रीतिकाल की परिभाषा | रीतिकाल का नामकरण | रीतिकाल की विशेषताएं
हिंदी साहित्य के इतिहास में हिंदी साहित्य के काल विभाजन की तालिका में मध्यकाल के दूसरे भाग उत्तरमध्यकाल को रीतिकाल की संज्ञा दी गई है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने संवत 1700 से 1900 तक अर्थात 1643 ई से 1843 ई तक के काल को ‘रीतिकाल’ या ‘उत्तरमध्यकाल’ नाम दिया है। इस काल में ‘रीति’ शब्द का प्रयोग ‘काव्यांग निरूपण’ के लिए किया जाता था। अर्थात ऐसे ग्रंथ जिसमें काव्यंगों के लक्षण एवं उदाहरण दिए जाते थे ‘रीति ग्रंथ’ कहलाते थे। ‘रीति काव्य’ का नामकरण भी काव्य शास्त्र बद्ध सामान्य सृजन प्रवृत्ति और रस, अलंकार आदि के निरूपक बहुसंख्यक लक्षण ग्रंथों को ध्यान में रखते हुए इस समय के काव्य को रीति काव्य कहा है।
रीतिकाल के ज्यादातर कवियों ने रीति निरूपण करते हुए लक्षण ग्रंथ लिखे। इसी कारण इस काल की मुख्य प्रवृत्ति रीति निरूपण को माना जा सकता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी कालों का नामकरण उनके मुख्य प्रवृत्ति के आधार पर किया। अतः उन्हें इस काल में रीति की प्रधानता दिखाई देने के कारण उन्होंने इस काल का नामकरण ‘रीतिकाल’ किया है। वे रीति का अर्थ पद्धति, शैली एवं काव्यांग निरूपण को मानते हैं।
रीतिकाल का नामकरण एवं काल विभाजन
हिंदी साहित्य में इतिहास लेखन की परंपरा की शुरुआत हुई तो विद्वानों के सामने काल विभाजन एवं काल के नामकरण की समस्या उत्पन्न हुई, कि किस काल का क्या नामकरण किया जाए। और तब हिंदी साहित्य को मुख्य रूप से तीन कालों में विभाजित किया गया- आदिकाल, मध्यकाल और आधुनिक काल।
आदिकाल 1000 ई से 1350 ई तक, मध्यकाल 1350 से 1850 ई तक, एवं मध्यकाल को पुनः दो भागों में बांटा गया- पूर्व मध्यकाल 1350 से 1650 ई तक एवं उत्तर मध्यकाल 1650 से 1850 ई तक। पूर्व मध्यकाल को भक्तिकाल के नाम से जाना गया एवं उत्तर मध्यकाल को विभिन्न नाम से संबोधित किया गया। विद्वानों ने अलग-अलग तरीके से इस काल को नाम दिया जिसके कारण ही इस काल के नामकरण की समस्या उत्पन्न हुई कि इसकाल 17वीं से 19वीं शदी के कालखंड को क्या नाम दिया जाए।
विद्वानों द्वारा इस काल का नामकरण
मिश्र बंधुओं का मत
सर्वप्रथम इस काल का नामकरण का प्रयास मिश्र बंधुओ ने किया। इन्होंने अपनी पुस्तक ‘मिश्र बंधु विनोद’ (1913 ईस्वी) में काल विभाजन और नामकरण का प्रयास किया और इस काल को ‘अलंकृत काल’ कहा।
इन्होंने इस काल के साहित्य की रचना का मूल साहित्यिक प्रवृत्ति को ध्यान में रखते हुए की। इस काल की रचनाओं में अलंकार की प्रधानता है। अतः उन्होंने इस काल का नाम ‘अलंकृत काल’ रखा। पुनः इसे भी दो भागों में बांटा:- पूर्वालंकृत काल (1681-1790 विक्रम) तथा उत्तरालंकृत काल (1790-1889 विक्रम)।
इस काल को यह नाम देने के संबंध में मिश्र बंधु का कहना है- “इस युग में कविता को अलंकृत करने की परिपाटी अधिक थी। अतः इसे अलंकृत का नाम दिया जा सकता है।”
लेकिन कई विद्वान इस मत का खंडन करते हुए कहते हैं-
- इस काल के साहित्य में केवल काव्यालंकार ही नहीं है परंतु इसमें विभिन्न काव्यंगों को यथोचित स्थान दिया गया है। अर्थात कवियों की प्रवृत्ति मात्र अलंकारिक रचना की नहीं थी।
- रीतिकाल के कवियों ने अलंकार को अपनाया जरूर था लेकिन अलंकार से भी अधिक महत्व रस को दिया। इस समय के कवियों ने श्रृंगार रस एवं वीर रस की कविताएं लिखी। अगर केवल अलंकार मात्र से इस काल का नामकरण कर दिया जाए तो यहां रसों की अवहेलना हो जाएगी।
- अलंकार शब्द रीतिकाल तक आते-आते केवल अलंकारों के लिए रुढ़ हो गया था। यह विभिन्न प्रकार के काव्यंगों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।
पूर्व के संस्कृत काव्य परंपरा में अलंकार शब्द सभी काव्यंगों का बोधक बन चुका था। इसलिए सभी काव्यंगों के लिए अलंकार शब्द का प्रयोग किया जाता था परंतु रीतिकाल तक आते-आते केवल शब्दालंकारों, अर्थालंकारों के लिए रूढ़ हो गया अब वह काव्यंगों का पर्याय नहीं रहा।
अतः अलंकार काव्य के उपकरण मात्र अर्थात काव्य के बाह्य पक्ष की शोभा बढ़ाने वाले साधन के रूप में थे। अंतरंग पक्ष का बोधक नहीं थे अर्थात् अन्य काव्यंग्यों के बोधक नहीं थे। अतः इस काल को अलंकृत काल कहने से अन्य पक्षों की अवहेलना हो जाती है। अतः परवर्ती इतिहासकारों ने इनका नामकरण को दोषपूर्ण माना और अस्वीकार कर दिया।
पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र
इन्होंने इस काल को श्रृंगार काल नाम दिया इस संबंध में उनका कहना है कि- “इस युग में श्रृंगार की एक बड़ी प्रवृत्ति थी इसलिए इस कालखंड को श्रृंगार काल के नाम से पुकारा जाना चाहिए।”
अतः इन्होंने इस काल के मुख्य साहित्यिक प्रवृत्ति को आधार मानकर इस काल का नामकरण करते हैं। इस समय के रीति ग्रंथ एवं लक्षण ग्रंथ की रचनाएं हो रही थी जिसकी मूल प्रवृत्ति श्रृंगार रस की प्रधानता रही इसलिए इन्होंने कहा कि इस काल को ‘श्रृंगार काल’ नाम देना चाहिए।
समर्थन- आचार्य रामचंद्र शुक्ल इस काल का नाम ‘रीतिकाल’ रखते हैं परंतु उनका मानना है कि इस काल में शृंगारिक रचनाएं हो रही थी अतः इसकी मूल प्रवृत्ति श्रृंगार रस की थी। तो कोई इस काल का नाम शृंगारिक काल रखना चाहे तो रख सकता है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- “वास्तव में श्रृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। एवं प्रधानता श्रृंगार की ही रही इसलिए इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगार काल कहे तो कह सकता है।”
