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अपभ्रंश भाषा किसे कहते हैं? | अपभ्रंश साहित्य का इतिहास | hindi bhasha ka udbhav aur vikas

अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ ‘भ्रष्ट भाषा’ या ‘बिगड़ी हुई भाषा’ है कालक्रम की दृष्टि से अपभ्रंश भाषा का काल 500 ई• – 1000 ई• तक है यह मध्यकालीन आर्य भाषा की अंतिम अवस्था थी। पतंजलि, हेमचंद्र, दंडी आदि भाषा शास्त्री की परिभाषाओं के अनुसार जिस भाषा के शब्द संस्कृत के मानक शब्दों से विकृत हो उसे ही ‘भ्रष्ट भाषा’ या ‘अपभ्रंश’ कहा जाता है

तथाकथित असंस्कृत विदेशी जातियां, गुर्जर, अमीर, जाट आदि जो पश्चिम भारत में बस गई थी उनकी भाषा को अपभ्रंश भाषा समझा जाता था धीरे-धीरे उन पर शौरसेनी प्राकृत का गहरा प्रभाव पड़ा जिससे अपभ्रंश भाषा का विस्तार हुआ और यह राजभाषा ही नहीं साहित्यिक भाषा और देश की भाषा भी बन गई। 7वीं सदी से 11वीं सदी के मध्य यह साहित्यिक भाषा के रूप में आसीन रही।

अपभ्रंश किसे कहते हैं

अपभ्रंश प्राकृत कालीन जन भाषाओं या लोक भाषाओं का एक विकसित रूप है। इसे अव्बभ्रंश भी कहा जाता है। 500 ईस्वी से 1200 इस्वी के बीच उत्तरी भारत की साहित्यिक रचनाओं में इसके प्रमाण मिलते हैं। भारत में भाषा का विकास संस्कृत, प्राकृत और फिर अपभ्रंश भाषा का समय आता है। इन सभी भाषाओं में दो तरह की भाषा का प्रयोग किया गया। पहला जिसे लोगों के शिष्ट लोक व्यवहार में प्रयोग होता था और दूसरा वह भाषा जिसे जनक भाषा के रूप में स्वीकृति मिली थी।

अपभ्रंश का उल्लेख भाषा विशेष के रूप में न होकर तत्सम शब्दों के विकृत रूप में किया गया है। इसी का प्रयोग धीरे-धीरे बहुत अधिक बढ़ जाने के कारण यह भाषा ‘अपभ्रंश या अपभ्रष्ट’ कही जाने लगी। इस लोक व्यवहार में भाषा का प्रयोग करने वाले अपभ्रंश के विकसित रूप का प्रयोग करते हैं और पूर्ववर्ती कवियों ने इसे अपभ्रष्ट कहा है लेकिन भाषा परिवर्तित होकर विकसित होता है बिगड़ता नहीं है।

लोग जब इसे बढ़कर इस्तेमाल करने लगे तो इसे अपभ्रंश भाषा कहा गया। व्याडि, पतंजलि, दंडी, भर्तृहरि और कैयट ने अपभ्रंश भाषा का उल्लेख अपने रचना में किया है। भरतमुनि ने भी अपने नाट्यशास्त्र में अपभ्रंश भाषा की कुछ छंदों का वर्णन किया है। कालिदास के ‘विक्रमोर्य वशियम’ में भी अपभ्रंश के छंद का उल्लेख है। उद्योतन सूरि की ‘कुवलयमाला कहा’ मे भी अपभ्रंश भाषा के कुछ उदाहरण मिलते हैं जो कि अपभ्रंश का प्राचीनतम उदाहरण है।

अपभ्रंश भाषा का नामकरण

अपभ्रंश के कवियों ने अपनी भाषा को ‘भाषा’/’देसी भाषा’ या ‘गामेल्ल’ भाषा अर्थात गांव की भाषा कहा है। संस्कृत के ग्रंथों में अपभ्रंश भाषा को अपभ्रंश या अपभ्रष्ट भाषा कहा गया है। अतः हम कह सकते हैं कि ‘अपभ्रंश’ नाम संस्कृत के विद्वानों ने दिया है लेकिन यह नाम तिरस्कार का सूचक माना जाता है।

