Sindhu Ghati Sabhyata | सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल
Sindhu Ghati Sabhyata में नगरों का सर्वप्रथम प्रादुर्भाव भारतीय इतिहास में देखने को मिलता है। Sindhu Ghati Sabhyata में एक ऐसी नगरीय सभ्यता विकसित हुई थी जिसकी जीवन की आधारशिला उद्योग धंधे एवं व्यापार वाणिज्य थी
भारतीय इतिहास में यह एक बहुत ही सुनियोजित सभ्यता थी सिंधु नदी के तटीय इलाके में इस सभ्यता का विकास होने के कारण इसका नाम सिंधु घाटी सभ्यता पड़ा
सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख नगर
Sindhu Ghati Sabhyata में कई प्रमुख नगर थे जिनमें प्रमुख थे:-
हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, चन्हूदड़ो, लोथल, कालीबंगा, बनावली, धौलावीरा,सुतकागेंडोर, राखीगढ़ी एवं कई अन्य स्थल।
आइए हम प्रत्येक स्थल को विस्तार से अध्ययन करेंगे:-
हड़प्पा
हड़प्पा रावी नदी के तट पर स्थित (वर्तमान पश्चिम पंजाब)है सर्वप्रथम 1826 में चार्ल्सनेसन ने हड़प्पा के टीले के बारे में बताया। इसके बाद जनरल कनिघम के द्वारा 1853 तथा 1873 ई में इस स्थान का सर्वेक्षण कर कुछ पुरातात्विक वस्तुएं प्राप्त की एवं 1912 ईस्वी में जे एफ फ्लीट ने यहां से प्राप्त वस्तुओं पर एक लेख प्रस्तुत किया। यह लेख रॉयल एशियाटिक सोसायटी द्वारा प्रकाशित पत्रिका में छपा था परंतु ये दोनों ही सही मूल्यांकन करने में सक्षम नहीं थे।
अंततः 1921 ईस्वी में राम बहादुर दयाराम साहनी ने (आधुनिक पश्चिम पंजाब के मोंटगोमरी जिले) इस स्थान का पुनः अन्वेषण कर 1923-24 तथा 1924-25 के दौरान उत्खनन का कार्य करवाया। इस समय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल थे।
दयाराम साहनी के बाद 1920-27 से 1933-34 ई तक माधव स्वरूप वत्स के निर्देशन में उत्खनन कार्य हुई।
1946 ईस्वी में सर मार्टिमर व्हीलर के निर्देशन में उत्खनन कार्य हुई। एवं कई पुरातात्विक महत्त्व की वस्तुएं प्राप्त हुई। खुदाई से पता चलता है कि हड़प्पा नगर लगभग 5 किलोमीटर की परिधि में स्थित था।
यहां के उत्खनन में नगर के दो खंड मिले हैं- पूर्वी व पश्चिमी। जिसमें पश्चिमी टीले की किलेबंदी की गई थी।
यह नगर उत्तर-दक्षिण की ओर 415 मीटर लंबा एवं पूर्व-पश्चिम की ओर 195 मीटर चौड़ा था।
किलेबंदी की चारों ओर एक सुरक्षा दीवार बनी हुई थी और जगह-जगह पर द्वार एवं उसके समीप रक्षक गृह बनी हुई थी।
इस दुर्ग के उत्तर में (किलेबंदी) टीले की खुदाई से भवनों के अवशेष से पता चलता है कि उत्तर और दक्षिण में दो पंक्तियां गृह के अवशेष मिले हैं उत्तर में सात पंक्ति में सात और दक्षिण के पंक्ति में आठ गृहों के अवशेष मिले हैं (आकार 17×7. 5 मीटर है) संभवतः यह श्रमिक वर्ग के आवास रहे होंगे।
गृहों के उत्तर की दिशा में 18 गोल चबूतरे जिनके बीच में एक बड़ा छेद है जिसमें लकड़ी की ओखली बनी थी इसमें मूसलों द्वारा अनाज कूटने के प्रमाण मिले हैं। यहां से जौ के दाने, गेहूं और भूसी पाई गई है।