अतः आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस नाम का समर्थन किया है लेकिन स्वयं इस काल का नाम ‘रीतिकाल’ रखते हैं।
आलोचना- कई इतिहासकारों ने इस नामकरण का आलोचना किया है एवं उनका मानना है कि इस समय के कवियों का उद्देश्य श्रृंगार रस की रचना करना नहीं था।
डॉ महेंद्र कुमार कहते हैं कि- “इसमें संदेह नहीं कि इस युग में अधिकांश रचनाएं शृंगारिक ही है तथापि ये अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करने के लिए ही लिखी गई है। इनका प्रेरकतत्व कवियों की कामवासना नहीं, अर्थ है जो विलासी आश्रयदाताओं से इस प्रकार के काव्य की रचना करके ही प्राप्त किया जा सकता था।”
अतः डॉ कुमार का मानना था कि इस कल के कवियों को प्रेरित करने वाली तत्व कामवासना या भोग विलास नहीं था। ये अपने आश्रय दाताओं के इच्छा पर कविता की रचनाएं करते थे साथ ही कवियों की इच्छा धन (अर्थ) कमाना था और अपने आश्रय दाताओं को प्रसन्न रखना चाहते थे इसलिए इस काल के कवि अपने आश्रय दाताओं के मनोवृति के आधार पर अपनी रचनाएं लिखते थे। इस समय के आश्रयदाता (शासक) काफी भोग-विलासी थे। कामवासना से प्रेरित थे। अतः उनकी रुचि को देखते हुए कवियों ने उनकी इच्छा के अनुसार श्रृंगारिक रस की कविताओं की रचना की।
अतः कवियों के आश्रय दाताओं की मनोवृति के कारण इस काल की कविताओं में शृंगारिक रस देखने को मिलती है। तो इस काल का शृंगारिक काल नाम रखना उचित नहीं होगा क्योंकि इससे कवियों की मानसिकता को शृंगारिक माना जाएगा जबकि शृंगारिक प्रवृत्ति आश्रय दाताओं (शासकों) की थी।
साथ ही इस काल का नाम शृंगारिक काल रख देने से शृंगारिक रचना के अतिरिक्त जो काव्यांश की रचनाएं हुई उसकी अवहेलना हो जाती है। इस काल में नीति काव्य, वीर काव्य, रीतिमुक्त कवि का होना, श्रृंगारेतर रचनाएं, राजप्रशस्तिपरक काव्य लिखे गए, इन सभी की उपेक्षा हो जाएगी।
कई कवियों ने श्रृंगार का विरोध भी किया जैसे- गोप, रसरूप, सेवादास ने श्रृंगार को लक्षण ग्रथों में मान्यता प्रदान नहीं किया।
इस काल का नाम ‘श्रृंगार काल’ कर देने से इस समय के साहित्य के मुख्य विषय श्रृंगार की झलक तो प्राप्त हो जाती है किंतु उस साहित्य की आत्मा का बोध इस नाम से नहीं हो पाता है।
अतः विद्वानों द्वारा इस नाम का भी खंडन किया गया।
डॉ रमाशंकर शुक्ल रसाल
इन्होंने हिंदी साहित्य के इस काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया। इनके अनुसार इस समय के कवियों की रुचि कलात्मकता की ओर अग्रसर थी। इससे पूर्व भक्तिकाल (पूर्व मध्यकाल) में भक्ति रस की प्रधानता देखने को मिलती है।
इस समय के कवियों का वर्ण्य विशेषता भक्ति था। इनमें कविता को अलंकृत करने की विशेषता हमें देखने को नहीं मिलता है लेकिन उत्तर मध्यकाल आते-आते कवियों की वर्ण्य विशेषता श्रृंगारिकता हो गई अर्थात कविता को सौंदर्य प्रदान करने की ओर विशेष ध्यान दिया गया। जबकि भक्ति काल में ऐसी कोई भी प्रवृत्ति नहीं थी जैसा कविता के बह्या पक्ष थे वैसा ही उसकी आंतरिक पक्ष (अंतरंग) भी दिखाई देता है। जबकि रीतिकाल में कविता के बाह्य पक्ष में श्रृंगार और अंतरंग में कवियों की अलग मानसिकता दिखाई देती है क्योंकि रीतिकाल के कवियों का प्रेरक तत्व कामवासना नहीं था बल्कि धन कमाना था। वे अपने आश्रयदाता के कामवासना प्रवृत्ति के कारण उन्हें प्रसन्न करने के लिए ऐसी शृंगारिक रचना करते थे। ये अपने कविता के बह्या पक्ष को श्रृंगारने और सजाने में जुटे रहते थे। इसी कारण डॉ रमाशंकर शुक्ल रसाल ने इस काल को ‘कलाकाल’ नाम दिया।
डॉ रामकुमार वर्मा
इन्होंने भी इस कालखंड को ‘कलाकाल’ कहना उचित माना है इनके अनुसार- “इस काल को कलाकाल नाम देना समीचीन ज्ञात होता है। रीति काव्य और श्रृंगार काव्य के साथ इस काल में इतनी अधिक प्रवृत्तियां, विचारधाराएं और ललित शिल्प की साधनाएं दृष्टिगत होती है कि उनमें कला का प्रांजल रूप अनायास ही दृष्टिगत होता है।”
अतः डॉ रामकुमार वर्मा ने भी डॉ रमाशंकर शुक्ल रसाल द्वारा दिया गया नाम ‘कलाकाल’ को उचित माना है। लेकिन कई विद्वानों ने इस नाम का भी खंडन किया है और इस नाम के आलोचना में निम्नलिखित तथ्य दिए गए-
- कलाकाल और अलंकृत काल में एक जैसा ही भाव देखने को मिलता है। इसमें इतना अंतर यह है कि कलाकाल शब्द में काव्य के सभी कला पक्ष का समावेश है जबकि अलंकार काल नाम में केवल अलंकार अर्थात केवल कला के एक पक्ष का समावेश हुआ है।अर्थात इस नामकरण से भाव पक्ष की अवहेलना होती है।
डॉ गणपति चंद्रगुप्त
इन्होंने इस काल का नाम ‘शास्त्रीय मुक्तक काल’ दिया। इनका मानना है कि चूँकि इस काल के लिए रीतिकाल नाम मान्य हो गया है लेकिन इस काल का नाम शास्त्रीय मुक्तक काल देना उचित होगा क्योंकि इस काल में रितिकाव्य की रचना अपेक्षाकृत कम हुए हैं और शास्त्रीय तत्वों का प्रयोग इस समय के काव्य रचना में हुआ। अर्थात इन्होंने रीतिकाल नाम पर ही प्रश्न खड़ा किया है।
