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भारत सरकार अधिनियम 1935 | Government of India Act 1935 in Hindi

हमारे देश के संविधान निर्माण में भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) का महत्वपूर्ण योगदान है क्योंकि हमारे देश के संविधान में लगभग 350 अनुच्छेद भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) से ही लिए गए थे यह सर्वविदित है कि भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के पूर्व जो 1919 का अधिनियम था जिसे मांटेग्यू चेम्सफोर्ड (मोंटफोर्ड) सुधार अधिनियम भी कहा जाता है, कांग्रेस द्वारा अस्वीकार कर दिया गया एवं 1921 में असहयोग आंदोलन शुरू कर दिया गया। दूसरी तरफ कांग्रेसी नेताओं, मोतीलाल नेहरू और सी आर दास द्वारा स्वराज दल की नींव रखी एवं इन्होंने ब्रिटिश सरकार (1919 का अधिनियम) का मुखरता से विरोध किया।

भारत सरकार अधिनियम 1935 Government of India Act 1935

भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के मुख्य आधार

भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) को बनाने के लिए कई समझौतों, अधिनियमों, रिपोर्टों आदि की सहायता ली गई थी जिनमें प्रमुख थे साइमन आयोग की रिपोर्ट, नेहरू समिति के रिपोर्ट, तीनो गोलमेज सम्मेलन की वाद विवाद, श्वेत पत्र, संयुक्त प्रवर रिपोर्ट, लोथियन रिपोर्ट इत्यादि। अतः संक्षेप में इन रिपोर्टों की यहां चर्चा करेंगे ताकि पता चल सके कि इन रिपोर्टों ने किस प्रकार से भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) को बनाने में मदद की।

साइमन कमीशन रिपोर्ट

साइमन आयोग 1927 में सर साइमन की अध्यक्षता में भारत सरकार अधिनियम 1919 की समीक्षा के लिए गठन की गई थी। जबकि ब्रिटिश सरकार ने 1919 के अधिनियम को पारित करते वक्त यह घोषणा की थी कि 10 वर्षों के बाद इन सुधारों की समीक्षा करेंगे लेकिन 1927 में ही इस आयोग का गठन कर यह भी स्वीकार कर लिया गया कि 1919 के सुधार असफल रहे हैं।

यहां पर परिस्थिति यह थी कि कांग्रेस का आंदोलन तीव्र गति से जारी था, हो सकता है इसी कारण उन्हें ऐसा करना पड़ा। दूसरी ओर इस आयोग द्वारा आने वाले चुनाव में जीतने वाले उदारवादी सरकार को सत्ता देने से रोकना था।

साइमन आयोग की रिपोर्ट जो 1930 में प्रकाशित हुई उसके सुझाव इस प्रकार थे:-

  •  केंद्र में एक संघ की स्थापना की बात कहीं गई थी जिसमें भारतीय प्रांत एवं देशी रियासतें शामिल हो।
  •  केंद्र में उत्तरदायी सरकार के गठन का अभी समय नहीं आया है।
  •  वायसराय एवं प्रांतीय गवर्नर को विशेष शक्तियां देने की बात कही गई थी।
  •  एक लचीले संविधान की भी बात कही गई थी। अर्थात वे अपने इच्छा अनुसार संविधान को संशोधित कर सकते थे।
  •  केंद्रीय विधान मंडल के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से एवं प्रांतीय विधान मंडल द्वारा चुने जाएं।

साइमन कमीशन आयोग के सातों सदस्य अंग्रेज थे। एवं उन्होंने अपने ही स्वार्थ की पूर्ति के लिए रिपोर्ट बनाई थी। अतः कांग्रेस द्वारा इसका 1927 के मद्रास अधिवेशन में सर्वसम्मति से साइमन कमीशन का बहिष्कार किया गया और मुस्लिम लीग ने भी इसका विरोध किया।

नेहरू रिपोर्ट 1928

मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में गठित यह संविधान का प्रारूप निर्माण हेतु बनाई गई एक समिति थी इस समिति के रिपोर्ट में नए स्वराज्य के लिए संविधान की रूपरेखा तैयार करना था। साथ ही इसमें ब्रिटिश सरकार द्वारा भारतीयों को संविधान बनाने में बार-बार आयोग्य बताने को कांग्रेस के नेतृत्व में दिया गया दमदार जवाब था। इस समिति में 9 सदस्य थे, मोतीलाल नेहरू इसके सचिव थे।

