Political science

A K Gopalan बनाम मद्रास राज्य केस | A K Gopalan vs State of Madras

A K Gopalan का पूरा नाम- अयिल्यथ कुट्टियारी गोपालन (Ayillyath Kuttiari Gopalan) था। यह एक कम्युनिस्ट राजनेता थे और कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। A K Gopalan पहली बार 1952 में लोकसभा सदस्य चुने गए। 1939 में द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध कार्य करने एवं गतिविधियों को बढ़ावा देने हेतु ब्रिटिश सरकार ने गिरफ्तार कर लिया। परंतु जेल से भाग कर 1945 तक सरकार विरोधी कार्य में संलग्न रहे। लेकिन 1942 में फिर से गिरफ्तार कर लिया गया तथा इस गिरफ्तारी से आजाद भारत में भी यह सलाखों के पीछे थे।

A K Gopalan

मद्रास राज्य संक्षिप्त जानकारी

मद्रास राज्य भारत के वर्तमान राज्य तमिलनाडु को 26 जनवरी 1950 से 1968 तक बोला जाता था। ब्रिटिश शासन काल में यह एक रियासत था इसके क्षेत्रफल के अंतर्गत वर्तमान आंध्र प्रदेश का तटीय क्षेत्र, उत्तरी केरल (मालाबार) और कर्नाटक से बेल्लारी, दक्षिण कन्नड़ आदि क्षेत्र आते थे। 1953 में भाषायी आधार पर विभाजन किया गया तत्पश्चात राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 के तहत केरल और मैसूर राज्यों को इससे अलग किया गया और 1968 में इसका नाम मद्रास से बदलकर तमिलनाडु कर दिया गया। यह नाम अब तक चला आ रहा है।

A K Gopalan और निवारक निरोध अधिनियम

1950 में जब भारत के केंद्र सरकार ने निवारक निरोध अधिनियम बनाया तो मद्रास सरकार ने ही इनकी गिरफ्तारी को इसी अधिनियम के अंतर्गत लाकर A K Gopalan को नजर बंद कर दिया गया। 1 मार्च 1950 को जब वे जेल में थे तब निवारक निरोध कानून 1950 की धारा 3(1) के तहत आदेश दिया गया यह कानून किसी भी राज्य सरकार या केंद्र सरकार को यह अधिकार देता है कि किसी को भी हिरासत में ले सकता है।

संक्षेप में निवारक निरोध अधिनियम

इस कानून का मुख्य उद्देश्य था किसी को भी राष्ट्रीय सुरक्षा, राज्य सुरक्षा या सार्वजनिक व्यवस्था और सेवाओं के रखरखाव के नियम का उल्लंघन करने से रोकना है।

अर्थात संविधान में ही विधानमंडल को निवारक निरोध का उपबंध करने वाली विधि बनाने के लिए विशेष अधिकार प्रदान किया गया है। यह कानून राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाए रखने, समुदाय के लिए आवश्यक प्रदायों और सेवाओं को बनाए रखने या रक्षा हेतु तथा भारत की सुरक्षा संबंधी कारणों से हो सकता है।

 निवारक निरोध अधिनियम के तहत राज्य विधान मंडल किसी व्यक्ति को बिना विचारण निरोध या कारावासित कर सकता है और ऐसी विधियों के विरुद्ध व्यक्ति की दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार नहीं रहेगा।

यह कानून संसद के द्वारा बनाया गया है इसके तहत कोई व्यक्ति बगैर अदालती सुनवाई के 2 माह तक बंदी बनाकर रखा जा सकता है। इसके अधिक अवधि तक बगैर अदालती सुनवाई के बंदी बनाकर रखे जाने के लिए सलाहकार बोर्ड के अनुशंसा आवश्यक है। जिसका अध्यक्ष एवं 2 सदस्यों से मिलकर गठन किया जाता है। अध्यक्ष संबंध राज्य के उच्च न्यायालय का पदासीन न्यायधीश जबकि उच्च न्यायालय के पदासीन या सेवानिवृत न्यायधीश इसके सदस्य हो।

