय का कारण इस्लामी आक्रमण को नहीं मान सकते कि वे भारत में जाकर जबरन धर्म परिवर्तन करने के दबाव के प्रतिक्रिया स्वरूप जनता में भक्ति की लहर उमड़ पड़ी थी। इस तरह के सारे बातों का आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी खंडन करते हैं।

उपरोक्त परिस्थितियाँ मिलकर भक्ति आंदोलन के लिए एक सकारात्मक पृष्ठभूमि तैयार किया और ऐसी परिस्थिति में भक्तिकाल का उदय हुआ अब हम क्रमबक तरीके से सभी काव्य धाराओं की विशेषता, प्रवृत्तियां और कवियों को देखेंगे:-

अवश्य पढ़ें:- हिंदी साहित्य के आदिकाल का नामकरण

भक्ति काल का विभाजन एवं भक्तिकाल की प्रमुख प्रवृत्तियाँ

भक्तिकाल को पुनः इस प्रकार से हिंदी साहित्य में विभाजित किया जाता है:-

भक्ति काल का विभाजन

 

अब हम इन विभाजन के हर एक पहलू को क्रमबद्ध तरीके से देखेंगे:-

निर्गुण काव्य धारा

हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में दो धाराएं हैं:- निर्गुण और सगुण धारा। निर्गुण धारा के अंतर्गत दो धाराएँ आती है:- ज्ञानमार्गी (संत काव्य) एवं प्रेममार्गी (सूफी काव्य)। संत काव्य के प्रवर्तक संत कबीर थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल संत काव्य को निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा कहते हैं। डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने इसे निर्गुण भक्ति काव्य कहा है। डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार- निर्गुण काव्य धारा के ज्ञानाश्रयी मार्गी शाखा को संत काव्य धारा एवं प्रेमाश्रयी मार्ग को सूफी काव्य धारा का नाम दिया है।

संत काव्य धारा / ज्ञानमार्गी शाखा

निर्गुण उपासक संत कहलाए। संत शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के ‘सत्’ धातु से बना है। जिसका अर्थ है निवृत्ति या बैरागी। सत् रुपी परम तत्व का साक्षात्कार करने वाले को संत कहा गया है। एवं हृदय की पवित्रता ही इस संप्रदाय का प्रमुख आधार है।

  • पीतांबरदत्त बड़ध्वाल ने संत की उत्पत्ति शांत शब्द से बताया है और शांत का अर्थ- निवृत्ति या बैरागी बताया।
  • परशुराम चतुर्वेदी ने इस संबंध में लिखा है- “संत शब्द उसे व्यक्ति की ओर संकेत करता है जिसने संत रूपी परम तत्व का अनुभव कर लिया हो और जो इस प्रकार अपने व्यक्तित्व से ऊपर उठकर उसके साथ तदरूप हो गया हो। जो संत स्वरूप नित्य सिद्ध वस्तु का साक्षात्कार कर चुका हो अथवा अपरोक्ष की उपलब्धि के फलस्वरुप अखंड सत्य में प्रतिष्ठित हो गया हो वही संत है।”
  •  डॉ त्रिलोकी नाथ ने निर्गुण भक्ति के मूल पंचतत्व का उल्लेख किया है- “निर्गुण भक्ति का मूल तत्व है- निर्गुण सगुण से परे अनादि, अनंत, अनाम, अज्ञात, ब्रह्मा का नाम जप।”

अतः निर्गुण संत कवियों ने ‘नाम’ जप को साधना का आधार माना है। ‘नाम’ ही भक्ति और मुक्ति का दाता है। दूसरा प्रमुख तत्व- मन से भक्ति, तृतीय मूल तत्व है- प्रेम के माध्यम से कर्मकांड की अनावश्यक दरुहता को दूर करना, चौथ तत्व है- मनुष्य को विश्वव्यापी धर्म के सूत्र में बांधना, जहां जाति तथा वर्ग एवं वर्ण भेद न हो। पांचवा मूल तत्व- सहज साधना है। इन्हीं तत्वों से निर्गुण भक्ति का विकास हुआ है।

संत साहित्य का दार्शनिक आधार

संत साहित्य का निम्नलिखित दार्शनिक आधार है:-

  • संत कवियों ने शंकराचार्य से ‘अद्वैतवाद’ को ग्रहण किया अर्थात आत्मा-परमात्मा की एकता का सिद्धांत।
  • इस्लाम धर्म से एकेश्वरवाद, मूर्ति पूजा का विरोध तथा अवतारवाद का खंडन को ग्रहण किया।
  • सूफियों से प्रेम तत्व एवं दांपत्य का प्रतीक को ग्रहण किया।
  • उपनिषदों से मोहमाया, ब्रह्मा, जीव जगत ग्रहण किया।
  • बौद्ध व वैष्णव धर्म से अहिंसा के तत्व को लिया।
  • सिद्धों से उलटबांसियों का प्रयोग अर्थात प्रतिकों का प्रयोग को ग्रहण किया।
  • नाथों से योग साधना, शून्यवाद एवं गुरु की महत्ता को ग्रहण किया।

 अतः ये सभी मूल तत्व इनके दर्शन का आधार हैं।

संत साहित्य की प्रमुख विशेषताएं

चूंकि संत कवियों ने अनेक धर्म के तत्व को अपना दार्शनिक आधार बनाया था तो इन साहित्य में अधिकांशतः आध्यात्मिक विषयों की अभिव्यक्ति हुई है। यह ‘साहित्य साधना’ तथा ‘काव्य वैभव’ दो दृष्टि से संपन्न है। साथ ही संत कवियों की विचारधारा निजी ज्ञान और अनुभूतियों पर आधारित थी। अतः यहां पर हम संत साहित्य के विशेषताओं को देखेंगे।

संत साहित्य के निम्नलिखित विशेषताएं हैं:-

गुरु महत्व

संत कवियों ने अपनी रचनाओं में गुरु को बहुत अधिक महत्व दिया है। उन्होंने गुरु को सर्वश्रेष्ठ माना है। संत कवियों ने गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया है। जैसे- कबीर जी ने गुरु की महत्व को इस तरह से व्यक्त किया है:-

“गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूँ पाइ।

बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताई।।”

अतः संत कवियों ने गुरु को साक्षात परमात्मा माना है। साथ ही इनका मानना है कि गुरु के कृपा के बिना परमात्मा की कृपा संभव नहीं है।

शास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता पर बल नहीं

संत कवियों ने शास्त्रों का ज्ञान को जरूरी नहीं समझा। ये प्रत्यक्ष ज्ञान अर्थात अनुभव को ही ज्ञान समझते थे। जैसे- कबीर की पंक्ति:-

 “मसि कागद छुयो नही, कमल गहि न हाथ।”

अर्थात मैंने न तो कागज छुए और न कलम, लेकिन फिर भी प्रत्यक्ष अनुभव है मेरे पास। यहां शास्त्रीय ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।

काया की साधना पर बल

काया (शरीर) की साधना पर विशेष रूप से बल दिया गया।

निर्गुण ईश्वर पर विश्वास

संत काव्य धारा के कवियों ने निर्गुण ईश्वर पर विश्वास पर बल दिया। निर्गुण ब्रह्म (ईश्वर) के संबंध में संत कबीर दास जी की यह पंक्ति है:-

“जा को मुंह माथा नही, नाही रूप कुरूप।

पुष्य गंध तो पातरा, ऐसा रूप अनुप।।”

अर्थात संत कबीर एवं संत काव्य के कवियों के अनुसार ईश्वर का रूप अत्यंत सूक्ष्म है जो दिखाई नहीं देता। जिस तरह एक पुष्प में समाहित सुगंध दिखाई नहीं देता उसी प्रकार ईश्वर हर जगह विराजमान है पर वह दिखाई नहीं देता। वह हर एक मनुष्य के हृदय में वास करता है।

एकेश्वरवाद का समर्थन और अवतारवाद का विरोध

इन्होंने बहुदेववाद का खंडन किया अर्थात एक ईश्वर पर विश्वास पर बल दिया साथ ही अवतारवाद का भी खंडन किया। यह शंकराचार्य जी के अद्वैतवाद तथा मुसलमानों (इस्लाम धर्म) से अवतारवाद का विरोध करना, अपने दर्शन का आधार बनाया था।

अतः इन कवियों ने बहुदेववाद तथा अवतारवाद का विरोध कर ब्रह्मा, विष्णु, महेश को मायाजाल कहकर निंदा किया तथा उनका विश्वास का केंद्र सृष्टि कर्त्ता निराकार ब्रह्मा था।

संत चरणदास ने अपने एक ईश्वर (ब्रह्मा) के संबंध में लिखा है कि:-

“यह सिर नवे न राम दूँ,  नाही गिरीयो टूट।

 आन देव नही परसिये, यह तन जाये छूट।”

अतः संत काव्य के कवियों ने एक ईश्वर (ब्रह्मा) पर बल दिया।

जाति-पाति का विरोध

संत काव्य के कवियों ने जाति-पाति का विरोध किया है। इस समय जाति एवं वर्ण भेद की बहुलता दिखाई देती है। संत काव्य के कवि इस पर भी प्रहार करते हैं। कवि कबीर दास की इस संबंध में लिखी हुई पंक्ति इस प्रकार है:-

“जाति पाति पूछे नहि कोई,

 हरि को भजे सो हरि का होइ।”

अतः संत काव्यों द्वारा समाज में वर्ण एवं जाति भेद को समाप्त करने की यह कोशिश थी।

रुढ़ियों तथा आडंबरों का विरोध

निर्गुण धारा के संत कवियों ने समाज में चल रहे रूढ़ियों, पाखंड, अंधविश्वासों एवं जादू टोने की कटु आलोचना की है। संत कबीर जी ने इनके विरोध में कई कटु आलोचना की है। उन्होंने मुस्लिम संप्रदाय की आलोचना करते हुए कहते हैं:-

“बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ी खाल।

 जे जन बकरी खात है, तिनकौ कौन हवाल”

अर्थात बकरी पत्ते खाती है तो भी उसकी खाल उतारी जाती है। तो जो लोग बकरी खाते हैं उनका क्या हाल होगा। आगे एक और पंक्ति:-

“कांकर पांथर जोरि के, मस्जिद लई बनाय।

 ता चढ़ि मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाय।”

अर्थात ईंट पत्थर से मस्जिद बनाकर मुस्लिम अजान देते हैं क्या उनका खुदा बहरा है।

हिंदू धर्म की भी उन्होंने आलोचना करते हुए कहा है:-

 “पत्थर पूजै हरि मिले, तो मैं पुजुँ पहार,

 ताते वह चक्की भली पीस खाए संसार।।”

अर्थात पत्थर पूजने से हरि मिले तो मैं पहाड़ पूजूंगा। इससे तो भला है चक्की को पूजना, जिसे पीसकर पूरा संसार का पेट भर जाएगा।