1928 में मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेहरू रिपोर्ट प्रस्तुत की गई एवं इसमें कई सुझाव दिए गए थे जो इस प्रकार हैं:-

  •  संप्रदायिक चुनाव पद्धति खत्म कर दी जाए एवं उसके स्थान पर अल्पसंख्यकों के लिए जनसंख्या के आधार पर सीट आरक्षित की जाए।
  •  पूरे भारत के लिए एक ही संविधान हो ताकि भारत के केंद्र तथा प्रांतों में पूर्ण प्रादेशिक स्वायत्तता मिले।
  •  मुस्लिम लीग ने जिन्ना द्वारा 14 संकेत देकर अपना आरक्षण प्रस्तुत किया था।

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गोलमेज सम्मेलन (1930-32)

चूँकि भारतीयों द्वारा स्वराज्य की मांग तेज हो चुकी थी और ब्रिटिश सरकार को भी एहसास हो गया था कि अब भारतीयों को भी सत्ता में हिस्सा देना पड़ेगा। इन्हीं लक्ष्यों को ध्यान में रखकर ब्रिटिश सरकार ने लंदन में गोलमेज सम्मेलनों का आयोजन किया। इसका मुख्य उद्देश्य था भारत में संवैधानिक सुधार करना।

 1930-32 के बीच तीन गोलमेज सम्मेलन आयोजित किए गए थे। जैसे कि हम जानते हैं तीन गोलमेज सम्मेलन में भारत की ओर से केवल 2 सम्मेलन में महात्मा गांधी द्वारा भाग लिया गया था। प्रथम सम्मेलन में सविनज्ञ अवज्ञा आंदोलन के तहत जेल में बंद होने के कारण महात्मा गांधी नहीं जा सके एवं तृतीय गोलमेज सम्मेलन का तो कांग्रेस ने बहिष्कार ही कर दिया था। डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने तीनों गोलमेज सम्मेलन में भाग लिया था।

अतः यहां पर दूसरे सम्मेलन के बारे में चर्चा की जाएगी दूसरे गोलमेज सम्मेलन में महात्मा गांधी जी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे थे उनका मानना था कि कांग्रेस पूरे भारत का प्रतिनिधित्व करती है इस दावे को 3 दलों से चुनौती मिली:-

  •  मुस्लिम लीग का कहना था कि मुस्लिम लीग मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हित में काम करती है।
  •  देसी नरेशों का कहना था कि उनके क्षेत्र में कांग्रेस का कोई भूमिका नहीं है।
  •  अंबेडकर का कहना था कि कांग्रेस निचली जातियों (दलितों) का कोई प्रतिनिधित्व नहीं करती।

इन सभी बातों के बीच गांधी जी ने ब्रिटिश सरकार के कुछ ही बातों पर सहमति जताई थी जो निम्न है:-

  •  भारत की नई सरकार का रूप अखिल भारतीय संघ होना चाहिए।
  •  संघीय सरकार को कुछ आरक्षणों के साथ संघीय विधानमंडलों के प्रति उत्तरदाई होना चाहिए।
  •  संप्रदायिक
  • उलझन की स्थिति में प्रांतों को प्रांतीय स्वशासन मिलनी चाहिए।

लेकिन ब्रिटिश सरकार ने द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में हुए विचार विमर्श के परिणाम स्वरूप ब्रिटिश प्रधानमंत्री रेम्मजे मैकडॉनल्ड द्वारा 16 अगस्त 1932 को सांप्रदायिक पंचाट की घोषणा कर संप्रदायिक निर्णय दिया इसमें अंबेडकर के बातों को ध्यान में रखा गया था जिसके अनुसार:-

  •  प्रांतों एवं केंद्रीय विधान मंडल की सीटों में संप्रदायिक अनुपात में विभाजित करने की बात कही गई
  •  दलितों सहित 11 समुदायों को पृथक समुदाय मानकर आरक्षित सीट दे दिए गए।
  •  दलितों को दो वोटों का अधिकार मिला। प्रथम वोट से दलित प्रतिनिधि का चुनाव एवं दूसरे वोट से गैर दलित प्रतिनिधि का चुनाव कर सकते थे।