नोट:- निवारक निरोध अधिनियम 1950 जिसे 1969 में निरस्त कर दिया गया।

एडीएम जबलपुर केस क्लिक करें।

A K Gopalan द्वारा याचिका दायर करना

अतः A K Gopalan ने भी अनुच्छेद 32 के तहत नजरबंदी के खिलाफ बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट के लिए एक याचिका दायर किया। लेकिन मद्रास सरकार द्वारा सभी आधारों को सामने रखने से रोक दिया गया जिन आधार पर उन्हें गिरफ्तार किया गया था।

A K Gopalan ने दावा किया कि सरकार द्वारा ऐसा करने से अनुच्छेद 13, 14, 19, 21 और 22 का उल्लंघन हुआ है

क्योंकि अनुच्छेद 13 के अनुसार अगर कोई विधि (कानून) मूल अधिकार का हनन करती है तो उतना ही हिस्से को हटाया जा सकता है जितने की हनन करता हो।निवारक निरोध कानून अधिनियम 1950 के द्वारा हनन हुई व्यक्ति की स्वतंत्रता तो सही था।

और अनुच्छेद 14 कहता है- राज्य, भारत के राज्य क्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।

अनुच्छेद 19(1) जो देश भर में निर्बाध तरीके से संचरण की अनुमति देता है उसके तहत भी गोपालन को स्वतंत्र किया जा सकता था एवं इस आधार पर निवारक निरोध अधिनियम 1950 को खारिज किया जा सकता था।

साथ ही अनुच्छेद 21 के अनुसार “किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से “विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया” के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं”।

इसका मतलब यह है कि किसी व्यक्ति पर कोई ऐसा शारीरिक उत्पीड़न नहीं कर सकता जिसका विधिक औचित्य न हो। जब राज्य या उसका कोई अभिकर्ता किसी व्यक्ति को उसकी दैहिक स्वतंत्रता से वंचित तभी कर सकता है जब इसकी कार्यवाही औचित्य हो एवं इस कार्यवाही के समर्थन में  कोई विधि हो और विधि का कठोरता से एवं श्रद्धापूर्वक पालन किया गया हो।

यह अनुच्छेद हमें मैग्नाकार्टा का याद दिलाता है। यहां मैं बता दूं कि मैग्नाकार्टा में इंग्लैंड के राजा जॉन ने अपने सामंतों को कुछ विशेष अधिकार दे रखे थे जिसमें कुछ कानूनी प्रक्रियाओं का पालन का वचन दिया गया था और स्वीकार किया गया था कि उनकी स्वतंत्रता कानून के दायरे में बंधी रहेगी। इस मैग्नाकार्टा ने प्रजा के कुछ अधिकारों की रक्षा की स्पष्ट रूप से परिभाषित की थी जिसमें से बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका सबसे प्रमुख थी।

इंग्लैंड के संविधान के समान ही भारत के संविधान में भी दैहिक स्वतंत्रता, बंदी प्रत्यक्षीकरण की न्यायिक रिट द्वारा सुनिश्चित की गई है इसके माध्यम से गिरफ्तार व्यक्ति स्वयं को न्यायालय के समक्ष पेश कर सकता है और अपने कारावासित किए जाने के आधार की परीक्षण करा सकता है ऐसी स्थिति में यदि न्यायालय को लगता है कि व्यक्ति की कारावासित किए जाने का विधिक औचित्य नहीं है तो उसे स्वतंत्र कर देगा। साथ ही न्यायालय उस दशा में भी बंदी व्यक्ति को आजाद करेगा जहां व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित किए जाने की विधि तो है किंतु उन विधि द्वारा लगाए गए शर्तों का कड़ाई से पालन ना किया गया हो।

इंग्लैंड के संविधान के अनुसार संसद में जनता के प्रतिनिधि यह निर्णय ले सकेंगे की व्यक्ति के अधिकार कहां तक जाएंगे एवं कहां तक उन्हें सामूहिक हित में या राज्य की सुरक्षा के हित में, समय की आवश्यकताओं के अनुसार मर्यादित किया जाएगा।