रहस्यात्मकता

निर्गुण संत काव्य धारा के कवियों में रहस्यवाद की भावना प्रमुखता से दिखाई देती है। उन्होंने यह रहस्यवाद की अवधारणा शंकराचार्य (वैष्णव धर्म) के अद्वैतवाद से लिया था अद्वैतवाद का मतलब एक आत्मा और परमात्मा का सिद्धांत। इनके पंक्तियों में भी इसकी झलक मिलती है:-

 जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, भीतर बाहर पानी।

 फूटा कुम्भ जल जलहिं समाना, यह तत कथौ गयानी।।

अर्थात जब जल को घड़े में भर जाए तो जल घड़े में और जब घड़ा फूट जाए तो उसका जल वापस जल में मिल जाता है अर्थात जल का अलगाव नहीं है इसी तरह से आत्मा और परमात्मा भी एक है।

नाम जप पर बल

संत काव्य धारा के कवियों ने नाम जप पर विशेष बल दिया है। भजन कीर्तन के दौरान नाम का जाप मन ही मन होना चाहिए। इसमें किसी प्रकार का ढोंग या दिखावा नहीं होनी चाहिए। सच्चे मन से ईश्वर का नाम जपने से ईश्वर की प्राप्ति संभव है। इस संबंध में कबीरदास की पंक्ति है:-

“सहजो सुमिरन कीजिये हिरदै माही छिपाई।

 होठ – होठ सूना हिलै, सकै नही कोई पाई।।”

अर्थात सरल भाव से जप (स्मरण) कीजिए दिल में ही छिपा कर। केवल होठ हिले, देखने वाले समझ न पाए कि आप क्या कर रहे हैं।

नारी के प्रति विचार

संत काव्य धारा के कवियों ने पतिव्रता नारी की प्रशंसा की है एवं नारी को माया का प्रतीक माना है। क्योंकि संत का मतलब बैरागी या निवृत्ति है तो ये नारी से दूर रहना ही उचित समझते थे। नारी की प्रशंसा में कबीर कहते हैं:-

 पतिव्रत मैली भली, कानी कुचित कुरूप।

 पतिव्रता के रूप पर बारों कोटी सरूप।

अर्थात ऐसी नई जो अपने पति के प्रति समर्पित हो पतिव्रता हो वह भले ही मैली कुचली हो कुरूप हो वह श्रेष्ठ है।

उन्होंने नारी को माया का प्रतीक भी माना है:-

 नारी की झाई परत अन्धा होत भुजंग।

 कबिय तिनकी कहा गति नित नारी के संग।।

अर्थात नारी की छाया पड़ने पर भुजंग जब अंधा हो जाता है तो उनकी क्या गति होगी जो नित्य नारी के संग रहता हो।

माया से सावधानी पर बल

संत कवियों ने माया से सावधान रहने का उपदेश दिया है। माया ईश्वर से मिलने के मार्ग में एक बाधा है। इसके संबंध में एक पंक्ति है:-

 माया महा ठगिनी हम जानी

 निरगुण फाँस लिए वह डोले, बोले माधुरी बानी।

अर्थात माया महा ठगनी है इसने अपने मधुर वाणी से सबको फंसा लिया है।

सामाजिक खण्डन मंडन की प्रवृत्ति

संत काव्य धारा के कवियों ने समाज की बुरी बातों का खण्डन एवं अच्छी बातों का मंडन किया है।

  • वेदों का खण्डन:- इन्होंने वेदों का खंडन किया है।
  • भाषा एवं शैली:- इनकी भाषा जन सामान्य की भाषा है। इनके काव्य में गेयमुक्तक शैली का प्रयोग हुआ है। संत कवि अशिक्षित होने के कारण इन्होंने बोलचाल की भाषा को ही अपने अभिव्यक्ति का साधन माना। इनकी भाषा खिचड़ी या साधुक्कड़ी थी इसमें अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, पूर्वी हिंदी, फारसी, अरबी, राजस्थानी एवं पंजाबी भाषा का मिश्रण है।

डॉ शिवकुमार शर्मा के अनुसार- “इनकी भाषा आडम्बर विहीन सरल है। इन्होंने उसे कहीं भी आलंकारिता से लादने का प्रयास नहीं किया है किंतु अनुभूति की तीव्रता के कारण उसमें काव्योचित सभी गुण आ गये हैं।”

  • अलंकार:- संतकाव्य धारा (निर्गुण) के कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं में रूपक, उपमा, दृष्टांत, समासोक्ति, अन्योक्ति, वक्रोक्ति, उत्प्रेक्षा व्यतिरेक, विरोधाभास आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है।
  • छंद:- इन्होंने अपने विचारों की अभिव्यक्ति ‘साखी और शबद’ के माध्यम से की है। साखियों की रचना दोहा और छंद में हुई है। साथ ही चौपाई, कविता, हंस पद आदि छंदों का प्रयोग हुआ है।
  • उलटबांसियों का प्रयोग:- इन्होंने अपनी रचना में उलटबांसियों अर्थात प्रतीक का प्रयोग किया है। हंस को प्रतीक माना गया है- आत्मा का।
  • नश्वरवाद:- संत काव्य धारा के कवियों ने शरीर के नश्वर होने पर विशेष बल दिया है।
  • प्रधान रस:- इनके रचना का प्रधान रस ‘शांत रस’ था।

पढ़ें:- भाषा परिवार और उसका वर्गीकरण

प्रमुख संत काव्यधारा (निर्गुण) के कवि

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने संत काव्य धारा को “निर्गुण भक्ति साहित्य” कहा है। रामचंद्र शुक्ल ने “निर्गुण ज्ञानाश्रयी शाखा” माना है। रामकुमार वर्मा ने “संतकाव्य” का नाम दिया है।

यहां हम क्रमवार तरीके से संतकाव्य के कवियों के नाम देखेंगे इसके बाद प्रमुख कवियों के बारे में विस्तार से जानेंगे:-

  • नामदेव (13वीं शदी)
  • कबीरदास (1398 ई)
  • जभनाथ (1451 ई)
  • हरिदास (1455 ई)
  • गुरुनानक (1469 ई)
  • रैदास (1498 ई)
  • दादूदयाल (1544 ई)
  • मलूकदास (1594 ई)
  • सूरदास (1596 ई)

नामदेव

प्रमुख कवि नामदेव द्वारा 1262 में संत मत का प्रारंभ किया।

कबीरदास (जन्म 1398 ई)

    • नामदेव द्वारा 1262 ईस्वी में संत मत का प्रारंभ किया गया था।
    • कबीरदास के शिष्य धर्मदास ने कबीरदास के बातों को बीजक नाम से 1664 ईस्वी में संकलन किया। धर्मदास छत्तीसगढ़ी कबीरपंथी शाखा के प्रवर्तक थे।
    • इसमें कबीर की तीन रचनाएं शामिल हैं- साखी, शबद और रमैनी।
  • साखी:- ग्वाह या साक्षी के रूप में दोहों में लिखी गई है। इसमें सांप्रदायिक मतभेदों को दूर करने का उपदेश दिया गया है। इसमें 59 अंग हैं। प्रथम अंग गुरुदेव का, मुख्य अंग सुमिरण का और अंतिम अंग अबिहड़ का है।

सांप्रदायिक शिक्षा से संबंधित बातों का संकलन साखी में किया गया है।

इसमें खड़ी बोली का प्रभाव देखने को मिलता है

शबद:- इसमें भक्ति साधना एवं योग साधना का संकलन है। इसमें ब्रजभाषा का प्रभाव देखने को मिलता है और कबीर के माया संबंधित विचारों को शामिल किया गया है। शबद एक प्रकार की गाने योग्य पंक्ति होती थी। इसमें उलबांसियो का प्रयोग अर्थात प्रतिकों का इस्तेमाल किया गया है।

रमैनी:- रमैनी, चौपाई में लिखी गई है। इसमें दार्शनिक विचार, भक्ति, राम शब्द का प्रयोग अनेक बार मिलता है लेकिन दशरथ के पुत्र की तरह कहीं भी जिक्र नहीं है। बल्कि निराकार ईश्वर के रूप में किया गया है। रमैनी में साधुक्कड़ी (साधुओं से सीखी हुई भाषा) भाषा का प्रयोग किया गया है।

विद्वानों का मत भाषा से संबंधित:- आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साधुक्कड़ी भाषा कहा। वहीं हजारी रामप्रसाद द्विवेदी ने वाणी का डिक्टेटर (तानाशाह) कहा और श्यामसुंदर दास ने पंचमेल खिचड़ी भाषा कहा।

  • कबीरदास के बहुत से दोहे (पद) को गुरुग्रंथ साहिब (सिखों के धर्म ग्रंथ) में शामिल कर लिया गया है।
  • कबीरदास के जितनी भी रचनाएं हैं उनको कई रचनाकारों ने संकलन किया है जैसे:-

कबीर ग्रंथावली – बाबू श्याम सुंदर दास, बीजक के नाम से धर्मदास, पारसनाथ तिवारी, डॉ माता प्रसाद गुप्त।

कबीर वचनावली – अयोध्या सिंह उपाध्याय

संत कबीर – डॉ रामकुमार वर्मा

कबीर वाणी – अली सरदार जाफरी

कबीर बीजक – डॉ सुकदेव सिंह

कबीर वांग्मय खंड 1 2 3  – डॉ जयदेव सिंह, डॉ वासुदेव सिंह

काबी साखी और शबद – डॉ पुरुषोत्तम अग्रवाल

दादू दयाल (जन्म 1544 ई)

  • इन्होंने दादू पंथ की स्थापना की।
  • कबीरदास के बाद भक्तिकाल के प्रमुख कवि दादू दयाल ही थे।
  • दादू दयाल की मुख्य पीठ- नरैणा (जयपुर) में है।
  • प्रारंभ में यह ब्रह्म समाज था लेकिन दादू दयाल के मृत्यु के बाद दादू दयाल पंथ कहलाया।
  • चूँकि दादू दयाल के विचारों में कबीरदास का प्रभाव पड़ा। अतः इसे राजस्थान का कबीर कहा जाता है। राजस्थान के यह प्रथम संत भी थे।
  • ये निर्गुण और सगुण दोनों धारा पर विश्वास करते थे। इनकी प्रमुख साहित्य:-

हरडेवाणी – संत दास व जगन्नाथ दास

अंगवधू – रज्जब (दादू दयाल के शिष्य)

दादू दयाल – परशुराम चतुर्वेदी।

मलूकदास (1574 ई से 1682 ई)