चबूतरों के उत्तर में अन्नागारों की दो पंक्तियां जिनमें 6 – 6 अन्नागार हैं (15.24×6.10 मीटर प्रत्येक अन्नागार का आकार)
इन सभी के दरवाजे उत्तर दिशा में रावी नदी की ओर थे जिससे स्पष्ट पता चलता है कि जल मार्ग द्वारा अन्न का निर्यात किया जाता था।
यहां से लिंग- योनि, पक्की मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएँ बड़ी संख्या में मिली है।
‘आर – 37’ और ‘कब्रिस्तान- H’ नामक दो कब्रिस्तान भी मिले हैं पहली कब्रिस्तान हड़प्पा कालीन है जबकि दूसरा हड़प्पा काल के बाद का है।
व्हीलर के अनुसार ऋग्वेद में वर्णित ‘हरि-यूपिया’ से हड़प्पा काल की पहचान की है।
मोहनजोदड़ो
मोहनजोदड़ो का शाब्दिक अर्थ है- ‘मृतकों का टीला’। इसकी खोज 1922 ईस्वी में रखाल दास बनर्जी द्वारा की गई थी। रखाल दास द्वारा ही इसके पुरातात्विक महत्त्व की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित किया गया।
1922-1930 ईसवी तक सर जॉन मार्शल के निर्देशन में उत्खनन कार्य किया।
यह स्थान आधुनिक पंजाब के लरकाना जिले में स्थित है।
यहां की टीले दो खंडो पश्चिमी और पूर्वी भाग में विभक्त है यहां पश्चिमी भाग में दुर्ग बनाया गया था।
यहां पर कई महत्वपूर्ण स्थान उत्खनन में मिले हैं
स्नानागार/ वृहत स्नानागार
मोहनजोदड़ो का सबसे प्रसिद्ध भवन स्नानागार है यह 11.89 मीटर लंबा, 7.01 मीटर चौड़ा व 2.44 मीटर गहरा है इसके उत्तर व दक्षिण की ओर सीढ़ियां है।
स्नानागार के पश्चिम में इसे खाली करने को टेड़ेदार नालियाँ बनी थ। इसकी बनावट को देखकर लगता है कि यह आधुनिक स्विमिंग पूल के सामान ही था।
स्नानागार के पश्चिम में अन्नागार व पूर्वोत्तर में पुरोहित भवन था।
अधिकांशतः हर भावनों में निजी कुएं व स्नानागार होते थे
यहां नगर निर्माण के नौ चरण पाए गए।
जल निकासी प्रणाली उत्कृष्टतम थी।
Sindhu Ghati Sabhyata के अनेक अवशेष पाए गए हैं जिनमें प्रमुख हैं- स्नानागार, कॉलिजियेट हाॅल, 20 स्तंभों युक्त सभा भवन, विशाल अन्नागार, ढकी हुई नालियां, मातृ देवी की मूर्ति,
पशुपति की मुहर, मुहर पर उत्कीर्ण सांड़, सूती वस्त्र अवशेष,कांसे की नृत्य करती स्त्री मूर्ति, पानी का जहाज, एक कमरे में 13अस्थि पंजर, लाल पत्थर की मानव मूर्ति, सिर पर पंख फैलाए बैठा पक्षी की मूर्ति,
हाथी का कपाल, चांदी के बर्तन में तांबे का गला हुआ ढेर, घोड़े की अस्थि पंजर, मेसोपोटामिया की मुहरें, कलश शवाधान, हाथी दांत की तराजू, मोहनजोदड़ो से 1398 मुहरें मिली है, आदि।
अन्नागार
स्नानागार के पश्चिम में 1.52 मीटर ऊंचे चबूतरे पर निर्मित एक भवन जो पूरब से पश्चिम में 45.72 मीटर लंबा तथा उत्तर से दक्षिण 22.86 मीटर चौड़ा है।
ईटों से बने हुए भिन्न भिन्न आकार के 27 प्रकोष्ठ मिले हैं।
अन्नागार को हवादार बनाने के लिए जगह बनाए गए थे।
उत्तर की ओर एक चबूतरा जो अन्न भरने और निकासी के समय उपयोग किया जाता था।
इन सभी व्यवस्था को देखकर यहां का अन्नागार उच्च कोटि की प्रतीत होती है।