इसी सिद्धांत को भारत के सविधान ने भी स्वीकार करते हुए कहा है कि दैहिक और व्यक्तिगत स्वतंत्रता विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अधीन हैं।

जबकि अमेरिकी संविधान को देखें तो उनके न्यायालय को यह शक्ति है कि वह ऐसी विधि को असंवैधानिक करार दे जो किसी व्यक्ति को इस रीति से उसकी स्वतंत्रता से वंचित करती है। जबकि इंग्लैंड में ऐसा नहीं है क्योंकि यहां के न्यायालयों को यह शक्ति नहीं है कि वह संसद की विधि को अविधिमान्य करार कर दे। इसीलिए इंग्लैंड में स्वतंत्रता विधि के द्वारा सीमित और नियंत्रित है।

अनुच्छेद 22 के (1) और (2) में मनमानी गिरफ्तारी और निरोध के विरोध संरक्षण का प्रावधान किया गया है।

इसके तहत गिरफ्तारी का कारण बताना होगा, अपनी रुचि के विधि व्यवसाय से परामर्श का अधिकार तथा गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के अंदर स्थानीय मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा।

लेकिन यह संरक्षण निम्नलिखित स्थितियों में लागू नहीं होगा:- (1) यदि व्यक्ति शत्रु देश का नागरिक हो। (2) यदि व्यक्ति निवारक निरोध कानून जैसे पोटा, टाडा, रासुका के तहत गिरफ्तार किया गया हो।

A K Gopalan ने दावा किया कि उसकी सरकार द्वारा अधिनियम 1950 के 3(1) द्वारा किया गया नजरबंदी से इन अनुच्छेदों द्वारा दिया गया सुरक्षा एवं स्वतंत्रता का हनन हुआ है।

बेरुबारी संघ मामला (1960)

सुप्रीम कोर्ट का फैसला

अतः यह मामला 6 जजों की बेंच पर गया और उन्होंने अलग-अलग राय दी एवं बहुमत ने माना कि अधिनियम की धारा 14 जो निवारक निरोध के आधारों के प्रकटीकरण को प्रतिबंधित करता है वह असंवैधानिक थी।

अनुच्छेद 21 के लिए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि “विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया” को अंगीकार कर हमारे संविधान के अनुच्छेद 21 ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता की इंग्लैंड वाली संकल्पना को अपनाया न कि अमेरिका की संकल्पना को

अल्पमत के अनुसार प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण मूल अधिकार को विधानमंडल के बहुमत पर छोड़ दिया गया

इसका कारण यह था कि बहुमत के अनुसार अनुच्छेद 21 के आधारभूत दृष्टिकोण में मतभेद था। अर्थात हमारे संविधान ने विधायी प्राधिकारियों (पद के कारण प्राप्त विशेषाधिकार) को दी गई मर्यादाएँ है एवं  संविधान के अधीन रहते हुए उन मर्यादाओं के बाहर हमारे संविधान ने संसद और राज्य विधान मंडलों को अपने-अपने क्षेत्रों में सर्वोपरि रखा है।

अंततः न्यायपालिका के स्थान पर विधानमंडल की सर्वोपरिता ही इस फैसले में हमें देखने को मिलता है।

साथ में यह भी कहा गया कि अनुच्छेद 21 के अलावा दैहिक स्वतंत्रता का प्राकृतिक नियम या सामान्य विधि जैसा कोई रक्षोपाय नहीं है अर्थात विधान मंडल द्वारा दैहिक स्वतंत्रता छीनने पर प्रभावित व्यक्ति को कोई उपचार नहीं मिल सकता।

A K Gopalan बनाम मद्रास राज्य केस इसका संबंध जनहित याचिका से भी है अगर आप जनहित याचिका के बारे में विस्तार पूर्वक जानना चाहते हैं तो क्लिक करें

केशवानंद भारती और केरल राज्य मामला (1973) विस्तार पूर्वक जानने के लिए क्लिक करें

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) केस विस्तार पूर्वक जानने के लिए अवश्य पढ़ें

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button