  • इनके गुरु पुरुषोत्तम दास थे।
  • भाषा में अवधी, ब्रज, संस्कृत, फारसी के शब्द शामिल किए हैं। अर्थात अनेक भाषाओं का इनके रचना में समावेश है। इन्होंने कुल 12 साहित्य की रचना की। जो इस प्रकार है:- ज्ञान बोध, विभव विभूति, ज्ञान परोछि, रतन खान, भक्ति विवेक, सुखसागर, रामवतार, ब्रजलीला, ध्रुवतरित, भाक्तवच्छावली, बाराखड़ी, इस्फुटपाद।
  • भक्ति विवेक और सुखसागर में दार्शनिक विचार है। ब्रजलीला, कृष्ण चरित काव्य है। ध्रुवचरित, ध्रुवचरित काव्य है। अर्थात ये तीनों चरितात्मक या अवतारों की गाथाएं हैं।
  • भाक्तवच्छावली, बाराखड़ी, स्फुटपाद में उपदेशों का वर्णन है।
  • ज्ञान बोध पांच खण्डों में बंटा एक अंत साधना है।
  • रतन खान 10 खण्डों में विभक्त है एवं इसमें मुक्ति की बात, माया का त्याग, इंद्रिय समन की बात कही गई है।
  • भक्ति विवेक में राजा और बढ़ई की कथा, काशी राजा की कथा, पंडित नागकन्या की कथा, श्रृगाल और सिंह की कथा, इंद्रिय दमन, ब्राह्मोपासना आदि की बात कही गई है।

रैदास / रविदास (1498 ई, काशी)

  • नागेंद्र के अनुसार रविदास का जन्म 1498 ईस्वी में हुआ था और गणपति चंद्रगुप्त के अनुसार 1445 ईस्वी में। इस समय के शासक सिकंदर लोदी थे।
  • रैदास की जाति चमार थी। इनके गुरु रामानंद थे। रविदास की शिष्या मीरा थी।
  • उनकी प्रमुख साहित्य:- रविदास की वाणी – इसे संत वाणी श्रृंखला में संग्रहित किया गया है। सिखों के साहित्य गुरु ग्रंथ साहिब में इनके 40 पद संग्रहीत है।

गुरु नानक / नानक देव (जन्म 1469, तलवंडी, लाहौर (वर्तमान ननकाना साहिब)

  • इन्होंने राजनीतिक कारण से सिख धर्म की स्थापना की।
  • इनके पिता कालूचंद खत्री एवं माता तृप्ता देवी तथा पहले पुत्र का नाम श्री चंद तथा दूसरे पुत्र का नाम लखमीदास था।
  • इनकी प्रमुख साहित्य:-  जपुजी – इसमें गुरु नानक का दर्शन का सार है, राहीरास, सोहिला, आशादिवार, नसीहतनामा – इसमें खड़ी बोली की बहुलता दिखाई देती है।
  • इन्होंने अपने साहित्य में पंजाबी, हिंदी, फारसी, बहुला पंजाबी का प्रयोग किया है।

हरिदास निरंजनी (जन्म 1456 ई, राजस्थान के डीडवाना, नागौर)

  • इन्होंने निराला पंथ चलाया एवं निरंजनी संप्रदाय के प्रवर्तक थे। लेकिन दादू पंथी भक्तमाल रचना राघोदास में निरंजनी संप्रदाय के प्रवर्तक जगन को माना है। निरंजनी संप्रदाय नाथ पंथ और संतपथ की एक कड़ी है।
  • इनकी प्रमुख साहित्य:- अष्टपदी जोगग्रंथ, समाधि जोगग्रंथ, पूजा जोगग्रंथ, ब्रह्मा स्तुति, हंसप्रबोध, निरपख मूल ग्रंथ

सुंदरदास (1596 ई, राजस्थान, धौसा)

  • ये संत कवियों में सर्वाधिक शिक्षित संत थे। ये दादू दयाल के शिष्य थे एवं 6 वर्ष की आयु में सन्यास ग्रहण कर लिया था। 11 वर्ष के उम्र में गुरुभाई रज्जब एवं जगजीवन के साथ मिलकर काशी से शिक्षा ग्रहण की थी।
  • उनकी जाति बनिया (खंडेलवाल) था।
  • इनके पिता परमानंद खंडेलवाल थे।
  • ये श्रृंगार रस के विरोधी थे। इन्होंने श्रृंगार रस के केशवदास के रसिकाप्रिया, सुंदर कविराय, नंददास की रासमंजरी का विरोध किया।
  • इनकी रचनाएं:- इन्होंने 42 ग्रथों की रचना की जिनमें प्रमुख थे:- ज्ञान समुद्र और सुंदर विलास।
  • सुंदर ग्रंथावली में इनके सारे ग्रंथों का संकलन दो भागों में की गई है। पुरोहित हरिनारायण शर्मा इन दोनों भागों के संपादक थे।
  • सुंदरदास शुद्ध ब्रजभाषा का प्रयोग अपने ग्रंथ में किया है।

अक्षर अनन्य (1653 ई)

  • अक्षर अनन्य संस्कृत के भी विद्वान थे। यह दतिया रियासत के दीवान थे और छत्रसाल राजा के गुरु भी थे।
  • इनकी प्रमुख रचनाएं:- राजयोग, विवेक दीपिका, विज्ञान योग, अनन्य प्रकाश, सिद्धांत कोष, ध्यान योग, ब्रह्मज्ञान, दुर्गा सप्तशती (संस्कृत ग्रंथ)।

लालदास

  • ये बचपन से ही परमात्मा पर ध्यान लगाया करते थे। इन्होंने लाल पंथ की शुरुआत की।
  • ये हिंदू-मुस्लिम सांप्रदायिक सद्भावना के अग्रदूत थे। इन्होंने राम तत्व का उपयोग ईश्वर के लिए किया था।
  • इनकी रचनाएं ‘लालदास की चेतावणी’ नाम से संकलन किया गया है।

बाबालाल (1590 ई कुशपुर, पंजाब)

  • बचपन से ही आध्यात्मिक चेतना से भरे हुए थे। 8 वर्ष की आयु में धार्मिक ग्रंथ का अध्ययन किया एवं 10 वर्ष की आयु में गुरु और सत्य की खोज की शुरुआत कर दी थी। इनके गुरु चैतन्य दास थे।
  • इन्होंने बाबालाली नाम से संप्रदाय की स्थापना की। ये दाराशिकोह के समकालीन थे।
  •  इनकी प्रमुख रचनाएं:- अस्रारे मार्फत – इसमें दाराशिकोह के साथ बातचीत का वर्णन मिलता है, नादिरुनिकात – इसमें उनके विचारों का वर्णन है।

धर्मदास

  • इनके गुरु कबीरदास थे एवं कबीरदास के ये सबसे प्रिय शिष्य थे। इन्होंने बीजक का संकलन किया था। बीजक में कबीरदास की रचना है।
  • कबीरदास के 1518 ईस्वी में निधन के बाद कबीरपंथी के सिंहासन पर बैठा। कबीर के पुत्र कमाल ने इसका विरोध किया था क्योंकि वह नहीं चाहता था कि कबीरदास का उत्तराधिकारी कोई और बने।
  • धर्मदास की रचना में कठोरपन नहीं थी उनकी वाणी में कोमलता मिलती है जबकि कबीरदास की वाणी में सीधे तरीके से विरोध देखने को मिलती है।
  • इसके प्रमुख रचना ‘धनी धरमदास की वाणी’ है।

रज्जब (1567 ई)

  • ये एक मुस्लिम थे। इनके गुरु दादूदयाल थे। इन्होंने दादू दयाल के रचनाओं का ‘अंगवधू’ के नाम से संकलन किया।
  • ये पूरे जीवन हमेशा दूल्हे के वेश में रहे थे। इनकी प्रमुख रचना:- रज्जबवाणी, सबंग्गी – इसमें अन्य कवियों का भी संग्रह है।

जंभनाथ / जंम्भोजी (1451 से 1523 ई)

  • विश्नोई संप्रदाय के संस्थापक जंभनाथ को ही कहा जाता है। इन्हे सिद्धि प्राप्ति के बाद मुनीन्द्र जम्भ ऋषि कहा गया।
  • इनकी रचनाओं में ओंकार का जप, निरंजन की उपासना, पंचपुरुष, सतगुरु की महिमा, अनन्य भक्त आदि का बार-बार उल्लेख मिलता है अतः ये नाथ पंथ से काफी प्रभावित थे।
  • कहा जाता है कि गोरखनाथ ने जंम्भोजी को दीक्षा दी थी।
  • इनकी कोई भी रचना उपलब्ध नहीं है केवल इस्फुट पद ही मिलते हैं जैसे:- “गगन हमारा बाजा बाजे, मतर फल हाथी। संसै का बल गुरुमुख तोड़ा, पांच पुरुष मेरे साथी।।”

संत सींगाजी

  • इन्होंने लगभग 800 पदों की रचना की है। इनका सबसे छोटा संग्रह ‘संत सींगाजी’ है।
  • इन्होंने निमाड़ी भाषा का उपयोग अपने रचना में किया है।

अन्य महत्वपूर्ण ग्रंथ

  • अर्जुनदेव का सुखमनी, बारहमासा, बावनआखरी ये गुरुग्रंथ साहिब के संकलन कर्त्ता हैं। इनके 6000 पद गुरुग्रंथ साहिब में संकलित हैं।
  • गुरुगोविंद की चंडी चरित्र।
  • सहजाबाई द्वारा रचित सहज प्रकाश।
  •  दयाबाई द्वारा रचित दयाबोध।
  • अनंतदास द्वारा रचित कबीर परिचई।
  • चेतनदास द्वारा रचित प्रसंग परिजात।
  • बाबरी साहिबा – ये एकमात्र मुस्लिम महिला संत थे जो अकबर के समकालीन थी।

⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।

सूफी काव्य धारा / प्रेममार्गी शाखा

भारत में आने से पूर्व सूफी मत का रूप विकसित हो चुका था इनकी सभी परम्पराएं लगभग विकसित हो चुकी थी। 12वीं शदी में भारत आने से पूर्व ही इनमें प्रार्थना-उपवास, मंत्र-पूजा, पीर-मुरीद आदि सभी परम्पराएं पूर्ण रूप से विकसित हो चुकी थी। लगभग 8वीं से 9वीं शदी में सूफियों का विकास अरब से हुई एवं उनकी पहचान उनके पहनावे ऊनी वस्त्रों से की जाती थी।

सूफी शब्द की उत्पत्ति ‘सफ’ का अर्थ ऊन या भेड़-बकरी के ऊनी कपड़े से होता है। जो सफ बने वस्त्र पहना था वह ‘सूफी’ कहलाता था। सर्वप्रथम इब्नुल-अरबी प्रथम व्यक्ति था जिसने सूफी मत के सिद्धांत ‘वहदत्त-उल-वजूद’ दिया। जिसका अर्थ है- ईश्वर सर्वे व्याप्त है व सभी में उसकी झलक है, उससे कुछ भी अलग नहीं है, सभी मनुष्य समान है।

