History

दिल्ली सल्तनत का प्रशासन व्यवस्था का वर्णन | administrative system of delhi sultanate

दिल्ली सल्तनत कालीन राज्य धर्मनिरपेक्ष नही थे यहाँ इस्लाम धर्म सर्वोपरि होने के कारण दिल्ली सल्तनत का प्रशासन व्यवस्था अपने राजधर्म इस्लाम के अनुरूप ही चलता था। एक विशेष धर्म से उसका संबंध होने के कारण उस संपूर्ण युग में इस्लाम राजधर्म रहा। दिल्ली सल्तनत अन्य किसी धर्म को मान्यता नहीं देती थी। राजवंश तथा शाषक वर्ग इस्लाम के मानने वाले थे और सैद्धांतिक रुप से राज्य के सभी साधन इस धर्म की रक्षा एवं प्रचार-प्रसार के लिए ही थे।

आधुनिक लेखक डाॅ0 आई एच कुरैशी का कथन है कि दिल्ली सल्तनत धर्म पर केन्द्रित अवश्य थी किन्तु पूर्णतया धर्म पर अवलम्बित नही थी क्योंकि धर्मावलम्बित राज्य की मुख्य विशेषता यह है कि उसमें निर्दिष्ट पुरोहित वर्ग का शासन होना चाहिए। दिल्ली सल्तनत में यह विशेषता विधमान नही थी। किन्तु यह तर्क वास्तविकता की उपेक्षा करता है। इस तथ्य से कोई भी इनकार नही कर सकता और डाॅ0 कुरैशी भी मानते हैं कि प्रत्येक मुस्लिम राज्य में इस्लाम के शास्त्रीय कानून ही सर्वोच्च होते है। व्यवहार विधि उनके अधीन होती है और वास्तव में उसी में लीन हो जाती है। यधपि मुस्लिम  उलेमा निर्दिष्ट तथा वंशानुगत नही थे किन्तु उतने हो धर्मांध और पक्षपातपूर्ण थेे जितने कि कोई पुरोहित हो सकता है और वे सदैव कुरान के कनूनों को कार्यान्वित करने तथा मूर्ति-पूजा और इस्लामद्रोह को हटाने पर जोर दिया करते थे।

दिल्ली सलतनत में शासकों का आचरण भी कुरान के नियमों द्वारा नियंत्रित होता था। सुल्तान को अपने निजी जीवन में ही नहीं वरन् शासन के संबंध में भी इन्ही नियमों का पालन करना पड़ता था। वास्तव में सुल्तान को इन्ही कानूनों के अनुसार शासन चलाना पड़ता था और यदि शासन के मामले में इन नियमों को कार्यान्वित करने में वह सफल नही होता था तो उसकी प्रजा के मतानुसार वह उसका नियमानु – मोदित शासक नही रहता था। इसलिए भारत में  इस्लामी राज्य का आदर्श था। देश की समस्त जनता को मुसलमान बनाना, देशी धर्मों को जड़ से उखाड़ फेंकना तथा जनता को मुहम्मद का धर्म अंगीकार करने पर बाध्य करके “दार-उल-हरब” (गैरमुस्लमानों का देश) को “दार-उल-इस्लाम” (मुस्लमानों का देश) में बदलना था।

दिल्ली सल्तनत का प्रशासन

दिल्ली सल्तनत कालीन प्रशासन व्यवस्था के सिद्धांत

दिल्ली सल्तनत की राजसंस्था निम्नलिखित सिद्धांतों पर आधारित थीः- 

  1. धर्मप्रधान राज्य
  2. आज्ञापालन पर बल 
  3. मुस्लिम समाज के लिए एक सम्राट
  4. उलेमाओं की प्रधानता 
  5. राज्य की आय पर सामाज्य का प्रभुत्व 
  6. निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था

