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भारतीय संविधान की प्रस्तावना के तत्व/आदर्श/लक्ष्य

“हम भारत के लोग” भारतीय संविधान की प्रस्तावना का पहला आदर्श वाक्य है इसी तरह हमारे भारतीय संविधान की प्रस्तावना में संप्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, व गणतांत्रिक राज्यव्यवस्था आदि आदर्श वाक्य जुड़े हुए हैं जो कि हमारे भारतीय संविधान को और देशों के संविधान से अलग बनाता है

प्रस्तावना के चार मूल तत्व है:-

(1) संविधान के अधिकार का स्रोत

(2) भारत की प्रकृति

(3) संविधान के उद्देश्य

(4) संविधान लागू होने की तिथि

(1) संविधान के अधिकार का स्रोत:- प्रस्तावना कहती है कि संविधान भारत के लोगों से शक्ति अधिगृहित करता है

(2) भारत की प्रकृति:- यह घोषणा करती है कि भारत एक संप्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, व गणतांत्रिक राज्यव्यवस्था वाला देश है

(3) संविधान के उद्देश्य:- इसके अनुसार न्याय, स्वतंत्रता, समता व बंधुत्व संविधान के उद्देश्य हैं

(4) संविधान लागू होने की तिथि:- यह 26 नवंबर 1949 की तिथि का उल्लेख करती है

भारतीय संविधान की प्रस्तावना के तत्व
भारतीय संविधान की प्रस्तावना

भारतीय संविधान की प्रस्तावना का इन आदर्शों का विश्लेषण निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है:-

संप्रभुता संपन्न

संप्रभु शब्द का आशय है कि भारत न तो किसी अन्य देश पर निर्भर है और न ही किसी अन्य देश का डोमिनियन है इसके ऊपर और कोई शक्ति नहीं है और यह अपने मामलों ( आंतरिक एवं बाहरी ) का नि:तारण करने के लिए स्वतंत्र है।

यद्यपि वर्ष 1949 में भारत ने राष्ट्रमंडल की सदस्यता स्वीकार करते हुए ब्रिटेन को इसका प्रमुख माना, तथापि संविधान से अलग यह घोषणा किसी भी तरह से भारतीय संप्रभुता को प्रभावित नहीं करती इसी प्रकार भारत की संयुक्त राष्ट्र में सदस्यता उसकी संप्रभुता को किसी मायने में सीमित नहीं करती।

एक संप्रभु राज्य होने के नाते भारत किसी विदेशी सीमा अधिग्रहण अथवा किसी अन्य देश के पक्ष में अपनी सीमा के किसी हिस्से पर से दावा छोड़ सकता है।

समाजवादी

वर्ष 1976 के 42वें संशोधन से पहले भी भारत के संविधान में ‘नीति निर्देशक’ सिद्धांतों के रूप में समाजवादी लक्षण मौजूद थे दूसरे शब्दों में जो बात पहले संविधान में अंतर्निहित थी उसे स्पष्ट रूप से जोड़ दिया गया और फिर कांग्रेस पार्टी ने समाजवादी स्वरूप को स्थापित करने के लिए 1955 में अवाडी सत्र में एक प्रस्ताव पारित कर उसके अनुसार कार्य किया।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि भारतीय समाजवाद ‘लोकतांत्रिक समाजवाद’ है न कि ‘साम्यवादी समाजवाद’ जिसे ‘राज्याक्षित समाजवाद’ भी कहा जाता है जिसमें उत्पादन और वितरण के सभी साधनों का राष्ट्रीयकरण और निजी संपत्ति का उन्मूलन शामिल है।

लोकतांत्रिक समाजवाद मिश्रित अर्थव्यवस्था में आस्था रखता है जहाँ सार्वजनिक व निजी क्षेत्र साथ-साथ मौजूद रहते हैं जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय कहता है “लोकतांत्रिक समाजवाद का उद्देश्य गरीबी, उपेक्षा बीमारी व अवसर की असमानता को समाप्त करना है”

भारतीय समाजवाद मार्क्सवाद और गांधीवाद का मिला-जुला रूप है जिसमें गांधीवादी समाजवाद की ओर ज्यादा झुकाव है

उदारीकरण, निजीकरण एवं वैश्वीकरण की नई आर्थिक नीति(1991) ने हालांकि भारत के समाजवादी प्रतिरूप को थोड़ा लचीला बनाया है।

धर्मनिरपेक्ष

‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द को भी 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा जोड़ा गया।

जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने भी 1974 में कहा था यद्यपि ‘धर्मनिरपेक्ष राज्य’ शब्द का स्पष्ट रूप से संविधान में उल्लेख नहीं किया गया था तथापि इसमें कोई संदेह नहीं है कि संविधान निर्माता ऐसे ही राज्य की स्थापना करना चाहते थे इसलिए संशोधन में अनुच्छेद 25 – 28 ( धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार ) जोड़े गए।

भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता की सभी अवधारणाएं विद्यमान हैं अर्थात हमारे देश में सभी धर्म समान है और उन्हें सरकार का समर्थन प्राप्त है

लोकतंत्र

लोकतंत्र एक ऐसी शासन प्रणाली है जिसमें जनता को स्वेच्छा से मत करने का अधिकार होता है और अपने उम्मीदवार को मत देकर अपना प्रतिनिधि चुन सकती है, तथा उसे विधायिका का सदस्य बना सकती है। सही अर्थों में लोकतंत्र को परिभाषित किया जाए तो जनता का, जनता के द्वारा तथा जनता के लिए शासन है। लोकतंत्र में सभी व्यक्ति को समान अधिकार प्राप्त होते हैं

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में एक लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था की परिकल्पना की गई है यह प्रचलित संप्रभुता के सिद्धांत पर आधारित है अर्थात सर्वोच्च शक्ति जनता के हाथ में हो।

लोकतंत्र दो प्रकार का होता है

(1) प्रत्यक्ष

(2) अप्रत्यक्ष

(1) प्रत्यक्ष

प्रत्यक्ष लोकतंत्र में लोग अपनी शक्ति का इस्तेमाल प्रत्यक्ष रूप से करते हैं इस लोकतंत्र में नीतिगत फैसलों पर उस देश के नागरिकों द्वारा सीधा मतदान किया जाता है इसमें जनता किसी भी नीति निर्धारण में प्रत्यक्ष रूप से भागीदारी करती है इसमें कोई प्रतिनिधि या मध्यस्थ नहीं होता जैसे- स्विजरलैंड।

प्रत्यक्ष लोकतंत्र के चार प्रमुख औजार हैं:-

(1) परिपृच्छा (Referendum)

(2) प्रत्यावर्तन या प्रत्याशी को वापस बुलाना (Recall)

(3) पहल (Initiative)

(4) जनमत संग्रह (Plebiscibe)

(2) अप्रत्यक्ष

अप्रत्यक्ष लोकतंत्र में लोगों के द्वारा अपने प्रतिनिधि का चुनाव किया जाता है और चुने गए प्रतिनिधि सर्वोच्च शक्ति का इस्तेमाल करते हैं और कानूनों का निर्माण करते हैं और इन जनता के द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों के द्वारा सरकार के अन्य प्रतिनिधियों का चयन करने की शक्ति रखते हैं जैसे- राष्ट्रपति का चयन, इस प्रकार के लोकतंत्र को प्रतिनिधि लोकतंत्र भी कहा जाता है

यह दो प्रकार का होता है

(1) संसदीय (2) राष्ट्रपति के अधीन

भारतीय संविधान में प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था है जिसमें कार्यकारिणी अपनी सभी नीतियों और कार्यों के लिए विधायिका के प्रति जवाबदेह है वयस्क मताधिकार, सामयिक चुनाव, कानून की सर्वोच्चता, न्यायपालिका की स्वतंत्रता व भेदभाव का अभाव भारतीय राज व्यवस्था के लोकतांत्रिक लक्षण के स्वरूप हैं

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में लोकतांत्रिक शब्द का इस्तेमाल बृहद रूप में किया है जिसमें न केवल राजनीतिक लोकतंत्र बल्कि सामाजिक व आर्थिक लोकतंत्र को भी शामिल किया गया है

भारतीय संविधान की प्रस्तावना
डॉ भीमराव अंबेडकर/भारतीय संसद

इस संदर्भ में डॉ भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा में दिए गए अपने समापन भाषण में जोर देते हुए कहा था ” राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थाई नहीं बन सकता जब तक कि उसके मूल में सामाजिक लोकतंत्र नहीं हो। इसका अर्थ है- वह जीवनशैली जो स्वाधीनता, समानता तथा भ्रातृत्व को मान्यता देती हो। स्वाधीनता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धांतों को अलग से एक त्रयी के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए ये आपस में मिलकर एक त्रयी की रचना इस अर्थ में करते हैं कि यदि इनमें से एक को भी अलग कर दिया जाए तो लोकतंत्र ही पराजित हो जाता है स्वाधीनता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता और समानता को स्वाधीनता से अलग नहीं किया जा सकता उसी प्रकार स्वाधीनता और समानता को भ्रातृत्व या बंधुत्व से भी अलग नहीं किया जा सकता समानता के अभाव में स्वाधीनता से कुछ का आधिपत्य अनेक पर स्थापित होने की स्थिति बनेगी समानता बिना स्वाधीनता के वैयक्तिक पहल अथवा उद्यम को समाप्त कर देगी”