इन्होंने अपने पुस्तक “हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास” में इस संबंध में लिखते हैं कि- “वस्तुतः इन कवियों ने रीति या काव्य रीति का प्रतिपादन कम किया गया है विभिन्न क्षेत्रों के शास्त्रीय तत्वों का उपयोग अपने विषय वस्तु के संयोजन विस्तार क्रम निर्धारण आदि में अधिक किया है। अतः इस परंपरा के लिए रीति की अपेक्षा शास्त्रीय विशेषता अधिक व्यापक अनुकूल एवं संगत सिद्ध होगा। इससे न केवल उनके काव्य रीति के प्रतिपादक की अपितु अन्य सभी शास्त्रों से वस्तु चयन की प्रवृत्ति जो कि उनकी प्रमुख प्रवृत्ति है का भी बोध सम्यक रूप में होता है। अतः हम इसे शास्त्रीय मुक्तक काव्य परंपरा की संज्ञा देना अधिक उचित समझते हैं।”
अतः डॉ गणपति चंद्रगुप्त ने इस काल का नाम दिया- ‘शास्त्रीय मुक्तक काल’। लेकिन इस नाम का भी विद्वानों द्वारा खंडन किया गया और उन्होंने यह तर्क दिया:-
- इस नाम से शास्त्रीय काव्य रचना के अलावा जो रचनाएं हुई उसकी उपेक्षा हो गई साथ ही कलात्मक काव्य की भी अवहेलना हो जाती है।
- यह नाम किसी भी मूल साहित्य प्रवृत्ति का सूचक (बोधक) नहीं है। अतः यह नाम किसी भी तरह से तर्कसंगत नहीं जान पड़ता और इस नाम को भी विद्वानों ने अस्वीकार कर दिया।
उपरोक्त विवेचना से पता चलता है कि कई विद्वानों द्वारा इस काल को अलग-अलग नामों से इस कालखंड (17वीं-19वीं) का नामकरण किया गया। जैसे- अलंकृत काल, कलाकाल, शास्त्रीय मुक्तक काव्य काल। लेकिन इन सभी नामकरण में कुछ न कुछ त्रुटियां देखने को मिलती है जिसके कारण इन नामों को अस्वीकार कर दिया गया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल
इस काल को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘रीतिकाल’ का नाम दिया। इन्होंने अपने पुस्तक “हिंदी साहित्य का इतिहास” में कहा है कि- “रीतिकाल में रीति शब्द एक विशेष प्रकार की परिपाटी का सूचक है। यह नाम इस युग में कवियों की रीति निरूपण की प्रवृत्ति को सूचित करता है। यह प्रवृत्ति इस युग की प्रमुख प्रवृत्ति है।”
संस्कृत साहित्य में काफी पहले से ‘रीति’ शब्द प्रयुक्त होने लगे थे लेकिन संस्कृत साहित्य की ‘रीति’ से हिंदी शब्द की ‘रीति’ काफी अलग है हिंदी साहित्य के कवि ‘रीति’ शब्द का प्रयोग पद्धति, काव्य शैली, काव्य की परिपाटी के अर्थ में किया।
रीतिकाल में आकर लक्षण ग्रंथ की रचना की जाने लगी। सर्वप्रथम आचार्य केशव ने ‘रसिकप्रिया’ और ‘कविप्रिया’ की रचना की। कुछ विद्वान यहीं से रीतिकाल का प्रारंभ मानते हैं। रसिकप्रिया में रस को आधार बनाकर लिखी गई। जबकि कविप्रिया की रचना अलंकार को आधार बनाकर लिखी गई। रीति काव्य संस्कृत के रचना ग्रंथ को आधार मानकर लिखी गई थी संस्कृत को अनुवाद करते हुए इस काल के कवियों ने लक्षण ग्रंथ की रचना की। अतः यहां से एक नई काव्य रीति की शुरुआत हुई।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस बात का खंडन किया है कि आचार्य केशव से रीतिकाल का प्रारंभ हुआ है उन्होंने हिंदी रीतिकाव्य की परंपरा की शुरुआत चिंतामणि त्रिपाठी से माना है। उनकी रचना लगभग विक्रम 1700 में ‘काव्यविवेक’, ‘कविकुलकल्पतरु’ और ‘काव्य प्रकाश’ में काव्य के सब अंगों का पूरा निरूपण किया और छंद शास्त्र पर भी एक पुस्तक लिखी।
रामचंद्र शुक्ल का कहना है कि- “केशव जी ने काव्य के सब अंगों का निरूपण शास्त्रीय पद्धति से किया है। यह निसंदेह है की काव्य रीति का सम्यक समावेश पहले केशव ने ही किया। हिंदी में रीति ग्रंथों की अविरल और अखंडित परंपरा का प्रवाह केशव की कविप्रिया के प्रायः 50 वर्ष पीछे चला और वह भी एक भिन्न आदर्श को लेकर केशव के आदर्श को लेकर नहीं।”
इसी को ध्यान में रखकर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इस काल को ‘रीतिकाल’ का नाम दिया। अधिकांश विद्वानों ने इस नाम को स्वीकार भी किया। यह नाम अधिक वैज्ञानिक और तर्कसंगत जान पड़ने के कारण इस काल का नाम ‘रीतिकाल’ रखा गया।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के इस नाम का भी मूल्यांकन करने से पता चलता है कि इस काल में रीतिबद्ध काव्य (लक्षण ग्रंथ) की रचना तो हुई। इसके साथ-साथ रीतिबद्ध रचनाकारों को आचार्य या रीतिबद्ध कवि कहा गया। कुछ कवि ऐसे थे जो इसे विरोध कर स्वतंत्र काव्य की रचना किए इन्हें रीतिमुक्त कवि कहा गया।
अगर हम इस काल का नाम रीतिकाल देते हैं तो रीतिमुक्त कवि इस नामकरण से स्वतः बाहर हो जाते हैं साथ ही वीर रस और नीति कवि भी इससे बाहर हो जाते हैं। फिर भी किसी अन्य नाम के अंतर्गत इतनी व्यापक साहित्य के समावेश न होने के कारण रीतिकाल नाम ही स्वीकृत किया गया। ताकि इतने बड़े साहित्यिक काल में सभी साहित्याओं का समावेश हो सके।
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रीतिकाल का वर्गीकरण एवं रीतिकाल की विशेषताएं
रीतिकाल के व्यापक साहित्य को रीति के आधार पर तीन भागों में बांटा गया है:- रीतिबद्ध काव्य, रीति सिद्ध काव्य, रीतिमुक्त काव्य। इसके साथ ही इस काल में रीति से इतर भी काव्य की रचना हुई है। इसलिए रीति इतर काव्य को भी इस वर्गीकरण में शामिल किया गया है। रीतिकाल के व्यापक साहित्य को चार भागों में बांटा गया है:-
रीतिबद्ध काव्य
