विजयनगर साम्राज्य की शासन प्रणाली की मुख्य विशेषता
मध्यकालीन भारत में विजयनगर का शासन प्रबंध विशेष रूप से उल्लेखनीय है। प्रशासन को विकसित करने के पीछे भी उनका यही उद्देश्य था कि मलेच्छों से हिंदू संस्कृति, हिंदू धर्म तथा हिंदू जनता की रक्षा की जा सके। अतः जिस प्रकार दिल्ली के सुल्तानों ने इस्लाम-प्रधान शासन संचालित किया उसी प्रकार विजयनगर के शासकों ने हिंदू धर्म को प्रधानता देते हुए शासन संचालित किया। प्रशासन में ब्राह्मणों का प्रभुत्व रहा। विजयनगर का प्रशासन धर्मनिरपेक्ष तो नहीं था परंतु वह मुसलमानों पर अत्याचार करने वाला भी नहीं था। देवराय ने तो अपनी सेना में मुस्लिम सैनिकों को भर्ती भी किया हुआ था। अतः विजयनगर की शासन व्यवस्था हिंदू धर्म प्रधान होते हुए भी अन्य धर्मों के प्रति उदार थी।
विजयनगर साम्राज्य की संछिप्त जानकारी
विजयनगर दक्षिण भारत में स्थित एक हिंदू साम्राज्य था। यह साम्राज्य लगभग 250 वर्षों तक अस्तित्व में रहा। साम्राज्य विस्तार के क्रम में अलाउद्दीन खिलजी दक्षिण भारत में भी अपना साम्राज्य स्थापित करने लगा। इस समय अलाउद्दीन खिलजी का सेनापति मलिक कपूर हुआ करता था। जिसने दक्षिण भारत के लगभग सारे हिंदू राज्यों को मुस्लिम प्रभुत्व स्वीकार करने को मजबूर कर दिया था। इस क्रम में यादव, काकतीय, होयसल तथा पाण्डय राजाओं ने अपने आप को मुस्लिम प्रभुत्व से बचाकर रखा था लेकिन मालिक कपूर ने इन्हें भी समाप्त कर दिया। केवल केरल के ही राज्य मलिक कपूर और मुस्लिम राजाओं से बचे हुए थे।
काकतीय और होयसल राज्य के परास्त हो जाने के बावजूद उनके नरेश प्रताप रूद्र द्वितीय तथा वीर बल्लाल तृतीय ने मुसलमानों के खिलाफ स्वतंत्रता के लिए युद्ध छेड़ दी थी और ये दोनों नरेश हिंदू धर्म की रक्षा करते-करते मुसलमानों से युद्ध में शहीद हो भी गए।
इसी प्रतापरुद्र द्वितीय की सेना में हरिहर तथा बुक्का दो भाई थे जो काफी साहसी और वीर थे। इन्हीं दोनों भाइयों ने मिलकर 1336 ईस्वी में विजयनगर राज्य की स्थापना की।
विजयनगर साम्राज्य में कुल चार राजवंशों ने शासन किया:-
संगम राजवंश – 1336 से 1486 ई
सालुव वंश – 1486 से 1506 ई
तुलुव राजवंश – 1506 से 1570 ई
अरविंदु वंश / रास वंश – 1570 से 1614 ई
आइए हम इन चारों राजवंशों को संक्षिप्त में जानने का प्रयास करेंगे।
संगम राजवंश विजयनगर साम्राज्य का पहला राजवंश था। 1336 ईस्वी में जब हरिहर ने विजयनगर साम्राज्य की सत्ता स्थापित करने में सफल हुआ उस समय उसने अपने पिता संगम के नाम पर अपने राजवंश का नाम संगम राजवंश रखा। इस राजवंश में हरिहर, बुक्का, हरिहर द्वितीय, देवराय प्रथम, देवराय द्वितीय, मल्लिकार्जुन, विरुपाक्ष जैसे साहसी राजा हुए। विरुपाक्ष इस वंश का अंतिम शासक हुआ।