धर्मप्रधान राज्य

मूल रूप में तुर्कों की राजसंस्था धर्म पर आधारित थी तथा समाज भी धर्म पर आधारित थी। सुल्तानों के शासन काल में कुरान के नियमों के अनुसार शासन होता था। उलेमा तथा मुल्ला कट्टर धर्मांध हुआ करते थे। अपनी संकीर्ण विचारधारा के कारण इस्लाम का तनिक भी विरोध सहन नही कर सकते थे। कुरान के आदेशों तथा शिक्षाओं के द्वारा जटिल समस्याओं का हल करना कठिन था अतः कालन्तार में हदीस को आश्रय बनाया गया। 

आज्ञापालन पर बल

इस्लामी राजसंस्था में प्रजा के आज्ञापालक होने के साथ शासक वर्ग के कर्तव्य पालन पर भी बहुत जोर दिया जाता था। खलीफा के लिए यह आवश्यक था कि वह धर्मानुकूल होकर लोकहित में शासन करे अन्यथा अल्लाह उसे दण्ड देगा। मुस्लमान न्यायविदों का मत है कि यदि इमाम अपके राजनीतिक दायित्व को पूरा न करे तो प्रजा को उसे पद॒च्यूत करने का अधिकार है।

मुस्लिम समाज के लिए एक सम्राट

संपूर्ण मुस्लिम समाज के लिए एक सम्राट का होना अपेक्षित है। जिस प्रकार अल्लाह तथा उसका अन्तिम पैगम्बर एक है उसी प्रकार शासक भी एक है। खलीफा को यह गौरव प्राप्त था लेकिन खलीफा के साम्राज के साथ विघटनकारी प्रवृतियाँ जन्म लेने लगी तब उसने स्वतंत्र मुस्लिम शासकों को गवर्नर मान लिया और यह भी स्पष्ट. कर दिया कि यदि खलीफा किसी राजा का विरोध नही करता है तो यह समझना चाहिए कि उसे खलीफा का समर्थन प्राप्त है। 

उलेमाओं की प्रधानता

मुस्लिम समाज मे धार्मिक सिध्दांतों के व्याख्याता उलेमा होते थे। शासन में इन्हे प्रधानता दी गयी थी। उलेमा लोग कभी-कभी सम्राट की चाटुकारिता में फंस जाते थे। धन के लोभ से सम्राट को नीति का समर्थन करना उनका अनिवार्य कार्य था। 

राज्य की आय पर सामाज्य का प्रमुत्व

सिध्दांततः मुस्लिम शासन में राज्य की आय साम्राज्य की सम्पति मानी जाती थी।किंतु उसे शासक मनचाहे ढंग से व्यय नहीं कर सकते थे। व्यावहारिक रूप में इस नियम का पालन खलीफा तथा सुल्तानों ने नहीं किया। धन आमोद-प्रमोद पर ही व्यय किया जाता था।

निर्वाचन पद्धति की व्यवस्था

सल्तनत कालीन राज संस्था का यह भी सिद्धांत था कि इमाम का निर्वाचन होना चाहिए। कालांतर में वंशानुगत साम्राज्यवाद के सिद्धांत का समर्थन इस आधार पर किया गया कि एक अथवा 50 व्यक्तियों द्वारा निर्वाचित व्यक्ति भी जनता द्वारा चुना माना जाएगा। इसके अतिरिक्त यदि किसी व्यक्ति के खलीफा या सुल्तान बनने पर उसका नाम खुतबे में रख दिया जाता था और दरबार में लोग उसका अभिवादन कर लेते थे तो वह भी जनमत द्वारा चुना गया माना जाता था।

कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत | kautilya’s saptanga theory विस्तृत जानकारी के लिए।

दिल्ली सल्तनत कालीन प्रशासन के प्रमुख पद

अतः दिल्ली सल्तनत कालीन राज संस्था को चलाने के लिए उपरोक्त सिद्धांत एवं निम्नलिखित पदों का होना अनिवार्य था