गांधी जी द्वारा ब्रिटिश प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर सांप्रदायिक पंचाट में परिवर्तन कराने का प्रयास भी किया था लेकिन इनकी बात नहीं मानी गई। इस संप्रदायिक निर्णय का गांधी जी द्वारा पुरजोर विरोध कर मरणव्रत रखा गया और इस समय वे पूना के यरवदा जेल में थे उन्होंने यहीं अपना अनशन शुरू कर दिया।

गांधी जी की तबीयत बिगड़ने पर डॉ राजेंद्र प्रसाद एवं मदन मोहन मालवीय के प्रयासों से 24 सितंबर 1932 को गांधीजी और अंबेडकर के बीच पूना समझौता हुआ। इससे निम्नलिखित बातें निकल कर सामने आई:-

  •  संयुक्त हिंदू निर्वाचन व्यवस्था के अंतर्गत ही दलितों के लिए सीटें आरक्षित करने की सहमति बनी।
  •  अंबेडकर को सांप्रदायिक पंचाट से मिले पृथक निर्वाचन के अधिकार को त्यागना पड़ा।
  •  इसमें दलितों के सीट 71 से बढ़ाकर 148 कर दी गई।
  •  दलितों के लिए शिक्षा के लिए अनुदान की पर्याप्त राशि निश्चित की गई।
  •  दलितों के सरकारी नौकरी में भर्ती के लिए सीटें सुनिश्चित की गई।

अंततः हमें पूना समझौता में कुछ परिवर्तन देखने को मिलता है।

बेरुबारी संघ मामला (1960) जानकारी के लिए पढ़ें।

श्वेत पत्र

1933 में लोर्ड लिन लिथगो की अध्यक्षता में एक संयुक्त संसदीय समिति बनाई गई। इस समिति का कार्य यह था कि 1933 में ब्रिटिश सरकार ने एक श्वेत पत्र जारी किया था जिसके आधार पर 1935 का एक्ट बनाना था इसमें कहा गया था कि:-

  •  संघीय सभा में प्रत्यक्ष चुनाव का व्यवस्था की बात कही गई थी लेकिन लिन लिथगो की अध्यक्षता वाली समिति ने अप्रत्यक्ष चुनाव का सुझाव दिया।
  •  इस समिति ने 1934 में अपनी रिपोर्ट जारी की एवं एक अधिनियम बनाकर ब्रिटिश संसद द्वारा पारित कर दी गई एवं 1935 में ब्रिटिश सम्राट द्वारा सहमति मिल गई।

ये सभी भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) की मुख्य आधार थे। तो चलिए अब हम भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के बारे में विस्तार पूर्वक जानेंगे।

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भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के प्रावधान

यह अधिनियम ब्रिटिश संसद का सबसे लंबा अधिनियम था इस अधिनियम में 321 धाराएं एवं 10 अनुसूचियां थी। इस अधिनियम में तीन प्रमुख बातें शामिल की गई थी अखिल भारतीय संघ, संरक्षण सहित उत्तरदाई सरकार एवं भिन्न-भिन्न संप्रदायिक तथा अन्य वर्गों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व।

यहां पर सबसे  पहले भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के प्रावधानों को देखेंगे-

इसमें कहा गया था कि-

  • एक ही अखिल संघ  की स्थापना की जाएगी जिसमें ब्रिटिश भारत के प्रांतों के अलावा देशी राजाओं (भारतीय रियासत) के राज्य में सम्मिलित होंगे परंतु भारतीय रियासत का शामिल होना वैकल्पिक था यहां  हमें जान लेना होगा कि संघ जो 1935 अधिनियम के तहत बनाई जानी थी वह तब तक अस्तित्व में नहीं आ सकता था जब तक रियासती प्रतिनिधियों में कम से कम आधे प्रतिनिधि चुनने वाले रियासतें शामिल न हो और रियासतों की जनसंख्या में से आधी जनसंख्या वाली रियासतें संघ में शामिल न हो। इनके लिए शामिल होने के लिए एक शर्त रखी गई थी कि जो शामिल होना चाहते हैं वे सम्मिलित पत्र में लिख कर दे यही वजह थी कि संघ अस्तित्व में ना सकी।
  • प्रांतों को स्वशासन का अधिकार देने की बात कही गई एवं शासन के समस्त विषयों को तीन भागों में बांट दिया गया। जिनकी सूची इस प्रकार थी:-
  1.  संघीय विषय को केंद्र के अधीन रख दिया गया।
  2.  प्रांतीय विषय को प्रांतों के अधीन रखा गया।
  3.  समवर्ती विषय जो केंद्र और प्रांतों के अधीन कर दिए गए।