विरुपाक्ष संगम वंश का निर्बल एवं अयोग्य शासक था। उसके इस कमजोरी का फायदा उठाकर उसके मंत्री नरसिंह सालुव ने 1485 ईस्वी में विजयनगर पर अधिकार कर लिया और यहीं से सालुव वंश की नींव पड़ी। नरसिंह इस वंश का प्रथम राजा था। उसने अपने शासनकाल में विजयनगर को सुरक्षित रखने का प्रयास किया। नरसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इम्मदी नरसिंह गद्दी पर बैठा। वह एक अयोग्य शासक था। जिसके कारण उसकी सत्ता उसके सेना नायक नरेश नायक ने हथिया ली। नरेश नायक की मृत्यु के बाद उसका पुत्र वीर नरसिंह यहां का शासक बना।
जब वीर नरसिंह के हाथ में सत्ता आयी तो उसने सालुव वंश की समाप्ति कर तुलुव वंश की नींव डाली। लेकिन इसके गद्दी पर बैठते ही राज्य में असंतोष और आंतरिक विद्रोह होने लगा। जिससे संघर्ष करते-करते इसकी मृत्यु हो गई और उसका छोटा भाई कृष्णदेव राय ने विजयनगर साम्राज्य की गद्दी संभाली। गद्दी संभालते ही कृष्ण देव राय ने विजयनगर राज्य की दयनीय हालत को सुधारने का प्रयास करने लगा। इसलिए इसे भारत के महान शासकों में भी गिना जाता है। प्रसिद्ध तेलुगू ग्रंथ ‘आमुक्क माल्याद’ में उसके सुशासन का वर्णन देखने को मिलता है। कृष्ण देवराय की मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई अच्युतदेव राय इस वंश का शासक बना। इसे कृष्णदेव राय ने अपने पुत्र की आयु कम (18 मास) होने के कारण अपने जीवन काल में ही उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था।
अच्युतदेव राय विजयनगर का शासक अवश्य बन गया था परंतु सत्ता उसके साले तिरुमल ने अपने हाथों केंद्रित कर ली थी। अब विजयनगर की स्थिति अच्छी नहीं थी। विजयनगर अशांति से गुजर रहा था। इस प्रकार अशांत वातावरण में ही 1542 ईस्वी में उसकी मृत्यु हो गई और तिरुमल ने अपने भांजे वेंकट रमन को विजयनगर का शासक बना दिया लेकिन वास्तविक सत्ता तिरुमल ने अपने हाथों में ही रखी। लेकिन राजमाता वरदेवी अपने कुटिल भाई की नीति को जान गई और अपने पुत्र को मुक्त कराना चाहा और कृष्णदेव राय के जमता राम राय, इब्राहिम आदिलशाह से मिलकर कृष्णदेव राय के पुत्र सदाशिव को विजयनगर का नरेश बना दिया। सदाशिव के पास विजयनगर का सत्ता अवश्य आ गया लेकिन वास्तविक शासन राम राय ही कर रहा था।
1572 ईस्वी में सदाशिव के मृत्यु के बाद अरविंदु वंश अस्तित्व में आया यह विजयनगर का चौथा राजवंश था। इस वंश में कई शासक हुए। परंतु सभी आयोग्य सिद्ध हुए। रंग तृतीय इस वंश का अंतिम शासक था तथा 1614 ईस्वी में विजयनगर साम्राज्य पर मुसलमानों ने अधिकार कर सदा के लिए समाप्त कर दिया।
विजयनगर साम्राज्य के बारे में विस्तार से जानने के लिए क्लिक करें।
विजयनगर साम्राज्य की केंद्रीय शासन व्यवस्था
राजा
किसी भी राजतंत्रात्मक व्यवस्था की भांति विजयनगर काल में भी राजा होता था। जिसे ‘राय’ कहा जाता था। यह राज्य और शासन का केंद्र बिंदु होता था। प्राचीन काल की शासन प्रणाली के अनुरूप यहां भी राज्य की ‘सप्तांग विचारधारा’ पर जोर दिया जाता था। राज्य के इन सप्तांगों में राजा सर्वोपरि होता था और उससे अपेक्षा की जाती थी कि वह सार्वभौम सम्राट के रूप में अपने आदेशों को कार्य क्रियान्वित करवाए और प्रजा के हित का ध्यान रखें।