खलीफा

इस्लामी प्रभुत्व सिद्धांत के अनुसार संसार के सब मुसलमान का चाहे वे कहीं भी हो एक ही मुस्लिम शासक होता है। उन दिनों में जबकि खलीफा की शक्ति चरम सीमा पर थी वह खिलाफत के विभिन्न प्रांतो के लिए सूबेदारों को नियुक्त किया करता था। जब कभी कोई सूबेदार स्वतंत्र शासक बन बैठता था अथवा कोई मुस्लिम साहसिक नेता नया देश जीतकर राजा बनता था तब भी वह अपने पद को स्थायित्व देने के लिए वह खलीफा के नाम का सहारा लेता था तथा अपने को उसका अधीनस्थ सामंत कहता और अपने पद के लिए उससे मान्यता प्राप्त करता था यद्यपि वह व्यावहारिक दृष्टि से पूर्ण सत्ताधारी शासक की भांति आचरण करता था।

1558 ईस्वी में मंगोल नेता हुलगू ने अंतिम अब्बासी खलीफा मुस्तसीम का वध कर दिया और इस प्रकार खिलाफत का अंत हो गया किंतु खिलाफत की एकता का आडंबर फिर भी कायम रहा। अपने युग की प्रचलित प्रथा के अनुसार दिल्ली सुल्तान भी अपने को खलीफा का नायाब कहते तथा उससे मान्यता प्राप्त करते और सिक्कों एवं खुतबा में उसका नाम सम्मिलित करते।

इस परंपरा को तोड़ने वाला पहला सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी था। उसका पुत्र मुबारक खिलाफत के आडंबर में विश्वास नहीं करता था इसलिए उसने स्वयं खलीफा की उपाधि धारण की। इन दो को छोड़कर इस युग के सभी दिल्ली सुल्तान नाम मात्र के लिए खलीफा का प्रभुत्व स्वीकार करते थे लेकिन कभी भी खलीफा को अपना वास्तविक प्रभु स्वीकार नहीं किया। फिर भी इस युग के शासक विदेशी और मुसलमान थे इसलिए बाहरी इस्लामी जगत से रस्म के रूप में संबंध कायम रखना वे लाभप्रद समझते थे।

सुल्तान

दिल्ली सल्तनत का प्रमुख सुल्तान कहलाता था। ऐसा माना जाता था कि प्रभुत्व संपूर्ण सुन्नी जनता में निवास करता है और उसे ‘मिल्लत’ कहते थे। इसी मिल्लत को सुल्तान का चुनाव करने का अधिकार था किंतु व्यावहारिक दृष्टि से देश की संपूर्ण मुस्लिम जनता को एकत्र करना असंभव था इसलिए मताधिकार पहले कुछ प्रमुख व्यक्ति व्यक्तियों और अंत में एक ही व्यक्ति तक सीमित रह गया। मरने से पूर्व सुल्तान को भी अपना उत्तराधिकारी निर्देशित करने का अधिकार था। वंशानुगत उत्तराधिकार का सिद्धांत नहीं था और कम से कम सैद्धांतिक दृष्टि से प्रत्येक सच्चे मुसलमान के लिए सुल्तान के पद का द्वार खुला हुआ था किंतु व्यवहार में वह विदेशी तुर्कों तक ही सीमित था बाद में अमीरों के एक छोटे से दल और अंत में राजवंश तक ही सीमित रह गया।