यहां पर यह भी निश्चित कर दिया गया कि समवर्ती विषय पर केंद्र और प्रांतों में विरोध होने पर केंद्र का कानून ही मान्य होगा।

  •  प्रांतीय विषयों में प्रांतों का स्वशासन का अधिकार था एवं प्रांतों में उत्तरदायी शासन की स्थापना की थी अर्थात गवर्नर व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी भारतीय मंत्रियों की सलाह से कार्य करेंगे। यहां पर गवर्नर जो हैं प्रांत के प्रमुख थे। अतः हम कह सकते हैं कि अधिनियम द्वारा प्रांतों में स्वशासन की स्थापना हुई।
  •  संघ सरकार (केंद्र में) द्वैध शासन की स्थापना की गई। पूर्व में यही व्यवस्था हमें 1919 ईस्वी के कानून द्वारा प्रांतों में देखने को मिलता है।
  •  एक संघीय न्यायालय की स्थापना की गई। जो कि 1950 में स्थापित सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना तक कार्य करता रहा।
  •  एक केंद्रीय बैंक की भी स्थापना का प्रावधान किया गया। 
  •  वर्मा तथा अदन को भारत के शासन तंत्र से अलग कर दिया गया। (ध्यान देने योग्य बातें:- चूंकि यह अधिनियम बहुत लंबा था इसलिए इसे दो भागों में विभाजित किया गया था (1) भारत अधिनियम 1935 (2) वर्मा अधिनियम 1935 की सरकार। इसलिए वर्मा को भारत के शासन तंत्र से अलग रखा गया।)
  •  सिंध और उड़ीसा के दो नए प्रांत बनाए गए और उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत के गवर्नर के अधीन रखा गया। गवर्नर जनरल एवं गवर्नरों को कुछ विशेष दायित्व दिए गए। जैसे- भारत में ब्रिटिश राज्य की रक्षा, शांति एवं देसी राजाओं एवं ब्रिटिश सम्राटों के सम्मान की रक्षा, विदेशी आक्रमण से भी सुरक्षा आदि।
  •  निर्वाचन की पद्धति संप्रदायिक ही थी एवं केंद्र तथा प्रांत दोनों के लिए मत योग्यता में कटौती कर दी गई फलतः मतदाताओं की संख्या बढ़कर 13% हो गई जबकि 1919 ईसवी के कानून में केवल 3% ही थी।

अब तक हम भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के कानूनों के प्रावधानों को देख रहे थे क्योंकि मैं इस विषय को भारतीय संविधान के निर्माण के संदर्भ में लिख रही हूं इसलिए इसे विस्तार से जानना जरूरी है क्योंकि 1935 का अधिनियम हमारे संविधान का आधार है तो आइए हम इस अधिनियम में किन-किन बातों को रखा गया था विस्तार से जानेंगे:-

भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के तीन प्रमुख अंग थे:-

  1. गृह सरकार
  2.  अखिल भारतीय संघ
  3.  प्रांतीय सरकार

गृह सरकार

  • भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के द्वारा भारत परिषद को खत्म कर दिया गया। इसके स्थान पर भारत सचिव के सलाहकार के रूप में व्यवस्था की गई जिसकी संख्या 3 से 6 तक होती थी। इसमें भी व्यवस्था की गई कि आधे सदस्य जो होंगे कम से कम 10 वर्ष तक भारत में सेवा कार्य कर चुके हो। इसका कार्यकाल 5 वर्ष का रखा गया। भारत सचिव को सार्वजनिक सेवाओं मामले में इनका सलाह मानना अनिवार्य था।
  •  भारत सचिव उन कार्यों पर कोई भी हस्तक्षेप नहीं करता जिन्हें गवर्नर भारतीय मंत्रियों की सलाह से करता था।
  •  भारतीय हाई कमिश्नर की नियुक्ति का अधिकार गवर्नर जनरल को दिया गया। इस हाई कमिश्नर का कार्य भारतीय विद्यार्थियों को इंग्लैंड में सुविधा प्रदान कराना एवं भारत व इंग्लैंड के व्यापार के विषय में परामर्श देना था।