महाकाव्यकार पतंजलि ने संस्कृत के लोक प्रचालित शब्दों अथवा विकृत शब्दों को अपभ्रंश की संज्ञा दी यही नाम आगे चलकर पूरी भाषा के लिए मान्य हो गई।

आचार्य दण्डी के अनुसार व्याकरण शास्त्र में संस्कृत से ईतर शब्दों को अपभ्रंश कहा जाता है। इस प्रकार देखा जाए तो पाली, प्राकृत, अपभ्रंश सभी के शब्द अपभ्रंश की संज्ञा के अंतर्गत आते हैं फिर भी पाली और प्राकृत को अपभ्रंश नाम नहीं दिया गया।

भरतमुनि (नाट्यशास्त्र के प्रणेता) ने अमीरों की बोली को अपभ्रंश कहा है इन्होंने अपभ्रंश के लिए विभ्रष्ट शब्द का प्रयोग किया है।

काव्यालंकार के टीकाकार ‘नमिसाधु’ ने अपभ्रंश को प्राकृत कहा है वही भामह, दण्डी आदि अपभ्रंश को प्राकृतिक से भिन्न बताते हैं।

भविष्यतकहा के टीकाकार ‘याकोगी’ के अनुसार शब्द समूह की दृष्टि से अपभ्रंश को प्राकृतिक के निकट मानते हैं और व्याकरण की दृष्टि से प्राकृतिक से भिन्न मानते हैं।

सर्वप्रथम ‘अपभ्रंश’ नाम वलभी के राजा धारसेन द्वितीय के शिलालेख से प्राप्त होता है जिसमें उसने अपने पिता गुहासेन को संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश का कवि कहा है।

आचार्य किशोरी दास वाजपेयी ने अपभ्रंश को ण-ण भाषा कहते हैं।

दण्डी ने ‘काव्यादर्श’ में अपभ्रंश को ‘आभीर’ कहा है।

विद्वानों द्वारा अपभ्रंश भाषा को विभ्रष्ट, आभीर, अवहंस, अवहटट्, परमंजरी, अवहत्थ, औहट, अवहट आदि नाम भी दिए गए हैं।

डॉ हरदेव ने 7वीं से 11वीं शताब्दी को अपभ्रंश का स्वर्ण काल कहा है।

अवहट अपभ्रंश का ही परवर्ती रूप है।

अपभ्रंश के प्रकार

अपभ्रंश के विविध रूप हमें देखने को मिलते हैं:- नागर, उपनागर, ग्राम्य, ब्राचड़, पंचाली, वैदर्भी, लाती, गौड़ी, शौरसेनी आदि।

अपभ्रंश के विविध रूप

विद्वानों ने अपभ्रंश  के निम्नलिखित रूप बताए हैं:-

नमी साधु के अनुसार अपभ्रंश के तीन भेद हैं:-

  1. उपनागर
  2. आमीर
  3. ग्राम्य

 मार्कण्डेय के अनुसार भी अपभ्रंश के तीन भेद हैं:-

  1.  नागर
  2.  उपनागर
  3. ब्राचड़

 डॉ नाभवर सिंह दो भेद बताते हैं:-

  1. पश्चिमी
  2. पूर्वी

 डॉ भोलानाथ तिवारी ने अपभ्रंश के सात भेद बताए हैं:-

  1. शौरसेनी (पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी और गुजराती)
  2. पैशाची (पंजाबी,लहंदा)
  3. ब्राचड़ (सिंधी)
  4. मागधी (बिहारी)
  5. महाराष्ट्री (मराठी)
  6. अर्धमागधी (पूर्वी हिंदी)
  7. खस (पहाड़ी)

अलग-अलग विद्वानों ने नागर, उपनागर, ग्राम्य, ब्राचड़, पंचाली, वैदर्भी, लाती, गौड़ी, शौरसेनी आदि अपभ्रंशों का उल्लेख किया है।