सुल्तान का कर्तव्य

शुध्द इस्लामी सिध्दान्त के अनुसार ईश्वर ही मुस्लिम राज्य का शासक माना जाता है। सुल्तान उसका प्रतिनिधि होता है और उसका मुख्य कर्तव्य कुरान प्रतिपादित तथा कथित ईश्वरीय नियमों को कार्यान्वित करना होता है। इस प्रकार सुल्तान दिल्ली सल्तनत की प्रमुख कार्यपालिका था। उसका काम नियमों को कार्यांन्वित करना ही नही बल्कि उनकी व्याख्या करना भी था। इस काम में उसे हदीस और सुविख्यात विधिविज्ञों के निर्णयों के अनुसार चलना पडता था और जब किसी नियम के अर्थ के संबंध में विवाद उठता था तो उसे विद्वान, उलेमा की राय को स्वीकार करना पड़ता था। इसके अतिरिक सुल्तान सर्वोच्च न्यायधिकारी भी था। वास्तव में वह राज्य में न्याय का स्रोत समझा जाता था। सेना का सेनापति भी वही था। वास्तव मे उसकी शक्तियां विस्तृत थी। वह पूर्णरूपेण निरंकुश था और उसकी सता पर किसी प्रकार का नियंत्रण नही था। उसकी  शक्ति का आधार धार्मिक तथा सैनिक था। जब एक वह कुरान के नियमों का अनुसरण करता उसकी सत्ता सर्वोच्च थी। 

सुल्तान की शक्ति

इस युग में सुल्तान की शक्ति आत्यधिक थी इसका पता इससे लग जाता है कि वह अपने राज्य की संपूर्ण प्रजा का शासक नही बल्कि जनता के मुस्लिम वर्ग का धार्मिक प्रमुख भी था। इस प्रकार उसमें कैसर तथा पोप दोनों की शक्तियां केंद्रित थी। सुल्तान पूर्णरूपेण निरंकुश था और उसकी शक्ति सैनिक बल पर निर्भर थी। राज्य की समस्त शक्तियां उसी के हाथ में केंद्रित थी यद्यपि मूलतः इस्लामी राज्य का रूप लोकतांत्रिक था किन्तु पारिस्थितिवश दिल्ली सल्तनत की सरकार को एक केंद्रीकृत संगठन का रूप धारण करना पड़ा।

सुल्तान को शत्रुतापूर्ण हिन्दू जनता के बीच में रहना तथा काम करना पडता था। अनेक ऐसे हिन्दू समन्त थे जो विदेशी सरकार के प्रसार को रोकने तथा अपनी स्वाधीनता को पूनः स्थापना करने के लिए प्रयत्न करने के इन्छूक थे। बाह्य संकट भी सदैव उपस्थित रहता था और सल्तनत को उत्तर-पश्चिमी सीमाओं पर निरंतर मंगोलों के प्रहार होते रहते थे। उन परिस्थितियों में सल्तान को सुरक्षा तथा शासन के केन्द्रीयकरण के लिए एक विशाल सेना की जरूरत होती थी। 

गुलाम वंश के सुल्तानों की शासन व्यवस्था | Gulaam vansh kee shaasan vyavastha पढ़ें।

मंत्री परिषद

दिल्ली सल्तनत काल में निरंकुश राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली थी ऐसी व्यवस्था में सुल्तान का पद सल्तनत काल में शीर्ष बिंदु पर था। वह सम्पूर्ण साम्राज्य का सर्वोच्च अधिकारी होता था लेकिन सुल्तान के कार्यों को सुसंगठित और सुव्यवस्थित रूप से चलाने के लिए एक मंत्री परिषद की व्यवस्था थी। इस मंत्रीपरिषद में मुख्यत चार प्रमुख मंत्री थे:-

1 वजीर- इसके विभाग को ‘दीवान-ए-विजारत’ कहते थे। 

2 आरिज- ए-मुमालिक 

3 दीवान- ए-रसालत

4 दीवान- ए-इन्शा।

विभिन्न विभागों में बड़ी संख्या में कर्मचारी नियुक्त होते थे। कभी-कभी नायब अथवा नायब-ए-मुमालिक भी हुआ करता था जिसका पद सुल्तान के नीचे तथा वजीर से ऊपर होता था। जब सुल्तान दुर्लभ होता था तब नायब के हाथों में अधिक शक्ति आ जाती थी किन्तु वह सामान्य समय में नाममात्र का नायब सुल्तान हुआ करता था। इसी प्रकार और भी अनेक प्रमुख थे जो निम्नलिखित हैं-

