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कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत | kautilya’s saptanga theory

किसी भी राज्य को एक आदर्श राज्य मानने के लिए राज्य में कुछ विशेष तत्वों का होना जरूरी है तभी हम किसी राज्य को एक आदर्श राज्य का दर्जा दे सकते हैं। अनेक विद्वानों ने एक आदर्श राज्य के निर्माण के लिए अनेक अपने-अपने मत प्रकट किए हैं। लेकिन कौटिल्य द्वारा प्रस्तुत किया गया राज्य सप्तांग सिद्धांत काफी विश्वसनीय है कौटिल्य अपने राज्य सप्तांग सिद्धांत में एक आदर्श राज्य के निर्माण के लिए सात तत्वों का होना जरूरी बतलाया है तो आइए हम कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत के बारे में जानेंगे कि वह एक आदर्श राज्य के बारे में क्या कहता है।

प्राचीन भारत के उत्तर वैदिक संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों में विभिन्न यज्ञों और विभिन्न विधानों की सैद्धांतिक व्याख्या की गई है लेकिन फिर भी हमें न तो वैदिक साहित्य में और न प्रारंभिक विधि ग्रंथों अर्थात धर्म सूत्रों में राज्य की पूरी परिभाषा मिलती है इसका कारण यह है कि तब तक राज्य की संस्था ठोस रूप से स्थापित नहीं हो पाई थी

बौद्ध युग में कोशल और मगध जैसे सुसंगठित राज्यों के उत्थान के बाद सबसे पहले कौटिल्य ने इसे 7 भागों से युक्त संस्था बतलाया यह परिभाषा बाद के ग्रंथों के लिए सूत्र के रूप में बन गई यद्यपि कुछ प्रारंभिक धर्म सूत्रों में भी ‘राजा’, ‘अमात्य’, ‘विषय’ आदि कतिपय अंगों का उल्लेख मिलता है लेकिन हमें राज्य की पूर्ण परिभाषा सबसे पहले कौटिल्य से ही प्राप्त होती है

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत | kautilya’s saptanga theory

कौटिल्य द्वारा उल्लेखित राज्य के सात अंग निम्नलिखित हैं:-

  1.  स्वामी
  2. अमात्य
  3. जनपद
  4. दुर्ग
  5. कोश
  6. दंड और
  7. मित्र

राज्य व्यवस्था संबंधी अधिकांश ग्रंथों में इन सातों अंगों का उल्लेख मिलता है यद्यपि कुछ एक में कुछ अंगों के पर्यायों का प्रयोग हुआ है परंतु यह पर्याय अंतः राज्य संबंधों के संदर्भ में उल्लेख किया गया है केवल शांतिपर्व के कुछ एक पांडुलिपियों में एक अंतर मिलता है इस पर्व के सभी संक्षिप्त संस्करण में अष्टांगिक राज्य शब्द पद का प्रयोग मिलता है लेकिन आठवें अंग का उल्लेख कहीं नहीं है।

अर्थशास्त्र में जहां पर सभी अंगों का विवेचन किया गया है वहां दो अंगों अमात्य और दुर्ग की परिभाषा नहीं दी गई है किंतु कुल मिलाकर सप्तांग का विवेचन  संगोत्पांग क्रमबद्ध है जो अत्यंत दुर्लभ है अतः सप्तांग सिद्धांत के विश्लेषण के लिए हमें पूर्ण रूप से कौटिल्य के परिभाषा पर ही निर्भर रहना पड़ता है अतः राज्य के सातों अंगों का वर्णन निम्न प्रकार से है:-

स्वामी

कौटिल्य के राज्य संबंधी सप्तांग सिद्धांत में सबसे प्रथम स्थान स्वामी का है। स्वामी का अर्थ- मालिक या प्रधान होता है। कौटिल्य के अनुसार राज प्रधान को सबसे उच्च स्थान दिया गया है तथा इसे अभिजात वर्ग का होना अनिवार्य बताया है।

अतः राज प्रधान को अभिजात्य, प्रज्ञा, उत्साह तथा व्यैक्तिक गुणों से संपन्न होना चाहिए। अभिजात से उत्पन्न होने वाले गुण पर जोर देने वाली यह बात सामान्य कुलों में उत्पन्न व्यक्तियों के राजपद पाने की संभावना नहीं छोड़ती। बैंड किया है

