Political science

भारतीय संविधान के प्रस्तावना का महत्व और विवाद

प्रस्तावना भारतीय संविधान का अति महत्वपूर्ण भाग है यह हमारे संविधान का सार है प्रस्तावना के द्वारा भी हम हमारे संविधान को समझ सकते हैं लेकिन इसके बावजूद यह विवादों में रहा की यह संविधान का एक भाग है या नहीं?

भारतीय संविधान के प्रस्तावना में उस आधारभूत दर्शन और राजनीतिक, धार्मिक व नैतिक मौलिक मूल्यों का उल्लेख है जो हमारे संविधान के आधार हैं इसमें संविधान सभा की महान और आदर्श सोच उल्लेखित है

इसके अलावा यह संविधान की नींव रखने वालों के सपनों और अभिलाषाओं का परिलक्षण करती है संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संविधान सभा के अध्यक्ष सर अल्लादी कृष्ण स्वामी अय्यर के शब्दों में- “संविधान की प्रस्तावना हमारे दीर्घकालीन सपनों का विचार है”

संविधान सभा की प्रारूप समिति के सदस्य के एम मुंशी के अनुसार प्रस्तावना “हमारी संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य का भविष्यफल है”

संविधान सभा के एक अन्य सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने संविधान की प्रस्तावना के संबंध में कहा “प्रस्तावना संविधान का सबसे सम्मानित भाग है यह संविधान की आत्मा है यह संविधान की कुंजी है यह संविधान का आभूषण है यह एक उचित स्थान है जहां से कोई भी संविधान का मूल्यांकन कर सकता है”

सुप्रसिद्ध अंग्रेज राजनीति शास्त्री सर अर्नेस्ट वार्कर संविधान की प्रस्तावना लिखने वालों को राजनीतिक बुद्धिजीवी कहकर अपना सम्मान देते हैं वह प्रस्तावना को संविधान का ‘कुंजी नोट’ कहते हैं वह प्रस्तावना के पाठ से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “प्रिंसिपल्स ऑफ सोशल एंड पोलिटिकल थ्योरी” ( 1951 ) की शुरुआत में इसका उल्लेख किया है

भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एम• हिदायतुल्लाह मानते हैं, “प्रस्तावना अमेरिका की स्वतंत्रता की घोषणा के समान है लेकिन यह एक घोषणा से भी ज्यादा है यह हमारे संविधान की आत्मा है जिसमें हमारे राजनीतिक समाज के तौर तरीकों को दर्शाया गया है इसमें गंभीर संकल्प शामिल है जिन्हें एक क्रांति ही परिवर्तित कर सकती है”

भारतीय संविधान के प्रस्तावना

 

क्या प्रस्तावना को भारतीय संविधान की एक भाग के रूप में देखा जाना चाहिए?

कई बुद्धिजीवीयों के द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना को लेकर हमेशा यह विवाद रहा है कि यह संविधान का एक हिस्सा है या नहीं ? जिससे सम्बंधित कई मामले उच्चतम न्यायालय में आए जिस पर सुनवाई करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा:-

बेरूबाड़ी संघ मामला ( 1960 )

बेरूबाड़ी संघ मामला भारत-पाकिस्तान सीमा विवाद से संबंधित मामला था थोड़े शब्दों में हम जानेंगे की भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय सीमा निर्धारण का कार्य सर रेडक्लिफ को सौंपा गया था जिसमें कई अनियमितताएं थी बेरूबाड़ी एक जगह का नाम है जहां यह विवाद उत्पन्न हुई थी।

इस अनियमितता को लेकर भारत के राष्ट्रपति के द्वारा उच्चतम न्यायालय से परामर्श लिया गया (अनुच्छेद 143 के तहत) जिसमें उच्चतम न्यायालय ने अपने परामर्श में कहा की प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और प्रस्तावना सरकार को कोई ऐसी ताकत नहीं देती है कि इस प्रकार के कार्य को कार्यान्वित करें।

भारतीय संविधान के प्रस्तावना में निहित लोकतांत्रिक गणराज्य* और संप्रभुता* शब्द सरकार को यह अधिकार नहीं देता था कि वह किसी राज्य के भूभाग को किसी और देश को दे सके जिसके कारण भी यह भूमि विवाद का सुलझना संभव नहीं था जिस कारण उच्चतम न्यायालय ने अपने परामर्श में कहा की प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और ये सरकार को किसी भी प्रकार की कोई शक्ति नहीं देती।और इस भूमि विवाद को सुलझा लिया गया