रीतिबद्ध काव्य का अर्थ यह है कि जो काव्य रीति निरूपण के रूप में लिखा गया हो, रीतिबद्ध काव्य कहलाते हैं। रीतिबद्ध काव्य को लक्षण ग्रंथ भी कहा जाता है और जिन कवियों ने लक्षण ग्रंथ की रचना की उन्हें रीतिबद्ध कवि कहा जाता है। इसमें इस काल के सभी रीति ग्रंथ आते हैं जिसमें काव्यंगों का लक्षण प्रस्तुत कर उसके उदाहरण के रूप में स्वरचित काव्य प्रस्तुत किया गया।
डॉ नगेंद्र ने रीतिबद्ध काव्य को आचार्यों या कवियों का महाकाव्य कहा है। डॉ विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इसे रीतिबद्ध या लक्षण बद्ध काव्य कहते हैं। इसके कवियों को रीतिबद्ध कहा जाता है। इसे हम दूसरे तरीके से भी कह सकते हैं कि संस्कृत काव्य शास्त्र के आधार पर हिंदी में लक्षण ग्रंथों की रचना करने वाले कवियों को रीतिबद्ध कवि कहा जाता है।
रीतिबद्ध आचार्यों या कवियों ने संस्कृत से अलंकार को महत्व दिया तथा रस, रीति, ध्वनि तथा वक्रोक्ति को महत्व नहीं दिया। साथ ही इनका उद्देश्य अपने आश्रयदाताओं को प्रसन्न करना था। अतः ये संस्कृत के ग्रंथों को हिंदी लोक भाषा (ब्रजभाषा) में अनुवाद कर रचना करते थे। ये काव्य के बाह्य रूप को अलंकृत करने में जुटे रहते थे। साथ ही नायक-नायिका के भेद निरूपण करते रहते थे। इसमें भी दो प्रकार के कवि हुए-
- पहला वे जिन्होंने लक्षण ग्रंथ के साथ लक्ष्य ग्रंथ लिखे।
- लक्षण ग्रंथ लिखे परंतु लक्ष्य ग्रंथ नहीं लिखे।
रीतिबद्ध काव्य की विशेषताएं / प्रवृत्तियां
रीतिबद्ध काव्य में कविकर्म और आचार्य कर्म का समन्वय
रीतिबद्ध काव्य में कविकर्म और आचार्य कर्म का समन्वय देखने को मिलता है। इस समय साहित्य एवं साहित्यकार दोनों का आश्रय स्थान दरबार में होने के कारण प्रदर्शन का महत्व ज्यादा था दर्शन का नहीं। शासक के महिमा मंडन के लिए जितना अधिक शासन का गुणगान एवं प्रशंसा की जाए उतना ही सम्मानित कवि को किया जाता था।
अतः यहां कवियों को अपने रचना में कार्य प्रदर्शन के लिए रीति का सहारा लेना पड़ा और आचार्य को काव्य का। फलस्वरुप आचार्य कर्म और कविकर्म यहां एक हो गए।
श्रृंगारिकता
इस समय की मुख्य प्रवृत्ति श्रृंगार की रही। इस समय के कवियों में मौलिकता का अभाव देखने को मिलता है। इस समय श्रृंगार रस के विभिन्न तत्वों का समावेश हमें देखने को मिलते हैं जैसे- विभव, अनुभव, सचारी का वर्णन, नायक-नायिका के भेद का वर्णन, श्रृंगार की सूक्ष्म परिदृश्य को अभिव्यक्त करने के लिए ऋतुओं का वर्णन किया जाता था। इस धारा के कवियों ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों पक्षों का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।
सौंदर्य का चित्रण
इस काल के काव्य के मुख्य पात्र नायक और नायिका रहे हैं इसलिए नायिका के की अंग-प्रकाश की ओर कवियों का ध्यान अधिक रहा है। यह नख-शिख के वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है।
अलंकारिता
चमत्कार को हम इस समय की सामान्य प्रवृत्ति मान सकते हैं। अलंकार का अर्थ है- चमत्कार प्रधान। अतः इस समय रीतिबद्ध कवि अलंकारों पर विशेष ध्यान देते थे। इस समय के मुख्य अलंकार थे- अनुप्रास, यमक। रीतिबद्ध कवि संस्कृत ग्रंथ का लोक भाषा में अनुवाद कर रचना करते थे। आश्रयदाता को भी चमत्कार और उसकी गेयता से ही मतलब होता था। इसलिए कवि को अपनी कविता भड़कीले रंगों में रंगना पड़ती थी। अलंकार का बहुत अधिक प्रयोग होता था और कवि का अभिप्रेत अर्थ उसी चमत्कार में खो जाता था। केशव को इसी कारण आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘कठिन काव्य का प्रेत’ कहा है।
काव्य रूप
रीतिबद्ध काव्य के कवियों का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ अपने आश्रयदाता के कामवासना और भोग विलास के मानोवृति को संतुष्ट करना था। रीतिबद्ध कवि पूरी तरह से दरबारी होने के कारण मुक्तक काव्य शैली का सहारा लिया।
अतः इस समय कवित्त और सवैयों की प्रधानता रही। कवित्त का प्रयोग वीर और श्रृंगार रासों में तथा सवैया का श्रृंगार रस में प्रयोग हुआ। बिहारी ने दोहा एवं छंद के सीमित शब्दों में अधिक अर्थों को व्यक्त करने की क्षमता विकसित किया। इस समय काव्यंगों के लक्षण प्रयास दोहों में ही लिखे जाते थे। कभी-कभी उदाहरण भी दोहों में दिए गए।
नारी चित्रण
नारी के लिए रीतिबद्ध कवियों का दृष्टिकोण भोगवादी रहा। नारी के प्रति इनका दृष्टिकोण बहुत गिर गई थी। हिंदी साहित्य में पहली बार ऐसी दृष्टिकोण सामने आई थी। इस संबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि- “श्रृंगार के वर्णन को बहुतेरे कवियों ने अश्लीलता की सीमा तक पहुंचा दिया था। इसका कारण जनता की रुचि थी। जिनके लिए कर्मण्यता और वीरता का जीवन बहुत कम रह गया था।”
प्रकृति का चित्रण
रीतिबद्ध कवियों के काव्य में प्रकृति चित्रण का अभाव देखने को मिलता है। कवि प्रकृति चित्रण उद्दीपन के रूप में हुआ है। ये कवि दरबारी कवि थे। इनका आकर्षण का केंद्र नारी था। साथ ही ये अपने आश्रयदाता के गुणगान और महिमा मंडल करते थे तो इनका ध्यान प्रकृति की ओर नहीं जा सकता था। इसके बाद भी कवि सेनापति का प्राकृतिक चित्रण प्रशंसनीय है।
समाज से विमुख काव्य
रीतिबद्ध कवि दरबारी कवि होने के कारण ये अपने आश्रयदाता (शासक) विलासी शासकों की विलासिता को पूर्ण करने के लिए शृंगारिक कविता लिखते थे। ऐसी काव्य का तो दरबार में वाह वाही थी लेकिन समाज में भी अर्थहीन होती गई। इन कवियों का संबंध केवल अपने शासको से था जनता से नहीं।