अतः हम कह सकते हैं कि अपभ्रंश के सात भेद हैं:-

  1. शौरसेनी (पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी और गुजराती)
  2. पैशाची (पंजाबी)
  3. ब्राचड़ (सिंधी)
  4. मागधी (बिहारी)
  5. महाराष्ट्री (मराठी)
  6. अर्धमागधी (पूर्वी हिंदी)
  7. खस (पहाड़ी)

अपभ्रंश भाषा

अध्ययन के स्रोत

अपभ्रंश भाषा की पहचान के लिए अध्ययन स्रोत:-

  1. कुछ शिलालेख, कुछ साहित्यिक रचनाएं
  2. 8वीं सदी में सिद्ध साहित्य
  3. बौद्ध, जैन, रासो साहित्य में (महापुराण, जसहर चरित, नाथ कुमार चरित, जिनदत्त कहा, भविष्यत कहा, पाहुड़ दोहा)
  4. कालिदास के नाटक में निम्न वर्ग के पात्रों के लिए अपभ्रंश भाषा का प्रयोग।

अपभ्रंश साहित्य का इतिहास

भारत में आर्य भाषाओं के उद्भव से पूर्व उत्तरी भारत में अपभ्रंश भाषा, साहित्यिक रचना एवं बोलचाल की जीवंत भाषा हुआ करती थी। देखा जाए तो अपभ्रंश भाषा, भारतीय आर्य भाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था थी। जो प्राकृत और आधुनिक आर्य भाषाओं के बीच की स्थिति है।

भारतीय आर्य भाषा को तीन भागों में बांटा गया है:-

अपभ्रंश भाषा

अर्थात अपभ्रंश भाषा का जो काल है वह मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा का अंतिम काल था जिसका समय 500 ईस्वी से 1000 ईस्वी था। मध्यकाल में लोक भाषा का विकास हुआ और इस लोक भाषा का विकास तीन काल खंडों में हुआ:- (1) पाली (500 ईसा पूर्व-1 ईस्वी) (2) प्राकृत (1 ईस्वी-500 ईस्वी) (3) अपभ्रंश (500 ईस्वी-1000 ईस्वी)।

अपभ्रंश

मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा के काल में तीन लोक भाषा का विकास हुआ उसमें पहला था- पाली। इस समय संस्कृत भाषा बोलचाल की भाषा बनते-बनते काफी परिवर्तित हुआ इसी परिवर्तित रूप को ‘पाली’ नाम दिया गया। इसे भारत की प्रथम देश भाषा भी कहा गया। मगध प्रांत में उत्पन्न होने के कारण इसे मागधी भी कहा जाता है।

इस काल में बौद्ध धर्म का बहुत जोरों से प्रचार-प्रसार था। बौद्ध ग्रंथों में पाली भाषा का उपयोग किया गया है। बौद्ध ग्रंथों में हमें पाली भाषा का शिष्ट और मानक रूप देखने को मिलता है।

मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा के काल में क्षेत्रीय बोलियां जो प्राचीन भारतीय आर्य भाषा के काल में तीन थी अब चार हो गई जैसे:- पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय, पूर्वी बोलियां तथा दक्षिणी बोलियां।

इसके बाद हमें प्राकृत भाषा (1 ईस्वी-500 ईस्वी) का कालखंड देखने को मिलता है। इस समय बोलचाल की भाषा में परिवर्तन आया और इस परिवर्तित भाषा को प्राकृत भाषा कहा गया। यह असंस्कृत भाषा थी। इस समय पाँच क्षेत्रीय बोलियां थी जैसे:-

  1. शौरसेनी भाषा जो मथुरा के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती थी।
  2. पैशाची जो सिंध के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती थी।
  3. महाराष्ट्री जो महाराष्ट्र और विदर्भ के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती थी।
  4. मागधी जो मगध के आसपास के क्षेत्रों में बोली जाती थी।
  5. अर्धमागधी जो कोशल प्रदेश की भाषा तथा जैनों की साहित्य में प्रयोग की जाने वाली भाषा थी।

अब हमें मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा का तीसरा एवं अंतिम कालखंड देखने को मिलता है जो है अपभ्रंश भाषा का काल। इसका समय 500 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक रहा।

भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि अपभ्रंश भारतीय आर्य भाषा के मध्यकाल की अंतिम अवस्था है जो प्राकृतिक और आधुनिक भाषा के मध्य की स्थिति है अपभ्रंश भाषा का विकास मध्य देश में हुआ।

यह भी पढ़ें:- हिंदी भाषा का उद्भव और विकास

अपभ्रंश भाषा की विशेषताएं

अपभ्रंश भाषा की निम्नलिखित भाषा संबंधी विशेषताएँ है:-

(1) स्वर:-

  • ह्रस्व स्वर- अ, इ, उ, ए, ओ
  • दीर्घ स्वर- आ, ई, ऊ, ए, ओ (ऐ व औ का पाली में लोप)

(2) ‘ॠ’ का प्रयोग नहीं मिलता है, उच्चारण ‘रि’ तत्सम का प्रयोग चलता रहा। रूपांतरण अ, इ, उ, ए। जैसे:- कृष्ण – कण्ह, मृत्यु – मितु, ॠण – रिण।

(3) उकार बहुलता:- भाषा में उकार की बहुलता मिलती है जैसे:- मन – मनु, चल – चलु, अंग – अंगु

(4) अनुनासिकता:-

अनुनासिकता के संबंध में तीन तरह की प्रवृतियाँ हैं:-

  • कहीं-कहीं स्वरों के अनुनासिक रूप विकसित। जैसे:- चलहि -चलहिं, पक्षी – पंखि
  • कुछ अनुनासिक शब्द अनुनासिकता रहित। जैसे:- सिंह – सीह, विंशति – वीस
  • अकारण अनुनासिक। जैसे:- अक्षु -अंसु, वक्र – वंक

(5) स्वर भक्ति:- प्रदेश – परदेश, क्रिया – किरिया

(6) स्वर्ग लोप:- अरण्य – रण, लज्जा – लाज

(7) व्यंजनमाला:- व्यंजनमाला में ङ, ञ, न,श, ष का अभाव। ‘ट’ वर्ग प्रधान भाषा

(8) अंत्य व्यंजन लुप्त भाषा:- जगत – जग, महान – महा

(9) संयुक्त व्यंजन समाप्त:- य, र, ल, व समाप्त। जैसे:- चक्र – चक्क, धर्म – धम्म, कर्म – कम्म

(10) तत्सम, तद्भव, देशज-विदेशज सभी प्रकार के शब्द मिलते हैं तद्भव की संख्या सर्वाधिक है तुर्कों के आगमन से विदेशी शब्दों के प्रयोग होने लगे

(11) दो ही वचन:- एकवचन और बहुवचन। द्विवचन शब्द लुप्त हो गए इसके लिए ‘दुई’ शब्द का प्रयोग हुआ। जैसे:- दुई – धनु

अंततः यह भाषा अपनी पृथक भाषायी पहचान के साथ-साथ समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक अनुभवओं को व्यक्त करती है।

अपभ्रंश साहित्य

अपभ्रंश भाषा मूलतः पश्चिम भारत की बोली से विकसित एक साहित्यिक भाषा थी जो पश्चिम भारत में प्रचलित और लोकप्रिय होकर पूरे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा बन गई। इस काल के कई रचनाएं हमें देखने को मिलती है जैसे:- स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, हेमचंद्र आदि की परिनिष्ठित अपभ्रंश रचनाएं एवं दूसरी ओर सरहपा, कण्हपा आदि बौद्ध सिद्धों की रचनाएं।

आधुनिक भाषा के निर्माण में अपभ्रंश की बहुत बड़ी भूमिका थी। जैसे:- शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी और गुजराती भाषा की उत्पत्ति हुई। महाराष्ट्री से मराठी भाषा, अर्धमागधी से पूर्वी हिंदी की भाषा, मागधी अपभ्रंश से भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला, उड़िया। असमिया की पैशाची अपभ्रंश से पंजाबी, लहंदा तथा ब्राचड़ अपभ्रंश से सिंधी भाषा की उत्पत्ति हुई।

इन छः अपभ्रंश भाषा से भारत की आधुनिक भाषाओं की उत्पत्ति हुई। विद्यापति जी ने अपनी रचना अवहट्ट भाषा से किया यह अवहट्ट एक अपभ्रंश भाषा ही थी।  आदिकालीन साहित्य का अपभ्रंश से संबंध है।