सूफियों के निवास स्थान खानकाह कहे जाते थे जबकि उनकी वाणी ‘महफूजात’ ग्रंथ में संकलित थी। सैयद मोहम्मद हफीज के अनुसार- ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती 1192 ईस्वी में मोहम्मद गौरी के साथ भारत आए और सर्वप्रथम सूफी मत का प्रारंभ इन्होंने ही की। सूफीवाद की तीन सीढ़ियां हैं जिनके सहारे व्यक्ति ईश्वर में लीन हो सकता है:-

  • फना फिस्सेख (अपने पीर में समा जाना)
  • फना किर्रसूख (अपने रसूल में समा जाना)
  • फना फिल्लाह (अपने आप को ईश्वर में समा देना)

सूफी कवि संत फरीदुद्दीन अत्तार ने ईश्वर के प्रेम को पाने के लिए साथ घाटियों को पार करना अनिवार्य बताया है:-

  • खोज घाटी- भौतिक वस्तुओं का त्याग अर्थात साधक को परम ज्योति प्राप्त होने पर भौतिक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए।
  • परम ज्योति स्पर्श- परम ज्योति को प्रकार साधक अनंत घाटी की ओर जाता है जहां उसकी रहस्यमय जीवन की शुरुआत होती है।
  • मारीफात घाटी- यहां साधक को सत्य का ज्ञान होता है।
  • अनासक्ति घाटी- यहां साधक को ईश्वरीय प्रेम प्राप्त होता है।
  • आनंद घाटी- यहां साधक को ईश्वरीय सौंदर्य को प्राप्त का आनंद की अनुभूति होती है।
  • कौतूहल घाटी- यहां साधक की अंतरदृष्टि खत्म होती है व अंधकार में प्रवेश करता हुआ अनुभूति होती है।
  • हकीकत घाटी- यहां साधक का आत्मा, परमात्मा में एकाकार हो जाता है।

आईन-ए-अकबरी में अबुल फजल ने 14 सूफी सिलसिलों का जिक्र किया है- (1) चिश्ती (2) सुरहावर्दी (3) कादिरी (4) शत्तारी (5) हबीबी (6) तफूरी (7) जुनैदी (8) करबी (9) सकती (10) इयादी (11) तूसी (12) दुबरी (13) अधमी (14) फिरदौसी।

पढ़ें:- देवनागरी लिपि किसे कहते हैं? देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई?

भारत में पाए जाने वाले सूफी संप्रदाय

भारत में सूफियों के चार संप्रदाय मिलते हैं जो इस प्रकार से है:-

  • चिश्ती सिलसिला (1192 ई, संस्थापक- ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती):- सर्वप्रथम 1192 ईस्वी में मोहम्मद गौरी के साथ ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती लाहौर आए बाद में अजमेर में बस गए। यहीं से चिश्ती सिलसिले का प्रारंभ किया। इसके महत्वपूर्ण संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी, फरीदुद्दीन मसूद, गज-ए-शंकर, शेख निजामुद्दीन औलिया, शेख अधी सेराज, नूर कुतुब आलम, शेख हुसायुद्दीन मामिकपुरी, बुरहानुद्दीन गरीब व हजरत गेसूदराज अजोधन।
  • सुहरावदी संप्रदाय (12वीं शदी, 483 – 1262 ई) (संस्थापक- जलालुद्दीन तबरीजी, बहाउद्दीन जकारिया):- जलालुद्दीन तबरीजी ने बंगाल में और बहाउद्दीन जकारिया ने मुल्तान में सुहरावर्दी संप्रदाय की स्थापना किया।
  • कादिरी संप्रदाय (15वीं शदी):- सैयद मुहम्मद गिलानी ने मुल्तान में कादिरी संप्रदाय की शुरुआत की थी।
  • नक्शबंदी संप्रदाय (15वीं शदी):- इसके संस्थापक ख्वाजा बली बिल्ला (1563 – 1603 ई) थे।

उपरोक्त सूफी संतों ने ‘अनहलक’ अर्थात ‘मै ब्रह्म हूं’ की घोषणा की। यही बात भारत के अद्वैतवादियों का भी सिद्धांत रहा था। अद्वैतवादियों ने घोषणा किया था कि- ‘अहम ब्रह्मास्मि’ अर्थात ‘मै ब्रह्मा हूं’ इसी दार्शनिक आधार के कारण ही सूफी संत भी भारतीय भक्ति आंदोलन में परिगणित किए गए।

सूफी कवियों के लिए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि- “सौ वर्ष पूर्व कबीरदास हिंदू और मुसलमान दोनों के कट्टरपन को फटकार चुके थे। पंडित और मुल्लाओं की तो नहीं कह सकते पर साधारण जनता राम और रहीम की एकता मान चुकी थी। साधुओं और फकीरों को दोनों (हिंदू-मुस्लिम) के लोग आदर भाव से देखते थे साधु या फकीर ये सर्वप्रिय वे ही हो सकते थे जो भेदभाव से परे दिखाई पड़ते थे।बहुत दिनों तक साथ-साथ रहते-रहते हिंदू और मुसलमान एक दूसरों के सामने अपना-अपना हृदय खोलने लगे थे जिससे मनुष्यता के सामान्य भावों के प्रभाव में मगन होने और मगन करने का समय आ गया था। जनता की वृति भेद से अभेद की ओर हो चली थी मुसलमान हिंदुओं की राम कहानी सुनाने को तैयार हो गए थे और हिंदू-मुसलमान का दास्तान हमजा।”

अर्थात सूफी काव्य रचना के पीछे यही परिस्थिति जिम्मेदार थी जिसे सूफी काव्य का जन्म हुआ।

भक्तिकाल के निर्गुण भक्ति की दूसरी सूफी काव्य धारा है। सूफी काव्य धारा को विद्वानों ने अलग-अलग नाम दिया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे ‘प्रेमाश्रयी शाखा’ का नाम दिया है। अन्य विद्वानों ने अलग-अलग नाम से इसे पुकारा है जैसे:- प्रेमाख्यान काव्य, प्रेम काव्य आदि। भारत में इस्लाम धर्म के अस्तित्व में आने के बाद सूफी मत का उदय हुआ। सूफी मत इस्लाम धर्म की एक उदार शाखा है।

संत कवियों ने जनसामान्य के लिए एक भक्ति का साधारण मार्ग की खोज की तो वही सूफी फकीरों में हिंदू-मुस्लिम एकता का पुरजोर प्रयास किया। इस कार्य में सूफियों को संत कवियों की अपेक्षा आशातीत सफलता भी मिली। सूफी फकीरों ने हिंदू और मुस्लिम संस्कृतियों को बहुत ही सुंदर ढंग से सामंजस्य स्थापित किया। सूफियों की साहित्य की आत्मा विशुद्ध भारतीय है अर्थात इनकी साहित्य में भारतीय रूप झलकती है। सूफी फकीरों के सादा जीवन, उच्च विचार और व्यापक प्रेम के तत्वों में भारतीय जनसाधारण को अपनी ओर आकर्षित किया। इन्होंने मानव के सर्वांगीण विकास पर ध्यान दिया तथा मनुष्य की हृदय की क्षुद्रताओं को प्रेम से हटाने की बात बोली।

सूफियों के जीवन दर्शन का आधार ‘मनुष्य प्रेम’ था। सूफी कवियों में धार्मिक संकीर्णता की लेसमात्र भी उपस्थित नहीं थी। इनका समस्त साहित्य एक व्यापक विश्व, बंधुत्व और वैश्विक दृष्टि से रचनात्मक अभिव्यक्ति है। सूफियों का मानना था कि लौकिक प्रेम और ईश्वरीय प्रेम में कोई फर्क नहीं है। सूफी कवियों के लिए हम यह नहीं कह सकते कि सूफी केवल इस्लाम के प्रचार के लिए काव्य लिखे।

पुरानी हिंदी किसे कहते हैं? इसकी विशेषताओं का वर्णन करें।

सूफी काव्य की विशेषताएं

निर्गुण धारा के सूफी कवियों ने सर्वव्यापक परमात्मा को पाने के लिए प्रेम को साधन माना है। इस धारा के अधिकांश कवि सूफी साधक थे। इसलिए इसे सूफी साहित्य भी कहा जाता है। सूफी कवियों ने लोक प्रचलित प्रेमाख्यान चुनकर उन्हें इस प्रकार से काव्य रूप दिया कि लोग प्रेम को पहचानने और प्रभु में लीन हो जाए। सूफी कवियों की स्नेहसिक्ति प्रेम माधुरी वाणी ने पीड़ित जनता के घावों में मरहम लगाने का काम किया। जिससे लोगों में हिंद-यवन के भेदभाव को ही मिटा डाला। तो अब हम देखेंगे कि उनकी कौन सी साहित्यिक विशेषताएं थी जिससे ये भारत के जनसाधारण के जीवन में जगह बना पाए:-

काव्य प्रेरणा एवं प्रयोजन

सूफी कवियों ने सूफी मत का प्रचार-प्रसार अपनी काव्य की रचना के माध्यम से करने की कोशिश की। इस परंपरा में हिंदू कवि भी थे। जिन्होंने काव्य की शुरुआत हिंदू देवी-देवताओं से की है। जबकि मुस्लिम कवियों ने सूफी मत का प्रचार-प्रसार किया था। उनके काव्य प्रयोजन यश-प्राप्ति, काव्य, कला का प्रदर्शन और युवाओं का मनोरंजन था। एवं इन्होंने भारतीय शास्त्रों को ही आधार मानकर रचनाओं का निर्माण किया।

मसनवी शैली

मसनवी शैली, फारसी की एक शैली है। सुफी कवियों ने अपने काव्य रचना में मसनवी शैली का प्रयोग किया। इनके द्वारा लिखे गए मसनवी शैली की रचना में मोहम्मद साहब की स्तुति, तत्कालीन बादशाह की प्रशंसा और गुरु परंपरा का परिचय दिया गया है। यह शैली भारतीय शैली की तरह कांडबद्ध नहीं है।

मसनवी काव्य शैली में पाँच-सात छंदों के बाद विराम आता है जबकि भारतीय शैली में कुछ चौपाइयों के बाद दोहा रखा गया है। मसनवी काव्य में प्रेमिकाओं द्वारा आध्यात्मिक प्रेम व्यंजना होती है। भारतीय शैली में भी ऐसा ही था। इस प्रकार सूफी प्रेमाख्यानों में भारतीय तथा ईरानी काव्य-धाराओं का संगम देखने को मिलता है।

रहस्यवादी चेतना

चूँकि सूफी कवियों ने लौकिक प्रेम कथाओं द्वारा अलौकिक प्रेम की अभिव्यक्ति होने का कारण माना है जिस कारण इन कवियों में रहस्यवाद की भावना आ गई। इन्होंने आत्मा को पुरुष और परमात्मा को स्त्री रूप में वर्णन किया है। सूफी कवि ईश्वर की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं एवं जब तक ईश्वर की प्राप्ति न हो जाए उसकी विरह और वेदना का मार्मिक चित्रण इन काव्यों में किया गया है।