1 सद॒-उस-सुदुर 

2 काजी उल कुजात

3 मजलिस ए खलवत 

4 खरीद ए मुमालिक 

5 शाही प्रबंधक इत्यादि। 

उपयुक्त सभी मंत्री सुल्तान के आज्ञाकारी थे और सुल्तान द्वारा ही नियुक्त किये जाते थे। 

वजीर

प्रधानमंत्री वजीर कहलाता था उसकी स्थिति सुल्तान तथा प्रजा के बीच मे थी। वह कुछ प्रतिबंधों के अंतर्गत सुल्तान की शक्ति तथा विशेषाधिकारों का प्रयोग किया करता था। वह सुल्तान के नाम से ही महत्वपूर्ण पदाधिकारियों की नियुक्ति करता था तथा सभी पदाधिकारीयों के विरूद्ध शिकायतें सुनता था। सुल्तान की रूग्नावस्था और अनुपस्थिति में तथा उसके अल्पवयस्क होने पर वह सुल्तान के स्थान पर कार्य करता था। सुल्तान को प्रजा की भावनाओं तथा आवश्यकताओं से अवगत कराना और सभी राजकीय विषयों में सलाह देना वजीर का अन्य महत्वपूर्ण कर्तव्य था।

सामान्य शासन व्यवस्था का अध्यक्ष होने के अतिरिक्त वह विशेष रूप से वित्त-विभाग का प्रमुख था। इस हैसियत से लगान के बन्दोबस्त के लिए नियम बनाना, अन्य करों की दर निश्चित करना तथा राज्य के व्यय का नियंत्रण रखना उसका मुख्य उत्तरदायित्व था। इसके अतिक्ति सैनिक पदाधिकारीयों के कार्यों का निरीक्षण भी वही करता था। सैनिक व्यवस्था पर भी उसका नियंत्रण था क्योंकि सैनिक विभाग की सभी आवश्यकताओं की पूर्ति उसी के द्वारा होती थी।

उसी के अधीनस्थ कर्मचारी सैनिक पदाधिकारीयों तथा सिपाहियों के वेतन बांटते और तत्सबंधी हिसाब रखते थे। विद्वान तथा गरीब लोगों को जो छात्रवृतियां तथा निर्वाह के लिए भत्ते दिए जाते थे उनका प्रबंध भी वजीर के हाथों में था। इस प्रकार जन-शासन की सभी शाखाओं पर उसका नियंत्रण था और सूबेादार से लेकर चपरासी तक प्रत्येक कर्मचारी को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप में उससे काम पडता था। उन शाक्तियों का उपभोग करने के कारण राज्य में वजीर की बड़ी प्रतिष्ठा थी और एक बड़ी जागीर के राजस्व के रूप में उसे अच्छा वेतन मिलता था।

वजीर का कार्यालय ‘दीवाने-विजारत’ कहालाता था। उसकी सहायता के लिए एक नायब वजीर हुआ करता था जिसके सुपूर्द दफ्तर का काम होता था। नायब वजीर के नीचे मुत्रिफे-मुमालिक (महालेखाकार) होता था और उसके बाद मुस्तौफी-ए-मुमालिक (महालेखा परीक्षक)। मुत्रिफे मुमालिक प्रान्तों तथा अन्य विभागों से होने वाली आय का लेखा रखता था और महालेखा परीक्षक उसकी जाँच किया करता था। फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल में इस व्यवस्था में थोड़ा सा परिवर्तन कर दिया गया था। महालेखाकार आय का और महालेखा परीक्षक व्यय का हिसाब रखता था। महालेखाकार की सहायत के लिए एक नाजिर हुआ करता था। महालेखा परीक्षक की सहायता के लिए भी कुछ पदाधिकारी होते थे। दोनों के बड़े-बड़े दफ्तर थे जिनमें अनेक क्लर्क काम करते थे।

