Political science

sankari prasad vs union of india (1951) | शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार

भूमिका

sankari prasad vs union of india (शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार) मामले का संबंध मौलिक अधिकार और प्रथम संविधान संशोधन (1951) से है इस मामले में शंकरी प्रसाद ने सरकार की जमींदारी व्यवस्था को खत्म करने पर पहले हाईकोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट पर याचिका दायर की। तो आइए sankari prasad vs union of india (शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार) मामले को विस्तारपूर्वक जानेंगे।

ब्रिटिश काल में भारत में अंग्रेजों ने राजस्व इकट्ठा करने के लिए जो व्यवस्था बनाई थी उसमें जमींदारी प्रथा की  सबसे बड़ी भूमिका थी। अतः अंग्रेजों ने जमीन के बड़े हिस्से को किसी खास व्यक्ति को देख कर उसे जमींदार बना दिया।

अंग्रेजों ने इसी तरह से दो और व्यवस्था बनाए:- रैयतवाड़ी और महालवाड़ी व्यवस्था। जमींदारी व्यवस्था में जमीन का मालिकाना हक जमींदार को दे दिए गए। रैयतवाड़ी व्यवस्था में जमीन का मालिकाना हक किसान को दे दिया गया। जबकि महालवाड़ी व्यवस्था में जमीन का मालिकाना हक गांव के पास था।

sankari prasad vs union of india

अतः सबसे ज्यादा संपत्ति का केंद्रीकरण हमें जमींदारी व्यवस्था में देखने को मिलती है। जिसमें जमींदार अर्थात एक व्यक्ति को जमीन का मालिक बना दिया गया एवं बाकी बचे लोग अपने ही जमीन में श्रमिक बन गए। इस व्यवस्था से बड़े पैमाने पर शोषण होते थे।

भारत के आजादी के बाद संविधान निर्माताओं ने संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार में शामिल कर दिया। परंतु धीरे-धीरे यह बात निकलकर सामने आई कि सरकार ज्यों ही जनकल्याण कार्य (समता मूलक कार्य) के लिए जमीन अधिग्रहण कर लेती त्यों ही लोग अपने मौलिक अधिकार हनन को लेकर सुप्रीम कोर्ट चले जाते। क्योंकि संपत्ति का अधिकार पहले मौलिक अधिकार में आता था।

अतः सरकार यह कदम उठाया की भूमि अधिनियम (जमींदार उन्मूलन एक्ट) लाकर जमींदारी व्यवस्था खत्म कर दिया। ठीक इसी समय जो बिहार के जमींदार थे शंकरी प्रसाद जिनके पास बहुत अधिक जमीन था इन्होंने प्रथम संविधान संशोधन पर ही सवाल खड़ा करते हुए कि अनुच्छेद 13 (बी) के तहत दिए गए मौलिक अधिकार का हनन का हवाला देते हुए पटना हाईकोर्ट चले गए।

प्रथम संविधान संशोधन (1951)

यहां हमें यह जानना जरूरी है कि प्रथम संविधान संशोधन में हुआ क्या था?:-

  1.  राज्य को शक्ति है कि सामाजिक एवं आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग के लिए विशेष उपबंध बना सकती है
  2.  कानून की रक्षा के लिए संपत्ति अधिग्रहण आदि की व्यवस्था।
  3.  भूमि सुधार कानून एवं न्यायिक समीक्षा से जुड़े अन्य कानून को 9वीं अनुसूची में डाल दिया गया। अर्थात 9वीं अनुसूची में डाले गए कानून के खिलाफ कोई भी कोर्ट नहीं जा सकता।
  4.   अनुच्छेद 31 में दो खंड जोड़ दिए गए 31(ए)और 31(बी)

अनुच्छेद 31(ए) में यह प्रावधान किया गया कि राज्य किसी की भी जमीन ले सकता है और

अनुच्छेद 31(बी) में यह प्रावधान किया गया कि 9वीं अनुसूची को वाद योग्य नहीं बनाया गया अर्थात 9वीं सूची में डाले गए कानून को न्यायिक पुनरावलोकन से बाहर रखा गया।

दूसरी ओर अनुच्छेद 13 भी मौलिक अधिकार को संरक्षण देता है इधर संविधान संशोधन अधिनियम, संविधान के भाग 3 में उल्लेखित मौलिक अधिकारों को छीनता एवं कम करता है जो अनुच्छेद 13(2) के अंतर्गत संवैधानिक रूप से निषिध है।

अतः यहां अनुच्छेद 13 को भी जान लेना आवश्यक है:-

अनुच्छेद 13(1) मूल अधिकार से संबंधित कोई भी कानून आजादी के पहले या बाद में भी या संसद के द्वारा भी कोई कानून बनाया गया हो या भविष्य में बनाया जाएगा और इससे मौलिक अधिकार हनन होता हो तो वह स्वतः समाप्त हो जाएगा। इसे अच्छादन का सिद्धांत भी कहा जाता है।