बेरूबाड़ी संघ मामला के संदर्भ में:-

(लोकतांत्रिक गणराज्य:- लोकतंत्र में जनता के द्वारा सरकार चुनी जाती है अर्थात सरकार को जनता से शक्ति मिलती है और सरकार उसी शक्ति का इस्तेमाल करके जनता को दूसरे देश को नहीं सौंप सकती थी)

(संप्रभुता- संप्रभुता शब्द का अर्थ है कि भारत अपने आप में संपन्न है और कोई बाहरी ताकत भारत की एकता और अखंडता को नुकसान नहीं पहुंचा सकती। भारत के अंदरूनी मामले में कोई बाहरी देश हस्तक्षेप नहीं कर सकता। भारत इसी संप्रभुता का इस्तेमाल करके अपने क्षेत्र को किसी और को दे नहीं सकता था)

केशवानंद भारती मामला (1973)

केशवानंद भारती मामला वो मामला है जिसमें केशवानंद भारती और केरल राज्य के बीच भूमि अधिग्रहण विवाद को लेकर कानूनी लड़ाई लड़ी गई केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य के मामले में 68 दिन तक सुनवाई हुई यह सुनवाई 31 अक्टूबर 1972 को शुरू होकर 23 मार्च 1973 को खत्म हुई।

24 अप्रैल 1973 को उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में अपना फैसला सुनाया और बेरूबाड़ी संघ मामले में जो फैसला सुनाया गया था उसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि प्रस्तावना संविधान का अति महत्वपूर्ण भाग है और संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित महान आदर्शों को ध्यान में रखकर संविधान का अध्ययन किया जाना चाहिए

1995 में केंद्र सरकार बनाम एल•आई•सी• ऑफ इंडिया के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर यह माना कि प्रस्तावना संविधान का एक अभिन्न अंग और संविधान का आंतरिक भाग है

हमारे संविधान के निर्माण के समय संविधान सभा के द्वारा संविधान के अन्य हिस्सों को पहले बनाया गया था और अंत में प्रस्तावना को शामिल किए जाने के कारण यह प्रश्न सामने आया कि क्या प्रस्तावना संविधान का भाग है?

उपरोक्त मामलों के फैसलों से हमें पता चलता है कि अनन्तः उच्चतम न्यायालय ने प्रस्तावना को संविधान का भाग माना, और संविधान के निर्माताओं ने भी यही सुझाव दिया था

अनन्तः उच्चतम न्यायालय के फैसले से दो बातें अति महत्वपूर्ण हो गया कि:-

  • प्रस्तावना में कोई ऐसी ताकत नहीं है जो कानून बनाने वाले को(विधायिका) ताकत दे सके और न ही कानून बनाने वाले (विधायिका) के शक्तियों पर रोक लगा सके
  •  प्रस्तावना में निहित व्यवस्थाओं को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती

हिंदी भाषा का उद्भव और विकास

क्या प्रस्तावना में संशोधन संभव है?

अब सामने प्रश्न यह उठता है कि संविधान की धारा 368 के तहत संशोधन संभव है या नहीं?

सर्वप्रथम यह प्रश्न केशवानंद मामले (1973) में आया था कि प्रस्तावना में संशोधन संभव है या नहीं। याचिकाकर्ता के अनुसार- संविधान के मूल तत्व एवं मूल विशेषताएं जो प्रस्तावना में वर्णित है उसे परिवर्तित या खत्म करने वाला संशोधन अनुच्छेद 368 के माध्यम से नहीं किया जा सकता

जबकि उच्चतम न्यायालय ने बेरूबाड़ी संघ मामला (1960) के फैसले में कहा था कि प्रस्तावना को संशोधित किया जा सकता है बशर्ते मूल ढांचा में संशोधन ना की जाए

अब तक प्रस्तावना को केवल एक बार 42वें संविधान संशोधन अधिनियम 1976 के तहत संशोधन किया गया है जिसके जरिए तीन शब्द जोड़े गए- समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष एवं अखंडता।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि प्रस्तावना संविधान का एक अति महत्वपूर्ण हिस्सा है साथ ही न्यायालय हमें यह ताकत देती है कि अनुच्छेद 368 के तहत प्रस्तावना में संशोधन के लिए याचिका दायर कर सकते हैं परंतु प्रस्तावना के मूल ढांचा को देखते हुए कि कहीं इस संशोधन से मूल ढांचा को कोई नुकसान न पहुंचे

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