प्राचीन भारत की राज्याभिषेक पद्धति के अनुरूप इस काल में राजाओं का राज्याभिषेक किया जाता था। राजा के चयन में राज्य के मंत्रियों और नायकों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती थी। राज्याभिषेक के समय राजा को प्रजापालक और निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी। राज्य के सारे युद्ध और शांति संबंधी आदेशों की घोषणा, दान की व्यवस्था एवं नियुक्तियां तथा प्रजा के मध्य सद्भाव की स्थापना आदि संबंधी समस्त कार्य राजा द्वारा ही संपादित किए जाते थे। राजपद वंशानुगत था। युवराज की नियुक्ति राजा के शासनकाल में ही होती थी। राजा ‘शैव देवता विरुपाक्ष्या’ के नाम से शासन करते थे।
युवराज पद
राजा के बाद ‘युवराज’ का पद होता था। जो सामान्यत: राजा का जेष्ठ पुत्र होता था। राजा के पुत्र न होने पर राज परिवार के किसी भी योग्यतम पुरुष को युवराज नियुक्त कर दिया जाता था। विजयनगर साम्राज्य में अधिकांश नरेशों ने अपने जीवन काल में ही युवराजों की घोषणा करके अपने उत्तराधिकारी घोषित कर देते थे। युवराज की नियुक्ति के बाद उसका अभिषेक किया जाता था। जिसे ‘युवराज पट्टाभिषेकम’ कहते थे। युवराज से शासन की सैद्धांतिक जानकारी होने की अपेक्षा की जाती थी। युवराज काल में उसे विद्या, साहित्य, कला, ललित कलाओं और युद्ध आदि की शिक्षा दी जाती थी।
राजा के रूप में अभिषेक करते समय यदि युवराज अल्पायु होता था तो राजा या तो अपने जीवन काल में ही किसी मंत्री को उसका संरक्षक नियुक्त कर देता था अथवा मंत्री परिषद के सदस्य किसी योग्य व्यक्ति को अल्पायु राजा के संरक्षक के रूप में स्वीकार कर लेते थे।
राज परिषद
राज परिषद राजा की सत्ता को नियंत्रित करने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी। राजा राज्य के मामलों और नीतियों के संबंध में इसी परिषद की सलाह लेता था। यही परिषद राजा का अभिषेक करती थी और देश का प्रशासन चलती थी। इस राज परिषद के अतिरिक्त राजा को परामर्श देने के लिए एक अन्य परिषद भी होती थी। इस परिषद में प्रांतीय सूबेदार, बड़े-बड़े नायक, सामंत शासक, व्यापारिक निगमों के प्रतिनिधि आदि शामिल होते थे। इस प्रकार यह काफी वृहद होती थी।
मंत्री परिषद
राज परिषद के बाद केंद्र में मंत्री परिषद होती थी। जिसका प्रधान अधिकारी ‘प्रधानी’ या ‘महाप्रधानी’ होता था। इसकी स्थिति प्रधानमंत्री की भांति होती थी। मंत्री परिषद में प्रधानमंत्री, मंत्री, उपमंत्री, विभागों के अध्यक्ष और राजा के कुछ निकट संबंधी भी शामिल होते थे। मंत्री परिषद में संभवत 20 सदस्य होते थे। मंत्री परिषद के अध्यक्ष को ‘सभा नायक’ कहा जाता था। प्रधानमंत्री या प्रधानी भी इसकी अध्यक्षता करते थे।