नोट:- यहां पर भारत सचिव और गृह सरकार के बारे में संक्षिप्त जानकारी दी गई है।

भारत सचिव:- ये (भारत सचिव) एक ब्रिटिश कैबिनेट के मंत्री होते थे जो ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य, अदन और वर्मा के शासन हेतु जिम्मेदार “भारत कार्यालय” के राजनीतिक प्रमुख थे।

भारत सचिव की सहायता के लिए 15 सदस्यों की एक सभा भारत परिषद के नाम से स्थापित की गई। इसके 7 सदस्यों की नियुक्ति का अधिकार ब्रिटेन के क्राउन को तथा शेष सदस्यों का चयन का अधिकार कंपनी के डायरेक्टरों को दिया गया। इनमें से आधे सदस्यों को कम से कम 10 वर्ष तक भारत में सेवा कार्य का अनुभव भी जरूरी था।

शासन के इसी भाग को जिसमें भारत सचिव और भारत परिषद के सम्मिलित रूप को गृह सरकार नाम दिया गया।

भारत सचिव का पद 1858 में बनाया गया था जब बंगाल में ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन समाप्त हो गया था और संपूर्ण भारत को (देसी रियासतों को छोड़कर) ब्रिटिश सरकार (इंग्लैंड) के प्रत्यक्ष प्रशासन के अंतर्गत लाया गया था इसी समय से ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत आधिकारिक औपनिवेशिक काल की शुरुआत हुई थी।

संघीय शासन

संघ शासन का प्रमुख गवर्नर जनरल होता था। इनका कार्य विस्तृत थे उन्हें प्रशासनिक, आर्थिक एवं व्यवस्थापिका (विधानमंडल) से संबंधित कार्य करना होता था। इस अधिनियम के द्वारा केंद्र में द्वैध शासन की स्थापना की गई। और संघीय विषयों को दो भागों में बांटा गया था:-

  1.  सुरक्षित विषय
  2.  हस्तांतरित विषय

सुरक्षित विषय

इन विषयों पर गवर्नर जनरल अपनी काउंसिल के सदस्यों की सलाह से करता था।

हस्तांतरित विषय

इन विषयों में गवर्नर जनरल व्यवस्थापिका सभा के प्रति उत्तरदायी एवं उसमें से चुने हुए भारतीय मंत्रियों की सलाह से करता था।

अतः संघीय कार्यकारिणी दो भागों में विभक्त थी-

  1.  गवर्नर जनरल और उसकी काउंसिल के सदस्य।
  2.  गवर्नर जनरल और उसके भारतीय मंत्री।

गवर्नर जनरल के कार्य:

  •  इन्हें हर कार्य मंत्रियों के परामर्श से करना होता था। लेकिन कुछ महत्वपूर्ण कार्य थे जिसमें स्वयं के परामर्श से कार्य करते थे वे थे- 
  1. वित्तीय व्यवस्था एवं भारतीय साख की रक्षा करना।
  2.  शांति व्यवस्था कायम करना।
  3.  अल्पसंख्यकों, सरकारी सेवाओं तथा उनके आश्रितों के हितों की रक्षा करना।
  4.  अंग्रेजी एवं बर्मी माल के विरुद्ध किसी भेदभाव को रोकना।
  5.  भारतीय राजाओं के सुरक्षा का ध्यान रखना।
  6.  स्वयं के निजी विवेकाधीन शक्तियों की रक्षा करना आदि।
  •  कुछ विषयों में वह अपने मंत्रियों से बिना पूछे ही कार्य कर सकता था ये थे-
  1.  रक्षा, विदेशी मामले, धार्मिक मामले तथा जनजाति क्षेत्र मामले  (जैसे- उनके लिए तीन कार्यकारी पार्षद नियुक्त करने के मामले)
  2.  मंत्रिपरिषद की नियुक्ति तथा भंग करना।
  3.  अपनी अधिनियम बनाने तथा अध्यादेश जारी करने की शक्ति।
  4.  स्वयं से नीचे अर्थात प्रांतों के प्रमुख आदेश जारी करना नहीं लिखा क्या गवर्नर जो थे उनको आदेश देना उनका विशेष उत्तरदायित्व था।
  5.  उन विषयों जिनमें विधानमंडल वोट नहीं कर सकता, पर नियंत्रण रखना। क्योंकि इन पर बजट का 80% भाग निहित होती थी।
  6.  दोनों सदनों की संयुक्त बैठक, विधानमंडल को दिया जाने वाला भाषण तथा किसी विधेयक के विषय में संदेश देना।
  7.  विशेष विधेयकों को केंद्र तथा प्रांतीय विधानमंडल में पेश करने से पूर्व स्वीकृति देना एवं स्वयं की स्वीकृति न देने तथा उसको महामहिम सम्राट ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति के लिए भेजना।