शैतान की अवधारणा

सूफियों ने आत्मा-परमात्मा के मिलन में शैतान को बाधक समझते थे और इस बाधा को दूर करने के लिए गुरु की आवश्यकता होती थी। अतः गुरु की मदद से ही साधना मार्ग पर आरुढ़ होकर ईश्वर तक पहुंचाने का प्रयत्न किया जाता था।

सूफियों ने शैतान को त्यागने योग्य नहीं माना, उनके अनुसार शैतान द्वारा लाए गए व्यवधानों से साधक की अग्नि परीक्षा होती है जिससे उसके प्रेम में दृढ़ता और उज्जवलता आती है।

सामाजिक खण्डन-मण्डन का अभाव

सूफी कवियों ने हिंदू और मुसलमानों के बीच धार्मिक एकता स्थापित करने का प्रयास किया था जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। संत कवियों के कई प्रकार के सामाजिक खण्डनात्मक बातों से हिंदू-मुसलमान को क्रोधित किया। जबकि सूफियों ने दोनों संप्रदाय को ईश्वर का समान रूप से दर्शन करा कर दोनों संप्रदाय के भेदभाव को मिटाने का प्रयास किया। इसी कारण भारत में इन्हें काफी सफलता मिली।

भाषा

सूफी कवियों का भारत में मुख्य केंद्र अवध होने के कारण अवधी भाषा उनके काव्य की भाषा थी। साथ ही इनके काव्य रचना में ब्रज एवं अन्य क्षेत्रीय भाषा का भी प्रभाव देखने को मिलता है।

नारी चित्रण

सूफियों ने अपने काव्य में प्रेम का प्रमुख स्थान नारी पात्र को ही ठहराया एवं नारी को परमात्मा का प्रतीक माना है। वास्तविक स्थिति तो यह थी कि सूफियों ने प्रेम साधना में नारी को सहायक के रूप में स्वीकार किया जिससे नारी साधकों की दृष्टि में स्वयं एक सिद्धि थी। इसी कारण सूफियों ने नारी साधकों को अनेक अलौकिक गुण से युक्त बताया है।

कथावस्तु

प्रेमाख्यान काव्य प्रधान शैली में रचे गए इसके साथ ही प्रबंध काव्य को भी रचा गया। प्रेमाख्यान काव्य में कथानक को तीव्रता देने के लिए कथानक में रूढ़ियों का प्रयोग किया गया है। ये रुढ़ियां भारतीय साहित्य परंपरा के साथ-साथ ईरानी साहित्य परंपरा से भी ली गई है जैसे- चित्र दर्शन, शुक सारिका आदि द्वारा नायिका का रूप, श्रवणकर नायक का उस पर आसक्त होना आदि भारतीय कथानक रूढ़ि है तथा उड़ने वाली राजकुमारी आदि ईरानी साहित्य की कथानक रूढ़ियां है।

श्रृंगार रस की प्रधानता

सूफियों ने अपने सभी प्रेमाख्यानों में मुख्यतः श्रृंगार के दोनों पक्षों संयोग और वियोग का चित्रण बहुत ही सुंदर तरीके से किया है। परंतु वियोग पक्ष का चित्रण बहुत ही मार्मिक था। पद्मावत में वीर रस भी देखने को मिलता है।

अलंकार छंद एवं उपमा का प्रयोग

सूफी कवियों ने अपनी कथाओं में जहां कहीं दिव्य अलौकिक अनुभूतियों को व्यक्त करने का अवसर मिला उसको उन्होंने अलंकार (समासोक्ति और अन्योक्ति) के माध्यम से पूर्ण किया। इसी कारण अनेक आलोचक इनके रचना को प्रतीकात्मक काव्य मानते हैं। इनकी अधिकांश रचनाओं में दोहा, चौपाई शैली का प्रयोग मिलता है। कालांतर में तुलसी ने अपने रचना मानस में इसे स्थान दिया। इसके साथ ही सोरठा, सवैया और परवै छंद का प्रयोग भी कहीं-कहीं देखने को मिलता है। कुछ अन्य अलंकार, उपमा, रुपक, उत्प्रेक्षा, अतिश्योक्ति आदि का प्रयोग भी हुआ है।

उपरोक्त विशेषताओं को देखने के बाद पता चलता है कि सूफियों की सबसे बड़ी विशेषता प्रेम के सार्वभौम रूप का प्रतिपादन करना था।

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सूफी कवि एवं उनकी रचनाएं

सूफी कवियों में ऐसे कई कवि हुए लेकिन यहां पर प्रमुख कवि के बारे में ही बात करेंगे:-

मुल्ला दाऊद

इन्होंने चन्दियान की रचना की। यह एक प्रणय-प्रसंग पर आधारित ग्रंथ है। यह अवधी भाषा का प्रथम संबंध काव्य है इसमें कडवक शैली का प्रयोग किया गया है।

कुतुबन

इसकी प्रमुख रचना मृगावती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसे सूफी काव्य का प्रथम ग्रंथ माना है।

मंझन

मधुमालती मंझन द्वारा ही रचा गया है। इसमें नायक के एकनिष्ठ प्रेम का चित्रण किया गया है।

जायसी

मलिक मोहम्मद जायसी ने ही पद्मावत की रचना 1540 ईस्वी में की। पद्मावत में चित्तौड़ के राजा रत्नसेन एवं सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मावती की कथा का चित्रण है। यह एक रूपक काव्य है। इसके पात्र को प्रतीकात्मक रूप में इस्तेमाल किया गया है:-

चित्तौड़ – शरीर का। रत्न सेन – मन का। पद्मावती – सात्विक बुद्धि। नागमती – संसार का। सिंहल द्वीप – हृदय का। हीरामन तोता – गुरु का। राघव चेतन – शैतान का। अलाउद्दीन – माया रुपी आसूरी शक्ति का, आदि।

मलिक मोहम्मद जायसी की अन्य रचनाएं:-

  • अखरापट – इसमें वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर को लेकर एक सिद्धांत निरूपित किया गया है।
  • आखिरी कलाम – इसमें कयामत के दिन का वर्णन किया गया है।
  • चित्र रेखा
  • कहरनामा
  • मसलनामा

असाइत

इसने हेसावली की रचना की। मोतीलाल मनारिया के अनुसार इसमें राजस्थानी भाषा का प्रयोग किया गया है।

दामोदर कवि

इसकी प्रमुख रचना लखन सेनपद्मावती कथा है।

नंददास

रूपमंजरी नंददास द्वारा लिखी गई रचना है।

उसमान

चित्रावली उसमान के द्वारा रची गई।

शेखनवी

शेखनवी ने ज्ञानदीप की रचना की

ईश्वर दास

ईश्वर दास ने सत्यवती कथा की रचना की

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सगुण काव्य धारा

भक्तिकाल में हमें भक्ति की दो धाराएं देखने को मिलती है निर्गुण भक्ति धारा एवं सगुण भक्ति धारा। सगुण भक्ति धारा में भी दो प्रकार की प्रवृत्ति देखने को मिलती है- कृष्ण काव्य धारा एवं राम काव्यधारा एवं पुनः राम काव्य धारा को भी दो भागों में बांटा जाता है- मर्यादा काव्य धारा एवं रसिक काव्यधारा।

सगुण भक्ति धारा के कृष्ण काव्य धारा के प्रवर्तक सूरदास थे। एवं राम काव्य धारा के प्रतिनिधि कवि तुलसीदास थे। भक्ति काल में राम भक्ति काव्य की लंबी परंपरा हमें देखने को मिलती है। वास्तव में भक्तिकाल के सगुण काव्य धारा के कवि ईश्वर के अस्तित्व को साकार रूप से मानते हैं और कृष्णा काव्यधारा के कवि भगवान कृष्ण को आराध्या मानकर ही अपनी रचनाएं लिखी है।

इस तरह राम काव्य धारा से संबंधित जितनी भी रचनाएं राम काव्य धारा के कवियों द्वारा लिखी गई इन्होंने भगवान राम को आराध्या मानकर अपनी रचनाएं लिखी। जबकि भक्तिकाल के निर्गुण काव्य धारा में निराकार ईश्वर की आराधना की जाती थी। जितने भी निर्गुण काव्य धारा के कवि थे उनका आध्यात्मिक संबंध निराकार ईश्वर (परमात्मा) से जुड़ा था और उनकी रचनाएं भी इसी से संबंधित थी। यहां पर हम दोनों काव्य धारा को अलग-अलग और विस्तार से देखेंगे:-

कृष्ण काव्य धारा / कृष्णाश्रायी शाखा

भक्तिकाल के सगुण भक्ति धारा में कृष्ण काव्य धारा के कवियों ने कृष्ण भक्ति को सर्वाधिक महत्व दिया। कृष्ण काव्यधारा का तात्पर्य यह था कि भगवान कृष्ण को ईश्वर मानकर उनका साकार रूप का आराधना करना। कृष्ण काव्यधारा के प्रवर्तक कवि सूरदास है। इस काव्य धारा में कवियों की एक लंबी श्रृंखला है जिन्होंने अपना सब कुछ भगवान कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दिया। इन्होंने श्री कृष्ण को ही ‘परब्रह्म’ माना है जो दिव्य गुणों से संपन्न होकर ‘पुरुषोत्तम’ कहलाते हैं। एवं आनंद का पूर्ण अविर्भाव इसी पुरुषोत्तम रूप में विद्यमान रहता है। अतः यही श्रेष्ठ है।

आठवीं सदी में दक्षिण भारत में श्री कृष्ण भक्ति का सर्वाधिक प्रचार-प्रसार था। प्राचीन संस्कृत कवियों में भी श्री कृष्णा संबंधी कथाएं मिलती है जैसे- छान्दोग्य उपनिषद में कृष्णा का उल्लेख देवकी पुत्र के रूप में हुआ। महाभारत में भी कृष्ण का चरित्र विस्तृत रूप में चित्रण हुआ है। जयदेव के गीत गोविंद तथा विद्यापति की पदावली में राधा कृष्ण का शृंगारिक वर्णन है। इनका भी प्रभाव हिंदी साहित्य पर पड़ा है।

इसी क्रम में हिंदी साहित्य में कृष्ण काव्य धारा का उदय हुआ। कुछ विद्वान विद्यापति को हिंदी कृष्ण काव्य का प्रारंभ मानते हैं। लेकिन अगर सही अर्थ में देखा जाए तो बल्लाभाचार्य के माध्यम से 15वीं शताब्दी में कृष्ण काव्य का प्रचार-प्रसार हुआ एवं उनके शिष्य विट्ठलदास ने इस परंपरा को जीवित रखा। इस परंपरा के अष्टछाप कवियों में सूरदास का मुख्य विषय श्री कृष्ण की लीलाओं का वर्णन करना है।