हिंदी साहित्य काल का आदि काल में हुए रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में ही हुई। इस समय के रचनाओं में जैन धर्म और बौद्ध धर्म के प्रभाव में रचनाएं हुई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में कहते हैं कि- “जब प्राकृत बोलचाल की भाषा नहीं रही तभी से अपभ्रंश का आविर्भाव हुआ समझ लेना चाहिए।”

अर्थात संस्कृत का लौकिक रूप के बाद प्राकृत रूप से अलग एक नई भाषा आई और प्राकृत भाषा का उपयोग बोलचाल भाषा में नहीं रहा तब जो नई भाषा की शुरुआत हुई वह अपभ्रंश कहलाया। पहले ‘गाथा’ और ‘गाहा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था एवं बाद में ‘दोहा’ या ‘दुहा’ कहने से अपभ्रंश या लोक प्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा।

प्राकृत से बिगड़ कर जो रूप बोलचाल की भाषा में ग्रहण किया वही आगे चलकर काव्य रचना में भी प्रयोग होने लगा। प्राकृत से बिगड़ा हुआ रूप जो लोगों ने बोलचाल की भाषा में ग्रहण किया वह अपभ्रष्ट रूप बाद में बहुत ही सामर्थ रूप बन गई कि उसमें साहित्य रचना का एक युग आ गया।

जब अपभ्रंश भाषा बोल चाल की भाषा थी तब तक वह भाषा देशभाषा कहलाती थी लेकिन जब वह साहित्य की भाषा हो गई तब उसे अपभ्रंश भाषा कहा जाने लगा। अब हम अपभ्रंश साहित्य को देखेंगे:-

 

अपभ्रंश काव्य भंडार

जैन मुनियों की रचनाएं

बौद्ध सिद्धों की रचनाएं

अन्य रचनाएं

पुराण काव्य

चर्यापद

अब्दुल रहमान

चरित काव्य

दोहे

नल्लसिंह

कथा काव्य

 

विद्यापति

रास और फाग काव्य

   

उपदेश परक मुक्तक काव्य

   

 

इस समय कथानको, कथनाक रुढ़ियो, काव्यरूपों, कवि प्रसिद्धियों, छंद योजना, वर्णन शैली, वस्तुविन्यास, काव्या कौशल पर अपभ्रंश का प्रभाव देखने को मिलता है।

अपभ्रंश में तीन प्रकार के बंध मिलते हैं:- 

  1.  दोहा बंध
  2.  पदधड़िया बंध (चरित काव्य)
  3. गेय बंध (धार्मिक काव्य)