दीवान-ए-आरिज

दीवान-ए-आरिज अथवा दीवान-ए-अर्ज राजधानी में अन्य महत्वपूर्ण मंत्री थे। हम उसे सेना मंत्री अथवा सैनिक विभाग का महाप्रबंधक कह सकते हैं। उसका मुख्य काम सैनिकों की भर्ती करना, सैनिकों और घोड़ों की हुलिया रखना तथा फौजों का निरीक्षण करना था। चूंकि सेना का महा सेनापति सुल्तान स्वयं हुआ करता था इसलिए सामान्यतया आरिज-ए- मुमालिक को शाही फौज का सेनापतित्व नहीं करना पड़ता था। किन्तु कभी-कभी सेना के किसी भाग का नेतृत्व उसे दे दिया जाता था। उसका मुख्य काम फौज के अनुशासन तथा साजसज्जा और युद्धक्षेत्र में उसके कार्यों का निरीक्षण करना था। यह विभाग इतना महत्वपूर्ण था कि कभी-कभी सुल्तान स्वयं उससे संबंधित अनेक कार्यों को किया करता था। उदाहरण के लिए अलाउद्दीन खलजी को सेना के संगठन तथा उसके जीवन में बहुत रुचि थी इसलिए वह उसकी ओर निजी तौर से ध्यान दिया करता था ।

दीवान-ए- इंशा

दीवान-ए-इंशा तीसरा मंत्री था। उस पर शाही पत्र-व्यवहार का भार था। उसकी सहायता के लिए अनेक दबीर तथा लेखक रहते थे जो लेखन शैली में दक्ष होने के कारण ख्याति प्राप्त कर चुके होते थे। सुल्तान का अन्य राज्यों के शासकों, महत्वपूर्ण अधीनस्थ सामन्तों तथा राज्य के पदाधिकारियों से जो पत्र व्यवहार होता था और जिसका बहुत कुछ अंश गुप्त रखा जाता था वह सब इसी विभाग द्वारा होता था। सुल्तान के महत्वपूर्ण आदेशों के प्रारूप  इसी विभाग में तैयार किये जाते थे। उसके बाद वे सुल्तान की स्वीकृति के लिए भेजे जाते थे और अन्त में उनकी प्रतिलिपियों बना दी जाती थी। इस विभाग का कार्य गुप्त होने के कारण उसका अध्यक्ष एक अत्यंत विश्वसनीय पदाधिकारी हुआ करता था। 

दीवार-ए-रसालत

इनके उपरान्त दीवान-ए-रसालत नाम का अन्य मंत्री होता था। इस मंत्री के कार्यो के संबंध में लोगों में मतभेद है। डॉ0 आइ एच कुुरैशी के मतानुसार उसका संबंध धार्मिक विषयों से था। इसके अतिरिक विद्वानों तथा धार्मिक व्यक्तियों को जो भत्ते दिए जाते थे उनका भी भार उसी पर था।

इनके विपरित डाॅ0 हब्बी बुल्ला का कथन है कि वह विदेश मंत्री था और इसलिए कुटनीतिक पत्र व्यवहार तथा विदेशों को भेजे जाने वाले और वहाँ से आने वाले राजदूतों का भार उसी पर था। डॉ0 हब्बी  बुल्ला का मत सही प्रतीत होता है। डॉ० कुरैशी ने गलत अर्थ लगाया है। इसके अतिरिक उनके सिद्धांत से सिद्ध होगा कि सल्तनत में एक ही काम के लिए अनिवार्य रूप से दो पदाधिकारी रहे होंगे क्योंकि विषयों धर्मस्वं तथा दान के लिए प्रारंभ से ही अन्य पदाधिकारी था जो सद॒-उस-सुदूर कहलाता था। दीवान-ए-रसालत बहुत ही महत्वपूर्ण प्राधिकारी था, क्योंकि सुल्तान देशी राजाओं के अतिरिक मध्य एशियाई शक्तियों से भी कूटनीतिक संबंध कायम करने के इच्छुक रहते थे।

