Hussainara Khatoon vs State of Bihar in Hindi (1979) | हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य मामला
भूमिका
Hussainara Khatoon vs State of Bihar (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य मामला) जनहित याचिका से लड़ा गया मामला है इस मामले के बाद ही भारत में जनहित याचिका की शुरुआत हुई। Hussainara Khatoon vs State of Bihar (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य मामला) मामला भारत में जनहित याचिका का पहला रिपोर्ट किया गया मामला था इसमें जेलों में रह रहे विचाराधीन कैदियों पर किये जा रहे अमानवीय बर्ताव पर प्रकाश डाला गया था क्योंकि ये विचाराधीन कैदी जो थे इन्हें अपने अपराध की सजा से अधिक समय तक जेलों में रहना पड़ रहा था।
अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से “विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया” के अनुसार ही वंचित किया जाएगा अन्यथा नहीं”। इसका मतलब यह है कि किसी व्यक्ति पर कोई ऐसा शारीरिक उत्पीड़न नहीं कर सकता जिसका विधिक औचित्य न हो। जब राज्य या उसका कोई अभिकर्ता किसी व्यक्ति को उसकी दैहिक स्वतंत्रता से वंचित तभी कर सकता है जब इसकी कार्यवाही औचित्य हो एवं इस कार्यवाही के समर्थन में कोई विधि हो और विधि का कठोरता से एवं श्रद्धापूर्वक पालन किया गया हो।
अतः राज्य को चाहिए कि प्रत्येक पीड़ित व्यक्ति को शीघ्र परीक्षण की गारंटी दी जाए। अनुच्छेद 39 (A) में गरीबों और असहाय को कानूनी सहायता एवं न्याय का अधिकार देता है क्योंकि देखा जाए तो भारत में काफी बड़ी संख्या में लोग न्याय के लिए लड़ पाने में असमर्थ हैं और कुशल वकीलों को अपने लिए नियुक्त नहीं कर सकते हैं।
ऐसा ही यह केस भी था जो भारत में शीघ्र परीक्षण के अधिकार के लिए लड़ा जाने वाला एक ऐतिहासिक मामला था
हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य (Hussainara Khatoon vs State of Bihar) मामला क्या था?
1977 में 3 साल के लिए एक नेशनल पुलिस कमीशन बनाया गया जिसमें एक सदस्य थे आरव रुस्तम। रुस्तम इसी कमीशन के रिपोर्ट के मामले में बिहार की जेलों में गए और उन्होंने मुजफ्फरपुर और पटना की जेल में ऐसे बहुत से अंडरट्रायल प्रीजिनर्स (विचाराधीन कैदी) के मामले हैं जिनके अभी ट्रायल भी शुरू नहीं हुई है जबकि उन पर जो अपराध का आरोप है और उसकी जो सजा है उससे भी अधिक दिनों से जेल में रह रहे थे।
अतः रुस्तम जी ने अपने रिपोर्ट इंडियन एक्सप्रेस में दो भागों में जनवरी 1979 में छापते हैं। जब यह खबर प्रकाशित होती है तो दिल्ली के सुप्रीम कोर्ट के वकील पुष्पा कपिला हिंगोरानी रिपोर्ट को देखती है और उस रिपोर्ट को देखने के बाद उसे लगता है कि तुरंत ही उन्होंने अंडरट्रायल प्रीजिनर्स (विचाराधीन कैदी) के लिए कुछ करना चाहिए।
इस समय तक जनहित याचिका का कोई भी केस सामने नहीं आया था हलांकी एक दो बार सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट में इसका जिक्र हुआ था। तब तक हम यह कह सकते हैं कि जनहित याचिका शुरू नहीं हुई थी।
यह पहला केस था जिसमें पब्लिक के लिए पुष्पा कपिला हिंगोरानी ने कुछ करना चाहा। इस समय भारत में यह कानून प्रचलित थी कि अपराध होने की स्थिति में केवल पीड़ित या पीड़ित व्यक्ति के रिश्तेदार ही अदालत में याचिका दायर कर सकते थे। इस बात की अनदेखा करते हुए पुष्पा कपिला हिंगोरानी ने अपना नाम का इस्तेमाल किए बगैर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष बंदी प्रत्यक्षीकरण का एक रिट दायर की।
बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट क्या है?