कई विद्वानों का मानना है कि यह राजकीय भंडारागार था जिसमें जनता से कर के रूप में वसूल किया हुआ अनाज रखा जाता था
मिश्र तथा मेसोपोटामिया में भी इस प्रकार के अन्नागार के अवशेष मिले हैं।
पुरोहित आवास
वृहतस्नानागार के पूर्वोत्तर में 70.1×23.77 मीटर आकार के एक विशाल भवन के अवशेष मिले हैं तथा 10 मीटर का वर्गाकार प्रांगण, तीन बरामदे तथा कई कमरे बने थे।
कहीं-कहीं पर पक्की ईंटों का इस्तेमाल किया गया था।
यह आवास स्नानागार से काफी निकट था जिसे पता लगता है कि यहां प्रधान पुरोहित अपने सहयोगियों के साथ निवास करता था संभवतः यहां पुरोहितों का विद्यालय रहा होगा।
सभा भवन
मोहनजोदड़ो के टीले का दो खंड था- पूर्वी एवं पश्चिमी। पश्चिमी खंड में दुर्ग था और इसी दुर्ग के दक्षिण में 27×27 मीटर के आकार का एक वर्गाकार भवन मिला जिसे सभा भवन कहा गया।
इसमें ईटों के 20 चकोर स्तंभों के अवशेष मिले हैं चार कतारों में 5-5 स्तंभ है मुख्य प्रवेश द्वार उत्तर की ओर था संभवतः इन स्तंभों पर ही छत टिकी थी।
भवन के भीतर बैठने के लिए चौकियाँ बनाई गई थी
मैक के अनुसार- यहां कोई बाजार लगती रही होगी।
सड़कें
मोहनजोदड़ो की सड़कें बहुत ही सुसज्जित थी मुख्य सड़क 9.15 मीटर चौड़ी थी इसे पूराविदों ने राजपथ भी कहा है अन्य सड़कों की चौड़ाई 2.75 मीटर से 3.66 मीटर तक थी गलियां 1.80 मीटर तक चौड़ी थी
मोहनजोदड़ो में नगर योजना मे उत्तर-दक्षिण एवं पूरब-पश्चिम की ओर जाने वाली समानांतर सड़कें बनी थी
सड़कें सीधी दिशा में एक दूसरे को समकोण काटती हुई नगर को अनेक वर्गाकार खंडों में विभक्त करती थी
सड़कें कच्ची थी परंतु सफाई की बेहतर व्यवस्था थी। कूड़ाओं को एकत्र करने के लिए गड्ढे अथवा कूड़ापात्र रखे जाते थे यहां गड्ढों के प्रमाण मिले हैं।
कई सड़कों के दोनों किनारों पर चबूतरों के प्रमाण मिले हैं संभवत इन पर दुकानदार बैठकर दुकानदारी करते रहे होंगे।
मकानों के दरवाजे सड़क की ओर न खुलकर पीछे की ओर खुलते थे।
नालियां
यहां के नगरों में नालियों की सुंदर व्यवस्था थी प्रायः प्रत्येक सड़क तथा गली के दोनों किनारे पक्की नालियां बनाई गई थी जिनसे होकर बरसात का पानी और गंदा पानी बाहर निकाला जाता था।
नालियों में बीच-बीच में बड़े गड्ढे बनाए जाते थे ताकि कूड़े एकत्र हो जाए।
यहां पर नालियों को पत्थरों की स्लैप बनाकर ढक दिया जाता था
मकान के कमरों, रसोई, स्नानगृह, शौचालय आदि सभी से निकलने वाली तथा इन छोटी नालियों को एक बड़ी नाली से जोड़ दिया जाता था फिर यह बड़ी नाली सार्वजनिक नाली में मिलती थी।
जगह जगह पर छेद बने होते थे जिन्हें बड़ी ईटों से ढक दिया जाता था यह छेद नालियों की सफाई में इस्तेमाल होता था।
नालियों की यह अद्भुत विशेषता किसी अन्य समकालीन नगर में नहीं प्राप्त होती है।
ईटें
मोहनजोदड़ो में मकान, नालियां तथा स्नानगृह के निर्माण में अच्छी तरह से पकाई ईटों का इस्तेमाल किया जाता था