इसी संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय ने 1997 में व्यवस्था दी- ” संविधान एक समत्वपूर्ण सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का लक्ष्य रखता है जिससे कि प्रत्येक नागरिक को भारत गणराज्य के सामाजिक सर्वआर्थिक लोकतंत्र में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्रदान किया जा सके।”

गणतंत्र

एक लोकतांत्रिक राज्य व्यवस्था को दो वर्गों में बांटा जा सकता है

(1) राजशाही (2) गणतंत्र

राजशाही व्यवस्था में राज्य का प्रमुख ( राजा या रानी ) उत्तराधिकारिता के माध्यम से पद पर आसीन होता है जैसा- ब्रिटेन।

वहीं गणतंत्र में राज्य प्रमुख हमेशा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से एक निश्चित समय के लिए चुनकर आता है जैसे- अमेरिका।

गणतंत्र शासन की एक ऐसी प्रणाली है जिसमें राष्ट्र के मामलों को सार्वजनिक माना जाता है। यह किसी शासक की निजी संपत्ति नहीं होती है। राष्ट्र का मुखिया वंशानुगत नहीं होता है। उसको प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जनता द्वारा निर्वाचित या नियुक्त किया जाता है।

आधुनिक अर्थो में गणतंत्र से आशय सरकार के उस रूप से है जहां राष्ट्र का मुखिया राजा नहीं होता है। वर्तमान में दुनिया के 206 संप्रभु राष्ट्रों में से 135 देश आधिकारिक रूप से अपने नाम के साथ ‘रिपब्लिक’ शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। भारत, अमेरिका, फ्रांस और रूस जैसे आधुनिक गणतंत्रों में कार्यपालिका को संविधान और जनता के निर्वाचन अधिकार द्वारा वैधता प्रदान की गई है।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना में गणतंत्र का अर्थ यह है कि भारत का प्रमुख अर्थात राष्ट्रपति चुनाव के जरिए सत्ता में आता है उसका चुनाव 5 वर्ष के लिए अप्रत्यक्ष रूप से किया जाता है

गणतंत्र के अर्थ में दो और बातें शामिल हैं पहली यह कि राजनैतिक संप्रभुता किसी एक व्यक्ति जैसे राजा के हाथ में होने के बजाए लोगों के हाथ में होती है और दूसरी किसी भी विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग की अनुपस्थिति। इसलिए हर सार्वजनिक कार्यालय बगैर किसी भेदभाव के प्रत्येक नागरिक के लिए खुला होगा

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न्याय

भारतीय संविधान के प्रस्तावना में न्याय तीन भिन्न रूपों में शामिल है- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक। इनकी सुरक्षा मौलिक अधिकार व नीति निर्देशक सिद्धांतों के विभिन्न उप बंधुओं के जरिए की जाती है

सामाजिक न्याय का अर्थ है- हर व्यक्ति के साथ जाति, रंग, धर्म, लिंग के आधार पर बिना भेदभाव किए समान व्यवहार। इसका मतलब है समाज में किसी वर्ग विशेष के लिए विशेष अधिकारों की अनुपस्थिति और अनुसूचित जाति, जनजाति, अन्य पिछड़े वर्ग तथा महिलाओं की स्थिति में सुधार

आर्थिक न्याय का अर्थ है- आर्थिक कारणों के आधार पर किसी भी व्यक्ति से भेदभाव नहीं किया जाएगा। इसमें संपदा, आय व संपत्ति की असमानता को दूर करना भी शामिल है सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय का मिलाजुला रूप अनुपाती न्याय को परिलक्षित करता है

राजनीतिक न्याय का अर्थ है- कि हर व्यक्ति को समान राजनीतिक अधिकार प्राप्त होंगे चाहे वह राजनीतिक दफ्तरों में प्रवेश की बात हो अथवा अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का अधिकार।

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के इन तत्वों को 1917 की रूसी क्रांति से लिया गया है

स्वतंत्रता

स्वतंत्रता का अर्थ है- लोगों की गतिविधियों पर किसी प्रकार की रोक-टोक की अनुपस्थिति तथा साथ ही व्यक्ति के विकास के लिए अवसर प्रदान करना है

प्रस्तावना हर व्यक्ति के लिए मौलिक अधिकारों के जरिए अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म की उपासना की स्वतंत्रता सुरक्षित है इनके हनन के मामले में कानून का दरवाजा खटखटाया जा सकता है जैसा की प्रस्तावना में कहा गया है कि भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था को सफलतापूर्वक चलाने के लिए स्वतंत्रता परम आवश्यक है हालांकि स्वतंत्रता का अभिप्राय यह नहीं है कि हर व्यक्ति को कुछ भी करने का छूट मिल गया हो स्वतंत्रता के अधिकार का इस्तेमाल संविधान में लिखी सीमाओं के भीतर ही किया जा सकता है