कृष्ण काव्य धारा के कवियों का सिद्धांत यह था कि श्री कृष्ण ही ‘परब्रह्म’ है जो दिव्य गुणों से संपन्न होकर ‘पुरुषोत्तम’ कहलाते हैं। एवं आनंद का पूर्ण आविर्भाव इसी पुरुषोत्तम रूप में रहता है और यही श्रेष्ठ रूप है। पुरुषोत्तम कृष्ण की सब लीलाएं नित्य है। एवं भगवान कृष्ण की इस ‘नित्यलीला सृष्टि’ में प्रवेश करना ही जीव की सबसे उत्तम गति है।

इस समय कृष्ण भक्ति से संबंधित कई संप्रदायों का जन्म हुआ जैसे- माधवाचार्य का अद्वैतवाद, विष्णुस्वामी का शुद्धाद्वैत, निम्बार्क का निम्बार्क संप्रदाय, बल्लभाचार्य का पुष्टि संप्रदाय, चैतन्य गौडिय संप्रदाय, वल्लभी संप्रदाय, सखी संप्रदाय आदि।

इन सभी संप्रदायों ने श्री कृष्ण को मानवीयकरण किया है। लेकिन सूरदास के द्वारा ही कृष्ण काव्य को लोकप्रियता मिली तथा अन्य अष्टछाप कवियों ने भी कृष्ण भक्ति धारा के विकास में योगदान दिया है।

अतः यहां पर अब हम कृष्ण भक्ति धारा के प्रवृत्तियां तथा विशेषताओं को देखेंगे।

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कृष्ण काव्य धारा की विशेषताएं

कृष्ण काव्य धारा के कवियों ने प्रायः मुक्तक काव्य ही लिखा है। भगवान श्री कृष्ण का नित्यलीला ही कवियों को अधिक आकर्षित किया है इसलिए उनके काव्य रचना में कृष्ण के ऐश्वर्या रूप न होकर माधुर्य रूप का ही प्रधानता रही है। इस धारा के कवि गायक थे।

अतः इन्होंने कविता और संगीत को समन्वय कर अद्भुत रचनाएं की है। नर-नारी की साधारण प्रेम-लीलाओं को राधा-कृष्ण की अलौकिक प्रेम-लीला द्वारा व्यंजित कर जन मानस को रसाप्लवित कर दिया। अतः इस भक्ति धारा में हमें वात्सल्य, सरल एवं माधुर्य भावों की प्रधानता देखने को मिलती है।

कृष्ण काव्य धारा के निम्नलिखित विशेषताएं हैं:-

कृष्ण का ब्रह्म रूप में चित्रण

कृष्ण काव्य धारा के कवियों ने ब्रह्म के साकार और सगुण रूप को ही भक्ति का आधार माना है। कृष्ण काव्य के माध्यम से ही ब्रह्म के निर्गुण एवं निराकार रूप का खंडन किया एवं सगुण (साकार) रूप की प्रतिष्ठा की है।

राधा कृष्ण की लीला

कृष्ण भक्त कवियों ने अपनी काव्य रचनाओं में कृष्ण की लीलाओं का कविता एवं संगीत के द्वारा गान किया है। इन्होंने लोकरंजनकारी कृष्ण की लीलाओं का उन्मुक्त गान लीलानन्द के लिए किया है। एवं बालगोपाल की वात्सल्यपूर्ण लीलाएं, सुखी रूप में लीलाएं तथा माधुर्यभावपूर्ण लीलाएं ही समस्त कृष्ण भक्ति काव्य में व्याप्त है।

सूरदास ने राधा-कृष्ण के अनेक प्रसंगों का चित्रण कर उन्हें सजीव रूप देने का कर्म किया है। अन्य कवियों ने भी कृष्ण के चरित्र का बहुत ही सुंदर ढंग से चित्रण किया है। जो काफी लीलामयी व मधुर है।

वात्सल्य रस की प्रधानता

सूरदास जी ने कृष्ण काव्य में कृष्ण के वात्सल्यता का बड़ा ही सुंदर चित्रण किया है। एवं कृष्ण वात्सल्यता के लिए सबसे पहला नाम सूरदास का ही आता है। इस संबंध में सूरदास जी के कुछ पंक्तियां-

 “मैया मोहि दाऊ बहुत खिजायो,

 मैया कबहि बदैगी चोटी !

 कितिक बार मोही दूध पियंत भंइ,

 यह अजहूँ है छोटी।”

अर्थात मैया, दाउ दादा ने मुझे बहुत चिढ़ाया है। मेरी चोटी (बाल) कब बढ़ेगी? मैं इतनी बार दूध पीता हूं लेकिन अभी भी मेरी चोटी छोटी है।

अतः सूरदास जी ने कृष्ण के बचपन की सूक्ष्म से सूक्ष्म गतिविधियों को ऐसी चित्रित की हो जैसे मानो वे स्वयं वहां उपस्थित हो।

श्रृंगार रस का वर्णन

कृष्ण काव्य धारा के कवियों ने कृष्ण एवं गोपियों के प्रेम वर्णन के रूप में श्रृंगार रस का वर्णन किया है कवि विद्यापति का इस संबंध में पंक्तियां है:-

 सजनी मलकाए देखन न मेल

 मेघ-माल संय तड़ित लता जनि

 हिरदय सेक्ष दई गेल।

अर्थात हे सखी मैं तो अच्छी तरह उस सुंदरी को देख नहीं सका क्योंकि जिस प्रकार बादलों की पंक्ति में एकाएक बिजली चमक कर छिप जाती है उसी प्रकार प्रिया के सुंदर शरीर की चमक मेरे हृदय में भाले की तरह उतर गई और मैं उसकी पीड़ा झेल रहा हूं।

विद्यापति के काव्य रचना में कृष्ण के विरह में राधा की आकुलता, विवशता दैन्य व निराशा आदि का जीवन्त चित्रण देखने को मिलता है।

प्रकृति का वर्णन

कृष्ण भक्ति काव्य धारा की रचना भावात्मक काव्य होने के कारण इसमें प्रकृति का चित्रण पृष्ठभूमि रूप में हुआ एवं प्रकृति का मनोरंजन कोमल तथा कठोर और भयानक रूपों में समावेश देखने को मिलता है। प्रकृति के सौंदर्य की एक-एक कणों को जैसे- पृथ्वी, अंतरिक्ष, आकाश, वन, यमुना, जलाशय, कुंज-भवन, पुष्प आदि का वर्णन इनके काव्य रचना में देखने को मिलता है।

प्रेम की अलौकिकता

कृष्ण भक्ति धारा के कवियों ने अपनी रचनाओं में प्रेम की अलौकिकता को महत्व दिया है। राधा और कृष्ण के प्रेम का चित्रण करने के लिए इन्होंने मधुर रस का अविर्भाव किया है।

भक्ति भावना

कृष्ण भक्ति धारा के कवियों में महत्वपूर्ण कवि हैं- सूरदास, कुंभदास व मीरा। सूरदास ने सबसे पहले अपने रचना में भक्ति भावना का व्यंजना किया। उनकी रचना में अलौकिकता और लौकिकता, रागात्मक एवं बौद्धिकता, माधुर्य और वात्सल्यता सब मिलकर एकाकार हो गए हैं। साथ ही मीराबाई ने भी सगुण, निर्गुण, श्रद्धा-प्रेम, भक्ति-रहस्यवाद के अंतर को समाप्त करते हुए अपने भक्ति में मधुर्य भाव को अपनाती है।

काव्य रूप एवं शैली

कृष्ण भक्ति धारा के कवियों ने संपूर्ण साहित्य मुक्तक शैली में लिखी है। इन्होंने अपनी रचना में गेय मुक्तक शैली का प्रयोग किया है। इस धारा में प्रबंध रचना कम दिखाई देती है। उनके रचनाओं में गद्य का प्रभाव भी देखने को मिलता है। क्योंकि ये कवि थे अतः इन्होंने गीत शैली का भी प्रयोग किया। इनके काव्य में गीत तत्व के सभी लक्षण मौजूद हैं। जैसे- भावात्मकता, संगीतात्मकता, भाषा की कोमलता इत्यादि। इनके साहित्य में अनेक अभिव्यंजना शैली भी देखने को मिलती हैं।

भाषाएं

कृष्ण भक्ति धारा के कवियों ने ब्रजभाषा का प्रयोग अपने रचनाओं में की है। सूरदास और नंददास जैसे कवियों ने ब्रजभाषा को इतना विकसित कर दिया कि कालांतर में पूरे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा बनकर उभरी। अन्य भाषा का भी प्रयोग इस कल के कवियों ने किया था जैसे- मैथिली।

कृष्ण काव्य धारा के कवि एवं उनके रचनाएं

कृष्ण काव्य धारा में अष्टछाप कवियों की चर्चा होती है तो सर्वप्रथम हम अष्टछाप कवियों के बारे में जानेंगे:-

वल्लभचार्य (1489-1531 ई) जो कृष्णमार्गी थे। इनका जन्म वाराणसी में हुआ था। उनके पिता तेलंगाना के थे। इनके पिता लक्ष्मण भट्ट जब काशी की तीर्थ यात्रा पर आए थे तभी काशी में इनका जन्म हुआ था। इन्होंने पूरे भारत देश में भक्ति का अलख जगाया। इन्होंने वृंदावन में अपना आश्रम बनाया। विजयनगर के शासक कृष्णदेव राय का संरक्षण इनको मिला हुआ था। इन्होंने बचपन में ही चारों वेद, शास्त्र व पुराण स्मरण कर लिए थे।

ये श्रीनाथ जी के नाम से भगवान कृष्ण की पूजा करते थे। इन्होंने भक्ति काव्य का प्रचार-प्रसार के लिए संस्कृत व ब्रजभाषा को चुना क्योंकि इसमें ये निपुण थे। ये पुष्टि (कृपा) व भक्ति के पथ पर विश्वास करते थे। इसी कारण इनको पुष्टिमार्ग का प्रवर्तक माना जाता है। इन्होंने वल्लभ संप्रदाय का स्थापना किया। एवं इनका दार्शनिक सिद्धांत ‘शुद्धाद्वैत’ तथा इनका साधना मार्ग ‘पुष्टिमार्ग’ कहलाता है।

पुष्टिमार्ग का आधार इन्होंने भागवत (श्रीमदभागवत) ग्रंथ को बनाया। पुष्टिमार्ग में बलभाचार्य ने चार कवियों (सूरदास, कुंभन दास, परभानंद दास व कृष्ण दास) को दीक्षित किया। बलभाचार्य के मृत्यु के बाद उनके पुत्र विट्ठलनाथ आचार्य जी गद्दी पर बैठे एवं इन्होंने भी चार कवियों (छीतस्वामी, गोविंद स्वामी, चतुर्भुज दास व नंददास) को दीक्षित किया। विट्ठल दास ने इन दीक्षित कवियों को मिलाकर ‘अष्टछाप’ की स्थापना की। जिसमें सर्व प्रमुख है सूरदास। इन्हें ‘अष्टछाप का जहाज’ कहा जाता है।