ईटें वर्गाकार होती थी मोहनजोदड़ो से मिली सबसे वृहताकार ईंट की आकार 51.43 सेंटीमीटर×26.27 सेंटीमीटर×6.35 सेंटीमीटर की है।
सामान्यतः 4:2:1 (51.43 सेंटीमीटर×26.27 सेंटीमीटर×6.35 सेंटीमीटर) अनुपात के आकार की ईटें प्रयोग में लाया जाता था सबसे छोटी ईंट का आकार 24.13×11.05×5.08 सेंटीमीटर का है।
अन्य किसी भी सभ्यता में पक्की ईंटों का उपयोग नहीं किया गया था थोड़ी मात्रा में मेसोपोटामिया में मिला है।
मकान
यहां पर तीन प्रकार के भवन का अवशेष मिला है- निवासगृह, विशाल भवन तथा सार्वजनिक स्नानागार। निवास गृह में दो कमरे होते थे विशाल भवन महलों के आकार के होते थे एवं सार्वजनिक स्नानागार सभी के लिए होते थे।
मकान हवादार बनाए जाते थे दरवाजा सड़कों की ओर न खुलकर पीछे की ओर खुलती थी।
प्रत्येक मकान में रसोईघर, आंगन, कुएँ, स्नानागार एवं ढकी हुई नालियां होती थी।
मकानों की छत लकड़ी की होती थी सीढ़ियां पक्की ईंटों की होती थी।
मकान एक दूसरे से सटाकर बनाए जाते थे। बेहतर भवन निर्माण की व्यवस्था से ऐसा लगता था कि यहां के लोग स्वस्थ और सफाई के प्रति अत्यंत जागरूक थे।
इसे भी पढ़ें:- बेरुबाड़ी संघ मामला (1960)
इसे भी पढ़ें:- केशवानंद भारती मामला (1973)
चन्हूदड़ो
इस स्थल की खोज 1931 ईस्वी में एन जी मजूमदार ने की एवं 1935 ईस्वी में अर्नेस्ट मैके ने खुदाई करवाया। यह मोहनजोदड़ो से लगभग 130 किलोमीटर दक्षिण पूर्व में स्थित है यहां केवल एक टीला था
यहां से मनके का करखाना, पीतल की बत्तख, लिपिस्टिक, वक्राकार इट, तराजू, बैलगाड़ी के प्रमाण मिले हैं यहां की मुख्य सड़क 7.5 मीटर चौड़ी होती थी मकान सड़क के दोनों और बनाया जाता था
मकानों में कमरे, आंगन, स्नानगृह, शौचालय आदि होते थे इन्हें बनाने के लिए पक्की ईंटों का इस्तेमाल किया जाता था यह एक औद्योगिक केंद्र था जहां मणिकारी, मुहर बनाने, भार-माप के बटखरे बनाने का काम होता था
सुतकागेंडोर
यह सिंधु नदी घाटी सभ्यता का सबसे पश्चिमी स्थल है यह पाकिस्तान के मकराना में समुद्र तट के किनारे स्थित है
सुतकागेंडोर की खोज 1927 ईस्वी में स्टाइन ने की थी तथा इस पर 1962 ईस्वी में जॉर्ज ने उत्खनन का कार्य करवाया।
यहां दुर्ग होने का साक्ष्य मिला है यह दुर्ग एक प्राकृतिक चट्टान के ऊपर स्थित था। यहां से बंदरगाह होने के साक्ष्य भी मिले हैं अतः इसकी महत्व एक बंदरगाह के रूप में था।
यहां से सिंधु एवं मेसोपोटामिया के बीच होने वाले समुद्री व्यापार को सुगम बनाने के लिए इस नगर को बसाया गया था।
यहां से प्राप्त अवशेषों में- मृदमांड, एक ताम्बे की वाण, तांबे की ब्लेड का टुकड़ा, मिट्टी की चूड़ियां मिली है।
सुतकागेंडोर से किसी प्रकार की मुहर एवं खुदी हुई वस्तु नहीं मिली है।
कालीबंगा (कालीबंगन)
1953 ईस्वी में राजस्थान के गंगानगर जिले में घग्घर नदी के बाएं तट पर स्थित इस जगह की खोज अमलानंद घोष ने की थी
1961 ईस्वी में बी बी लाल तथा बी के थापर के निर्देशन में खुदाई की गई।
हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो की तरह यहां भी दो टीले प्राप्त हुए हैं एवं इन्हें सुरक्षा हेतु दीवार से घेरे गए हैं पूर्व और पश्चिम में स्थित इन टीलों में पूर्व की ओर का टीला बड़ा है पश्चिम की ओर जो छोटा टीला है उसे ‘कालीबंगा प्रथम’ नाम दिया गया है
इनके निर्माण में कच्ची ईंटों का प्रयोग का प्रमाण मिला है यहां के दोनों टीलों की हेतु सुरक्षा भिति से घेराबंदी की गई थी और जगह जगह पर बुर्ज बनाए गए थे
हड़प्पा कालीन महत्वपूर्ण अवशेष में- जूते हुए खेत की अवशेष प्राप्त हुई है इसमें आड़ी-तिरछी जुताई की गई है हल की पहली रेखा पूर्व-पश्चिम तथा दूसरी रेखा उत्तर-दक्षिण दिशा में बनाई गई है
पहली की दूरी 30 सेंटीमीटर तथा दूसरी की दूरी 190 सेंटीमीटर है दोनों एक दूसरे को समकोण काटती हुई जालीदार जुताई का नमूना प्राप्त हुई है कम दूरी की हल रेखा में चना तथा ज्यादा दूरी के हल रेखा में सरसों बोया जाता था
यहां से सात अग्निकुंड, मिट्टी के मोहरों पर सरकंडे के छाप, बेलनाकार मोहरें, नगर के दक्षिण की ओर शमशान, कपाल (इसकी मस्तिष्क शोथ बीमारी से ग्रसित थी), अलंकृत फर्श, चावल की खेती, तांबे की बैल की मूर्ति, पुरुष का सिर, ऊंट की अस्थि, नकाशीदार ईंट, भूकंप का प्राचीनतम प्रमाण, लकड़ी की नाली एवं सूती वस्त्र में लिपटा हुआ उस्तरा भी मिले हैं।
यहां अंत्येष्टि की तीन विधियां थी:- (1) पूर्ण समाधि करण (2) आंशिक समाधि करण (3) दाह संस्कार
कालीबंगा में एक युगल शवाधान का भी प्रमाण मिला है
यहां की नगर योजना दो भागों में विभाजित थे ‘दुर्ग’ और ‘निचला नगर’ के रूप में। दुर्ग को बीच से एक लंबी दीवार द्वारा जो पूर्व से पश्चिम की ओर जाती थी दो भागों में विभाजित करती थी।
लोथल
यह स्थल गुजरात के अहमदाबाद जिले में भोगवा नदी व साबरमती नदी के किनारे सरगवल नामक ग्राम के निकट स्थित है
1957 ईस्वी में एम आर राव ने इस स्थान की खोज की।
लोथल में खुदाई से जो अवशेष मिले उससे नगर दो भागों में विभाजित होने का प्रमाण मिला है- (1) दुर्ग और (2) निचला नगर। संपूर्ण बस्ती एक ही प्राचीर से घिरी हुई थी यहां घरों के निर्माण में कच्ची ईंटों का प्रयोग होता था।
दुर्ग के दक्षिण-पूर्व में एक भंडारगृह, नगर के उत्तर में बाजार, दक्षिण में औद्योगिक क्षेत्र एवं नगर के उत्तर में गोदीवाड़ा (बंदरगाह) स्थित था इससे सटा हुआ एक गोदाम भी था जहां आने-जाने वाला समान अस्थाई तौर पर रखा जाता था यहां मिश्र तथा मेसोपोटामिया से व्यापारिक जहाज आते-जाते थे।
कुछ विशिष्ट घरों के निर्माण में पक्की ईंटों का इस्तेमाल के प्रमाण मिले हैं।
दुर्ग के पश्चिम में ऊंचे चबूतरे पर 126* 30 मीटर के आकार का भवन मिला है इसमें स्नानगृह और नालियों के प्रमाण मिले हैं पुराविद इसे शासक का आवास मानते हैं।
यहां से प्राप्त अवशेषों में धान व बाजरे की खेती, फारस की मुद्रा, आटा पीसने की चक्की, तीन युगल शवाधान, पशु बलि के साक्ष्य, हाथी दांत का पैमाना, मिट्टी के बने हुए जहाज का साक्ष्य, पंचतंत्र वाली मुद्रा, काल के सात बकरी की हडियाँ, कुत्ते की मूर्ति, भवन के द्वार मुख्य सड़क की ओर, लकड़ी का अन्नागार, तांबे की मुहर, मनकों का करखाना प्रमुख है।