अमात्य

कौटिल्य के राज्य संबंधी सप्तांग सिद्धांत में कौटिल्य ने अमात्य को दूसरा एवं महत्वपूर्ण अंग माना है। उसने अमात्य परिषद का विवरण करते हुए अमात्य और मंत्री में अंतर बताया है। वह मंत्रियों की संख्या तीन या चार तक सीमित रखता है लेकिन अमात्य के संबंध में कहता है कि- इनकी संख्या इन नियोक्ता के क्षमता पर नियुक्त होना चाहिए। आमत्यों के लिए आपेक्षित योग्यता बतलाते हुए उनका कहना है कि- देश, काल और कार्य की आवश्यकताओं को देखकर किसी को भी अमात्य नियुक्त किया जा सकता है लेकिन यह सात विचारकों का मत प्रतिपादित करते हुए अनुवांशिकता और अभिजात्य वर्ग पर आधारित पात्रता पर अधिक महत्व देता है।

कौटिल्य ने आमात्यों को खेती-बाड़ी की निगरानी, दुर्ग निर्माण की देखभाल, जनपद कल्याण, विपत्तियों के निवारण, अपराधियों को दंड देने और राजकीय भावनों के तहसीर जैसे कार्य सौंपे हैं। इससे प्रतीत होता है कि अमात्य शब्द का प्रयोग शासन चलाने वाले विभिन्न प्रकार के अधिकारियों के लिए किया गया है।

जनपद

राज्य के सप्तांग सिद्धांत में जनपद तीसरा प्रमुख अंग है। जनपद का शाब्दिक अर्थ है- जनजातिय बस्ती। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में परिभाषित जन शब्द से तात्पर्य भूमि (भूभाग) और जनसंख्या दोनों का समावेश है। उसमें यह कहा गया है कि भूभाग में अच्छी जलवायु, पशुओं के लिए चारागाह और कम मेहनत से उपज देने वाली भूमि होनी चाहिए। इसमें ऐसे परिश्रमी किसानों का निवास होना चाहिए जो कर और दंड का बोझ वहन करने की क्षमता रखता हो। इसमें बुद्धिमान मालिक होने चाहिए और निम्न वर्णों के लोगों की प्रधानता होनी चाहिए। तथा इसकी प्रजा स्वामी भक्त एवं निष्ठावान होनी चाहिए।

भूभाग को बसाने के संबंध में कौटिल्य का कहना है कि ‘ग्राम’ में 100-500 तक परिवार होने चाहिए और ‘स्थानीय’ में जो जनपद की सबसे बड़ी इकाई है 800 ग्राम होनी चाहिए।

 दुर्ग

 कौटिल्य द्वारा उल्लेखित राज्य का चौथा महत्वपूर्ण अंग दुर्ग है। कौटिल्य के दो पृथक प्रकरण दुर्ग विधान और दुर्ग निवेश है।

दुर्ग विधान में किले के निर्माण का वर्णन है और दुर्ग निवेश में राजधानी की योजना और विन्यास बताया गया है। कौटिल्य ने दुर्ग की विशेषताओं पर दुर्ग निवेश प्रकरण में प्रकाश डाला है। उनके अनुसार राजधानी केंद्रीय स्थल पर बनाई जानी चाहिए। इसकी योजना बनाने में विभिन्न वर्णों के लोगों, कारीगरों और देवताओं के लिए अलग-अलग क्षेत्र छोड़े जाने चाहिए। यह भी ज्ञातव्य है कि इस संबंध में ऊन, धागा, बाँस, कच्चे चमड़े, हथियार आदि का काम करने वाले कारीगरों, धातु कर्मियों और रतन कार्यों तथा विभिन्न प्रकार के शिल्पियों का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है। इस प्रकार शिल्प वर्ग को इसलिए महत्वपूर्ण समझ गया है कि वह प्रतिरक्षा की दृष्टि से विशेष उपयोगी थी।

कोश

राज्य के सप्तांग सिद्धांत में कौटिल्य ने कोश को पांचवा अंग माना है। उनके अनुसार राजा को नेक और वैध तरीकों से संचित कोश रखना चाहिए या उसे इन्हीं उपायों से समृद्ध बनाना चाहिए। सोने, चांदी और रत्नादी से भरे पूरे कोश को ऐसा समृद्ध होना चाहिए की आकाल आदि विपत्तियों के समय यह खर्च वहन कर सके।

कौटिल्य का कहना है कि कोष के अभाव में सेना रखना और उसकी निष्ठा का पात्र बने रहना संभव नहीं। यद्यपि कौटिल्य का व्यापक तर्क कथन भी हमें देखने को मिलता है कि राज्य की समस्त प्रवृत्तियाँ वित्त पर ही आश्रित है।

दंड

कौटिल्य ने सप्तांग सिद्धांत में दंड को 6वाँ अंग माना है। उनके अनुसार इसमें (सेना) पुश्तैनी भाड़े पर रखे गए वन और निगम के सैनिक आते हैं जो पदाति अर्थात पैदल, रथारोही, हस्रि सैनिक और अश्वरोही इन चार भागों में बंटे होते हैं। कौटिल्य ने दंड की विशेषता का उल्लेख करते हुए क्षत्रियों को सेना के लिए उपयुक्त बताया है।