अब हम क्रमबद्ध तरीके से रचनाएं एवं उनके रचनाकार को देखेंगे:-

 

रचनाकार / कवि

रचनाएं

सूरदास

सूरसागर, सूरसारावली, भ्रमरगीत (सूरसागर के संकलित अंश) साहित्य लहरी

परमानंद

परमानंद सागर

कृष्ण दास

जुगलमान चरित

कुंभन दास

फुटकल पद

छीत स्वामी

फुटकल पद

गोविंद स्वामी

फुटकल पद

चतुर्भुज दास

द्वादशयश, भक्ति, प्रताप, हितजू को मंगल

नंददास

रास पंचाध्यायी, भंवर गीत (प्रबंध काव्य)

श्री भट्ट

युगल शतक

हित हरिवंश

हित चौरासी

स्वामी हरिदास

हरिदास जी के पद

ध्रुवदास

भक्त नामावली, रसत्वावणी

मीराबाई

नरसी जी का मायरा, गीत गोविंद टीका, राग गोविंद, राग सोरठ के पद

रसखान

प्रेम वाटिका, सुजान रसखान, दान लीला

नरोत्तम दास

सुदामा चरित्र

राम काव्य धारा / रामाश्रयी शाखा

भक्ति काल के सगुण भक्ति धारा का दूसरा काव्यधारा रामाश्रयी शाखा है। जहां एक ओर कृष्ण भक्ति धारा में कृष्ण के लीला-पुरुषोत्तम का गान हो रहा था तो दूसरी और राम भक्ति शाखा में मर्यादा-पुरुषोत्तम रामचंद्र को आराध्य मानकर उनकी भक्ति की गई। रामाश्रयी शाखा को भी दो भागों में बांटा गया है:-

  • मर्यादा काव्य धारा:- इसका प्रतिनिधित्व कवि तुलसीदास ने की थी।
  • रसिक काव्यधारा:- इसके प्रतिनिधि कवि अग्रदास थे।

वेदों में कई जगहों पर ‘राम’ शब्द का प्रयोग हमें देखने को मिलता है। राम से संबंधित पहला महाकाव्य ‘वाल्मीकि रामायण’ को माना जाता है। अतः राम काव्य की उत्पत्ति बाल्मीकि रामायण से हुई। तत्पश्चात रामानंद द्वारा विकसित होकर तुलसी जी के ‘रामचरितमानस’ के द्वारा हिंदी के भक्ति साहित्य में अपनी छाप छोड़ी। तुलसी जी के पूर्व भी कई विद्वानों, कवियों जैसे:- अग्रदास, ईश्वरदास एवं विष्णु दास द्वारा राम काव्य लिखे गए लेकिन राम काव्य के प्रवर्तक तुलसीदास जी को ही माना जाता है।

तुलसीदास हिंदी साहित्य के श्रेष्ठ कवि हैं। इन्होंने मर्यादा-पुरुषोत्तम रामचंद्र को आराध्या माना और ‘रामचरितमानस’ द्वारा राम कथा को जनमानस तक पहुंचा। तुलसीदास जी एक समन्वयवादी कवि थे। इनमें लोकनायक के सब गुण विद्यमान थे। एवं इन्होंने पवन और मधुर वाणी से जनता के बीच एक राम रासत्व का स्वाद चखाया। साथ ही जनता के उत्थान के लिए भी कार्य किया। इस शाखा के अन्य प्रमुख कवियों में अग्रदास, नाभादास तथा प्राणचंद चौहान महत्वपूर्ण थे।

राम भक्ति काव्य धारा के विशेषताएं

राम भक्ति शाखा में जो प्रवृत्तियां विद्यमान है इन प्रवृत्तियों को वैष्णव संप्रदाय के स्वामी रामानंद से स्वीकार किया गया है ऐसा माना जा सकता है। हालांकि राम काव्य का आधार संस्कृत ग्रंथों में उपलब्ध राम काव्य और नाटक रहे हैं। रामानंद एवं उनके गुरु रामानुजाचार्य ने राम के सगुण और निर्गुण दोनों रूपों की उपासना का विधान किया। लेकिन तुलसीदास ने एक भक्ति की प्रतिमा स्थापित कर राम भक्ति को एक निश्चित दिशा प्रदान किया।

राम काव्य धारा में निम्नलिखित विशेषताएं देखने को मिलती है:-

राम का स्वरूप

रामानुजाचार्य की गुरु-शिष्य परंपरा में श्री रामानंद के अनुयाई सभी विष्णु के अवतार दशरथ के पुत्र राम के उपासक थे। अर्थात यह राम के अवतारवाद में विश्वास करते थे। जिस तरह से कृष्णा मार्गी कवियों ने कृष्ण को ब्रह्म रूप माना है उसी प्रकार राम भक्त कवियों ने राम को परब्रह्म का स्वरूप माना है एवं भक्त कवि मानव रूप में उनके साधक हैं। इनके अनुसार श्रीराम में शील, शक्ति और सौंदर्य का समन्वय है।

प्रभु श्री राम अपनी शक्ति का प्रयोग कर दुष्टों का नाश करते हैं और भक्तों को संकट से मुक्ति देते हैं। वह अपनी करुणा से पतितों और अधर्मों का उद्धार करते हैं अर्थात भगवान श्री राम का लोक रक्षक रूप ही प्रधान है। तत्पश्चात राम भक्ति परंपरा में रसिकता का उदय हुआ जिसके प्रवर्तक अग्रदास को माना जाता है। इसी से सखी संप्रदाय का उदय हुआ। परंतु इसमें कृष्ण भक्ति साहित्य को ही अनुकरण किया गया।

भक्ति का स्वरूप

राम भक्ति के कवियों ने अपने और राम के बीच सेवक और से सेव्य भाव को मना है। वे दास्य भाव से राम की आराधना करते थे। वे स्वयं को अतिक्षुद्र एवं भगवान को महान बतलाते थे। इस संबंध में तुलसी जी लिखते हैं:-

 सेवक-सेव्य भाव बिनु भव न तरिय उरगारि।

अर्थात मैं सेवक और भगवान मेरे स्वामी हैं, इस भाव के बिन संसार रूपी समुद्र से तारना (पार लगाना) नहीं हो सकता।

अतः अतः राम भक्ति काव्य धारा की अवधारणा सेवक और सेव्य भाव थी। राम काव्य में ज्ञान, कर्म और भक्ति की अलग-अलग महत्व बातकर भक्ति को ही श्रेष्ठ बताया गया है।

लोकमंगल की भावना

राम भक्ति काव्य धारा के कवियों ने गृहस्थ जीवन की उपेक्षा नहीं की जिससे जनता में इनकी संदेश अंदर तक गई। जनता इनसे निकटता बना सके तथा इन कवियों ने लोकमंगल अर्थात लोगों के मंगल (भलाई) के लिए राम और सीता को माध्यम बनाकर लोगों के जीवन स्तर को ऊंचा उठाने का प्रयास किया।

तुलसी जी ने राम को मर्यादापुरुषोत्तम तथा आदर्श के संस्थापक माना है। राम आदर्श पुरुष और आदर्श राजा है। सीता आदर्श पत्नी है तो वहीं लक्ष्मण और भारत आदर्श भाई हैं। कौशल्या आदर्श माता है तो हनुमान आदर्श सेवक है।

इस तरह से रामचरितमानस में तुलसी ने आदर्श गृहस्थ, आदर्श समाज तथा आदर्श राज्य की कल्पना कर लोकमंगल की कामना की तथा इसी आदर्श की प्रतिष्ठा से ही लोकनायक कवि भी बन गए। अतः उनका काव्य लोकमंगल की भावना से ओत-प्रोत है।

समन्वय की भावना

रामभक्ति धारा के काव्य में हमें समन्वय की भावना दिखाई देती है। तुलसीदास जी की ‘रामचरितमानस’ समन्वय की दृष्टि से विराट चेष्टा है। इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी कहते हैं- “उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है लोक और शास्त्र का समन्वय, गृहस्थ और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृत का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पंडित्य और अपंडित्य का समन्वय, रामचरितमानस शुरू से आखरी तक समन्वय का काव्य है।”

अतः उनके काव्य में समन्वय की भावना दिखाई देती है क्योंकि तुलसी जी के अलावा भी राम भक्त कवियों ने समाज और साहित्य सभी क्षेत्रों में समन्वयवाद का प्रचार-प्रसार किया है।

काव्य शैलियां

रामभक्ति कवियों के अनेक काव्य शैलियों पर आधारित होने के कारण राम काव्य में काव्य की लगभग सभी शैलियाँ देखने को मिलती है। राम काव्य में प्रबंध और मुक्तक दोनों काव्य रूपों का प्रयोग देखने को मिलता है। तुलसी जी ने तो अपने काव्य में अपने युग के सभी काव्य शैलियों का प्रयोग किया है।

तुलसी जी के काव्य में वीरगाथा काल की छप्पय पद्धति, विद्यापति और सूरदास जी की गीति पद्धति, भाट कवियों की कवित्त-सवैथा पद्धति, जायसी जी की दोहा पद्धति का प्रयोग देखने को मिलता है। अन्य रामभक्ति कवियों में संवाद पद्धति, रीति पद्धति आदि देखने को मिलती है।

रुपोपासना

सगुण भक्ति धारा में रूप की उपासना को विशेष स्थान दिया गया है। राम भक्ति में राम भक्त को भगवान का नाम और रूप इतना विमुग्ध कर देता है कि कोई लौकिक छवि उसमें बाधक नहीं बन सकती। तुलसी जी ने भी नाम और रूप की प्रतिष्ठा राम भक्ति काव्य में बढ़कर राम काव्य को एक निश्चित दिशा प्रदान किया था।

गुरु की महिमा

राम भक्त कवियों ने निर्गुण कवियों के समान ही गुरु की महिमा को विशेष स्थान दिया है। तुलसीदास जी के अनुसार गुरु के बिना ज्ञान की प्राप्ति असंभव है और ज्ञान के अभाव में मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। अर्थात राम भक्त कवियों ने अपने काव्य में गुरु को विशेष महत्व दिया है।

रस

राम भक्त कवियों ने राम काव्य में चार रसों का प्रयोग किया है। रामकथा इतनी लंबी और व्यापक है कि उसमें जीवन की विविधताओं का सहज ही समावेश हो जाती है अतः उसमें सभी रसों की अभिव्यक्ति सहज ही हो जाती है।

