Hindi

पुरानी हिंदी किसे कहते हैं ? | हिंदी साहित्य का इतिहास

पुरानी हिंदी का उदय 1000 ईस्वी के आखिरी दशक के आसपास हुआ। सर्वप्रथम चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने 11वीं शदी के बाद की अपभ्रंश को ‘पुरानी हिंदी’ का नाम दिया था। वास्तव में पुरानी हिंदी अवहट्ट और आधुनिक हिंदी के बीच की कड़ी है जहां अवहट्ट की भाषाएं आधुनिक हिंदी में परिवर्तित हो रही थी।

हिंदी साहित्य का इतिहास

हिंदी भाषा साहित्य की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है। संस्कृत भारत की सबसे प्राचीन भाषा है इससे आर्य भाषा या देव भाषा भी करते हैं। आता हिंदी भाषा का जन्म संस्कृत के गर्भ से हुआ है। हिंदी भाषा साहित्य के आरंभ से अब तक (लगभग 3000 पुराने इतिहास) को तीन भागों में बांटा गया है:-

पुरानी हिंदीप्राचीन भारतीय आर्य भाषा (500 ईसा पूर्व-500 ईसा पूर्व) काल में वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों के साथ-साथ वाल्मीकि, व्यास, अश्वघोष, भाष, कालिदास तथा माघ आदि ने संस्कृत में रचनाएं की। इस काल को भी दो भाग में बांटा जाता है जैसे:-

  1.  वैदिक संस्कृत (1500 ईसा पूर्व-1000 ईसा पूर्व)
  2.  लौकिक संस्कृत (1000 ईसा पूर्व-500 ईसा पूर्व)

वैदिक संस्कृत (1500 ईसा पूर्व-1000 ईसा पूर्व) काल में जिस भाषा में वेदों की रचना हुई इस भाषा को वैदिक संस्कृत करते हैं। संस्कृत का सबसे प्राचीनतम रूप हमें ऋग्वेद में देखने को मिलती है इस समय उपनिषदों और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना हुई।

लौकिक संस्कृत (1000 ईसा पूर्व-500 ईसा पूर्व)- इस काल में लिखे गए रामायण, महाभारत लौकिक संस्कृत के ग्रंथ हैं। इस काल में ही पाणिनी ने संस्कृत के बिगड़ते स्वरूप को व्याकरण वध किया था। इस काल में हमें कालिदास, अश्वघोष, माघ, भाष, वाल्मीकि, व्यास की रचनाएं देखने को मिलती है।

साथ ही साथ इस समय क्षेत्रीय बोलियां भी विकसित हो रही थी जैसे:- पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय और पूर्वी बोलियां।

मध्यकालीन भारतीय आर्य भाषा (500 ईसा पूर्व से 1000 ईस्वी) इस समय में हमें लोक भाषा का विकास देखने को मिलता है जो निम्न थे:-

  1.  पाली (500 ईसा पूर्व से 1 ईस्वी)
  2.  प्राकृत (1 ईस्वी से 500 ईस्वी)
  3.  अपभ्रंश (500 ईस्वी से 1000 ईस्वी)

संस्कृत को बोलचाल की भाषा बनने में काफी समय लगे एवं संस्कृत भाषा में बदलाव आया जिसे ‘पाली’ कहा गया। इसे भारत का प्रथम देश भाषा कहा गया। यह भाषा मगध प्रांत में उत्पन्न हुआ जिसके कारण इसे मागधी भी कहा जाता है। बौद्ध ग्रंथों में पाली भाषा का शिष्ट और मानक रूप देखा जा सकता है। इस समय क्षेत्रीय बोलियों की संख्या बढ़कर चार हो गई:- पश्चिमोत्तरीय, मध्यदेशीय, पूर्वी बोलियां और दक्षिणी बोलियां।

इसके बाद पाली भाषा में बदलाव देखने को मिलता है जिसे ‘प्राकृत’ कहा गया। इसका काल 1 ईस्वी से 500 ईस्वी तक माना गया है।

प्राकृत भाषा से ही क्षेत्रीय अपभ्रंशों का विकास हमें देखने को मिलता है। अपभ्रंश भाषा का काल 500 ईस्वी से 1000 ईस्वी तक माना जाता है। अपभ्रंश, प्राकृत तथा आधुनिक आर्य भाषाओं के बीच की कड़ी है। अपभ्रंश भाषा से निकलने वाली आधुनिक भाषाएं निम्न है जैसे:-

  1. शौरसेनी (पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी और गुजराती)
  2. पैशाची (पंजाबी)
  3. ब्राचड़ (सिंधी)
  4. मागधी (बिहारी)
  5. महाराष्ट्री (मराठी)
  6. अर्धमागधी (पूर्वी हिंदी)
  7. खस (पहाड़ी) इत्यादि