यहां पर यह भी जानना जरूरी है कि बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट क्यों दायर की जाती है क्योंकि एक पीड़ित व्यक्ति को गैरकानूनी कैद से बचाया जा सके। बंदी प्रत्यक्षीकरण एक प्रकार का कानूनी आज्ञा पत्र होता है जिसके द्वारा किसी गैर कानूनी तरीके से गिरफ्तार व्यक्ति को रिहाई मिल सके। इसके द्वारा कोर्ट यह आदेश जारी करता है कि बंदी को अदालत में पेश कर उसके विरूद्ध लगे हुए आरोपों को अदालत के समक्ष पेश किया जाए। अतः बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट द्वारा पीड़ित व्यक्ति स्वयं या उसका वकील कोर्ट में याचना करके रिहाई पा सकता है।
साथ ही साथ उन्होंने इन लोगों से बिना बातचीत किए एवं एफिडेविट (हलफनामा) लिए सुप्रीम कोर्ट में जनकल्याणकारी भावना से प्रेरित होकर याचिका दायर किया जबकि उस रिपोर्ट में नाम सहित 17 लोगों का जिक्र था हिंगोरानी जी चाहती तो उनसे बातचीत कर सकती थी लेकिन उसे लगता था कि बातचीत करने से और हलफनामा लेने से बहुत अधिक समय लगेगा।
अपना नाम का इस्तेमाल भी वह नहीं करती है और जो रिपोर्ट में जिन नामों का जिक्र हुआ था उन नामों में से ही एक नाम हुसैनारा खातून और अन्य के नाम से याचिका दायर करती है। और यही मामला हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य के नाम से जाना जाता है।
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केशवानंद भारती और केरल राज्य मामला (1973)
गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)
ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950)
हुसैनारा केस (Hussainara Khatoon vs State of Bihar) में सुप्रीम कोर्ट का फैसला
इस समय तक पुष्पा कपिला हिंगोरानी के पास कुछ भी इनके बारे में जानकारी नहीं थी सिर्फ और सिर्फ इंडियन एक्सप्रेस में छपी रिपोर्ट ही उसका आधार था। जब हिंगोरानी याचिका दायर करने जाती है तो रजिस्ट्रार उसे रोकता है तो वह कहती है कि उसके पास इतना ही डिटेल है और इसी डिटेल के साथ जजों के सामने लेकर आयें।
यह केस सुप्रीम कोर्ट के बोर्ड के सामने आती है और इस केस को पी एन भगवती की बेंच देखती है और सुप्रीम कोर्ट के द्वारा बिहार सरकार को नोटिस दे दी जाती है लेकिन बिहार सरकार के तरफ से कोई भी हाजिर नहीं हुआ इसके बाद सुप्रीम कोर्ट में कई सुनवाई होती है। और इस केस के दो मुख्य नतीजे निकल कर सामने आए:-
(1) अनुच्छेद 21 के तहत:- राइट टू स्पीडी ट्रायल यह प्रिजनर्स (कैदी) को संविधान द्वारा दिया गया अधिकार है।
(2) अनुच्छेद 39(A) के तहत:- फ्री लीगल एड का जिक्र करते हुए कि अगर कोई व्यक्ति गरीब है और अपने लिए कोई वकील नहीं कर सकता है तो सरकार का दायित्व है कि उसके लिए फ्री लीगल एड मुहैया कराए। ताकि उसे जेल में लंबे समय तक रहना ना पड़े।