लोथल की नगर एवं भवन योजना सुनियोजित एवं सुव्यवस्थित थी एवं स्वास्थ्य, सफाई के प्रति सजगता का प्रमाण से लोथल के उत्खननकर्ता एस आर राव ने इस स्थल को ‘लघु हड़प्पा’ या ‘लघु मोहनजोदड़ो’ का नाम दिया था
बनावली
यह स्थल हरियाणा के हिसार जिले में स्थित सरस्वती नदी के तट में स्थित है इसकी खुदाई 1973-74 में आर एस बिष्ट के द्वारा करवाया गया था
यहां से तीन स्तर की संस्कृति प्राप्त हुई है- प्राक् सैंधव, विकसित सैंधव तथा उत्तर सैंधव।
सैंधवकालीन नगर योजना अत्यंत सुनियोजित थी यहां दुर्ग और निचला नगर अलग-अलग न होकर एक ही भित्ति द्वारा घिरे हुए थे दुर्ग की अलग से किलेबंदी की गई थी
भवनों में केंद्रीय प्रांगण देखने को मिलता है तथा चारों ओर कई कमरे होते थे नगर योजना शतरंज के विसात की तरह थी सड़कें नगर को तारांकित भागों में बांटते थे।
यहां की नालियों की व्यवस्था अच्छी नहीं थी।
यहां से एक आयताकार राजप्रसाद प्राप्त हुआ है जिसमें 11 कमरे थे
बनावली से व्याघ्र की आकृति की मुहर, वैदूर्यमणि से बने मनके, चक्राकार अंगूठियां, साधारण शलकाएँ, नाक व कान की बालियां, मछली पकड़ने का कांटा, मिट्टी के बने खिलौने, जौ, तिल, सरसों का प्रमाण, जौहरी का भवन, मानव आकृति युक्त बर्तन, मनके, मिट्टी के बने हल का प्रतिरूप का प्रमाण मिले हैं।
धौलावीरा
यह स्थल गुजरात के कच्छ जिले के भचाऊ तालुका में स्थित है 1990-91 मे डॉ आर एस बिस्ट के द्वारा खनन की गई।
धौलावीरा का नगर दो के बजाय तीन भागों में विभाजित था यह सिंधु नदी घाटी सभ्यता का एक ऐसा स्थल है जिसका नगर योजना तीन भाग में विभाजित था इस नगर का क्षेत्रफल लगभग 100 हेक्टेयर था अतः यह भारत में स्थित दो विशालतम सैंधव स्थलों में पहला है और दूसरा राखीगढ़ी है
यहाँ केंद्र में स्थित प्राचीर युक्त क्षेत्र को मध्यम नाम दिया गया है मध्यमा के मध्यवर्ती प्राचीर युक्त दुर्ग के उत्तरी द्वार के पीछे एक जलाशय है
धौलावीरा से मिले अवशेषों में घोड़े की कलाकृतियों के अवशेष, पालिशदार श्वेत पाषाणखंड, सफेद मिट्टी आदि प्राप्त हुए है। जल निकासी की व्यवस्था यहां अच्छी थी इसके भी प्रमाण मिले है।
कलाकृतियों के अवशेष, नगर नियोजन तथा लिपि की दृष्टि से धौलावीरा एक उत्कृष्ट नगर था।
राखीगढ़ी
यह स्थल हरियाणा के हिसार जिले में सरस्वती नदी (विलुप्त) के तट पर स्थित है यह स्थल सिंधु घाटी सभ्यता के दूसरे सबसे बड़े स्थल में स्थान रखता है ।
पुरातत्ववेत्ताओं के द्वारा इस स्थल की खोज 1961 ईस्वी में की गई थी लेकिन इसका खुदाई का कार्य 1997-1999 के दौरान अमरेंद्र नाथ द्वारा किया गया।
राखीगढ़ी में खुदाई के द्वारा एक पुराने शहर का लाया गया था इसके साथ ही करीब 5000 साल पुरानी कई वस्तुएं प्राप्त हुई है। यहाँ सड़क की एक अच्छी व्यवस्था, जल निकासी के सुनियोजित व्यवस्था, बारिश के पानी को एकत्र करने का विशाल स्थान, कांसा के साथ साथ कई धातु की वस्तुएं प्राप्त हुई है।