मित्र

कौटिल्य द्वारा उल्लेखित सातवां अंग मित्र है। उनके अनुसार मित्र बनावटी नहीं वंशानुगत होना चाहिए। जिसके साथ विभेद की कोई गुंजाइश भी न हो और जो अवसर आने पर सहायता के लिए तैयार रहे।

राज्य के इन सातों अंगों का वर्णन करते हुए कौटिल्य ने कहा है कि- राज्य की ये सात प्रकृतियां यदि अपने गुणों से युक्त हो तो ये राज्य के लिए संपत्ति होगी। ये सातों अंग एक दूसरे के लिए अंग के समान हैं। कौटिल्य इन सात प्रकृतियों को राज्य रूपी शरीर का अंग मानते हैं। इन सात गुणों के भली भांति उदय होने से राज्य का आधार मानते हुए सभी अंग से अधिक इसकी रक्षा करने को कहता है ताकि वह अन्य छः अंगों की रक्षा कर सके।

कौटिल्य कहता है कि हर पूर्वर्ती अंग परवर्ती अंग से अधिक महत्वपूर्ण है। उदाहरणार्थ- अमात्य जनपद से, जनपद दुर्ग से, कोष दंड से और दंड मित्र से अधिक महत्वपूर्ण है। यद्यपि अपने में कम महत्व के होते हुए भी प्रत्येक अंग राज्य रूपी शरीर के लिए अनिवार्य था क्योंकि एक अंग का अभाव दूसरा पूरी नहीं कर सकता है। अतः राजा का अस्तित्व तभी कायम रह सकता है और उनका कार्य तभी ठीक से चल सकता है जब उसके सभी अंग मिलकर एक साथ काम करें।

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सप्तांग सिद्धांत की प्राचीन विचारधारा

राज्य के सात अंगों का वर्णन कौटिल्य के सप्तांग सिद्धांत के अलावा अन्य प्राचीन ग्रंथो में भी मिलता है जैसे:-

शांतिपर्व

शांतिपर्व में राज्य के आठ अंगों का वर्णन अर्थात अष्टांगिक राज्य शब्द का प्रयोग मिलता है परंतु आठवें अंग का उल्लेख नहीं है। अमात्य के विषय में भी शांतिपर्व में उल्लेख मिलता है जिसमें उनकी संख्या 37 बतलाई गई है।

जनपद और पुर को शांतिपर्व में भेद किया गया है अर्थात जनपद से देहात और पुर से राजधानी का बोध होता है। दंड का भी शांतिपर्व में उल्लेख मिलता है। इसके अनुसार सेना में हाथी, घोड़े, रथ, पवाति, नौसेना, बेगार और भाड़े के सैनिक होते थे। इसलिए इसे अष्टांगिक वर्ग कहा गया है।

बौद्ध ग्रंथ

बौद्ध ग्रंथ के पाली में अमात्य को अमच्च (अमंचो) कहा गया है। बौद्ध चिंतन के अनुसार राज्य का एकमात्र विशिष्ट लक्षण ‘कर’ है। वैदिक काल में राजा को ‘सम्राट’ कहा जाता था।

मनुस्मृति

मनु ने दुर्ग को ‘पुर’ कहकर तीसरा स्थान दिया है। मनु ने दंड (सेना) पर विचार किया है और उसने ब्राह्मणों और वेश्याओं को भी शस्त्र धारण करने की अनुमति दी है। लेकिन शूद्रों के संख्या बल का विचार करते हुए उन्हें सेना में भर्ती करने की सिफारिश करता है इसके अलावा उसके मतानुसार सेना वंशानुगत और निष्ठावान होनी चाहिए।

उसके बाल-बच्चों और पत्नियों के भरण पोषण के लिए इतना दिया जाना चाहिए कि वे संतुष्ट हो सकें। आक्रमण के समय सेना को सभी आवश्यक उपादानों से सज्जित होना चाहिए। उसे अपराजेय, धैर्यशील, कार्यकुशल, हार-जीत के प्रति तटस्थता और राज्य के इच्छा अनुसार कार्य करने वाली होनी चाहिए।

मौर्योत्तर काल

मौर्योत्तर काल में आमात्यों को आमतौर पर सचिव कहा जाता था। दो मौर्योत्तर ग्रंथ में जनपद का उल्लेख राष्ट्र के रूप में हुआ है। एक गुप्तकालीन विधि ग्रंथ में मात्र जन के रूप में हुआ है। दो पुराणों में भी जनपद के लिए कहा गया है कि राजा को ऐसे देश में रहना चाहिए जिसमें ज्यादातर वैश्य और शुद्र हों। थोड़े से ब्राह्मण और अधिक संख्या में भाड़े के श्रमिक हों।