 तो आइए हम अपभ्रंश के साहित्य को विस्तार से पढ़ेंगे:-

  •  स्वयंभू- 783 ईस्वी के आस-पास के कवि (कर्नाटक के निवासी) अपभ्रंश का प्रथम कवि एवं जैन परंपरा का प्रथम कवि और डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार हिंदी के प्रथम कवि माना है इसे अपभ्रंश का वाल्मीकि और अपभ्रंश का व्यास की संज्ञा दिया गया है। डॉ भयाणी ने स्वयंभू को अपभ्रंश का कालिदास माना है। इनकी प्रमुख रचनाएं:- 
    1. पउम चरिउ (पदम चरित्र) – अपभ्रंश का आदि काव्य की संज्ञा दी जाती है। यह रामचरित काव्य है इसमें 1200 श्लोक, पांच कांड और 83 संधियां हैं। पउम चरिउ को उसके पुत्र त्रिभुवन ने पूरा किया था।
    2. रिठनेमी चरिउ – कृष्ण चरित काव्य
    3. स्वयंभू छंद
  •  पुष्पदंत- ये पहले शैव थे परंतु बाद में जैन धर्म अपना लिया। इन्होंने स्वयं को अभिमान मेरु की उपाधि दिए थे एवं काव्यकुलतिलक, काव्यरत्नाकर की संज्ञा खुद को दिए थे। शिव सिंह सेंगर और डॉ भयाणी ने इसे “अपभ्रंश का भावभूति” कहा। शिव सिंह सेंगर ने “भाषा की जड़” की उपाधि दी थी। इनकी रचनाएं:-
  1. तिरसठी महापुरिस गुणालंकार – इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें कृष्ण कथा का वर्णन मिलता है। इसमें 63 महापुरुषों का जीवन चरित्र का वर्णन है।
  2. णयकुमार चरिउ (नाग चरित)
  3. जसहर चरिउ (यशोधरा चरित)
  •  धनपाल- इसी राजा मुंज ने “सरस्वती” की उपाधि दी थी। इसकी प्रमुख रचना ‘भविष्यतकहा’ है इसमें एक साधारण वणिक पुत्र को नायकत्व प्रदान किया गया है। यह एक लौकिक काव्य है। लोक कथा के माध्यम से बहुविवाह के दुष्परिणाम और साध्वी और कुल्टा स्त्रियों में अंतर का वर्णन किया है।
  •  चतुर्मुख- हरिषेण ने अपनी रचना धर्मपरीक्खा में अपभ्रंश के तीन प्रमुख कवियों का वर्णन किया है:- स्वयंभू, पुष्पदंत और चतुर्मुख। ये पद धड़िया बंध के कवि थे।
  •  देव सेन- इसकी प्रमुख रचना “श्रावकाचार” है। जो 935 ईस्वी में लिखी गई। इसमें 250 दोहे थे। इसमें श्रावक धर्म के नियमों का संकलन किया गया था।
  • जिनदत्तसूरि- यह अपभ्रंश के प्रथम रास कवि हैं इसकी प्रमुख रचना ‘उपदेशरसायन रास’ है। तथा यह प्रथम रास काव्य है। जिसका विषय नृत्य गीत और रासलीला है।
  •  जोएंदु- अपभ्रंश में दोहा काव्य की शुरूआत इन्होंने किया था इन की प्रमुख रचना ‘परमात्मा प्रकाश’ और ‘योग सागर’ है।
  •  मुनिराम सिंह- यह जैन परंपरा के सबसे रहस्यवादी कवि थे इन्होंने ‘पाहुड़दोहा’ की रचना की।
  •  हेमचंद- गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह एवं उनके भतीजे कुमारपाल के दरबारी कवि थे। इन्होंने व्याकरण ग्रंथ की रचना की। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘शब्दानुशासन’ (व्याकरण रचना)  है। इसमें प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत तीनों भाषाओं का उल्लेख किया गया है। इसे प्राकृत का पाणिनी भी कहा जाता है। इनकी अन्य प्रमुख रचनाएं हैं:- कुमारपाल चरित, छन्दोनुशासन, प्राकृत व्याकरण, देसी नाममाला कोष और योगशास्त्र है।
  •  सोमप्रभसूरि-  इसकी प्रमुख रचना ‘कुमारपाल प्रतिबोध’ है इसे गद्य और पद्य दोनों में रचा गया है। इसमें संस्कृत और प्राकृत दोनों में रचना की गई है। बीच-बीच में संस्कृत के दोहे और अपभ्रंश के दोहे हैं।
  •  जैनाचार्य मेरुतुंग- इसने ‘प्रबंध चिंतामणि’ की रचना की। यह रचना संस्कृत में रची गई है। इनकी रचनाओं में बीच-बीच में अपभ्रंश के पद्य देखने को मिलते हैं।
  •  लक्ष्मीधर- इसकी रचना ‘प्राकृत पैंगलम’ है। इसमें शारंगधर, विद्याधर,जज्जल बब्बर आदि तत्कालीन कवियों की रचनाओं का संकलन देखने को मिलता है। इसी पुस्तक को प्राकृत पिंगलसूत्र भी कहा जाता है।
  • शारंगधर- इसकी प्रमुख रचना ‘शारंगधर पद्धति’ है। यह संस्कृत की रचना है जिसके बीच-बीच में प्राकृत का मिश्रण किया गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- ‘हम्मीर रासो’ के रचियता शारंगधर हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार- ‘हम्मीर रासो’ के रचियता जज्जल है।
  • नल्लसिंह- इसकी रचना ‘विजयपालरासो’ है।
  • विद्यापति- इसने ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ की रचना की।
  • अब्दुलरहमान (अद॒दहमान)- ‘संदेशरासक’ इन्हीं के द्वारा लिखी गई रचना है। यह अपभ्रंश भाषा की प्रथम श्रृंगार रचना और पहला धर्मेत्तर रास काव्य है। इसमें विक्रमपुर की वियोगिनी की विरह कथा का वर्णन किया गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार यह पहले मुसलमान हिंदी कवि हैं।