राखीगढ़ी से प्राक्-हड़प्पा एवं परिपक्व हड़प्पा युग इन दोनों कालों के प्रमाण मिले हैं मातृदेेवी अंकित एक लघु मुद्रा प्राप्त हुई ।अन्नागार, स्तम्भयुक्त मण्डप, जिसके पार्श्व में कोठरियाँ भी बनी हुई, ऊँचे चबूतरे पर बनाई गई अग्नि वेदिकाएँ आदि प्रमुख हैं।
Sindhu Ghati Sabhyata के अन्य महत्वपूर्ण स्थल
सिंधु घाटी सभ्यता के कुछ महत्वपूर्ण स्थलों के अलावा अन्य महत्वपूर्ण स्थल भी मिले हैं जिनके बारे में बहुत कम जानकारी मिलती है जिनमें प्रमुख है:-
सुरकोटड़ा
यह स्थल गुजरात के कच्छ जिले में स्थित है इसकी स्थल खोज 1964 ईस्वी में जगपति जोशी ने की थी
सुरकोटड़ा के दुर्ग को पीली मिट्टी के चबूतरे पर बनाया गया था एवं इस काल में लाल रंग के पात्रों का निर्माण प्रारंभ हुआ
यहां से चार कलश शवाधान, अंडाकार कब्रें, घोड़े के अवशेष एवं नीचे व ऊपर दोनों नगरों को किलेबंदी की गई थी।
रंगपुर
रंगपुर गुजरात के अहमदाबाद जिले में भादर नदी तट पर स्थित है यहां खुदाई का कार्य फेयर सर्विस ने कराया था
यहां से चावल की खेती का प्रमाण, मिट्टी से बनी हुई घोड़े की मूर्ति, लंबी गर्दन वाली जार के प्रमाण मिली है
रोपड़
सतलज नदी के किनारे पंजाब के रोपड़ में स्थित है यहां मालिक के साथ तांबे की कुल्हाड़ी दफनाने का प्रमाण मिला है
अल्लादिनोह
यह सिंधु घाटी सभ्यता का सबसे छोटा केंद्र है
आलमगीरपुर
यह स्थल उत्तर प्रदेश राज्य के मेरठ जिले के आलमगीरपुर गांव में स्थित है यह हिंडन नदी (यमुना की सहायक नदी) के किनारे हैं 1974 में पंजाब विश्वविद्यालय के द्वारा इसकी खोज की गई थी इस स्थल को “परसराम का खेड़ा” भी कहा जाता था।
यहां से मिट्टी के बर्तन, मनके, सांप आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं।
मांडा
मांडा जम्मू में पीर पंजाल रेंज की तलहटी में चिनाब नदी (सिंधु की सहायक नदी) के दाहिने किनारे पर स्थित है। इसकी खुदाई का कार्य 1976-77 में जे पी जोशी के द्वारा शुरु की गई थी। यह सिंधु घाटी सभ्यता का उत्तरी बिंदु है यहाँ पर खुदाई के दौरान हड़प्पा काल की कुछ लाल बर्तन मिलें हैं यह स्थल छोटा होने के कारण ज्यादा कुछ जानकारी कहीं देखने को नहीं मिलेगी।
सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में ऊपर वर्णित कुछ बढ़े स्थलों के साथ-साथ अन्य छोटे-छोटे कुछ स्थल भी मिले हैं जिनकी जानकारी या तो उपलब्ध नहीं है या बहुत कम है जैसे- संघोल (लुधियाना), देशलपुर (कच्छ, गुजरात), हुलास (सहारनपुर), मित्ताथल, दैमाबाद, रोजदा (भादर नदी),मालवण (ताप्ती नदी,सूरत) इत्यादि।
इस तरह से सिंधु घाटी सभ्यता का विस्तार:- पूर्व में- आलमगीरपुर (हिण्डन नदी), पश्चिम में- सुतकागेंडोर (दशक नदी), उत्तर में- मांडा (चिनाब नदी) और दक्षिण में- भगतराव जो की ताप्ती नदी तट पर स्थित है विस्तार देखने को मिलता है