कार्यदक

कार्यदक ने भी अमात्य का प्रयोग जातिवाचक अर्थ में किया है लेकिन वहां इसे सचिव के साथ मिला देते हैं क्योंकि अमात्य की योग्यता निश्चित करते समय वह अमात्य और सचिव दोनों शब्दों का प्रयोग बिना किसी भेद के करते हैं किंतु कार्यदक के अमात्य मंत्रियों से भिन्न है। कार्यदक ने जनपद के विषय में कहा है कि भूभाग में सूत्रों, कारीगरों, व्यापारियों तथा उद्यमी कृषकों का निवास होना चाहिए।

शुक्र नीतिसार

शुक्र नीतिसार के अनुसार राज्य एक जीवित शरीर है। इसमें राजा ‘सिर’, अमात्य ‘चक्षु’, जनपद ‘कर्ण’, कोष ‘मुख’, बल ‘मन’, दुर्ग ‘कर’ तथा क्षेत्र ‘पग’ है। संभवत क्षेत्र को पग इसलिए कहा गया है कि क्षेत्र राज्य का मूल भौतिक आधार है। इसी पर संपूर्ण राज्य टिका रहता है। अतः ‘पग’ राज्य रूपी शरीर का मुख्य अंग है। इसी प्रकार राजा अथवा स्वामी के अभाव में न तो राज्य की कल्पना की जा सकती है और न क्षेत्र के अभाव में राज्य की।

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यूनानी विचारधारा

यूनानी विचारकों, प्लूटो और अरस्तू को हम राज्य की उत्पत्ति पर विचार करते तो देखते हैं परंतु वह इसकी वैसी सुनिश्चित और सुस्पष्ट परिभाषा नहीं दे सके, जैसे पूर्वकालिक भारतीय चिंतकों ने दी है।

यूनानी विचारकों ने राज्य के घटकों पर शायद ही कहीं विचार किया है प्लूटो ने अपने ‘रिपब्लिक’ में थोड़ा प्रयास किया है। उसने दार्शनिक की तुलना स्वामी से, योद्धा की दंड से तथा कारीगर और खेतिहर की जनपद से की गई है। अरस्तु के अनुसार गृहपति और नागरिक राज्य के घटक थे। उसने अपने आदर्श राज्य के मौलिक अंग विहित करते हुए वह नगर का आकार और जनसंख्या बतलाते हैं लेकिन इसमें से किसी ने भी राज्य की परिभाषा उतनी पूर्णता से नहीं दी है जितनी कि कौटिल्य में पाई जाती है। इस क्षेत्र में कौटिल्य यूनानी विचारकों को काफी पीछे छोड़ गए हैं।

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आधुनिक विचारधारा

आधुनिक विचारधारा के अनुसार राज्य के चार घटक- प्रभुसत्ता, सरकार, क्षेत्र और जनसंख्या माने जाते हैं। वे कौटिल्य के सात अंग के क्रमशः चारों तत्वों- स्वामी और अमात्य, जनपद के अंतर्गत आ जाते हैं। यहां हम यह भी कह सकते हैं कि आधुनिक काल में जब तक कोई राज्य अन्य राजा को मान्यता प्राप्त नहीं कर लेता है तब तक विधिवत रूप से राज्य के रूप में प्रतिष्ठित नहीं हो पता है। आधुनिक राज्य के इस अंग की तुलना शायद ‘मित्र’ से कर सकते हैं यद्यपि प्राचीन काल में इसकी उद्देश्य अन्य राज्यों की मान्यता प्राप्त करना नहीं था बल्कि उसका मित्रता संपादित करना था।

इस प्रकार आधुनिक परिभाषा में सेना कराधान का समावेश कदाचित प्रभुसत्ता की परिकल्पना में की जा सकती है किंतु आधुनिक परिभाषा में इन अंगों का स्पष्ट उल्लेख नहीं है। इसलिए यह प्राचीन परिभाषा की तुलना में अवास्तविक जान पड़ती है। प्राचीन परिभाषा अधिक वास्तविक और अत्यंत विश्वसनीय हैं।

निष्कर्ष

प्रोफेसर भंडारकर के मतानुसार हिंदू राज्य शास्त्र राज्य के स्वरूप का अधिक पूर्ण तथा गहन विवेचन करता है। उसमें राज्य की आधुनिक परिभाषा का समावेश ही नहीं हो जाता वर॒न आधुनिक परिभाषा में जो अभाव है उसका भी स्पष्ट ज्ञान हो जाता है।


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