पराश्रित भावना
रीतिबद्ध काव्य के कवि अपने ज्ञान वर्धन के लिए संस्कृत कवियों तथा आचार्यों पर निर्भर थे। ऐसे में उन्हें संस्कृत साहित्य की विशाल परंपरा से विशाल संसार को देखने का अवसर मिला लेकिन वे उसी पर निर्भर रह गए। उनकी स्वतंत्र चिंतन कम दिखाई देती है। साथ ही कवियों में आलोचनात्मक दृष्टिकोण भी दिखाई नहीं पड़ती।
राधा-कृष्ण की अवधारणा
रीतिबद्ध कवियों ने राधा-कृष्ण को श्रृंगार का आधार बनाया और इस काल के कवियों ने शृंगारिक रचनाएं की।
भक्ति नीति और वीर रस
इस समय के रीतिबद्ध कवियों ने भक्ति और नीति संबंधी सूक्तियां लिखी है। जैसे- पदभाकर और रसखान जैसे कवियों ने भक्ति की रचनाएं की और उसमें सफलता भी हासिल की। वीर रस के काव्य पदभाकर द्वारा लिखे गए और भी अन्य कवि जैसे- भूषण, सूदन आदि कवि ने भी अपने आश्रयदाता के विपरीत जाकर वीर रसात्मक कविताओं की रचना की।
अभिव्यंजना पद्धति
रीतिबद्ध कवियों को दरबार में वाह वाही पाने के लिए उर्दू तथा फारसी कवियों से होड़ होती थी। अतः फारसी कवियों के ऊहात्मकता पद्धति को भी इन्हें अपनानी पड़ी। थोड़ी बहुत मुगल दरबार में हिंदी को भी संरक्षण मिला हुआ था।
ब्रजभाषा की प्रधानता
चूँकि यह काल ब्रजभाषा का स्वर्ण युग रहा। इस समय में वर्णमैत्री, अनुप्रासत्व, ध्वन्यात्मकता शब्द संगीत आदि का पूरा पूरा निर्वाह किया गया है। भाषा की मधुरता के कारण मुसलमान कवियों का भी इस ओर ध्यान गया। इस समय अवधी, बुंदेलखंडी, फारसी के शब्दों को भी अपने काव्य रचना में शामिल किया।
ब्रजभाषा काफी मधुर होने के कारण कोमल रसों की सुंदर अभिव्यक्ति करने की क्षमता इसमें थी। मधुर गुण एवं कोमल गुण होने के कारण गेयता में अनुकूल थी। ब्रजभाषा के संबंध में डॉ नागेंद्र का कथन है- “भाषा के प्रयोग में इन कवियों ने एक खास नाजुक मिजाजी बरती है। इनके काव्य में किसी भी ऐसे शब्द की गुंजाइश नहीं जिसमें मधुर्य नहीं है। अक्षरों के गुंफन में इन्होंने कभी भी त्रुटि नहीं की। संगीत के रशमी तारों में इनके शब्द माणिक्य मोती की तरह गूँथे हुए हैं।”
अतः यह काल ब्रजभाषा का चरमोत्कर्ष काल रहा।
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रीतिसिद्ध काव्य
रीति सिद्ध कवियों द्वारा लिखा गया काव्य रीति सिद्ध काव्य कहलाता है। ये वे कवि थे जिन्होंने लक्षण ग्रंथ की रचना तो नहीं की लेकिन लक्षण ग्रंथ को आधार मानकर अपनी रचनाएं की। ये लक्षण ग्रंथ (रीति काव्य) की परिपाटी पर आस्था रखते हुए भी लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं किये। ये लक्षणों का पूरा-पूरा पालन न करने पर भी इससे पूर्णतः मुक्त नहीं थे जिस प्रकार स्वच्छंद कवि थे।
रितिकाव्य के परिपाटी में आस्था होने के बाद भी ये उसके गुलाम नहीं होना चाहते और पूरी तरह से उससे अलग भी नहीं होना चाहते थे।
इसी कारण ये अपनी ग्रंथों में कवि शिक्षक होने का संकेत दिए। ये क्योंकि दरबारी कवि होते थे और चमत्कारपूर्ण उक्तियां लिखने में जुटे रहते थे। ये अपने स्वतंत्र भावनाओं का उद॒बोधन कर सकते थे लेकिन रीतिबद्ध कवि नहीं कर सकते थे। इन्होंने अपने भावाभिव्यक्ति के लिए अलंकार का प्रयोग किया है। इस धारा के प्रमुख कवि बिहारी जी हैं।
रीति सिद्ध काव्य की विशेषताएं / प्रवृत्तियां
मध्यमपंथी काव्य
रीति सिद्ध कवि पूरी तरह से न दरबारी थे और न ही पूरी तरह से स्वतंत्र। ये लक्षण ग्रंथों की रचना नहीं करते थे परंतु ‘रीति’ की परिपाटी पर ही चलने के कारण ये रीति सिद्ध कवि कहलाये। ये स्वच्छंद कवियों की तरह मुक्त नहीं थे परंतु रीति के नियमों का पालन करते हुए भी स्वतंत्र थे। रीति की बंधी परीपाटी में उनकी आस्था पूरी थी किंतु ये पूरी तरह गुलाम भी नहीं रहना चाहते थे। अतः इनकी रचना मध्यम पंथी (बीच वाली) काव्य कहलायी।
कवि की स्वतंत्र व्यक्तित्व
रीति सिद्ध कवि रीति की परिपाटी पर चलते तो थे परंतु भाव एवं कल्पना का बखान स्वतंत्र तरीके से करते थे इसी कारण ये नयी नयी उद्भावनाएं कर सके। रीतिबद्ध कवियों ने अपनी रचनाओं में नवीनता न ला सके लेकिन रीति सिद्ध कवियों ने अपनी स्वतंत्र विचारों और कल्पना का उद्भव स्वतंत्र रूप से किया।
रीतिबद्ध कवियों ने जहां एक और कवित्त और सवैया जैसे छंदों का इस्तेमाल किया लेकिन रीति सिद्ध कवियों ने दोहे का इस्तेमाल किया, जो एक नवीनता यहां देखने को मिलता है। बिहारी जी के दोहे में जो सूक्ष्म कारीगरी, वर्ण, सौंदर्य का जो विधान है, यह स्वतंत्र कवि के अस्तित्व को ही दर्शाता है।
कवि-गौरव की अभिलाषा
इनमें रीतिबद्ध कवियों की तरह कविगुरु, कवि शिक्षक या आचार्य बनने की कोई अभिलाषा नहीं थी। ये गौरव के अभिलाषी थे। इनके अनुसार कवि होना ही गौरव की बात थी। इसी कारण इनकी काव्य अधिक सरस और मार्मिक बन पाया।
नए-नए कल्पना का विधान
रीति सिद्ध कवि अपनी रचना में नयी-नयी अलंकार, नये चमत्कार तो कभी नये कल्पना का विधान एवं स्वतंत्र भाव से रस का संचार करते थे। अपनी अनुभव को भी अपने काव्य में समावेश करते थे।
मुक्तक शैली
रीतिसिद्ध कवि भी रीतिबद्ध कवियों की तरह मुक्तक शैली का प्रयोग किए हैं। इन्होंने इस शैली में संस्कृत ग्रंथों की श्रृंगार की मुक्तक परंपरा को लिया है। मुक्तक शैली का प्रयोग हमें हाल की ‘गाथा सप्तशती’ गोवर्धन की ‘आर्या सप्तशती’ भर्दहरि के ‘श्रृंगार शतक’ जैसे कई अन्य रचनाओं में भी देखने को मिलती है।