संघीय विधानमंडल या संघीय व्यवस्थापिका

यहां भी दो सदनों की व्यवस्था की गई:-

  1.  राज्य परिषद (स्थायी सभा)
  2.  संघ सभा (अस्थाई सभा)
  •  राज्य परिषद के सदस्यों की संख्या 360 निश्चित की गई जिनमें 156 सदस्य ब्रिटिश भारतीय प्रांतों से और 104 सदस्य भारतीय नरेशों के राज्य से।
  •  संघ सभा के लिए 375 सदस्यों की व्यवस्था की गई थी जिनमें से 250 ब्रिटिश भारत के और 125 सदस्य भारतीय नरेशों के राज्यों के होने थे।
  •  इनमें ब्रिटिश भारत के सदस्यों का निर्वाचन प्रांतीय विधान मंडल के सदस्यों द्वारा किया जाना था जबकि देशी राज्यों के सदस्यों की नियुक्ति राज्यों के नरेशों द्वारा किए जाने की व्यवस्था की गई थी।
  •  राज्य परिषद (वर्तमान राज्यसभा की तरह) स्थाई सभा थी जिसके एक तिहाई सदस्यों को प्रतिवर्ष अपना पद छोड़ना पड़ता था।
  •  संघ सभा की अवधि 5 वर्ष निश्चित की गई थी।
  •  केंद्रीय विधान मंडल तो कहने के लिए थी कि वह संपूर्ण भारत के लिए कानून बनाने का अधिकार रखती थी सारी शक्ति गवर्नर जनरल पर निहित थी क्योंकि वह जब चाहे उनकी सलाह को ठुकरा सकता था।
  •  वार्षिक बजट के तीन चौथाई भाग पर विधानमंडल का कोई हस्तक्षेप नहीं था।

प्रांतीय शासन

प्रांतों में भी हमें संघीय व्यवस्था की तरह ही व्यवस्था देखने को मिलती है जिस तरह से कहने के लिए संघीय विधानसभा को अधिकार दिया गया था एवं समस्त शक्ति गवर्नर जनरल में निहित था जब चाहे वह विधानसभा के सलाह को ठुकरा सकता था। ठीक इसी तरह प्रांतों में भी था। ऊपरी रूप से प्रांतों को स्वायत्तता तो दी गई थी लेकिन वास्तविक कार्यकारी शक्ति गवर्नर के पास थी।

तो आइए प्रांतीय व्यवस्था को भी विस्तार से देखते हैं:-

गवर्नर के कार्य

  • प्रांतीय शासन का प्रमुख गवर्नर था जो अपना कार्य व्यवस्थापिका सभा अर्थात प्रांतीय विधानसभा में चुने हुए और उसी के प्रति उत्तरदाई भारतीय मंत्रियों के परामर्श से करता था।
  •  इस अधिनियम के तहत शासन का समस्त विषय भारतीय मंत्रियों के अधीन कर दिए गए थे। इसलिए इससे प्रांतीय स्वशासन के नाम से भी पुकारते हैं। लेकिन वास्तव में ऐसी व्यवस्था थी ही नहीं।
  •  कई ऐसे कार्य थे जिसमें गवर्नर स्वयं के विवेक से फैसला लेते थे जैसे- जब कभी वैधानिक संकट की स्थिति में संपूर्ण प्रांत के शासन को अपने अधिकार में ले लेना।
  •  विधानसभा के सभी सदस्य निर्वाचित होकर आते थे परंतु विधान परिषद के कुछ सदस्यों को गवर्नर मनोनीत करता था।
  •  विधानमंडल को वार्षिक बजट में परिवर्तन करने का अधिकार था लेकिन गवर्नर उसे फिर से यथावत कर सकता था।
  •  प्रांतीय विषयों पर कानून बनाने, मंत्रियों से प्रश्न पूछने और अविश्वास प्रस्ताव स्वीकार करके उन्हे उनके पद से वंचित करने का अधिकार विधानमंडल को था परंतु गवर्नर के अध्यादेश बनाने तथा विशेष अधिकारों के कारण विधानमंडल की शक्ति बहुत ही सीमित थी।
  •  लगभग 40% की (बजट का) जिन पर विधानमंडल मत का प्रयोग नहीं कर सकता था, गवर्नर का नियंत्रण था।