सिद्ध साहित्य

बौद्ध धर्म विकृत होकर वज्रयान संप्रदाय के रूप में देश के पूर्वी भाग में प्रचलित था तथा इन्हीं वज्रयानियों ने जिस साहित्य को लिखा वह सिद्ध साहित्य कहलाया।

अपभ्रंश भाषा की विशेषताएं

इन वज्रयानियों को बौद्ध सिद्ध कहा जाता है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार सिद्धों की संख्या 84 है। इसमें तीन महिला संत भी थे- कनखलता, मणिभद्रपा औरलक्ष्मीखरा। ये प्रतीकों के माध्यम से बातचीत करते थे।

सिद्ध साहित्य में चार्यपद और चर्यागीत मिलती है। साधनात्मक अवस्था में उनके मुख से जो वाणी निकलती थी उसे चर्यापद कहा जाता था। इन्होंने दोहे की भी रचना की तथा चौपाई शैली का प्रयोग भी किया।

प्रमुख सिद्ध साहित्य

सिद्धों की रचनाओं में देशभाषा मिश्रित है तथा अपभ्रंश या पुरानी हिंदी की काव्य भाषा है। इन्होंने काया साधना को स्थान दिया एवं ज्ञान की उपेक्षा की और वर्णनात्मक व्यवस्था का विरोध किया एवं साधना के केंद्र में नारी को स्थान दिया। इन्होंने पंच मकार (अर्थात मांस, मदीरा, मत्स्य, मुद्रा, मैथुन का भोग करना) को स्थान दिया।

अंतर्मुखी साधना एवं सदगुरु की महिमा पर जोर दिया सामाजिक खंडन भवन की प्रवृत्ति अपनाई। वज्रयानियों में अनेक सिद्ध हुए लेकिन उनके लिखित ग्रंथ नहीं मिलते, कुछ सिद्धों के ग्रंथ हमें देखने को मिलते हैं जो निम्नलिखित है:-

  •  सरहपा- ये प्रथम सिद्ध कवि थे। इसे सहजयान शाखा के प्रवर्तक माना जाता है। राहुल सांकृत्यायन ने इसे हिंदी के प्रथम कवि माना है। दोहा में चौपाई शैली का पहली बार प्रयोग इन्होंने ही किया था। इन्होंने 32 रचनाएं की। जिनमें कुछ प्रमुख रचनाएं इस प्रकार है:- कायाकोश, दोहाकोश, चर्यागीत, सरहप्पाद,  गितिका इत्यादि।
  •  शबरपा- ये सरहपा के शिष्य थे। इन्होंने चर्यापाद की रचना की।
  •  लुईपा- ये शबरपा के शिष्य थे। इनकी प्रमुख रचना लुईपा गितिका है। डॉ नागेंद्र ने इसे सबसे प्रसिद्ध सिद्ध बताया है।
  • डोम्बिपा- इन्होंने डोम्बिपा गितिका, योगचार्य, अक्षरोद्विकोपदेश की रचना की।
  • कण्हपा- यह सिद्ध कवियों में रहस्य भावनात्मक गीत लिखने वाले एकमात्र सिद्ध थे।
  • कुक्करिपा- इन्होंने 16 ग्रंथों की रचना की।

निष्कर्ष

हम कह सकते हैं कि अपभ्रंश का संबंध आदि काल से था और जब संस्कृत के बाद प्राकृत बोलचाल की भाषा न होकर यह बिगड़ती चली गई और यह केवल बोलचाल की भाषा न रही। वरन साहित्यिक रचनाएं होने लगी तो इसका नाम अपभ्रंश सर्वमान्य हो गया।

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