आरंभ में यह शैली संस्कृत से प्राकृत एवं प्राकृत से होकर अपभ्रंश के ग्रंथों में भी देखने को मिलती है। बिहारी के रचना में भी शृंगारिक मुक्तक शैली का प्रयोग देखने को मिलता है। रीतिबद्ध कवियों की तरह रीति सिद्ध कवि लक्षण ग्रंथ के बंधन से मुक्त रहे साथ ही ये दरबारी कवि थे।
अतः इन्होंने अपने आश्रयदाता को उनकी कामवासना मनोवृत्ति को संतुष्ट करने के लिए श्रृंगार के रसात्मक मुक्तकों का प्रयोग किया।
श्रृंगारिकता
रीति सिद्ध कवि बिहारी के काव्य में श्रृंगार को बहुत अधिक महत्व दिया गया है। ये कवि श्रृंगार के दोनों पक्षों, संयोग और वियोग में संयोग पक्ष में अधिक ध्यान दिया। इन्होंने नायिकाओं के हाव-भावों की बहुत ही सुंदर तरीके से चित्रण किया है। इस संबंध में बिहारी के कुछ पंक्तियां-
“बतरस लालच लाल की मुरली धरी लुकई।
सौह करै, भौहनि हंसै दैन कर नटि जाई।।”
अर्थात इस दोहे में बिहारी जी कहते हैं कि श्री कृष्ण से बातों के रस के लालच में उत्सुक गोपियां भगवान कृष्ण की मुरली को छुपा दिया। कृष्ण के मुरली वापस मांगने पर मुरली लौटने से गोपियां भौंहों के संकेत से हंस कर मना कर देती है।
यहां पर बिहारी ने संयोग श्रृंगार का सजीव शब्द का चित्रण किया है एवं इस पंक्ति में श्रृंगार रस के भावानुभवों का बहुत ही मनोहारी चित्रण किया है। साथ ही अनुप्रास अलंकार को भी स्पर्श किया है।
अलंकारिता
रीति सिद्ध कवियों के अपने काव्य रचना के चमत्कार प्रदर्शन प्रवृत्ति के कारण अलंकार साधन न रहकर अब साध्य बन गए। क्योंकि ये दरबारों का बिलासी वातावरण में रहते थे। अपने रचना के बाह्य श्रृंगार के लिए अलंकारों का प्रयोग किया। इस समय अलंकारों का बहुत अधिक प्रयोग देखने को मिलता है। इसी कारण इस काल की काव्य की सौंदर्य बढ़ने के जगह में घटती चली गई।
भाव एवं कला पक्ष का समन्वय
रीति सिद्ध कवियों के रचना में भाव एवं कला पक्ष का बहुत ही अच्छा सामंजस्य देखने को मिलता है। ये कवि कला पक्ष के साथ-साथ भाव पक्ष को भी समान रूप से महत्व दिया। इसी कारण भाव व कला पक्ष का अच्छा समन्वय इनके काव्य रचना की एक सर्वमान्य प्रवृत्ति बन गई।
इन्होंने अपने भाव पक्ष के उद्भव के लिए श्रृंगारिक रचनाओं द्वारा रस का संचार एवं आनंद का संचार किया। तो दूसरी ओर काव्य के कला पक्ष के तरफ भी विशेष ध्यान दिया। इन्होंने भाषा की लक्षण एवं अभिव्यंजना शक्ति पर विशेष ध्यान दिया।
रीतिबद्ध कवियों से अधिक रीति सिद्ध कवियों के रचना में लक्षणिकता और ध्वन्यात्मकता दिखाई देती है। इन्होंने अपने दोहों को भावपूर्ण और सुसज्जित एवं सौंदर्य से भरपूर करने के लिए काव्य की समास पद्धति का प्रयोग किया। भाषा को मृदु तथा कोमल बनाने की चेष्टा की तथा जो रीतिबद्ध कवियों द्वारा प्रचलित की गई कवित्त तथा सवैया के अतिरिक्त दोहों पर भी विशेष ध्यान दिया गया।
भक्ति व नीति काव्य
रीति सिद्ध कवियों ने अपने रचना में अनेक तरह के स्वादों को भरना चाहा। इस संबंध में बिहारी जी की पंक्ति:-
“हुकुम पाइजयसाहि कौ श्री राधिका प्रसाद,
करी बिहारी सतसई भरी अनेक संवाद।”
अर्थात मैने श्री राधिका जी की अनुकंपा तथा महाराज जयसिंह की आज्ञा से ऐसी सतसई की रचना की है जिसके दोहे अनेक रसों का आस्वादन करते हैं।
रीतिमुक्त काव्य
इस युग के अधिकांश कवि काव्य शास्त्री या लक्षण ग्रंथों की परिपाटी पर चलकर काव्य लिखते थे और राज दरबारों में ऐसे ही साहित्य का सम्मान था इसलिए अधिकतर कवि इसी धारा में बहते दिखाई देते हैं। लेकिन कुछ कवि ऐसे भी थे जिन्होंने इस परिपाटी को मानने से इनकार कर दिया अर्थात स्वतंत्र रूप से अपनी ग्रंथों की रचना की। इस तरह के कवि ‘रीति मुक्तक कवि’ कहलाए तथा इनके द्वारा लिखा जाने वाला ग्रंथ ‘रीतिमुक्त काव्य’ कहलाया।
इस समय लगभग रीतिमुक्त कवियों की संख्या 50 से भी अधिक रही होगी इसमें पहला वर्ग है- धनानंद, आलम, बोधा और ठाकुर जिन्होंने लक्षणबद्ध रचना नहीं कि ये स्वतंत्र प्रेम की पीर जनता को सुनते थे।
दूसरा वर्ग है जिन्होंने प्रबंध काव्य लिखे जैसे- लाल और सूदन तथा तीसरे वर्ग में वर्णनात्मक प्रबंध काव्य लिखने वाले जैसे- दान लीला और मान लीला आदि। चौथे वर्ग में वृन्द, दीनदयाल गिरी और गिरधर दास जो ब्रह्माज्ञान, वैराग्य और भक्ति लिखने वाले कई आते हैं। पांचवे वर्ग में वीर रस के फुटकल पद्य लिखने वाले आते हैं।
रीतिमुक्त काव्य की विशेषताएं / प्रवृत्तियां
स्वच्छंद प्रेम का निरूपण
रीतिमुक्त कवियों ने अपने काव्य रचना में स्वच्छंद प्रेम का निरूपण किया। अर्थात इन्होंने विशुद्ध सौंदर्यानुभूति प्रेरणा से जाति समाज एवं धार्मिक बंधनों की सीमा को तोड़कर ऐसी नायिकाओं से प्रेम किया जो अन्य जाति एवं धर्म से संबंधित थी। कई हिंदू रीति मुक्त कवियों की नायिका तो मुस्लिम थी जैसे- धनानंद की सूजान तो बोधा की सुभान।
अतः इन्हें अपनी इस तरह के स्वच्छंद काव्य रचना के लिए काफी संघर्ष करना पड़ा तथा इन्होंने काफी साहस एवं त्याग का परिचय दिया। इस तरह की काव्य रचना के लिए इन्हें समाज के बहिष्कार एवं आश्रय दाताओं के विरोध को सहन कर प्रेम को ही श्रेष्ठ बताया।
श्रृंगार के संयोग तथा वियोग पक्ष