विद्वान, राजनीति में निपुण, 50 – 70 वर्ष की आयु वाले और स्वस्थ व्यक्तियों को ही इसका सदस्य बनाया जाता था। यह मंत्रिपरिषद विजयनगर साम्राज्य के संचालन में सबसे महत्वपूर्ण संस्था थी। राजा मंत्री परिषद से अधिकांश मामलों में राय लेता था। परंतु उनकी राय मानने में बाध्य नहीं था। केंद्र में इनके अतिरिक्त ‘दण्ड नायक’ नामक उच्च अधिकारी भी होता था। जो विभिन्न अधिकारियों की विशेष श्रेणी होते थे। दण्ड नायक को सेनापति, न्यायाधीश, प्रांतपति या प्रशासकीय अधिकारी आदि भी बनाया जा सकता था। राजा और युवराज के बाद केंद्र का सबसे प्रधान अधिकारी होता था। जिसकी तुलना हम मराठा कालीन पेशवा से कर सकते हैं।
केंद्रीय सचिवालय
विजयनगर साम्राज्य जैसे विशाल साम्राज्य पर केवल राजा और उसकी मंत्रिपरिषद ही अकेले शासन नहीं कर सकते थे। अतः केंद्र में एक सचिवालय की स्थापना की गई थी। इस सचिवालय में विभागों का बंटवारा किया गया था और इसमें रायसम या सचिव, कर्णिकम अर्थात एकाउटेंट जैसे अधिकारी होते थे। विशेष विभागों से संबंधित अधिकारियों या विभाग प्रमुखों के पदों के नाम भिन्न थे। जैसे- ‘मानेय प्रधान’, ‘गृह मंत्री’, शाही मुद्रा रखने वाला अधिकारी ‘मुद्रा कर्ता’ कहलाता था। इसी प्रकार के अनेक अधिकारियों के द्वारा विजयनगर साम्राज्य के केंद्रीय सचिवालय का गठन किया गया था।
मुगलकालीन जागीरदारी व्यवस्था अवश्य पढ़ें
विजयनगर साम्राज्य की प्रांतीय प्रशासन
विशाल साम्राज्य पर शासन के लिए उसे अनेक प्रांतो में विभाजित किया गया था। यह प्रांत राज्य या मंडल कहलाते थे। परंतु कुछ इतिहासकारों का विचार है कि ‘मंडल’ राज्य या प्रांत से बड़ी इकाई थी। प्रत्येक मंडल जिले में विभक्त थे। जो ‘कोट॒टम’ या ‘वालनडू’ कहलाते थे। कोट॒टम को नाडूओं में विभाजित किया गया था। इन्हें आज परगना या ताल्लुका कहा जाता है।
इन नाडुओं को ‘मेलाग्रामों’ में विभाजित विभाजित किया गया था। प्रत्येक मेलाग्राम में 50 गांव होते थे और प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ‘ऊर’ या ‘ग्राम’ थे। इस काल में कुछ ग्रामों के समूह को ‘स्थल’ और ‘सीमा’ भी कहा गया। प्रांतों का विभाजन सैनिक दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर किया जाता था अर्थात सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण और शक्तिशाली किले से युक्त प्रदेश को प्रांत के रूप में संगठित किया जाता था।
समान्यतः प्रांतों पर राज परिवार के व्यक्तियों को ही प्रांतपति या सूबेदार रूप में नियुक्त किया जाता था। कुछ प्रांतों पर कुशल और अनुभवी दंडनायकों को भी सूबेदार के रूप में नियुक्त कर दिया जाता था। इन सूबेदारों को प्रांतों में काफी स्वयत्तता प्राप्त थी। इनका कार्यकाल निर्धारित नहीं होता था अर्थात यदि वह कुशल और योग्य होते थे तो काफी लंबे समय तक शासन कर सकते थे।