प्रांतीय विधानमंडल या प्रांतीय व्यवस्थापिका

11 प्रांतों में से 6 प्रांतों के विधानमंडल में द्विसदनीय व्यवस्था थी जैसे:- बाम्बे, मद्रास बंगाल, बिहार, असम व संयुक्त प्रांत में। एवं अन्य प्रांतों में एकसदनीय व्यवस्था थी। विधानमंडल के दोनों सदनों का नाम- विधानसभा एवं विधान परिषद (वर्तमान की अवधारणा की तरह) था।

विधानसभाओं में सीटों की संख्या निम्नवत तरीके से थी:- असम- 108, उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत- 50, उड़ीसा तथा सिंध- 60 – 60, मध्य प्रांत- 112, बिहार- 152, पंजाब और मुंबई- 175, मद्रास- 215, संयुक्त प्रांत- 228, बंगाल- 250।

इस अधिनियम में यह भी व्यवस्था की गई थी कि सांप्रदायिक तथा अन्य वर्गों को अलग प्रतिनिधित्व दिया गया था। यह व्यवस्था पूर्व में हुए ‘सांप्रदायिक निर्णय’ एवं ‘पूना समझौता’ को ध्यान में रखकर किया गया था।

इसमें यह व्यवस्था की गई थी कि मुस्लिम, यूरोपीय, एंग्लो-इंडियन, भारतीय ईसाई और सिक्ख के लिए अलग-अलग मतदाता मंडल बनाकर इन्हें साधारण निर्वाचन क्षेत्र में मत देने का अधिकार दिया गया। इनका कोई आरक्षित सीट नहीं था। कुछ स्थानों में जनजातियों के लिए सीटें आरक्षित किए गए थे। साथ ही श्रमिकों, भूमिपतियों और वाणिज्य और उद्योग के लिए भी अलग-अलग स्थान का प्रावधान किया गया था।

पढ़ें:- भारतीय संविधान के प्रस्तावना

उद्देश्य

भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) के निम्नलिखित उद्देश्य थे:-

  •  संघ की स्थापना करना था।
  •  देसी रियासतों को देश के संवैधानिक ढांचे में लाना था।
  •  भारतीय उदारवादी एवं राष्ट्रवादी नेताओं के समर्थन को जीतना था।
  •  भारतीय सेना, वित्त, विदेशी संबंधों पर नियंत्रण रखना था।
  •  मुस्लिम समर्थन को जीतना था।
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को कमजोर बनाने का प्रयास था।

भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) की विशेषताएं

भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) की निम्नलिखित मुख्य विशेषताएं थी

  1. भारत में एक अखिल भारतीय संघ की स्थापना की घोषणा की गई। जो कि कभी लागू नहीं हो सकी।
  2. संघ के लिए द्वैध शासन की व्यवस्था की गई जैसी व्यवस्था हमें 1919 ईस्वी के अधिनियम द्वारा प्रांतों में देखने को मिलता है।
  3.  शासन के समस्त विषयों को तीन सूची में विभाजित किया गया- संघीय, राज्य व समवर्ती।
  4.  प्रांतों में प्रांतीय स्वायत्तता की शुरुआत एवं प्रांतों की द्वैध शासन जो 1919 ई के कानून द्वारा शुरुआत की गई थी समाप्त कर दी गई।
  5.  रिजर्व बैंक की स्थापना 1 अप्रैल 1935 की गई। (इसकी स्थापना बैंक ऑफ इंडिया एक्ट 1934 के अनुसार हुई इसमें बाबासाहेब आंबेडकर ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई एवं उन्हीं के दिशानिर्देशों या निर्देशक सिद्धांत के आधार पर भारतीय रिजर्व बैंक बनाई गई थी।)
  6.  संघीय न्यायालय की स्थापना 1935 के अधिनियम के तहत 1 अक्टूबर 1937 को किया गया।
  7.  संघीय लोक सेवा आयोग, प्रांतीय लोक सेवा आयोग और संयुक्त लोक सेवा आयोग की स्थापना की गई।
  8.  वर्मा तथा अदन को भारत के शासन से अलग कर दिया गया।
  9.  सिंध तथा उड़ीसा दो नए प्रांत बनाए गए।
  10.  गवर्नर जनरल (केंद्रीय का प्रमुख) एवं गवर्नर (प्रांत का प्रमुख) को उत्तरदायित्व दिए गए जैसे- भारत ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा, शांति, ब्रिटिश सम्राट एवं देसी नरेशों के सम्मान की रक्षा, विदेशी आक्रमण से रक्षा आदि।
  11.  निर्वाचन में संप्रदायिक प्रणाली ही अपनाई गई।