अनुच्छेद 13(2) राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बनाएगा जो इस भाग द्वारा प्रदत्त अधिकारों को छीनता हो या कम करता हो। और इस खंड के उल्लंघन में बनाई गई प्रत्येक विधि के उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगा अर्थात कानून जितनी मात्रा में मौलिक अधिकार का हनन कर रहा हो उतना हिस्सा स्वतः समाप्त हो जाएगा। और अगर उतना हिस्सा को हटाने पर उस कानून का महत्व अगर खत्म हो जाता है तो वह पूरा कानून ही समाप्त हो जाएगा। इसे पृथक्करण का सिद्धांत भी कहते हैं।

शंकरी प्रसाद इसी अनुच्छेद का हवाला देकर हाईकोर्ट चले गए थे क्योंकि यहां पर साफ-साफ लिखा गया है कि राज्य ऐसी कोई भी विधि नहीं बनाएगा जो मौलिक अधिकारों को छीनता हो।

अनुच्छेद 13(3) इस अनुच्छेद में ‘विधि’ को परिभाषित किया गया।

(क) ‘विधि’ के अंतर्गत भारत के राज्य क्षेत्र में विधि का बल रखने वाला कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रुढ़ी या प्रथा है। अर्थात अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, विनियम, अधिसूचना, रुढ़ी या प्रथा ये सभी विधि कहलायेंगे। यहां प्रश्न यह उठता है कि विधि के अंतर्गत संविधान संशोधन है कि नहीं?

यदि संविधान संशोधन विधि है तो अनुच्छेद 13(2) के तहत मौलिक अधिकार को हनन करने वाली जितनी हिस्सा है उतना स्वतः खत्म हो जाएगा।

(ख) ‘प्रवृत्त विधि’ के अंतर्गत भारत के राज्य क्षेत्र में किसी विधानमंडल या अन्य सक्षम प्राधिकारी द्वारा इस संविधान के प्रारंभ से पहले पारित या बनाई गई विधि है जो पहले ही निरसित नहीं की गई हो, चाहे ऐसी कोई विधि या उसका कोई भाग उस समय पूर्णतया या विशिष्ट क्षेत्रों में प्रवर्तन में नहीं है।

अनुच्छेद 13(4) 44 वाँ संविधान संशोधन कर  अनुच्छेद13(4) जोड़कर या स्पष्ट कर दिया कि कोई बात अनुच्छेद 368 के अधीन किए गए इस संविधान के संशोधन में लागू नहीं होगी।

लेकिन केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट स्वीकार करता है कि संविधान संशोधन भी विधि के अंतर्गत कानून माना जाएगा। और स्पष्ट कर दिया कि संविधान संशोधन तो कर सकते हैं लेकिन संविधान के मूलभूत ढांचे को बिना क्षति पहुंचाए।

42 वें संविधान संशोधन द्वारा  अनुच्छेद 368(4) भी जोड़ा गया और कहां गया कि संविधान के किसी भी हिस्से में विधायिका के द्वारा संशोधन किया जाता है तो न्यायपालिका उसका पुनरावलोकन नहीं कर सकती यानि न्यायपालिका के दायरे से बाहर है।

24 वां संविधान संशोधन द्वारा स्पष्ट कर दिया गया कि कोई भी संविधान संशोधन करके बिल राष्ट्रपति के पास भेजने पर राष्ट्रपति वीटो का इस्तेमाल नहीं कर सकता अर्थात रोक नहीं सकता। उस पर तुरंत हस्ताक्षर करने के लिए बाध्य है।

लेकिन विधायिका द्वारा 368 में संशोधन द्वारा अनुच्छेद 13 के द्वारा प्रदत सुप्रीम कोर्ट के पुनरावलोकन की शक्ति को खत्म करनी चाही तो सुप्रीम कोर्ट ने केशवानंद भारती केस एवं मिनर्वा मिल केस में बोला कि न्यायिक पुनरावलोकन संविधान का आधारभूत ढांचा है इसलिए आप न्यायपालिका की न्यायिक पुनरावलोकन करने की शक्ति को नहीं छीन सकते चाहे वो संविधान संशोधन बिल ही क्यों न हो।

बेरुबारी संघ मामला (1960) जानकारी के लिए पढ़ें।

विरोधाभास की स्थिति

अनुच्छेद 31(ए) संपदाओं आदि के अर्जन के लिए उपबंध करने वाली विधियों की व्यावृत्ति को अनुच्छेद 13 में अंतर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी अर्थात इसमें संपत्ति के अर्जन का अधिकार दिया गया है इसमें अनुच्छेद 13 कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता है।

अनुच्छेद 31(बी) कुछ अधिनियम और विनियमों का विधिमान्यकरण अनुच्छेद 31(क) में लिखी गई उपबंधों की व्यापकता पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना नवीं अनुसूची में विनिर्दिष्ट अधिनियम और विनियमों में से और उनके उपबंधों में से कोई इस आधार पर शून्य या कभी शून्य हुआ नहीं समझा जाएगा की वह अधिनियम विनियम या उपबंध इस भाग के उपबंधों द्वारा प्रदत्त अधिकारों में से किसी से असंगत है या उसे छीनता या न्यून करता है।