सद॒-उस-सुदूर

सद॒-उस-सुदूर तथा दीवान-ए-कजा दो अन्य मंत्री थे। बहुधा इन दोनों विभागों – धर्मस्व विभाग तथा न्याय विभाग का काम चलाने के लिए एक मंत्री नियुक्त किया जाता था। मुख सद॒ (सद॒-उस-सुदूर) का काम था। इस्लामी नियामों और उप नियमों को लागू करना तथा यह देखना कि मुसलमान लोग उनका अपने दैनिक जीवन में पालन करते हैं और प्रतिदिन नियमानुसार दिन में 5 बार नमाज़ पढ़ते तथा रोजा रखते हैं। दान के रूप में बहुत-सा धन वितरण करने तथा मुस्लिम उलेमा, विद्वानों और धार्मिक पुरुषों को जीवन-निर्वाह के लिए भत्ते मंजूर करने आदि का भार में उसी पर था। मुख्य काजी न्याय- विभाग का अध्यक्ष था और राज्य भर में न्याय प्रशासन का निरीक्षण करना उसका कार्य था।

मजलिस-ए-खल्वत

सभी मंत्रियों के पद तथा स्थिति एक समान नहीं होती थी। वजीर की हैसियत तथा आधिकार अन्य मंत्रियों से कहीं अधिक थे। अन्य 5 मंत्री तो केवल शिष्टाचार की दृष्टि से मंत्री कहे जाते थे। वास्तव में उनकी स्थित लगभग. सुल्तान के सचिवों जैसी थी। सुल्तान सब मंत्रीयों को एक ही समय तथा साथ-साथ परामर्श के  लिए आमंतित नहीं किया करता था। इसलिए मंत्री परिषद जैसी कोई संस्था नहीं थी। सुल्तान अपनी इच्छानुसार उनको नियुक्त तथा पदच्युत करता था और उनमें से किसी की अथवा सबकी सलाह मानने के लिए वह बाध्य नहीं था।

इनके अतिरिक सुल्तान के सलाहकारों को एक बड़ी संख्या थी। जिसमे अनेक गैर-सरकारी थे। उन सबको ‘मजलिस-ए-खल्वत’ कहते थे। इनमें सुल्तान के निजी मित्र कुछ विश्वासनीय पदाधिकारी तथा प्रमुख उलेमा समिलित थे। समय-समय पर सुल्तान उन्हें परामर्श के लिए बुलाता था तथापि शासन पर कुछ उनका प्रभाव रहता था। 

गुलाम वंश का संस्थापक कुतुबुद्दीन ऐबक कौन था? विस्तृत जानकारी के लिए अवश्य पढ़ें

अन्य विभाग

राजधानी में अन्य विभागाध्यक्ष भी थे जिनके ऊपर महत्वपूर्ण कार्यों का भार था। ये इस प्रकार थे:-

बरीद-ए-मुमालिक (डाक तथा गुप्तचर विभागाध्यक्ष) 

दीवाने-अमीर कोही (कृषि-विभाग जिसकी स्थापना मुहम्मद बिन तुगलक ने कि थी।)

दीवाने-मुस्तखराज – किसानों तथा कलक्टरों से बकया वसूल करना था जिसकी स्थापना अलाउद्दीन खिलजो ने कि थी।

दीवान-ए-इस्तिहकाक अर्थात पेन्शन विभाग।

शाही गृह प्रबंधक

यधपि सैद्धांतिक दृष्टि से सुल्तान के ग्रह विभाग का अध्यक्ष उसके निजी मामलों की देखरेख करता था। किन्तु शासन पर भी उसका प्रभाव रहता था। शाही अंग रक्षक तथा गुलाम जो सरे-जहाँदार तथा दीवाने-बंदगान नामक पदाधिकारियों के अधीन थे। उसी की देखरेख में कार्य करते थे। उन्हे युद्ध में भी भाग लेना पड़ता था ।