प्रांतपति सिक्कों को प्रसारित कर सकता था। नए कर लगा सकता था। पुराने कर को माफ कर सकता था। भूमि दान आदि दे सकता था। केंद्रीय सरकार प्रांत के प्रशासनिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करती थी पर यदि प्रांतीय सूबेदार एवं उसके अधिकारी जनता का शोषण और दमन करे तो केंद्रीय सरकार प्रांतीय मामलों में हस्तक्षेप करने के प्रति विमुख नहीं रहती थी। प्रांत में कानून एवं व्यवस्था बनाए रखना प्रांतीय सूबेदारों का सबसे प्रमुख उत्तरदायित्व था। सूबेदारों को प्रांतीय राजस्व का एक निर्धारित अंश केंद्र के पास भेजना होता था।
नायंगर व्यवस्था
विजयनगर कालीन राजतंत्र और प्रांतीय शासन के अंतर्गत नांयकर व्यवस्था का उल्लेख आवश्यक है। इस व्यवस्था की उत्पत्ति, इसके वास्तविक स्वरूप और व्याख्या के संबंध में इतिहासकारों में बड़ा विवाद है। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि विजयनगर कालीन सेनानायकों (सेनापति), सामंतों को नायक कहा जाता था और उन्हें अपने रखरखाव के लिए जो भूमि दी जाती थी उसे ‘अमरम’ भूमि कहते थे। इसी कारण वे नायक अमरनायक भी कहलाए। तमिलनाडु मंडल को 200 भागों में विभाजित कर 200 नायकों को दिया गया था। शुरू में यह व्यवस्था पैतृक नहीं थी लेकिन कालांतर में पैतृक बनती गई। ये अमरनायक केंद्र में अपना एक सेनापति और एक प्रशासनिक एजेंट रखते थे जो स्थानपति कहलाता था। नायकों की निरंकुश्ता एवं उदण्डता को रोकने के लिए ‘महामंडलेश्वर’ की नियुक्ति की गई थी।
स्थानीय शासन
विजयनगर साम्राज्य की स्थानीय शासन काफी सुव्यवस्थित और सुदृढ़ थी। स्थानीय शासन में ‘सभा’ और ‘नाडु’ प्रचलित थे इस काल में किसी-किसी प्रदेश में ‘सभा’ को ‘महासभा’ अन्यत्र ‘ऊर’ और ‘महाजन’ भी कहा जाता था। प्रत्येक गांव को अनेक वार्डों या मुहल्लों में बांटा जाता था। इस सभा के विचार विमर्श में गांव क्षेत्र विशेष के प्रमुख लोग हिस्सा लेते थे।
इन ग्रामीण सभाओं को नई भूमि या अन्य प्रकार की संपत्ति को उपलब्ध करने और गांव की सार्वजनिक भूमि को बेचने का अधिकार था। ये सभाएं ग्रामीणों की ओर से सामूहिक निर्णय भी ले सकती थी और गांव के प्रतिनिधि होने के नाते गांव की जमीन को दान में भी दे सकती थी। इस प्रकार इन ग्राम सभाओं की स्थिति परिवार के मुखिया की भांति होती थी। ग्राम सभाएं राजकीय करों को भी एकत्रित करती थी और इस संबंध में अपने पास भू-आलेखों को भी तैयार रखती थी। यदि कोई भू-स्वामी लंबे समय तक लगान अदा नहीं कर पता था तो ग्राम सभाएं उसकी भूमि को जब्त कर सकती थी।
किसी प्राकृतिक विपत्ति के आने पर ग्राम सभाएं राजा से लगान या कर विशेष की माफी के लिए भी निवेदन करती थी।
ग्राम सभा के न्यायिक अधिकारी भी होते थे- वे कुछ प्रकार के दीवानी मुकदमों का फैसला करते थे और फौजदारी के छोटे-छोटे मामलों में अपराधी को दंड भी दे सकते थे।
‘नाडु’ गांव की एक बड़ी राजनीतिक इकाई थी। इसकी सभा को भी ‘नाडु’ कहा जाता था और इसके सदस्यों को ‘नत्तवर’ कहा जाता था। इसके अधिकारी भी ग्राम सभा की ही भांति होते थे परंतु इसका अधिकार क्षेत्र काफी बड़ा होता था।
आयंगर व्यवस्था *