संक्षेप में कहा जाए तो प्रस्तावना में प्रदान स्वतंत्रता एवं मौलिक अधिकार शर्तरहित नहीं है

हमारी प्रस्तावना में स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के आदर्शों को फ्रांस की क्रांति ( 1789- 1799ई ) से लिया गया है

समता

समता का अर्थ है- समाज के किसी भी वर्ग के लिए विशेषाधिकार की अनुपस्थिति और बिना किसी भेदभाव के हर व्यक्ति को समान अवसर प्रदान करने के उपबंध।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना हर नागरिक को स्थिति और अवसर की समता प्रदान करती है

इस उपबंध में समता के तीन आयाम शामिल हैं

(1) नागरिक (2) राजनीतिक (3) आर्थिक

भारतीय संविधान के अनुसार भारतीय नागरिकों को मौलिक अधिकारों के रूप में समता/समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14 से 18 तक) प्राप्त है

अनुच्छेद 14⇒ विधि के समक्ष समानता।

अनुच्छेद 15⇒ धर्म, वंश, जाति, लिंग और जन्म स्थान आदि के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा।

अनुच्छेद 16⇒ लोक नियोजन के विषय में अवसर की समानता।

अनुच्छेद 17⇒ छुआछूत (अस्पृश्यता) का अन्त

अनुच्छेद 18⇒ उपाधियों का अन्त

अब केवल दो तरह कि उपाधियाँ मान्य हैं- अनु.18(1) राज्य सेना द्वारा दी गयी उपाधि व विद्या द्वारा अर्जित उपाधि। इसके अतिरिक्त अन्य उपाधियाँ वर्जित हैं। वहीं, अनु. 18(2) द्वारा निर्देश है कि भारत का नागरिक विदेशी राज्य से कोइ उपाधि नहीं लेगा।

भारतीय संविधान में दो ऐसे उपबंध हैं जो राजनीतिक समता को सुनिश्चित करते प्रतीत होते हैं-

(1) धर्म, जाति, लिंग अथवा वर्ग के आधार पर किसी व्यक्ति को मतदाता सूची में शामिल होने के अयोग्य करार नहीं दिया जाएगा ( अनुच्छेद- 325 )

(2) लोकसभा और विधानसभाओं के लिए वयस्क मतदान का प्रावधान है ( अनुच्छेद- 326 )

राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत ( अनुच्छेद- 39) महिला तथा पुरुष को जीवन यापन के लिए पर्याप्त साधन और समान काम के लिए समान वेतन के अधिकार को सुरक्षित करते हैं

बंधुत्व

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बंधुत्व का अर्थ है- भाईचारे की भावना। संविधान एकल नागरिकता के एक तंत्र के माध्यम से भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करता है

मौलिक कर्तव्य (अनुच्छेद 51 क ) भी कहता है कि यह हर भारतीय नागरिक का कर्तव्य होगा कि वह धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय अथवा वर्ग विविधताओं से ऊपर उठ सौहार्द और आपसी भाईचारे की भावना को प्रोत्साहित करेगा

भारतीय संविधान की प्रस्तावना कहती है कि बंधुत्व में दो बातों को सुनिश्चित करना होगा:-

(1) एकता का सम्मान

(2) देश की एकता और अखंडता

अखंडता शब्द को 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया

संविधान सभा की प्रारूप समिति के एक सदस्य के• एम• मुंशी के अनुसार “व्यक्ति के गौरव” का अर्थ यह है कि संविधान न केवल वास्तविक रूप में भालाई तथा लोकतांत्रिक तंत्र की मौजूदगी सुरक्षित करता है बल्कि यह भी मानता है कि हर व्यक्ति का व्यक्तित्व पवित्र है इस पर किसी व्यक्ति के गौरव को सुनिश्चित करने वाले मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्वों को कुछ प्रावधान बल देते हैं

इसके अलावा मौलिक कर्तव्य (51-क) में कहा गया है कि भारत के हर नागरिक को यह जिम्मेदारी होगी कि वह स्त्री के गौरव को ठेस पहुंचाने वाली किसी भी हरकत का त्याग करे और भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे

“देश की एकता और अखंडता” पद में राष्ट्रीय अखंडता के दोनों मनोवैज्ञानिक और सीमाई आयाम शामिल हैं

संविधान के अनुच्छेद-1 में भारत का वर्णन “राज्यों के संघ” के रूप में किया गया है ताकि यह बात स्पष्ट हो जाए कि राज्यों को संघ से अलग होने का कोई अधिकार नहीं है इससे भारतीय संघ की बदली न जा सकने वाली प्राकृति का परिलक्षण होता है इसका उद्देश्य राष्ट्रीय अखंडता के लिए बाधक, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, जातिवाद, भाषावाद, इत्यादि जैसी बाधाओं पर पार पाना है

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