उनके कारखाने थे जिनमे सेना तथा अन्य विभागों की आवश्यकता की वस्तुएं बनायी जाती थीं। शाही अस्तबलों में घोड़े तथा अन्य पशु थे जिनका युद्ध तथा समान ढोने के लिए प्रयोग किया जाता था। ये सब शाही गृह-प्रबंधक के नियंत्रण में कार्य करते थे। उसका सुल्तान से सीधा संपर्क रहता था और कभी-कभी वजीर से भी। इसलिए उसके हाथों में बहुत शक्ति और उच्च प्रतीष्ठा प्राप्त थी।

राजस्व

खुत मुकदम चौधरी राजस्व वसूल कर वजारत विभाग के अधिकारीयों के पास राशि जमा करते थे और बदले में लगान का एक भाग पाते थे जिसे हक-ए-खोती कहते थे।

अलग-अलग सुल्तानों के समय ⅓, ½ तक लगान लिया गया। अलाउद्दीन और मुहम्मद बिन तुगलक ने उपज का ½ भाग लगान लिया। फिरोज ने ठेके पर लगान लेने की प्रथा शुरु की। 

न्याय

न्यायपालिका का प्रमुख सुल्तान होता था। उसके बाद मुख्य काजी या ‘काजी-उल-कुजात’ होता था। सद॒-उस-सुदूर धर्म आचारण से संबंधित विभागीय प्रमुख था। 

दण्ड विधान

कुरान मुस्लिम कानून का स्रोत था। कुरान के नियम “शरा” कहलाते थे। हदीस पैगम्बर के कार्यो एवं कथनों का संग्रह होता था। इज्मा कानून का अन्य स्रोत था। कयास, तर्क और विश्लेषण के आधार पर कानून की व्याख्या थी। दण्ड के निम्नलिखित प्रकार थेः- 

हद्द – ईश्वरीय अपराध का दण्ड, इसका निर्णय कुरान और हदीस के आधार पर किया जाता था। 

किसास- बदला लेना अर्थात् आंख के बदले आंख, जान के बदले जान लिया जाता था। 

ताजिर- यह दण्ड न्यायाधीश की इच्छा और विवेक पर निर्भर था। 

तसहीर- सार्वजनिक निंदा द्वारा दण्ड देना। 

मुतजहिद- विधि शास्त्री और मुस्लिम कानून की व्याख्या करने वाला। 

उलेमा- इस्लामी कानून का संरक्षक। 

काजी- न्यायाधीश। 

मुफ्ती- इस्लामी कानूनों की व्याख्या करने वाला। 

दादे बक अथवा अमीरे-दाद- आधुनिक सिटी मजिस्ट्रेट की तरह न्यायिक पदाधिकारी। 

गुलाम वंश के पतन का कारण विस्तार पूर्वक जानने के लिए क्लिक करें।

निकर्ष

इस प्रकार हमने देखा कि दिल्ली सल्तनत कालीन प्रशासनिक व्यवस्था काफी व्यवस्थित तो थी लेकिन यह इस्लाम धर्म को ही सुरक्षा प्रदान करती थी। यह साम्राज्य धर्मनिरपेक्ष न होने के कारण यहां के शासक अपने नियम और कानून इस्लामी शरीयत के अनुसार ही बनाया करते थे। इनका साम्राज्य विस्तार के पीछे का मकसद था इस्लाम का प्रचार प्रसार करना।

दिल्ली सल्तनत कालीन प्रशासन में सर्वोच्च ईश्वर (अल्लाह) को माना जाता था और सुल्तान तो ईश्वर का प्रतिनिधि होता था। सल्तनत कालीन प्रशासन में सारी शक्तियां सुल्तान पर केंद्रित होती थी चाहे वह प्रशासनिक शक्ति हो या न्यायिक शक्ति या फिर सैन्य शक्ति।

अतः हम कह सकते हैं की दिल्ली सल्तनत कालीन राजतंत्रात्मक शासन प्रणाली में सुल्तान का पद शीर्ष बिंदु पर था।

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