आयंगर व्यवस्था भी विजयनगर कालीन शासन व्यवस्था की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। इस व्यवस्था के अनुसार प्रत्येक ग्राम को एक स्वतंत्र इकाई के रूप में संगठित किया जाता था और इस ग्रामीण शासकीय इकाई पर शासन के लिए 12 व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता था। इस 12 शासकीय अधिकारियों के समूह को ‘आयंगार’ कहा जाता था। इनकी नियुक्ति सरकार द्वारा की जाती थी। इन आयंगरों के पद अनुवांशिक होते थे या बेच सकते थे। इन्हें वेतन के बदले लगान और कर मुक्त भूमि मिलती थी जिसे ‘मनयम’ कहा जाता था।
कार्य
- अपने अधिकार क्षेत्र में शांति और सुरक्षा बनाए रखना इनका सर्व प्रमुख उत्तरदायित्व था।
- इन ग्रामीण अधिकारियों के बिना जानकारी के न तो संपत्ति को स्थानांतरित किया जा सकता था और न ही दान दिया जा सकता था।
- भूमि की बिक्री केवल इन्हीं अधिकारियों की जानकारी से हो सकती थी। ‘कर्णिक’ (अकाउंटेंट) नामक आयंगर भूमि की खरीद या विक्री की लिखा पढ़ी तथा तत्संबंधी दस्तावेजों को तैयार करता था।
दिल्ली सल्तनत का प्रशासनिक व्यवस्था का वर्णन | administrative system of delhi sultanate
विजयनगर साम्राज्य की राजस्व प्रशासन
विजयनगर साम्राज्य के राजस्व प्रशासन की जानकारी हमें समकालीन अभिलेख एवं विदेशी यात्रियों के विवरणों से मिलती है। विजयनगर काल में राज्य की आय के अनेक स्रोत थे। जैसे- लगान, संपत्ति कर, व्यापारिक कर, व्यावसायिक कर, उद्योगों पर कर, सामाजिक और सामुदायिक कर और अर्थदंड से प्राप्त आय आदि थी।
भू-राजस्व व्यवस्था
इस काल में भू-राजस्व एवं भू-धारण व्यवस्था बहुत व्यापक थी और भूमि को अनेक श्रेणियां में विभाजित किया गया था। भूमि मुख्यतः सिंचाई युक्त या सूखी जमीन के रूप में वर्गीकृत की जाती थी। इसके बाद भूमि विशेष में उगाई जाने वाली फसलों के आधार पर भी उनका वर्गीकरण किया जाता था। लगान का निर्धारण, भूमि की उत्पादकता और उसकी स्थिति के अनुसार किया जाता था। परंतु भूमि से होने वाली पैदावार और उसकी किस्म, भू-राजस्व के निर्धारण का सबसे बड़ा आधार थी। लगान की दरें अलग-अलग थी। जैसे- ब्राह्मणों के स्वामित्व वाली भूमि से उपज का 20 वां भाग तथा मंदिरों की भूमि से उपज का तीसरा भाग, लगान के रूप में लिया जाता था।
अन्य कर
लगान के अलावे मकान, पशुओं, संपत्ति कर, औद्योगिक कर, जैसे अनेक करों की वसूली की जाती थी। सामाजिक और सामुदायिक करों में ‘विवाह कर’ बहुत रोचक था।
कौटिल्य का सप्तांग सिद्धांत | kautilya’s saptanga theory विस्तृत जानकारी।
विजयनगर साम्राज्य की सैन्य प्रशासन
सेना विभाग को ‘कन्दाचार’ कहते थे। इसका प्रमुख सेनापति या दंडनायक होता था। विजयनगर साम्राज्य की सेनाएँ दो प्रकार की थी:- राजकीय और नायकों की सेना।
सेना में ब्राह्मणों का महत्वपूर्ण स्थान था। इनको किले की रक्षा एवं सेना का नेतृत्व दिया जाता था। 1367 ईस्वी में बुक्का प्रथम एवं बहमनी सुल्तान मुहमद प्रथम के बीच पहली बार तोपों का प्रयोग हुआ था।