इसके बाद अवहट्ट का समय (लगभग 900 ईस्वी से 1100 इस्वी) आता है। यह आधुनिक भारतीय आर्य भाषा (1000 ईस्वी से अब तक) का काल कहलाता है। इस समय अवहट्ट भाषा में सिद्ध साहित्य और नाथ साहित्य की रचना हुई।

इसके बाद ‘पुरानी हिंदी’ का समय (1100 से 1400 ईस्वी) आया। यह भाषा आधुनिक हिंदी से मिलती-जुलती है अर्थात इसे हम आधुनिक हिंदी का प्रारंभिक अवस्था कह सकते हैं। 1100 ईस्वी के आते-आते अपभ्रंश का काल समाप्त हो जाता है तथा अपभ्रंश के बाद पुरानी हिंदी का काल आता है।

पुरानी हिंदी में लगभग 17 बोलियां सम्माहित थी। अपभ्रंश कालीन भाषा के विकास के संदर्भ में चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ का कहना है कि प्रारंभिक अपभ्रंश संस्कृत से मिलती है। और बाद का अपभ्रंश पुरानी हिंदी से। एवं यह निर्णय करना कि इन दोनों भाषाओं का समय क्या है? बहुत कठिन है फिर भी पुरानी हिंदी का काल 1000 ईस्वी से 1400 ईस्वी तक माना जा सकता है।

गुलेरी जी ने मुंज को पुरानी हिंदी के पहले कवि माना है। ‘प्राकृत पैंगलम’ और ‘राउलबेल’ में पुरानी हिंदी के उदाहरण मिलते हैं प्राकृत पैंगलम में विद्याधर तथा शारंगधर जज्जल, बब्बर के अलावा कुछ अन्य कवियों के पद्यों का संग्रह है।

राहुल सांकृत्यायन ने इन कवियों की भाषा को पुरानी हिंदी कहा है। रोडाकृत ‘राउलबेल’ एक चम्पू काव्य अर्थात गद्य-पद्य मिश्रित रचना है। इसमें हिंदी की 7 बोलियों के शब्द मिलते हैं। जिसमें राजस्थानी की बहुलता दिखाई देती है। इसमें 7 नायिकाओं के सौंदर्य का वर्णन किया गया है।

हिंदी साहित्य का आदिकाल को पुरानी हिंदी का शैशव काल माना जाता है। सर्वप्रथम नाथ योगीयों की वाणी में आरंभिक हिंदी का छिटपुट प्रयोग देखने को मिलता है। हेमचंद्र रचित ‘प्राकृत व्याकरण’ में जिस ग्राम्य भाषा का उल्लेख किया वह हिंदी का आरंभिक रूप प्रतीत होता है।

11वीं से 14वीं शताब्दी के बीच का समय अपभ्रंश और हिंदी के बीच संक्रांति काल था इस काल को या तो परवर्ती अपभ्रंश या अवहट्ट या फिर पुरानी हिंदी का सकते हैं।

⇒ हिंदी साहित्य का काल विभाजन और नामकरण विस्तार पूर्वक पढ़ें।

पुरानी हिंदी किसे कहते हैं

आधुनिक हिंदी के प्रारंभिक अवस्था को पुरानी हिंदी कहा जाता है पुरानी हिंदी का सबसे पहले नामकरण चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने किया था। इसे प्राचीन हिंदी भी कहा जाता है कई सारे भाषा शास्त्रियों ने ‘अपभ्रंश’ और ‘अवहट्ट’ की अगली कड़ी प्राचीन हिंदी को माना है

पुरानी हिंदी का काल 1100 से 1400 ई तक माना गया है पुरानी हिंदी के बीच कई ऐसी शब्द है जो आधुनिक हिंदी से मिलती-जुलती है जिस कारण से हम मान सकते हैं कि यह आधुनिकता की श्रेणी में है।

पुरानी हिंदी

स्रोत

स्वयंभू, विद्यापति, मुल्ला दाऊद, अमीर खुसरो, रासो साहित्य इन सभी के रचनाओं में पुरानी हिंदी देखने को मिलती है।

मूल स्रोत

पुरानी हिंदी की मूल स्रोत रोडाकृत, राउलबेल और पुष्यदत है लेकिन यह विवादास्पद रहा है फिर भी रोडाकृत और राउलबेल को मूल स्रोत के रूप में माना गया है यहीं से आधुनिक हिंदी की शुरुआत मानी जाती है

अवहट्ट भाषा किसे कहते हैं पढ़ें

पुरानी हिंदी की विशेषता

ध्वनि संरचना के अनुसार पुरानी हिंदी की तीन विशेषता है

(1) स्वर

(2) व्यंजन

(3) व्याकरण

(1) स्वर

अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ। इस समय की स्वर रचना पुरानी ही थी जैसे कि अपभ्रंश और अवहट्ट में देखने को मिलती है परंतु यहां ‘ऐ’ और ‘औ’ का प्रयोग अधिक होने लगी। ‘ॠ’ के साथ अ, इ, उ, ए, रि की प्रवृत्ति बढ़ी। जैसे:- अमृत – अमिय, मृत्यु – मीचु