इस केस दो महत्वपूर्ण बातें निकल कर सामने आई:- (1) राइट टू स्पीडी ट्रायल और (शीघ्र परीक्षण का अधिकार) (2) फ्री लीगल एड (कानूनी सहायता)
इसके अलावा इस केस के कारण जो कि बिहार के जेलों में अधिक भीड़ और साथ ही जिनके अपराध की सजा 6 माह या 1 साल की हो और वह तीन-चार साल तक जेल में बंद हो और उनका ट्रायल अभी शुरू भी ना हुआ हो उन्हें राहत दी गई। बहुत से महिलाएं एवं बच्चे थे जिन्हें प्रोटेक्टिव कस्टडी के रूप में रखा गया था जिनको बाद में उनके लिए भी यह आदेश दिया गया कि उन्हें शेल्टर होम या प्रोटेक्शन होम में रखा जाए बजाय इसके कि प्रोटेक्टिव कस्टडी के नाम पर उन्हें जेल में रखें।
इस केस में जिन 17 लोगों के नाम थे उन्हें तुरंत जेल से छोड़ने का आदेश दिया गया एवं यह भी कहा गया कि:- बिहार के जिलों में जितने भी अंडर ट्रायल प्रिजनर्स है उनके बारे में संपूर्ण जानकारी सुप्रीम कोर्ट को दिया जाए एवं कौन व्यक्ति कितने दिनों से जेल में है एवं कौन सा व्यक्ति किस ऑफेंस में है और उसकी कितनी सजा बनती है।
इन सारी अंडर ट्रायल प्रिजनर्स के जानकारी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अलग-अलग आदेश में अंडर ट्रायल्स प्रिजनर्स (विचाराधीन कैदी) को जेल से छोड़े जाने के आदेश दिए। हालांकि इस केस में बिहार के सरकार ने भी जितना जल्दी हो सके सुप्रीम कोर्ट के आदेश को अनुपालन करने की कोशिश की। साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि बिहार के जिलों की जो स्थिति है वह बहुत अच्छी नहीं है।
इसके लिए डी जी पी को आदेश देकर एक स्टैंडर्ड गाइडलाइन अंडर ट्रायल प्रिजनर्स (विचाराधीन कैदी) के स्पीडी ट्रायल (शीघ्र परीक्षण) के संबंध में और छोड़े जाने के संबंध में दी।
इसके बाद हिंगोरानी जी ने इसे पूरे भारत के कैदियों के लिए करना चाहा एवं सुप्रीम कोर्ट ने इस पर हस्तक्षेप करने से मना कर दिया और कहा कि ऐसे दूसरे राज्य से एक भी केस लेकर आइए कि जिसमें ऐसा कोई कैदी हो, जो अपराध की सजा दी गई समय से ज्यादा काट रहा हो।
इस तरह से बाद में पुष्पा कपिला हिंगोरानी ने 7 और ऐसे राज्यों के केस लेकर सुप्रीम कोर्ट आई और इन्हीं के प्रयास से देशभर में तकरीबन 40000 विचाराधीन कैदी जेल से रिहा किए गए।
इस केस के बाद में सुप्रीम कोर्ट ने गाइडलाइन जारी करते हुए कहा कि अधिक दिनों तक कैदी जेलों में ना रहें इसके लिए सरकार द्वारा जज मुहैया कराया जाए। एवं छोटे-मोटे अपराधी को पर्सनल बांड पर बेल (जमानत) दिया जाए ताकि अनावश्यक जेल में ना रहना पड़े। और ऐसा करते हुए 1979 में जो कि शुरू हुआ वह 1995 में जाकर खत्म हुआ।
इस तरह पुष्पा कपिला हिंगोरानी द्वारा दायर रिट याचिका भारत में जनहित याचिका का पहला मामला (Hussainara Khatoon vs State of Bihar) था। एवं इसके बाद से हिंगोरानी जी को जनहित याचिका की जननी के रूप में जाना जाने लगा।