पढ़ें:- भारतीय संविधान के प्रस्तावना की तत्व/आदर्श/लक्ष्य

भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) की आलोचना

इस अधिनियम में कई ऐसी बातें थी जिसके कारण भारतीयों द्वारा इसकी आलोचना की गई। जवाहरलाल नेहरू ने इस अधिनियम को “दासता का घोषणा पत्र” कहा था।

वास्तव में देखा जाए तो सत्ता नाम मात्र के लिए ही भारतीयों को हस्तांतरित की गई थी शासन की समस्त शक्ति तो केंद्र में गवर्नर जनरल और प्रांत में गवर्नर के पास थी। व्यवस्थापिका के सलाह को मानना बाध्यकारी नहीं था जब चाहे गवर्नर जनरल ठुकरा सकता था।

इस अधिनियम में अखिल भारतीय संघ की स्थापना की बात कही गई थी एवं जिस तरीके से संघ के निर्माण की बात कही गई थी वहा असंभव था। जैसे- शक्तियों का विभाजन, संविधान जो बहुत कठोर थी एवं न्यायिक प्रणाली काफी जटिल थी जिस कारण संघ की स्थापना संभव नहीं हो सकी। संघ में प्रांतों एवं देसी नरेशों को शामिल होने के लिए जो शर्तें रखी गई वह भी बहुत जटिल थी।

भारतीय व्यवस्थापिका (विधानमंडल) को विधायक में संशोधन का अधिकार भी प्राप्त नहीं था सारी अवशिष्ट शक्तियां गवर्नर जनरल के पास थी।

प्रांतों में भी हमें कई कमियां देखने को मिलती है। नाम मात्र के लिए प्रांतों को स्वायत्तता दी गई थी सारी विशेष शक्तियां तो प्रांतों के प्रमुख गवर्नर के पास ही थी। संप्रदायिक पद्धति जो निर्वाचन के लिए अपनाए गए वह दोषपूर्ण होते हुए भी उसे लागू कर इसका विस्तार भी किया गया। वास्तव में इससे भारत का न ही प्रगति हो सकती थी और न ही भलाई।

यह अधिनियम ब्रिटिश संसद ने बनाई थी एवं इसका भारत के विकास से कोई लेना-देना नहीं था। इस मामले में एटली का कथन सटीक बैठता है कि- “भारत सरकार अधिनियम 1935 में भारत के भविष्य की राजनीतिक प्रगति का कोई कार्यक्रम नहीं।”

निष्कर्ष

अंततः हम देखते हैं कि इस अधिनियम में जो संघीय शासन की परिकल्पना की गई थी वो पूर्ण नहीं हो पाया और केंद्रीय सरकार 1919 की अधिनियम के अनुसार ही चलती रही। कई कार्य थे जिसे लागू कर दिया गया जैसे- संघीय न्यायालय की स्थापना एवं प्रांतीय स्वायत्तता अप्रैल 1937 में अस्तित्व में आई।

केंद्रीय बैंक की भी स्थापना 1935 में ही कर दी गई। इतने कार्य होने के बावजूद भी हम कर सकते हैं कि भारत सरकार अधिनियम 1935 (Government of India Act 1935) भारतीय हित में नहीं था पूरी व्यवस्था का सर्वेसर्वा केंद्र में गवर्नर जनरल और प्रांत में गवर्नर के हाथ में था। ये जो चाहते वही कर सकते थे अतः भारतीय महापुरुषों ने अपनी सत्याग्रह जारी रखी।

Hussainara Khatoon vs State of Bihar (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य मामला) मामला भारत में जनहित याचिका का पहला रिपोर्ट किया गया मामला था क्लिक करें

जनहित याचिका से संबंधित प्रमुख मामले पढ़ने के लिए क्लिक करें

केशवानंद भारती और केरल राज्य मामला (1973)

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)

ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950)

एडीएम जबलपुर केस (1976)

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