कुछ स्वर हरस्वीकृत होते हैं जैसे:- दीपावली – दिवारी

कुछ स्वर दीर्घ स्वर होते हैं जैसे:- मित्र – मीत

स्वर परिवर्तन भी होते थे जैसे:- दिवस – देवस, सैय्या – सेज

अनुनासिकता भी होते थे जैसे:- छाया – छांह

(2) व्यंजन

कुछ नए शब्दों का भी प्रयोग होने लगा। जैसे:- ङ, ञ, ण, ड, ढ, न,। ‘ङ’ ‘ञ’ और ‘न’ ये अवहट्ट और अपभ्रंश में देखने को नहीं मिलती ये तीनों पुरानी हिंदी में जुड़ जाते हैं।

अल्प प्राण में ‘अ’ ‘य’ तथा महाप्राण में ‘ह’ का प्रयोग बढ़ जाता है

जैसे:- अल्पप्राण:- सजा – सया

महाप्राण:- कथा – कहा

‘ण’ तथा ‘न’ का अंतर भी बढ़। जैसे:- घृणा – घिन, गुण – गुन

संयुक्त सरलीकरण:- प्रदेश – परदेस।

पहला अक्षर का लोप:- स्कंध – कंध, स्थल – थल।

क्षतिपूर्ति दीर्घीकरण:- पुत्र -पुत,पूत।

‘क्ष’:- लक्षमण – लछमण (पूर्व में ‘ण’)

– लखन (पश्चिम से ‘ख’)

‘ल’ और ‘र’:- सरिता – सलिता, उज्जवल – उजर।

अपभ्रंश भाषा किसे कहते हैं पढ़ें

(3) व्याकरण

संज्ञा/कारक:- परसर्गों का विकास बढ़ा। जैसे:- कर्त्ता – ने, नै। कर्म – को। करन – से, ते,सौ। सम्प्रदान – लागि, तई। संबंध – का, के, की, केरा। अधिकरण – में, मै, यह, पर, पै।

अपभ्रंश और अवहट्ट की तरह ही पुरानी हिंदी में भी ‘हि’ लगाकर काम चला लिया जाता था ‘हि’ सभी कारकों में लगाया जा सकता था जहां कारक ना समझ में आए।

वचन:- बहुवचन का नियम साफ होने लगा था

जैसे:- पुलिंग:- बेटा – बेटे – बेटन (ए,अने)

स्त्रीलिंग:- सखी – सखियन (यन)

लिंग:- दो लिंग थे स्त्रीलिंग और पुलिंग। ईकारांत, दुलहिनि, आँखि, लागि शब्द का प्रयोग होने लगा

सर्वनाम:- आधुनिक हिंदी वाले शब्द भी पुरानी हिंदी में दिखने लगी थी जैसे:- मैं, हम, तु, तुम।

सर्वनाम के प्रकार भी दिखने लगी थी

प्रश्नवाचक सर्वनाम – कौन, क्या

संबंधवाचक सर्वनाम – जो, जिस

निश्चयवाचक सर्वनाम – कोई, किसी

विशेषण:- संज्ञा के अनुसार लिंग और वचन बदलता था। जैसे:- उच्च – उँच, उँचे

क्रिया:- ण, णु का प्रचलन हुआ। जैसे:- चरण, पठणु

संयुक्त क्रिया:- उठिचलई कहे जात है

शब्द:- देशज, विदेशज दोनों का प्रचलन शुरू हो गया था (इस्लामिक प्रभाव के कारण विदेशज शब्द का प्रभाव पड़ना शुरू हो गया था)

⇒ देवनागरी लिपि किसे कहते हैं | देवनागरी लिपि की उत्पत्ति कैसे हुई

निष्कर्ष

अंततः हम कर सकते हैं कि पुरानी हिंदी अपभ्रंश और आधुनिक हिंदी के बीच का काल था या फिर इस समय अपभ्रंश धीरे-धीरे बदलकर पुरानी हिंदी से आधुनिक हिंदी में परिवर्तित हो रही थी। इसलिए इसे प्रारंभिक हिंदी भी कहा जाता है। प्राचीन हिंदी में अपभ्रंश, अवहट्ट के बाद की स्थिति तो आती है लेकिन इस समय में पूरे भारत में शब्दों का एकीकरण हो चुका था हिंदी भाषा से संबंधित एवं बहुत सी नवीनता आई और आज की हिंदी का प्रारंभिक स्वरूप हमें यहां देखने को मिलती है।

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button