महाकवि तुलसीदास जी ने श्रृंगार और शांत रस के साथ वीर रस का भी प्रयोग किया है। तुलसी जी के ‘रामचरितमानस’ एवं केशव के ‘रामचंद्रिका’ में सभी (चार रसों का) रसों का समावेश है। अग्रदास के रसिक संप्रदाय के काव्य में श्रृंगार रस को प्रमुखता मिली है जो की कृष्ण काव्य के अनुकरण के कारण हुआ है।

भाषा

रामभक्ति के कवियों ने अपने काव्य रचना में अवधी भाषा का प्रयोग किया है। ब्रजभाषा का भी प्रयोग इस काव्य का सौंदर्य को बढ़ाया है। कुछ अन्य भाषाओं के शब्द भी प्रयोग मे हमें देखने को मिलता है जैसे- बुंदेली, भोजपुरी, फारसी तथा अरबी।

छंद

राम काव्य की रचना अधिकतर दोहा चौपाई में हुई है। प्रबंध काव्य में इसका प्रयोग देखने को मिलता है। इसके अलावा कुंडलिया, छप्पय, कवित, सोरठा, तोमर, त्रिभंगी आदि छंदों का प्रयोग हुआ है।

अलंकार

तुलसी जी ने अपने काव्य ‘रामचरितमानस’ में उत्प्रेक्षा, रूप और उपमा का प्रयोग अधिकता से की है। राम भक्त कवियों ने बहुत अधिक शब्दालंकारों का प्रयोग किया है।

रामाश्रयी शाखा के कवि एवं उनकी रचनाएं

  • रामानंद (15वीं शदी) – राम भक्ति काव्य धारा की शुरुआत रामानंद से माना जाता है। उनके गुरु रामानुजाचार्य थे। यह रामावत संप्रदाय के प्रवर्तक थे। इन्होंने रामभक्ति को जनता के लिए सरल व सुगम बनाया। रामानंद ने हिंदी को अपने काव्य रचना का माध्यम बनाया। भक्ति सुधारकों में ये पहले व्यक्ति हुए जिन्होंने ईश्वर आराधना के द्वार महिलाओं के लिए खोले। राम भक्ति काव्य ‘सगुण और निर्गुण’ का समन्वय ‘रामावत संप्रदाय’ की उदार दृष्टि का परिणाम था। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने इन्हें ‘आकाश का धर्मगुरु’ कहा है।

इनकी प्रमुख रचनाएं:-  रामार्चन पद्धति, रामरक्षा स्तोत्र, वैष्णवमताब्ज भास्कर, हनुमान जी की आरती (आरती की जे हनुमान लला की)

  • अग्रदास – ये कृष्ण पयहरी के शिष्य थे। इनके गुरु नाभादास थे। रसिक काव्य धारा के प्रवर्तक थे। ये स्वयं ही अग्रकली (जानकी की सखी) मानकर काव्य की रचना की। इन्होंने सखी संप्रदाय की स्थापना की।

इनकी प्रमुख रचनाएं:- ध्यान मंजरी, अष्टयाम, राम भजन, उपासना बावनी, हितोपदेश भाषा।

  • गोस्वामी तुलसीदास (1532 – 1623) – राम भक्ति धारा के सबसे महान कवि तुलसीदास जी हैं। तुलसीदास के संबंध में विद्वानों की निम्नलिखित राय है-

हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के अनुसार – तुलसी का संपूर्ण काव्य, समन्वय की विराट चेष्टा है।

नाभादास के अनुसार – तुलसीदास ‘कलिकाल का वाल्मीकि’।

डॉ ग्रियर्सन के अनुसार – बुद्ध के बाद सबसे बड़ा लोकनायक।

डॉ स्मिथ के अनुसार – अकबर से भी महान एवं अपने युग का महान पुरुष।

डॉ रामविलास शर्मा के अनुसार – जातीय जन जागरण के कवि।

अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास ‘मानस का हंस’ में तुलसी जी का वर्णन किया है।

उदय भानु सिंह के अनुसार – उतप्रेक्षाओं का बादशाह।

डॉ मधुसूदन सरस्वती के अनुसार – आनंदवन का वृक्ष।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार – तुलसी जी का जन्म स्थान – राजापुर, माता का नाम – हुलसी, पिता – आत्माराम, पत्नी – रत्नावली, गुरु – नरहारिदास। इनके अनुसार – “भारतीय जनता का प्रतिनिधि कवि यदि किसी को कह सकते हैं तो वह तुलसीदास है।”

तुलसीदास जी की प्रमुख रचनाएं:- रामचरित मानस – यह महाकाव्य 1514 ईस्वी में अयोध्या में लिखा गया इसके अंदर सात काण्ड हैं:-

  1. बालकाण्ड – 359 दोहे
  2. अयोध्या काण्ड – 314 दोहे
  3. अरण्य काण्ड – 51 दोहे
  4. किष्किन्धा काण्ड – 31 दोहे
  5. सुंदरकाण्ड – 62 दोहे
  6. लंका काण्ड / युद्ध काण्ड – 148 दोहे
  7. उत्तरकाण्ड – 207 दोहे

इस महाकाव्य में कुल 1172 दोहे है। इन काण्डों में प्रत्येक काण्ड भगवान श्री राम का एक-एक अंग है जैसे:-

बालकाण्ड श्री राम का चरण है।

अयोध्या काण्ड श्री राम का जंघा है।

अरण्य काण्ड  श्री राम का उदर है।

किष्किन्धा काण्ड श्री  राम का हृदय है।

सुंदरकाण्ड श्री राम का कण्ठ है।

लंका काण्ड / युद्ध काण्ड श्री राम का मुख है।

उत्तरकाण्ड श्री राम का मस्तक है।

ये सातों काण्ड मनुष्य को मार्ग दिखाकर उसकी सभी प्रकार की उन्नति करने वाले सोपान है। तुलसीदास जी ने इन सात काण्डों को ‘सोपान’ कहा है। क्योंकि ये श्री राम जी के चरणों तक पहुंचने की सीढ़ियां है।

तुलसीदास जी की अन्य ग्रंथ:- बरबैरामायण, कृष्णगीतावली, रामाज्ञाप्रश्नावली, हनुमानबाहुक, कलिकाल, कवित रामायण, दोहावली, गीतावली, रामलाल नहुछ, वैराण्य संदीपनी, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, विनय पत्रिका।

  • नाभादास – ये तुलसीदास जी के समकालीन थे। इनकी प्रमुख रचना ‘भक्तमाल’, जिसमें 200 कवियों का वर्णन है। ये अग्रदास के शिष्य थे अन्य रचना:- अष्टयाम, राम भक्ति संबंधी इस स्फूट पद।
  • केशवदास (1612 वि सं से 1674 वि सं) – इनकी रचना की विशेषता को देखा जाए तो ये रीतिकाल के कवि हैं परंतु काल को देखा जाए तो भक्तिकाल के कवि हैं। इन्होंने अपनी रचना में ब्रज भाषा का प्रयोग किया है। इनकी प्रमुख रचना:- रामचंद्रिका, विज्ञान गीता, वीर सिंह देव चरित, जहांगीर जस चंद्रिका, रतन बावनी, रसिकप्रिया, कविप्रिया, नख-शिख, छंदमाला।

केशवदास बहुत प्रतिभा संपन्न कवि थे इन्होंने वीर सिंह और जहाँगीर की स्तुति के कारण आदिकालीन, रामचंद्रिका के कारण भक्ति कालीन और रसिकप्रिया एवं कविप्रिया के कारण रीतिकालीन कवियों में गिने जाते हैं।

आचार्य शुक्ल ने इन्हें ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा है।

‘रामचंद्रिका’ को छंदों का ‘अजायबघर’ कहा जाता है। इसकी भाषा बुंदेलखंडी मिश्रित ब्रज है। इसमें श्री राम की भक्ति की गई है। अतः यह भक्ति संबंधी ग्रंथ है। इसमें राम और सीता को अपना इष्ट देव माना है।

विज्ञान गीता में ज्ञान की महिमा करके जीव को माया से छुटकारा पाकर ब्रह्म से मिलने का उपाय बताया गया है। यह भी धार्मिक प्रबंध काव्य है।

‘वीर सिंह देव चरित’, ‘जहांगीर जस चंद्रिका’ और ‘रतन बावनी’ ये तीनों ग्रंथ चारण काल से समानता रखते हैं। यह ऐतिहासिक प्रबंध काव्य है।

‘रसिक प्रिया’ में रस का वर्णन तथा नायिका के रहस्य एवं ‘कवि प्रिया’ में कवि के कर्तव्य तथा अलंकार और ‘नख-शिख’ में नख और शिखा का वर्णन किया गया है। इसी कवि के द्वारा रीतिकालीन साहित्य का नींव रखा गया। लेकिन आचार्य राम चन्द्र शुक्ल ने इस बात का खंडन किया है।

  • ईश्वर दास – इनकी प्रमुख रचना भरत मिलाप और अंगद पैंज है।
  • नरहरी दास – पौरुषेय रामायण इनकी प्रमुख रचना है।
  • अन्य कवि – सेनापति, प्रांचंद चौहान, माधव दास चारण, हृदय राम, नरहरि वापट, लाल दास, कपूरचंद त्रिखा।

निष्कर्ष

हमने भक्ति काल के चारों भक्ति धारा निर्गुण धारा के संत कवि एवं उनकी रचनाएं सूफी कवि एवं उनकी रचनाएं सगुण धारा के कृष्ण भक्ति धारा कवि एवं उनकी रचनाएं एवं राम भक्ति धारा के कवि एवं उनकी रचनाओं के साथ-साथ इस पूरे काल के साहित्यिक प्रवृत्तियों को भी देखा।

इस पूरे काल में संत कबीरदास, जायसी, तुलसीदास, सूरदास जैसे कई महत्वपूर्ण कवियों ने अपनी रचनाओं के द्वारा भक्ति को चरम पर पहुंचाया। इन्होंने अपनी अद्भुत कृति के जरिए हिंदी साहित्य में एक अमिट छाप छोड़ा है। इस समय की जो राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक परिस्थितियां (जिसे हम आरंभ में देख चुके हैं) थी एवं हम कह सकते हैं कि समय की मांग के कारण भक्तिकाल का उदय हुआ एवं भक्ति, पीड़ित जनमानस के हृदय में गहराई तक जाकर स्पर्श किया तथा तत्कालीन दशा में एक परिवर्तन ला दिया।

इस संबंध में आचार्य द्विवेदी जी का कहना है- “समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है। भक्ति साहित्य एक महती साधन और प्रेम उल्लास का साहित्य है। यहां जीवन के सभी विषाद, निराशाएं तथा कुंठाएं मिट जाती है। इसने निमज्जन करके भारतीय जनता को अलौकिक सुख और शांति देती है। यह सुख शांति अन्य किसी काल में संभव नहीं है।”

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