हमने रीतिकाल के प्रारंभ से ही देखा की रीतिबद्ध कवि एवं रीति सिद्ध कवियों ने संयोग और वियोग पक्ष में श्रृंगार के संयोग पक्ष को अधिक महत्व दिया। लेकिन रीतिमुक्त कवियों ने वियोग पक्ष को अधिक महत्व दिया।
लौकिक प्रेम
रीतिमुक्त कवियों ने प्रेम को लौकिक माना है।
भक्ति भावना
रीतिमुक्त कवियों में कुछ ही कवि ऐसे थे जो भक्ति भाव को अपने रचना में स्थान दिए। जैसे- रसखान और धनानंद इन्होंने अपने देवी देवताओं के प्रति भक्ति की आस्था प्रदर्शित की है।
प्रकृति चित्रण
इन्होंने भी प्रकृति को उद्दीपन (बाह्य वातावरण में होने वाले परिवर्तनों के प्रति होने वाली प्रक्रिया या अनुक्रिया) के रूप में ही किया है। कुछ कवियों ने उद्दीपन से मुक्त होकर भी प्रकृति का चित्रण अपने रचनाओं में किया है जैसे- सेनापति, गुमानमिला, खुमान, बोधा।
काव्य पद्धति, शैली, छंद-अलंकार, भाषा
इनकी काव्य पद्धति, शैली, छंद-अलंकार, भाषा ये सभी रीतिबद्ध एवं रीति सिद्ध कवियों के भांति ही थी इसलिए इनका जिक्र यहां नहीं किया जा रहा है।
पढ़ें:- भाषा परिवार और उसका वर्गीकरण
रीति इत्तर काव्य
इस समय कई ऐसे काव्य की भी रचना हुई जो ‘रीति’ से अलग थी जैसे- वीर रस, नीति काव्य, भक्ति काव्य, कुंडलियां, अन्योक्तियां आदि। ये सभी काव्य रचना रीति इत्तर काव्य कहलाई। रीतिकाल में रीतिबद्ध, रीति सिद्ध एवं रीति मुक्तक काव्य के अलावा कुछ अलग तरह की काव्य धारा साथ में चली। जैसे- वीर काव्य, नीतिपरक काव्य, तथा भक्ति काव्य, इस रीतिइत्तर काव्य कहा गया। चूँकि रीतिकवि दरबारी होते थे तो दरबारी कवि में भी रीतिइत्तर काव्य देखने को मिलती है वो है वीर काव्य। जबकि गैर दरबारी कवि की काव्य नीति काव्य और भक्ति काव्य होती थी।
वीर काव्य
चूँकि ये दरबारी कवि होते थे तो ये कवि अपने आश्रयदाता (शासक) के शौर्य और वीरता के बारे में तो रचना करते थे लेकिन शासक के विरुद्ध लड़ने वाले संघर्षशील राजाओं के शौर्य एवं वीरता की भी रचना करते थे। अतः ये दरबारी कवि होकर भी पूर्ण रूप से उनकी रचना दरबारी नहीं है।
इस समय के वीर काव्य लिखने वाले कवियों में भूषण, पदभाकर, सूदन, खुमान, गुरु गोविंद सिंह, जोधराज आदि हैं। इस काव्य में श्रृंगारिकता का अभाव देखने को मिलता है। रीतिकालीन वीर काव्य में राजाओं के कीर्ति गाथाओं के वर्णन के साथ-साथ देशभक्ति की भी झलक दिखाई देती है। प्रमुख वीर काव्य- पदभाकरकृत, हिम्मतबहादुर विरूदाबली तथा भूषण कृत शिवा बावनी एवं छत्रसाल दशक है।
वीर काव्य के रचनाकार एवं रचनाएं
लाल कवि – छात्र प्रकाश (प्रबंध काव्य)।
खुमान ‘मान’ – नृसिंह चरित्र, लक्ष्मण शतक (प्रबंध काव्य)।
जोधराज – हम्मीर रासो (प्रबंध काव्य)।
बांकी दास – सूरछत्तीसी, वीर विनोद (मुक्तक काव्य)।
नीति काव्य
रीतिकाल में जो रितिकाव्य के साथ-साथ नीति काव्य की रचना हुई वह धर्म से जुड़ी होती थी। नीति काव्य के प्रमुख रचनाकार हैं- राम सहायदास, वृंद, बैताल, गिरिधर कविराय, सम्मन, दीनदयालगिरी इत्यादि। बैताल ने ‘विक्रम’ को संबोधित कर सभी कुडलियों की रचना की।
अम्बाप्रसाद सुमन के अनुसार- “व्यवहार और नीति से संबंद्ध कुंडलियां लिखकर गिरधर कविराय ने जितनी अधिक प्रसिद्धि प्राप्त की है उतनी प्रसिद्ध रीतिकाल का कोई अन्य नीति काव्यकार नहीं पा सका।”
नीति काव्य के प्रमुख रचनाकार एवं रचनाएं
गिरिधर कविराय – स्फुट कुंडलियां।
बैतल – स्फुट कुंडलियां।
सम्मन – पिंगल काव्यभूषण, स्फुट दोहा।
दीनदयालगिरी – अन्योक्ति कल्पद्रुम, वैराग्य दिनेश, विश्वनाथ नवरत्न, दृष्टांत तरंगिणी।
वृंद – वृंदसतसई, भाव पंचाशिका, बारहमासा, श्रृंगार शिक्षा, नयनपचीसी, पवन पचीसी।
भक्ति काव्य
रीतिकाल में कई संत काव्य सूफी काव्य एवं राम काव्य और कृष्ण काव्य की परंपरा को आगे बढ़ाने में कवियों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जैसे- यारी साहब, दरिया साहब, पलटू साहब, जगजीवन दास, तुलसी साहब (हाथरस के रहने वाले) शिवनारायण आदि।
भक्ति काव्य के प्रमुख रचनाकार एवं रचनाएं
दरिया साहब – ज्ञान दीपक, दरिया सागर।
जगजीवन दास – ज्ञान प्रकाश, शब्द सागर, आगम पद्धति, प्रथम ज्ञान, प्रेम ग्रंथ, अध विनाश, महाप्रलय।
चरनदास – अष्टांगयोग, अमरलोक अखंड धाम वर्णन, ज्ञानस्वरोदय, धर्म जहाज, ब्रह्माज्ञानसागर शब्द, भक्तिसागर, मानविकृतकरण, गुटका सार, भक्ति पदार्थ।
शिवनारायण – गुरु अन्यास।
तुलसी साहब – घट रामायण, रत्नसागर, पदमसार, शब्दावली।
गुरु तेग बहादुर – आदि ग्रंथ।
आनंद धन – आनंदधन बहोत्तरी।
अक्षर अनन्य – सिद्धांत बोध, ध्यानयोग, विज्ञानयोग, राजयोग, विवेक दीपिका, अनन्य प्रकाश।
प्राणनाथ – मारफत सागर, किरतन, कयामतनामा।
धरणीदास – प्रेमप्रकाश, रत्नावली।
बूला साहब – शब्द सागर।
सहजोबाई – सहज प्रकाश।
⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।
रीतिकाल के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएं
रीति काव्य की काव्य इस समय तक पूर्ण प्रौढ़ता को प्राप्त कर लिया था। इस समय की साहित्य बहुत ही अमूल्य रचनाओं का सागर है। ये रचनाएं इतनी समृद्ध है कि ऐसी समृद्धि और किसी दूसरी भाषा में देखने को हमें नहीं मिलती।
हमारी हिंदी साहित्य की परंपरा निर्बाध रूप से चली आ रही एक दीर्घकालीन साहित्यिक परंपरा को अपने अंदर समेटे हुए है जो कभी नहीं टूटने वाली है।