अर्थात अनुच्छेद 13 के खिलाफ जाकर अनुच्छेद 31(बी) खड़ा हो गया। अनुच्छेद 13 कहता है कि कोई भी कानून यदि मौलिक अधिकार का हनन करता हो तो वह कानून स्वतः समाप्त हो जाएगा। और अनुच्छेद 13(बी) कहता है कि कोई भी कानून यदि नवीं अनुसूची में है तो वह न्यायिक पुनरावलोकन से बाहर है। अतः उसे असंवैधानिक घोषित नहीं किया जा सकता।

जनहित याचिका क्या है? अधिक जानकारी के लिए पढ़ें

नोट:- पहले अनुच्छेद 31 में संपत्ति का अधिकार था अब 44वाँ संविधान संशोधन द्वारा इसे अनुच्छेद 300(ए) में रख दिया गया और यह व्यवस्था दिया गया कि बिना विधिक प्रक्रिया के संपत्ति के अर्जन का अधिकार नहीं छीना जा सकता।

अनुच्छेद 19(F) में भी संपत्ति रखने का स्वतंत्रता का अधिकार का वर्णन था इसे भी खत्म कर दिया गया।

शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार (sankari prasad vs union of india) मामले में हाई कोर्ट का फैसला

इस मामले में पटना हाईकोर्ट ने इसे मौलिक अधिकार का हनन माना। और पटना हाईकोर्ट ने भूमि सुधार कानून को असंवैधानिक माना। देश के अन्य हाईकोर्ट ने भूमि सुधार कानून को संवैधानिक माना जिसमें से इलाहाबाद, नागपुर उच्च न्यायालय थे। इलाहाबाद कोर्ट ने माना कि मौलिक अधिकार का हनन नहीं हो रहा है यह कानून संपत्ति का विनियमन कर रहा है ना कि उसे छीन रहा है।

नागपुर हाई कोर्ट से भी यही फैसला निकल कर सामने आया। इस समय देश के अलग-अलग हिस्से से भूमि सुधार कानून के खिलाफ की गई याचिका में अलग-अलग फैसले निकल कर सामने आए। कोई हाईकोर्ट इसे संवैधानिक घोषित कर रहा था तो कोई हाईकोर्ट इसे असंवैधानिक घोषित कर रहा था ऐसे में शंकरी प्रसाद सुप्रीम कोर्ट चले गए।

शंकरी प्रसाद बनाम भारत सरकार (sankari prasad vs union of india) मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला

शंकरी प्रसाद का मामला सुप्रीम कोर्ट में जाने के बाद प्रथम संविधान संशोधन को सुप्रीम कोर्ट ने संवैधानिक माना।

एवं संविधान संशोधन को विधि के अंतर्गत नहीं माना अर्थात संविधान संशोधन को कानून नहीं माना। अतः जब संविधान संशोधन कानून ही नहीं है तो अनुच्छेद 13(बी) लागू नहीं होता क्योंकि अनुच्छेद 13(बी) कहता है कि सरकार द्वारा बनाया गया कानून जो आजादी से पहले या बाद में यदि मौलिक अधिकार का हनन करता है तो वह स्वतः समाप्त हो जाएगा।

जबकि सुप्रीम कोर्ट संविधान संशोधन को कानून ही नहीं माना तो अनुच्छेद 13(बी) लागू नहीं होता है एवं मौलिक अधिकार हनन की स्थिति में भी संविधान संशोधन को अवैध घोषित नहीं किया जा सकता। क्योंकि इस संविधान संशोधन को केवल संपत्ति के नियमन के लिए बनाया गया था न की संपत्ति के अधिकार को छीनने या उल्लंघन करने के लिए।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- संपत्ति के अधिकार को नहीं छीना गया है। यह काम विधायिका का था जो कि 1978 में संविधान संशोधन लाकर संपत्ति के अधिकार कानून अनुच्छेद 31 को खत्म कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा- इस संविधान संशोधन (प्रथम संविधान संशोधन 1951) द्वारा समावेशी विकास की प्रक्रिया के सहायक के रूप में देखा गया है। यानि देश में समावेशी विकास सभी तक पहुंचाने का काम किया जाएगा।

इसके माध्यम से राष्ट्र के विकास प्रक्रिया के महत्व के अंतर्गत ही जमींदारी उन्मूलन में आवंटित भूमि का प्रयोग कृषि हेतु सभी लोगों में वितरित किया जाएगा।

Hussainara Khatoon vs State of Bihar (हुसैनारा खातून बनाम बिहार राज्य मामला) मामला भारत में जनहित याचिका का पहला रिपोर्ट किया गया मामला था क्लिक करें

जनहित याचिका से संबंधित प्रमुख मामले पढ़ने के लिए क्लिक करें

केशवानंद भारती और केरल राज्य मामला (1973)

गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967)

ए के गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950)

एडीएम जबलपुर केस (1976)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button