अनेक विद्वानों ने केशव को रीतिकाल का प्रवर्तक माना है लेकिन आचार्य रामचंद्र शुक्ल केशव को न मानकर चिंतामणि को रीतिकाल का प्रवर्तक माना है केशव एक संस्कृतज्ञ थे। इन्होंने ही अपनी काव्य रसिकप्रिया में रस को आधार मानकर एवं कविप्रिया में अलंकार को आधार बनाकर इन काव्यों की रचना की थी। अतः केशव को ही रीतिकाल का प्रवर्तक माना जाता है।
अतः अब हम रीतिकाल के रचनाकार एवं उनकी रचनाओं को देखेंगे:-
रीति ग्रंथकार कवि और उनकी रचनाएं
क्रमांक |
रीति ग्रंथकार |
प्रमुख रचनाएं |
भाषा |
1 |
केशवदास |
कविप्रिया, रसिकप्रिया, चंद्रिका, रामचंद्रिका, विज्ञानगीता, रतनबावनी, जहांगीर जस चंद्रिका, वीरसिंह देव चरित। |
ब्रज |
2 |
चिंतामणि |
कविकुलकल्पतरु, पिंगल, काव्य-विवेक, काव्य-प्रकाश, रसमंजरी, श्रृंगार-मंजरी, रस-विलास, कृष्ण-चरित, कवित्त विचार, छंद विचार पिंगल। |
ब्रज |
3 |
मतिराम |
ललितललाम, छंदसार, रसराज, साहित्य सार, लक्षण श्रृंगार, मतिराम सतसई, फूल मंजरी, अलंकार, पंचशिका (भाषा ब्रज)। |
ब्रज |
4 |
भूषण |
शिवराज भूषण, भूषण उल्लास, पूषण उल्लास, भूषण हजारा, शिवा बावनी, छत्रसाल दशक। |
ब्रज |
5 |
भिखारीदास |
काव्य निर्णय, श्रृंगार निर्णय, रस-सारांश, शतरंज शतिका, शब्द नाम प्रकाश, विष्णु पुराण, |
छंदार्णव पिंगल |
6 |
देव |
रस विलास, भवानी विलास, भाव विलास, कुशल विलास, जाति विलास, प्रेम पचीसी, प्रेम-तरंग, प्रेम चंद्रिका, काव्य रसायन। |
ब्रज |
7 |
पद॒माकर |
पदमाभरण, हिम्मत बहादुर, जगद विनोद, प्रबोध पचीसी, राम रसायन, विनोद पचासा, गंगालहरी, यमुनालहरी। |
ब्रज |
8 |
अमीरदास |
सभा मंडन, वृत चंद्रोदय, ब्रजराज विलास, सतसई, आमिर-प्रकाश, वैद्यकल्पतरु, श्री कृष्णा साहित्य सिंधु। |
ब्रज |
9 |
श्रीपति |
कवि-कल्पद्रुम, सरोज कालिका, काव्य-सरोज, विक्रम विलास, अनुप्रास-विनोद, अलंकार गंगा। |
ब्रज |
10 |
कुलपति मिश्र |
संग्राम सार, रस रहस्य, नरव-शिरण, द्रोण-पर्व, मुक्त-तरंगिणी। |
ब्रज |
11 |
सोमनाथ |
रसपीयूष निधि, सुजान विलास, श्रृंगार विलास, पंचाध्यायी, कृष्ण लीलावती, माधवविनोद। |
ब्रज |
12 |
निहाल कवि |
साहित्य शिरोमणि। |
ब्रज |
13 |
तोष |
सुधानिधि। |
ब्रज |
14 |
सुखदेव मिश्र |
रसार्णव। |
ब्रज |
15 |
जसवंत सिंह |
भाषा-भूषण। |
ब्रज |
16 |
दूलह |
कविकुलकष्ठाभरण। |
ब्रज |
17 |
रसरूप |
तुलसी-भूषण। |
ब्रज |
18 |
कालिदास |
वधू-विनोद, कालिदास हजारा। |
ब्रज |
19 |
सूरति मिश्र |
काव्य-सिद्धांत। |
ब्रज |
20 |
वैरीसाल |
भाषाभरण। |
ब्रज |
21 |
बेनी |
नवरस तरंग। |
ब्रज |
22 |
रसिक गोविंद |
रसिक गोविंदानंद। |
ब्रज |
23 |
प्रतापसाहि |
व्यंग्यार्थ कौमुदी। |
ब्रज |
पढ़ें:- देवनागरी लिपि किसे कहते हैं? देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई?
रीतिकाल को श्रृंगार काल क्यों कहा जाता है ?
रीतिकाल के कवि अधिकांश दरबारी थे तथा ये अपने आश्रयदाता के मनोवृत्ति को संतुष्ट करने के लिए श्रृंगार रस के काव्य की रचना करते थे। आश्रयदाता (शासक) कामवासना और भोग विलासी थे। अतः उनकी इच्छा के अनुसार इन्हें काव्य की रचना करना होता था। रीतिकाल के कवि नायक-नायिकाओं में भी ज्यादा महत्व नायिका को ही दिया करते थे तथा नायिका के संयोग-वियोग पक्ष में भी अधिक महत्व संयोग पक्ष को ही दिया करते थे। ये नायिका के बाह्य श्रृंगार का चित्रण करते थे। लेकिन रीतिकावियों की मानसिकता यह नहीं थी। ये धन कमाने की इच्छा से इस तरह के काव्य की रचना करते थे और अपने आश्रयदाता के मनोवृत्ति को संतुष्ट करने के लिए काव्य के बाह्य श्रृंगार में जुटे रहते थे। साथ ही साथ इन कवियों को दरबार में सम्मान पाने की ललक भी होती थी।
इसलिए इस काल के श्रृंगार रस को देखते हुए पंडित विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने कहा है कि:- “इस युग में श्रृंगार की एक बड़ी प्रवृत्ति थी इसलिए इस कालखंड को श्रृंगार काल के नाम से पुकारा जाना चाहिए।”
इसका समर्थन आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भी किया है उनके अनुसार:- “वास्तव में श्रृंगार और वीर इन्हीं दो रसों की कविता इस काल में हुई। एवं प्रधानता श्रृंगार की ही रही इसलिए इस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगार काल कहे तो कह सकता है।”
अतः इस काल को हम श्रृंगार काल भी कह सकते हैं।
निष्कर्ष
हमने इस लेख में रीतिकाल का नामकरण एवं रीतिकाल की विशेषताओं/प्रवृत्तियां तथा रीतिकाल के कवि और उनके रचनाओं को देखा। विद्वानों द्वारा इस काल का नाम रीतिकाल स्वीकार किया गया क्योंकि इस काल (17वीं से 19वीं शदी) के लंबे साहित्यिक प्रवृत्तियों को रीतिकाल नाम में ही समावेश किया जा सकता है। साथ ही रीतिकाल में हमने रीतिबद्ध, रीति सिद्ध, रीतिमुक्त तथा रीतिकाल से इतर काव्य की चर्चा की।
इस काल की काव्य रचना की मुख्य प्रवृत्ति शृंगारिक थी। तथा अधिकांश कवि दरबारी होने के कारण अपने आश्रयदाता की मनोवृत्ति को संतुष्ट करने के उद्देश्य से काव्य रचना किया गया। साथ ही ये कवि बाह्य प्रदर्शन अर्थात बह्या श्रृंगारिकता में जुटे रहते थे। क्योंकि इन्हें दरबार में सम्मानित होना था ।साथ ही ये धन कमाने की लालसा से भी अपने आश्रयदाता के महिमामंडन में काव्य रचना करते थे। इस समय रीति इत्तर काव्य भी हमें देखने को मिलती है जैसे- वीर रस के काव्य नीति काव्य इत्यादि।